लोगों की राय

सामाजिक >> दीवार ढह गयी

दीवार ढह गयी

वेणीमाधव रामखेलावन

प्रकाशक : स्टार पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5357
आईएसबीएन :81-7650-099-2

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

436 पाठक हैं

एक सामाजिक उपन्यास...

Deevar Dhah Gai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुभद्रा ने कहा: ‘देखा आपने। ऐसा ऊंचा विचार किसी साधारण आदमी का नहीं हो सकता। साधारण आदमी तो कुछ करता है तो बदले में बड़ी रकम पाना चहता है। यह तो अपना स्वास्थ्य दाव पर लगाकर निरीह बना है। इसने गुर्दा देने के बदले कोई शर्त नहीं रखी। आप सोचते होंगे की हमने बदले में गीता का हाथ देना स्वीकार किया है। नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। हमने कोई सौदा नहीं किया है। गीता आज़ाद है धर्म से प्रेरित होकर इसने यह त्याग स्वेच्छा से किया है। सचमुच यह धर्मात्मा है। त्यागी है। कर्मयोगी है।

कर्मयोग का पाठ सिखाने के लिए कृष्ण को अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है। कृष्ण जैसा कर्मयोगी हमारे बीच में ही है। पहचानने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए। ऐसे मनुष्य तभी पहचाने जा सकते हैं जब भेदभाव का नकाब उतारकर फेंक दिया जाता है। मैं तो कहती हूं कि गीता का हाथ इसे देने से हमारी कोई हेठी नहीं होगी; बल्कि गौरव बढ़ेगा। ऐसा मनुष्य संसार में विरल ही होता है निष्काम दूसरों के काम आए। अपनी गीता के लिए ऐसा वर चिराग लेकर ढूंढने पर भी हमारी बिरादरी में नहीं मिलेगा। गीता आनन्द को बहुत चाहती है। आनन्द भी गीता को बहुत चाहता है। यह हमारा सौभाग्य होगा यदि ऐसा योग्य लड़का गीता को वर के रूप में मिले।’

दो शब्द

‘‘दीवार ढह गई’’ नितान्त काल्पनिक उपन्यास है। सब पात्रों के नाम भी कल्पित हैं। यह एक सामाजिक उपन्यास है और समाज की ही परिधि में घूमता रहता है। समाज में घटती घटनाओं को लेकर उपन्यास का संयोजन किया गया है। किसी को लक्ष्य नहीं किया गया है। यदि किसी को उपन्यास में वर्णित किसी घटना का अपने जीवन में साम्य दिखे तो वह एक संयोग मात्र है।
सामाजिक उपन्यास होने के कारण इसमें सामाजिक तत्त्व तो पाये जाते ही हैं; धार्मिक, दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्त्वों का भी इसमें यथास्थान समावेश है।
पुस्तक ‘‘आर्य उपदेशक मण्डल (मॉरीशस)’’ पंजीकृत संख्या 796 की संरक्षिता में प्रकाशित हुई है। विशेष सहयोग इन सदस्यों से प्राप्त हुआ है; यथा: श्री भगवान दीन चुल्लन, पं. सहदेव दसोई, पं. गुरुदत्त बिहारी, पं. रूपनारायण फागू, पं. आत्मानन्द रंग लोलसिंह, श्री सोनालाल रागनाथ, श्री धनेश्वर बिरजू, श्री उदय चन्द रामखेलावन और श्री ईश्वरचन्द रामखेलावन। इनका मैं कृतज्ञ हूँ।

वेणीमाधव रामखेलावन

दीवार ढह गई

आनन्द आज बहुत प्रसन्न है, बेहद प्रसन्न। उसके सामने जो दीवार खडी़ थी, वह ढह गई। वह उन्मुक्त हवा में साँस लेने लगा। जो प्राप्त करने के लिए वह संघर्षरत था, वह प्राप्त हो गया।
बचपन से जब उसने होश संभाला तब जिस स्त्री को उसने अपनी मां के रूप में पाया वह उसे बहुत कठोर दिखती थी। बच्चों की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वह स्वच्छंद नहीं खेल पाता था। माँ के, यह करो वह करो, आदेश में वह दबा रहता था। घर में झाड़ू लगाना, बरतन मांजना आदि काम वह रोज करता था। यदि कोई गलती हो जाती थी या बरतन हाथ से छूटकर गिर जाता था तो वह न सिर्फ डांटती थी; बल्कि जोर से थप्पड़ भी जड़ देती थी। थप्पड़ की मार वह चुपचाप सह लेता था। पर कभी-कभी वह बिलबिला उठता था। उस समय उसकी दादी उसे अपने आंचल में छिपा लेती थी।

