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पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5358
आईएसबीएन :0000

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पाणिग्रहण

Panigrahan

कागजी संस्करण

पहला परिच्छेद
1

संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत के प्रभाव के कारण प्रतीची विचारों से प्रभावित इन्द्रनारायण तिवारी की मानसिक अवस्था एक समस्या बनी रहती थी।
इन्द्रनारायण के पिता रामाधार तिवारी जिला उन्नाव के एक छोटे से गाँव दुरैया में पुरोहिताई करते थे। दुर्गा, चंडी-पाठ, भागवत-पारायण, रामायणादि की कथा तो पुरोहितजी का व्यवसाय था। इसके अतिरिक्त घर पर भी पूजा पाठ होता रहता था। पुरोहितजी के घर के साथ संयुक्त रघुनाथजी का मन्दिर था और उसमें भी कथा-कीर्तन चला करता था। इन्द्रनारायण के ये बचपन के संस्कार थे।
छठी श्रेणी में इन्द्रनारायण लखनऊ, अपने नाना के घर आ गया। उसको डी.ए.वी. स्कूल में भरती करा दिया गया। उसका नाना पंडित शिवदत्त दूबे नगर के वातावरण के कारण स्वतन्त्र विचारों का जीव था और उसके घर में रामाधार के घर से भिन्न वातावरण था।

अतः इन्दनारायण गाँव से

‘परमानन्द कृपाभजन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनुयायिनी देहू हमें श्रीराम।।’

गाता हुआ लखनऊ पहुँचा; परन्तु वहाँ के वातावरण में वह सुनने लगा था—

‘काबा हुआ तो क्या, बुतख़ाना हुआ तो क्या!’’

स्कूल में भी यदाकदा इन्द्र सुना करता था, ‘‘पत्थर की मूर्ति भला क्या शान्ति देगी; अतः भक्ति तो निराकार, निर्लेप, अनन्त, अमर, अजर इत्यादि गुणों वाले भगवान् की ही फलदायक हो सकती है।’’
गाँव में स्त्रियाँ—माँ, बहन, भाभी, काकी इत्यादि सम्बोधनों से पुकारी और स्मरण की जाती थीं। नगर में पाठ होता था—

‘उलझा है पाँव यार का जुलफे दराज में,
लो आप अपने दाव में सैयाद आ गया।’

इस प्रकार जन्मजात और बाल्यकाल में सम्भूत संस्कार मिट रहे थे और नवीन संस्कार बन रहे थे। इस पर भी पार्टी पर से पिछला लिखा समूल विलीन नहीं हो सका और इसी कारण नवीन लेख उग्र नहीं बन सका।
इन्द्रनारायण ने मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की तो उसके नाना ने फतवा दे दिया—‘‘कॉलेज में पढ़ा जाये।’’
कॉलेज में पढ़ाई का प्रलोभन अति प्रबल था। परन्तु पिता का विचार था कि काफी पढ़ लिया है और अब घर का कार्य सँभालने के लिये शास्त्र का अध्ययन करना चाहिये। माँ यद्यपि दूबेजी की लड़की थी, परन्तु अपने पति के घर के वातावरण से प्रभावित, अपने लड़के को, अब विवाह मन्दिर और पुरोहिताई का कार्य ही सँभालने की सम्मति दे सकी।
जब इन्द्रनारायण ने अपने माता-पिता की रुचि उन प्रलोभनों के, जो उसके नाना के आदेश से उत्पन्न हो गये थे, विपरीत देखी तो कहने लगा, ‘‘बाबा ! नानाजी कहते थे कि आप, माताजी तथा रमा और राधा सब लखनऊ भ्रमण के लिये आ जाओ।’’

‘‘वहाँ क्या है ?’’
‘‘वहाँ लखनऊ है। प्रान्त की राजधानी है। पढ़े-लिखे, धनी-मानी और उच्च पदवीधारी लोग रहते हैं। उनको देखना, मिलना और उनके बनाये नगर की शोभा का अवलोकन बहुत शिक्षाप्रद होगा।’’
यह युक्ति रामधार को नहीं जँची, परन्तु इन्द्रनारायण की माँ की अपने माता-पिता से मिलने की इच्छा जाग पड़ी और एक-दो दिन में ही परिवार एक सप्ताह के लिए लखनऊ जाने को तैयार हो गया।
मन्दिर का काम एक अन्य पंडितजी के हाथ में दे, रामाधार परिवार सहित इन्द्र के नाना के घर जा पहुँचा। शिवदत्त दूबे लाट साहब के दफ्तर में सुप्रिन्टेन्डेन्ट था। उस समय साढ़े पाँच सौ वेतन लेता था और निर्वाह बहुत भली-भाँति होता था। अपने कार्य से एक दिन की छुट्टी ले दूबेजी ने अपने जमाता को लखनऊ की सैर कराई। बच्चों को ले जाकर सिनेमा दिखाया और फिर एक दिन इन्द्रनारायण की कॉलेज की शिक्षा का प्रसंग चला दिया।

रामाधार का कहना था—‘‘इन्द्र ने कार्य तो पुरोहित का करना है। फिर भला बी. ए., एम. ए. बनकर क्या करेगा ?’’
‘‘रामाधार !’’ शिवदत्त ने अपने मन की बात कह दी, ‘‘जमाना तेजी से बदल रहा है। लोगों की श्रद्धा तथा भक्ति भगवान् से हट कर संसार की ओर लग रही है। जब तक इन्द्र सज्ञान होगा, तब तक तो मन्दिरों में आने वालों की संख्या शून्य हो जाएगी। मेरी बात मानो, जब तक तुम्हारा जीवन है, तुम यह पूजा-पाठ और कथा-कीर्तन का कार्य चलाओ। अपने बच्चों के भविष्य को काला क्यों कर रहे हो ?’’
अपने बच्चों का भविष्य काला करने की युक्ति ने रामाधार का मुख बंद कर दिया। मन तो नहीं माना था, परन्तु बुद्धि निरुत्तर हो चुकी थी। भगवान् के भक्तों की संख्या शून्य हो जाएगी। यह कथन वह गले से उतार नहीं सका था। परन्तु दिन-प्रतिदिन गाँव के लोगों की रुचि भी दूसरी ओर जाती देख, उसकी बुद्धि इस भविष्यवाणी को असत्य नहीं कह सकी।
उसने बुद्धि से उचित परन्तु मन की भावना के विपरीत बात कहने से बचने के लिए अपनी पत्नी, जो समीप ही बैठी थी, की ओर देखकर पूछ लिया, ‘‘भाग्यवान ! तुम क्या कहती हो ?’’
‘‘मैं कहती हूँ कि लड़के का विवाह हो जाना चाहिये। अब वह सोलह वर्ष का हो रहा है। शेष तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।’’

शिवदत्त हँस पड़ा। हँसकर कहने लगा, ‘‘अब तो लड़के के विवाह के लिए सोलह वर्ष की आयु कम मानी जाती है।’’
‘‘तो कितनी आयु ठीक मानी जाती है।’’
‘‘कम-से-कम पच्चीस। इस पर भी यदि लड़का कमाने योग्य न हो तो इससे भी बड़ी आयु में विवाह हो सकता है।’’
‘‘परन्तु पिताजी ! आपने अपना दामाद तो पन्द्रह वर्ष की आयु का ढूँढ़ा ही था ?’’
‘‘तब और आज की बात में अन्तर हो गया है। उस समय मन्दिर की आय निर्वाह के लिए पर्याप्त थी, परन्तु अब नहीं रही।’’
‘‘देखिए पिताजी ! हमारी आया तो बढ़ी है। घर का खर्चा अधिक हुआ तो आय भी अधिक हुई है और प्रतिवर्ष खा-पीकर कुछ-न-कुछ जमा हो रहा है।’’
‘‘परन्तु यह दिन-प्रतिदिन कम हो रहा है। एक दिन आने वाला है कि जब मन्दिर में उल्लू बोला करेंगे। ज्यों-ज्यों शिक्षा का प्रसार होता जायेगा, पूजा-पाठ छूटता जायेगा। और इसका स्थान सिनेमा आदि ले लेंगे।’’
इस कथन से रामधार और उसकी पत्नी को दुःख हुआ; साथ ही अपने लड़के के भविष्य की चिन्ता भी लग गयी।
‘‘परन्तु इन्द्र का विवाह तो हो ही जाना चाहिये।’’ माँ का कहना था।