मां से डांट-डपट और मार खाकर वह दादी के आंचल का ही आश्रय लेता था। वहां उसे राहत मिलती थी। जब वह दूसरी स्त्रियों को अपने बच्चों को दुलराते, चुमकारते और प्यार करते देखता था तब वह अपने मन में कहता था कि मेरी मां मेरे साथ ऐसा क्यों नहीं करती ? वह अन्य मांओं की तरह क्यों न मुझे दुलराती, पुचकारती और चुमकारती है। वह क्यों मुझे हमेशा डांटती-डपटती और मारती रहती है। आनन्द को आश्चर्य होता था यह सब देखकर कि अन्य स्त्रियां अपने बच्चों को बाहर से आते देखकर स्नेहसिक्त हो जाती हैं पर उसकी मां में वह यह बात नहीं देखता है। वह तो कठोर ही बनी रहती है।
आनन्द की मां सांवली और मोटी थी। बड़ी-बड़ी आगे निकली हुई आँखें थीं। मोटे-मोटे होंठ थे और चपटी- सी नाक थी। गुस्से में अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से जब आनन्द को देखती थी तो आनन्द डर जाता था। इसके विपरीत उसका पिता गोरे रंग का था। सलोना रूप था उनका। शरीर और डील-डौल सामान्य था। न बहुत मोटा और न बहुत पतला। रंग-रूप में दोनों का कोई मेल नहीं था। स्वाभाव भी विपरीत था।

आनन्द की मां एक बात में बहुत सावधानी बरतती थी। वह पति के सामने आनन्द के साथ नरमी का बर्ताव करती थी। डांटती-डपटती नहीं थी; बल्कि प्यार जताती थी। लेकिन आनन्द के बाल हृदय को यह आभास मिल जाता था कि यह सिर्फ दिखावा है। परिस्थिति के अनुसार अपने को बदल लेना यह कर्कश स्त्रियों का स्वाभाविक गुण है।
आनन्द का पिता उसे बहुत प्यार करता था। उसके लिए कोई-न-कोई मिठाई, भुने हुए चने या मूंगफली लाया करता था। खेलने के लिए खिलौने लाता था। पहनने के लिए अच्छे-अच्छे कपड़े खरीदता था। इस बात का हमेशा ख्याल रखता था उसे किसी चीज़ की कमी न हो। वह अपने पुत्र को हमेशा खुश रखना चाहता था।

वह कुछ बड़ा हुआ तो पिता के अनजाने में उसका काम भी बढ़ गया। उसके हाथ में एक छोटी बाल्टी (सेओ) पकड़ा दी गई और कहा गया कि सार्वजनिक नल से वह पानी लाए। घर के काम-काज के लिए उपयोग में आने वाला सारा पानी वही लाता था। रोज एक बारीक (ड्रम) को भरना पड़ता था। करीब आधे दिन तक वह पानी लाता रहता था।

एक दिन उसकी मां कपड़े धोती थी। कपड़े धोने के लिए बहुत पानी की जरूरत पड़ती है। वह पहले ही आधा ड्रम पानी भर चुका था। पर पानी जल्दी ही खत्म हो गया। मां तकाज़ा करती थी कि वह जल्दी-जल्दी पानी लाए। पर जल्दी पानी लाना आसान नहीं था। गांव में एक ही नल था सब स्त्रियां टीन में भर-भर कर वहीं से पानी लाती थीं। हर एक को अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ता था। बारी आने पर स्त्रियां पानी ले सकती थीं। उस दिन बहुत स्त्रियां पानी के लिए नल पर एकत्र हो गई थीं। सबको जल्दी पड़ी थी। पानी के लिए उनमें कभी नोंक-झोंक हो जाया करती थी। चढ़बाकिन स्त्रियां बाजी मार जाती थीं। आनन्द की बारी आने पर चढ़बाकिन स्त्रियों ने उसकी बाल्टी हटाकर स्वयं पानी भर लिया। आनन्द बच्चा था।