‘‘अच्छी बात है। विवाह भी हो जायेगा। बहू गाँव में रहेगी और इन्द्र यहाँ रहकर पढ़ाई करेगा।’’
इस प्रकार समझौता हो गया। इन्द्रनारायण को कॉलेज में भरती कर दिया गया। पंडित शिवदत्त दूबे को इसमें एक लाभ प्रतीत हुआ था। उसका अपना छोटा लड़का विष्णु भी इन्द्रनारायण के साथ पढ़ता था। उसका विचार था कि दोनों लड़के इकट्ठे रहने में अधिक रुचि ले सकेंगे। दोनों को एक ही कॉलेज में भरती कराया गया।
दोनों थे तो मामा-भानजे, परन्तु दोनों की प्रकृति परस्पर नहीं मिलती थी। इन्द्रनारायण में अभी भी देहात के एक लड़के की सरलता विद्यमान थी और विष्णुस्वरूप नगर के आचार-विचार से औत-प्रोत था। एक में अभी भी एक पुरोहित के घर की धर्मपरायणता की छाया थी और दूसरे में एक जीवन-सुलभी के घर की गन्ध व्याप्त थी। अतः दोनों सम्बन्धी होते हुए तथा एक ही घर में रहते हुए भी भिन्न-भिन्न प्रकृति रखते थे।

यह भिन्नता स्कूल में तो स्पष्ट नहीं हुई, परन्तु कॉलेज में पहुँचते ही बढ़ने लगी। एक दिन विष्णु ने इन्द्र से कह दिया—‘‘देखो इन्द्र ! यह स्कूल नहीं है, जहाँ लड़कों की शिकायत लेकर मास्टरों के पास पहुँच गये तो मास्टर ने आकर लड़कों को डाँट दिया अथवा पीट दिया। यहाँ प्रथम तो तुम्हारी शिकायत कोई सुनेगा ही नहीं और यदि कोई सुनेगा भी तो तुम्हारी ही हँसी उड़ाई जायेगी। सब यह आशा करते हैं कि हम सब सज्ञान हो गए हैं। हमको अपने झगड़े स्वयं ही निपटाने चाहिये।’’
‘‘परन्तु मामा ! क्या मैंने पहले कभी किसी की शिकायत की है ?’’
‘‘देखो, मुझको मामा कहकर मत बुलाया करो।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘यहाँ यह गाली मानी जाती है। यदि तुम मुझको मामा कहकर सम्बोधित करोगे तो क्लास के सभी लड़के मुझको मामा-मामा पुकारने लगेंगे। यह सब मुझे पसन्द नहीं है।’’

‘‘परन्तु मैं तो तुम्हारा आदर करने के लिए इस प्रकार बुलाता हूँ। माँ तो तुमको मेरे मामा कहने पर बहुत प्रसन्न होती है।’’
‘‘परन्तु यहाँ तुम्हारी माँ पढ़ने नहीं आती। लड़के और लड़कियाँ सब तुम्हारी और मेरी हँसी उड़ायेंगे। नहीं इन्द्र ! तुम मुझको दादा कहकर पुकारा करो।’’
इन्द्रनारायण अब तक यह तो समझने लगा था कि नगर की बातें गाँव से भिन्न हैं, इस कारण वह चुप कर गया। उस दिन से उसका मामा विष्णु, दादा विष्णु हो गया।
कॉलेज में विष्णु की मित्र-मण्डली भी सर्वथा भिन्न थी। इन्द्र की कोई मित्र-मण्डली नहीं थी। यह भी कहा जा सकता है कि उसका कोई घनिष्ठ मित्र नहीं था। वह सबके साथ समान व्यवहार रखता था।
कॉलेज के लड़के अनेक प्रकार की बातें करते रहते थे, परन्तु इन्द्र से गूढ़ बात करने वाला कोई नहीं था।
एक दिन कॉलेज से लौटते समय इन्द्रनारायण ने विष्णु से पूछ ही लिया, ‘‘दादा ! मनोहर और मदन से बहुत छिप-छिपकर बातें होती हैं ?’’