बेचारा क्या करता ? उसे नल पर देर हो गई। जब वह देर से पानी लाया तो उसकी मां उस पर बरस पड़ी। चिल्लाकर कहा, ‘कामचोर ! क्या करता था ? नल पर अपने पुरखों को पानी गिराता था। पानी लेकर जल्दी नहीं आ सकता था ? यहां कब से मैं पानी के लिए बैठी हूं। मेरा कितना समय बर्बाद हो गया।’ यह कहने के साथ-साथ उसने उसके गाल पर दो-चार थप्पड़ भी ज़ड़ दिए।’ चोट उसे सिर्फ गाल पर ही नहीं लगी; बल्कि दिल पर भी लगी। वह भागकर दादी के पास चला गया। दादी के आंचल में मुँह छिपा कर वह देर तक सुबकता रहा। सुबकना रुका तो उसने दादी से पूछा, ‘दादी, मेरी मां मुझे क्यों इतना डांटती-डपटती और मारती है ? दूसरों की मां तो अपने बच्चों को बहुत प्यार करती हैं। सोनालाल है धनीलाल है, उसकी माएं तो उन्हें बहुत प्यार करती हैं। मेरी माँ क्यों नहीं करती ?’

दादी ने उसे जो जानकारी दी, सुनकर वह अचरज में पड़ गया। दादी बोली, ‘वह तेरी अपनी मां नहीं है।’ सौतेली मां है।’
‘सौतेली मां ! सौतेली मां का क्या मतलब है ?
‘उसने तुझे जन्म नहीं दिया।’
‘तो किसने मुझे जन्म दिया है ?’
‘जिसने तुझे जन्म दिया, वह मर गई है। तेरा पिता यह दूसरी औरत लाया है। इसलिए तुझपर इसकी कोई ममता नहीं है। कोई मोह नहीं है। तुझे प्यार नहीं करती है।’
‘मुझे जन्म देने वाली मेरी मां कब मरी ?’
‘जब तू दो साल का था तब वह मर गई।’

‘क्या वह भी मुझे मारती थी ?’
‘नहीं रे, वह तुझे नहीं मारती थी। बहुत प्यार करती थी वह तुझे। जब तू दूध पीता बच्चा था, तब एक बार तू बीमार पड़ गया था। तुझे अस्पताल में दाखिल कराया गया। वह तुझे छोड़कर नहीं रह सकती थी। तेरे साथ वह भी अस्पताल में रही। दवा-दारू करने पर तू अच्छा नहीं होता था एक दिन तेरी सेवा करने वाली क्रिओलीन नर्स (उस समय अस्पताल के सब कर्मचारी क्रिओल-क्रिओलीन होते थे) ने तेरी मां से कहा: ‘‘इस बच्चे को मुझे दे दो। मैं इसकी शुद्धि करके इसे प्रभु ईशा की दीक्षा दिला दूंगी। यह अच्छा हो जाएगा।’’ लेकिन तेरी मां ने तुझे ईसाई के हाथ सौंपना नहीं चाहा।’
‘क्यों दादी ?’’
‘तेरी मां चतुर थी। उसने सोचा होगा कि ईसाई बन जाने से रोग दूर हो जाता तो कोई ईसाई रोगी नहीं होता। वे लोग सिर्फ अपनी संख्या बढ़ाने के लिए ठग-फुसलाकर ईसाई बनाते हैं।’

‘बहुत अच्छा किया मां ने जो उस नर्स की बात नहीं मानी।’
‘हां, अच्छा किया उसने। वह बहुत अच्छी थी। मेरी और तेरे दादा की वह सेवा करती थी। हमारा बहुत खयाल रखती थी। हमारा बहुत आदर करती थी।’
‘क्या यह मां आप लोगों की सेवा नहीं करती है ?’
‘यह तो हमें पूछती नहीं है। हम खाएं या नहीं; हम जीएं या मरें, इसकी उसे कोई परवाह नहीं।
‘दादी मेरी मां कैसे मरी ?’ बच्चा ने सहज कौतूहल से पूछा।
दादी ने कहा तेरी मां दुबली-पतली थी। उसका स्वास्थ उतना अच्छा नहीं था। फिर भी वह बहुत काम करती थी। तेरा बाप कोठी के साहब के बाग में माली का काम करता था। अब भी वही काम करता है। तनख्वाह बहुत कम मिलती थी। जो कुछ मिलता था वह घर का खर्च चलाने के लिए काफी नहीं होता था। घर का खर्च पूरा करने के लिए तेरी मां मजदूरी करती थी। गन्ने के खेतों में अपना काम पूरा करके घर लौटती थी तो गायों के लिए घास का गट्ठर सिर पर लिए आती थी। एक गट्ठर घास दो-चार गायों के लिए काफी नहीं होता थी। शाम को भोजन आदि पकाकर फिर दूसरी स्त्रियों के साथ घास काटने चली जाती थी। घर आकर अगवारी निकालती थी।

गायों को सानी-पानी डालती थी। गोबर मूत्र आदि साफ करती थी। दूध दुहती थी। यह सब काम करते-करते देर हो जाती थी। आराम के लिए फुर्सत नहीं मिलती थी। तेरे जन्म से एक दिन पहले तक वह गन्ने के खेत में काम करती थी। तेरा जन्म होने के एक दिन पहले वह सवेरे उठी। भोजन पकाया और काम पर जाने के लिए तैयार हुई कि तेरे आने की सूचना उसे मिली और उसी समय तू आ गया। यदि वह काम पर चली गई होती तो तेरा जन्म गन्ने के खेत में ही हो जाता। तेरे जन्म के दो सप्ताह बाद ही वह फिर काम करने लग गई थी। बेचारी को ससुराल में सुख मयस्सर नहीं हुआ। एक दिन वह बीमार पड़ गयी। पहले हमने जड़ी-बूटी से काम लिया। चिरायता और चकवड़ की जड़ उबालकर उसका पानी पिलाया, पर बुखार नहीं उतरा। तेरे बाप ने उसे अस्पताल में दाखिल करा दिया। कई दिनों तक अस्पताल में रही। उसे डबल निमोनिया हो गया था। उन दिनों उस रोग के लिए उचित दवा नहीं थी। वह चल बसी।

‘तू दो साल का छोटा बच्चा था। मां का साया तेरे सिर पर से उठ गया। तेरी देख-रेख और पालन-पोषण का भार मैंने ले लिया।’
‘तेरे बाप का एक दोस्त था जिसके यहाँ वह हमेशा जाया करता था। तेरी यह मां उसी की बहन है इसकी बदसूरती के कारण कोई लड़का इससे शादी करने के लिए राज़ी नहीं होता था। उसने इसे तेरे बाप के गले मढ़ना चाहा। वह तेरे बाप को शराब पिला-पिलाकर इससे शादी करने के लिए राजी करा लिया। तभी से तेरे बाप को शराब पीने की लत पड़ गई।’
‘हमने कोई ऐतराज नहीं किया यह सोचकर कि मैं बूढ़ी हो गयी हूं। आज हूं। कल नहीं रहूंगी। फिर कौन तेरी देखभाल करेगा ? एक स्त्री की जरूरत है जो तेरी सेवा करे और मां का प्यार दे। शादी के पहले हमने यह शर्त भी रखी कि वह तुझे अपना ही बेटा समझे और मां का प्यार दे। उसने मंजूर किया। बड़ी-बड़ी बातें कीं कि वह तुझे फूलों के हिंडोले में झुलाएगी। अपना ही बच्चा समझकर सच्ची मां का प्यर देगी। तेरे पालन-पोषण में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। पर शादी हो जाने पर सारी बातें भूल गई। जो वादा किया उसका उल्टा करती है।’

‘दादी’ आनन्द ने कहा, ‘आज मैं पापा से कहूंगा कि मां मुझे डांटती-डपटती और मारती है।’
‘नहीं रे, नहीं कहना। इसका कोई फल नहीं होगा; बल्कि बुरा फल होगा।’
‘बुरा फल होगा, यह कैसे ?’
‘तेरा पापा तो हर वक्त घर पर नहीं रहता है। उसकी आँखों के परे वह तुझे और सताएगी। इसलिए कुछ नहीं कहना। मुझे हुक्का पीने की इच्छा हुई है, जरा मेरा हुक्का लाना।’
आनन्द दादी का हुक्का लाया। उसने हुक्के की नली में चिलम रखा। चिलम में तम्बाकू डालकर उस पर आग एक छोटा अंगारा रखा। फिर हुक्के पर किए हुए छेद पर मुँह रखकर उसने कश खींचा। हुक्के के भीतर से गुड़-गुड़, गुड़-गुड़, की आवाज़ आई। कश खींचने से मुँह में आए धुएं को उसने निकाल दिया। आनन्द के कानों को गुड़,-गुड़ की आवाज प्रिय लगी और धुएं की महक उसे सौंधी लगी। उसने कहा, दादी हुक्का दो मैं भी कश खींचता हूँ।
दादी ने कहा, ‘‘नहीं रे, बच्चों के लिए यह अच्छा नहीं है।’