‘‘हाँ।’’
‘‘क्या बातें होती हैं ? कुछ पढ़ाई के विषय में क्या ?’’
विष्णुस्वरूप हँस पड़ा। इन्द्रनारायण इस हँसी का अर्थ नहीं समझ सका। इस कारण वह प्रश्न-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखता रहा।
विष्णु ने बात टालने के लिये कह दिया, ‘‘यह तुम अपने विवाह के बाद समझ सकोगे।’’
‘‘तो तुम्हारा विवाह हो चुका है ?’’
विष्णु खिलखिलाकर हँसने लगा। इन्द्रनारायण अब सत्रह वर्ष का युवक था और समझता था कि पति-पत्नी परस्पर प्रेम करते हैं।
यद्यपि वह इस प्रेम का कोई क्रियात्मक रूप नहीं जानता था, परन्तु अपने बड़ों से कभी इस विषय पर बात न करने की शिक्षा पाने के कारण वह चुप कर गया। वह इस बात पर लज्जा अनुभव करने लगा था।
इन्द्रनारायण के मुख पर लाली आती देखकर तो विष्णु और भी अधिक जोर से हँसने लगा। इन्द्रनारायण ने निश्चय-सा कर लिया कि वह फिर इस विषय में विष्णु से बात नहीं करेगा।

इन्द्रनारायण की माँ ने उसके विवाह का प्रबन्ध कर लिया था और उसी की ओर ही विष्णुस्वरूप ने संकेत किया था।
इस पर भी, विवाह होने के पश्चात् भी इन्द्र को समझ नहीं आया कि उसका मामा अविवाहित होने पर भी ऐसी कौन-सी बातें करता है, जो विवाह होने के पश्चात् ही कोई लड़का जान सकता है।
वास्तव में इन्द्रनारायण की पत्नी की अभी ग्यारह वर्ष की भी नहीं हुई थी। अभी शारदा एक्ट पास नहीं हुआ था। भारत के देहातों में अभी भी अल्पायु में विवाह प्रचलित थे।
जब इन्द्रनारायण की पत्नी पहली बार ससुराल में आयी तो वह बेचारी लाल कपड़ों में लिपटी हुई, सिकुड़कर अपनी सास के पास बैठी रही। इन्द्रनारायण ने तो उसका मुख भी नहीं देखा था। उसके हाथों को देखकर वह अनुमान लगा रहा था कि वह गौरवर्णीय है। उसे उन गोरे हाथों पर मेहँदी का लाल रंग बहुत ही भला प्रतीत हुआ था। छोटे-छोटे उन हाथों को देखकर इन्द्रनारायण यह भी अनुमान लगा रहा था कि वह अभी बच्ची ही होगी।


पत्नी की अल्पायु के विषय में अनुमान का समर्थन तो उसी रात उसकी माँ ने कर दिया। घर में सम्बन्धी आये हुए थे और घर की लड़कियाँ, विशेष रूप से इन्द्र की बहन राधा अपनी भाभी के साथ सोने का आग्रह कर रही थी। यह आग्रह स्वीकार कर लिया गया था।
इन्द्र की पत्नी शारदा एक बड़े कमरे में, जिसमें फर्शी बिस्तर लगे थे और लड़कियाँ तथा घर की स्त्रियाँ सो रही थीं, सोने के लिए ले जाई गयी। वह दो लड़कियों—राधा और इन्द्रनारायण के काका की लड़की सुमन—के बीच में सुला दी गयी।
बाहर एक कमरे में रामाधार और उसकी पत्नी सौभाग्यवती आगे के कार्यक्रम पर विचार कर रहे थे। उसी कमरे की भूमि पर इन्द्रनारायण सोने के लिए लेटा हुआ था। उसको सोया हुआ समझ माता-पिता निःसंकोच बातें कर रहे थे। सौभाग्यवती ने कहा, ‘‘कल शारदा का भाई उसको ले जाने के लिये आयेगा। फिर वह गौना होने पर ही आयेगी।’’
‘‘कब होगा गौना ?’’