‘क्यों ?’
‘बच्चों का कलेजा कोमल होता है। उनका कलेजा जल जाएगा।’
‘आग तो चिलम के ऊपर होती है और कलेजा छाती के भीतर। फिर कलेजा कैसे जलेगा ?’
‘आग की गर्मी चिलम और नली से होते हुए हुक्के में चली जाती है। जब मुँह से कश खींचते हैं तब मुँह की ओर से गर्मी कलेजे तक पहुँच जाती है। कलेजा एक बार ही नहीं, धीरे-धीरे जलता है। कलेजे के जलने से रोग लग जाता है और रोग से दुःख होता है ?’
‘तो आपका कलेजा नहीं जलता है ?’
जलता है पर हम बड़ों का कलेजा कुछ सक्त होता है इसलिए उतना नहीं जलता जितना बच्चों का।’
‘जब आप जानती हैं कि हुक्का पीने से कलेजा जलता है तो हुक्का पीती ही क्यों हैं ?’

‘क्या करूँ आदत पड़ गई है। आदत बुरी बला है। बुरी आदत नहीं अपनानी चाहिए। तू बच्चा है। तू भूलकर भी ऐसी आदत नहीं अपनाना।’
‘दादी, यह जो गोल-सी चीज़ है, यह क्या है ? यह किस चीज़ से बनी है ?’
‘यह सूखा नारियल है। इसके बीतर से खोपड़ा निकाल दिया जाता है। ऊपर छेद करके बांस की नली, जिस पर चिलम रखा जाता है, घुसेड़ दिया जाता है।’
‘गुड़-गुड़, की आवज कैसे होती है ?’
नारियल के भीतर पानी भर दिया जाता है। यही पानी गुड़-गुड़ की आवाज़ देता है।’
‘पानी क्यों भरा जाता है ?’
‘इसलिए की आग की गर्मी को यह थोड़ा ठंडा कर दे। पानी नहीं होगा तो आग की गर्मी सीधे कलेजे के भीतर चली जाएगी; और इससे बहुत हानि होगी।’

हुक्का बनाने का काम वह सीख गया। जब-जब दादी उसे हुक्का बनाने को कहतीं, बना देता। पानी भर देता। नली पर चिलम चढ़ा देता और तम्बाकू डालकर अंगारा आग भी रख देता। यद्यपि कश खींचने के अनेक अवसर उसे मिलते, पर दादी की बात को ध्यान में रखकर वह कभी हुक्के को मुंह नहीं लगाता।
दादी की बातों से और उसके प्यार से आनन्द मां की ज्यादती को भूल जाता और उसके हुक्म का पालन करता था। दादी की सलाह मानकर आनन्द अपने बाप से माँ की शिकायत नहीं करता था। दादी उसे बहुत चाहती थी। मां का प्यार उसे दादी से ही मिलता था। फेरेवाली आती थी तो वह दौड़कर दादी के पास ही जाता था और मिठाई, नमकीन आदि खरीदने के लिए हठ करता था। दादी उसे मिठाई आदि खरीद कर देती थी।

आनन्द ज्यों-ज्यों बढ़ता था, त्यों-त्यों उसके काम भी बढ़ते थे। वह गोबर और मिट्टी सानकर घर भी लीपता था। उसने दादी से पूछा: ‘दादी यह काम तो स्त्रियां करती हैं। यह काम तो पहले मां खुद करती थी। अब मुझसे क्यों करवाती है ?’
दादी ने उत्तर दिया: तुझसे यह काम कराने का अब उसे एक बहाना मिल गया है।’
‘बहाना ! कैसा बहाना ?
‘वह पांव से भारी है।’
आनन्द छोटा था। इस मुहावरे का अर्थ नहीं समझता था। सहज मासूमियत से उसने कहा, ‘वह कहां पांव से भारी है ? उसके पांव तो वैसे ही हैं जैसे पहले थे।’
दादी ने हँसकर समझाया, ‘थोड़े दिनों के बाद वह एक बच्चे को जन्म देगी; जैसे तेरी मां ने तुझे जन्म दिया है।’
‘याने, मेरा एक भाई आएगा ?’ उसने उसी मासूमियत से पूछा।