‘‘अभी वह साढ़े दस वर्ष की है। मैं समझती हूँ कि चौदहवाँ पार होने पर ही उसको लाना चाहिये।’’
‘‘तो फिर तुमने विवाह की इतनी जल्दी क्यों मचाई थी ?’’
‘‘हमारे धर्म में लड़की के रजस्वला होने से पूर्व विवाह हो जाना चाहिये।’’
‘‘ये गये जमाने की बातें हैं। आज इन बातों को कौन मानता है ! तुम्हारा तो विवाह से दूसरे दिन ही गौना हो गया था ?’’
‘‘हाँ; परन्तु मेरे माता-पिता मुझको विदा करने के लिए उत्सुक थे। नगरों में ऐसा ही होता है। और फिर स्मरण है, क्या हुआ था ?’’
इस पर रामाधार की आँखें लज्जा से झुक गयीं और सौभाग्यवती ने कहा था—‘मेरी चीखों की आवाज सुनकर आपकी माँ भीतर आ गयी थीं और तब कहीं मेरा छुटकारा हुआ था। पश्चात् दो मास तक हस्पताल में चिकित्सा होती रही थी।’’
रामाधार ने बात बदल दी। उसने पूछ लिया, ‘‘अब सम्बन्धियों को विदाई क्या देना चाहती हो ?’’
सौभाग्यवती ने एक लम्बी सूची कपड़ों और नकदी की सुना दी। रामाधर ने सब लिख लिया और कहा, ‘‘ठीक है, इतना कुछ तो देना ही चाहिये।’’


:2:



इन्द्रनारायण सो नहीं रहा था। वह अपने माता-पिता की सब बातें सुन, समझ रहा था। यह सुन कि पहली रात उसकी माता को अपने पति से इतना कष्ट हुआ था कि उसकी चीखें निकल गयी थीं, वह काँप उठा। इससे उसके मस्तिष्क पर, प्रथम मिलन का एक भयानक चित्र बन गया।
विवाह के उपरान्त वह अपने नाना-नानी और मामी-मौसियों के साथ लखनऊ ही लौट आया। विष्णु भी उसके विवाह पर गया था। वहाँ पर और मार्ग में, इन मामा-भानजे को पृथक् में बात करने का अवसर ही नहीं मिला। इन्द्रनारायण कुछ इसके लिए उत्सुक भी नहीं था कि किसी से विवाह के विषय में बात करे और वह यह यत्न कर रहा था कि विष्णु से तो एकान्त में बातचीत हो ही न सके।
जब श्रेणी के लड़कों को पता चला कि इन्द्रनारायण का विवाह हो गया है तो वे दावत माँगने लगे। इन्द्रनारायण दावत देने को तैयार था, पर कुछ लड़के यह जानने के लिए उत्सुक थे कि उसकी पहली रात कैसे बीती।
इन्द्रनारायण का कोई घनिष्ठ मित्र तो था ही नहीं। इस पर भी कुछ लड़कों ने उसको कॉलेज लॉन में घेर लिया और प्रश्न पर प्रश्न करने लगे।

‘‘क्यों इन्द्र ! बीवी कैसी है ?’’
‘‘एक कन्या है।’’ इन्द्र ने कह दिया।
इस पर सब हँसने लगे। प्रश्नकर्ता ने विस्मय में पूछ लिया, ‘‘तो क्या तुम किसी लड़के की आशा कर रहे थे ?’’
इस पर तो सब खिलखिलाकर हँस पड़े। इन्द्रनारायण को अपने उत्तर में कुछ भी हँसने की बात प्रतीत नहीं हुई थी और वह लड़के के दूसरे प्रश्न को तो सर्वथा अनर्गल मानता था। वह गम्भीर मुद्रा बनाये खड़ा रहा। जब सब खूब हँस चुके तो उसने उनका समाधान करने के लिए कह दिया, ‘‘कन्या से मेरी मतलब छोटी आयु की लड़की है। कन्या का विकल्प कुमारी होता है, लड़का नहीं।’’
‘‘ओह ! इस पर अन्य लड़का बोल उठा, ‘‘तो तुम्हारा अभी विवाह नहीं हुआ ?’’
‘‘विवाह तो हो गया है, पर गौना नहीं हुआ।’’

इस पर सब निराश हो चुप कर गए। सबके मुखों पर सहानुभूति की मुद्रा बन गयी। उनका मुख देख अब इन्द्रनारायण हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘गौना भी हो जायेगा, मुझको विश्वास है। आप सबके लिए दावत का प्रबन्ध हो ही जायेगा।’’
उसी सायंकाल कॉलेज से लौटते हुए विष्णु ने उसकी नाक में दम कर दिया। वह पूछने लगा, ‘‘तुमने अपनी पत्नी को देखा भी है या नहीं ?’’
‘‘देखा है।’’
‘‘कैसी थी ?’’
‘‘लाल कपड़े में बँधी हुई गठरी-सी।’’
विष्णु हँस पड़ा। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘अरे बुद्धू ! मैं उसके कपड़ों की बात नहीं कर रहा। मैं तो पूछ रहा हूँ उसका रंग, उसके नयन, उसके अधर, उसका मस्तक, उसकी चिबुक, ग्रीवा, छाती इत्यादि। मेरा मतलब है कि वह सुन्दर है क्या ?’’
‘‘मैंने उसके शरीर में हाथ-पाँव के अतिरिक्त कुछ नहीं देखा।’’

‘‘सच ही तुम देहाती गंवार हो। अब तुम्हारा गौना कब होगा ?’’
‘‘मुझको पता नहीं !’’
‘‘तो विवाह किसलिये कराया है ?’’
‘‘बुद्धिमान मामा विष्णुजी को मिठाई खिलाने के लिए।’’
‘‘हत्तेरे की ! मुझको मामा मत कहा कर। मैंने कई बार कहा है कि मुझको मामा कहकर सम्बोधित किया तो लड़ाई हो जायेगी।’’
‘‘तो तुम मामा बने क्यों हो ?’’
‘‘मैं नहीं बना। यह तो पिता जी ने तुम जैसे मूर्ख को भानजा बना दिया है।’’
‘‘तो बहन को घर पर रख छोड़ते।’’
मैं पिताजी स्थान पर होता तो बहन का विवाह तुम्हारे पिताजी से कभी न करता। लखनऊ में बहुत लड़के थे।’’
इन्द्रनारायण अभी भी मुस्करा रहा था और उसके मुस्कराने से विष्णु का क्रोध और भी बढ़ रहा था। इससे उसने क्रोध में पूछ लिया, ‘‘किस बात पर हँस रहे हो ?’’

‘‘अपने मामा की बुद्धिमत्ता पर। तुम अपने पिता के स्थान पर नहीं थे, तुम बाबा के घर पैदा नहीं हुए, यह तुम्हारे बाबा का दोष है और यदि तुम्हारी बहनजी का विवाह ‘दुरैया’ में हो गया तो तुम्हारे पिता का दोष है कि उन्होंने तुमसे राय किये बिना ऐसा क्यों कर दिया। कदाचित तुम उस समय पैदा ही नहीं हुए थे। इसमें मेरा क्या दोष ? मैं तो अब विष्णु का भानजा हो गया। अब क्या किया जाय ?’’

विष्णु था तो इन्द्रनारायण से दुर्बल, परन्तु क्रोध में वह यह बात भूल गया। उसने एक चपत भानजे के मुख पर दे मारी।
इन्द्रनारायण ने हाथ उठाया, परन्तु वह उठा ही रह गया। विष्णु के मुख की आकृति उसकी माँ से मिलती थी। उसको कुछ ऐसा समझ आया कि वह अपनी माँ को पीटने जा रहा है।
विष्णुस्वरूप ने चपत लगा तो दी, परन्तु उसी क्षण उसको समझ आ गया कि यह ठीक नहीं किया। यदि इन्द्र ने बदले में चपत लगा दी तो उसके दाँत निकल जायेंगे। इस समय जब इन्द्रनारायण का हाथ ऊपर ही रुक गया तो उसकी जान में जान आई। वह आँखों में आँसू और मुख पर मुस्कराहट लाते हुए बोला, ‘‘मारो न, मारते क्यों नहीं ?’’
‘‘नही, मारूँगा नहीं। तुम मेरे माँ के भाई हो। तुम्हारी पदवी माँ के बराबर ही है।’’
विष्णु माँ का भाई कहा जाने पर प्रसन्न नहीं हुआ, परन्तु पिटने से बच गया यही गनीमत थी। वह चुप कर रहा।


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