‘हां , पर कौन जाने वह भाई होगा या बहन।’
‘कुछ भी हो; मैं उसे खिलाऊंगा। उसे बहुत प्यार करूंगा।’
सचमुच जामुनती (यही आनन्द की सौतली माँ का नाम था) दिन भर खाट पर पड़ी रहती थी। घर का प्रायः सारा काम वह आनन्द और उसकी दादी से करवाती थी। दादी बूढ़ी थी। जरा सी मेहनत करने पर हांफने लगती थी। बहू ने उसे माटी खोदवा जाकर लाल माटी खोदकर लाने को कहा। गोबर के साथ लाल मिट्टी सानकर फर्श और दीवाल लीपी जाती थी। अगले सप्ताह घर लीपने के लिए लाल मिट्टी नहीं थी। इसलिए जामुनती ने उसे लाल मिट्टी खोदकर लाने को कहा।

माटी खोदवा दूर पर था, करीब एक माइल की दूरी पर मिट्टी खोदकर और टीन में भरकर वहां से लाना आसान काम नहीं था। बड़े परिश्रम का काम था। गांव की स्त्रियां झुंड बनकर जाती थीं और वहां से मिट्टी खोदकर लाती थीं। दादी जब जवान थी तब वह अन्य स्त्रियों के साथ जाती थी और मिट्टी खोदकर लाती थी। अब यह काम उसके लिए दूभर हो गया था। आनन्द के दादा ने देखा कि उसकी बूढ़ी पत्नी फावड़े से मिट्टी नहीं खोद सकेगी तो वह साथ चलने को तैयार हो गया।
उस दिन सवेरे वर्षा हुई थी। पर मध्याह्न में वर्षा रुक गई थी। आकाश साफ हो गया था और सूरज निकल आया था। धूप फैल गयी थी आनन्द, उसके दादा और दादी माटी खोदवा की ओर चल पड़े। आमतौर पर स्त्रियां झुंड बनाकर जाती थीं। पर उस दिन कोई स्त्री जाने को तैयार नहीं हुई। वे कहती थीं कि सवेरे की वर्षा के कारण मिट्टी गीली हो गई होगी और भारी भी हो गई होगी। दूसरे दिन जब मिट्टी सूखी रहेगी तब वे जाएंगी। पर उन्हें तो जाना था क्योंकि लीपने के लिए लाल मिट्टी ज़रा भी नहीं थी।

यह पहली बार था जब आनन्द घर से बाहर इतनी दूर जा रहा था। अब तक वह घर के इर्द-गिर्द ही रहता था। दुकान तक या सार्वजनिक नल तक जाता था। माटी खोदवा जाने का रास्ता उसे अनजान सा लगता था। बीच में एक जंगल पड़ता था। रस्ता जंगल में घुस कर उस पार निकलता था। बीच जंगल में कल-कल करती एक नदी बहती थी। नदी में बडे-बड़े झींगे पाए जाते थे। पास के गांव के लड़के आकर झींगे पकड़ते थे। झींगे पकड़ने का उनका तरीका अनोखा था। नारियल के छिलके के एक रेशे से फंदा बना लेते थे और उसे पतली लकडी से बांध लेते थे दूसरी लकड़ी में आटे का गोला बनाकर नदी में पड़े पत्थर के पास चारे के रूप मे रखते थे। झींगा खाने के लिए निकलता था। पकड़ने वाला फंदे को झींगे की पूछ में घुसाकर ऊपर खींच लेता था।

चूंकि जंगल घना नहीं था इसलिए स्त्रियां उसमें घुसकर घास काटती थीं। गांव में एक ही नल था इसलिए पानी की कमी होती थी। स्त्रियां कपड़े लाकर नदी में धोती थीं। पुरुष भी आकर जंगल में पड़ी सूखी लकड़ियां चुनते थे। उन दिनों भोजन गैस या बिजली से नहीं, लकड़ी से ही पकाया जाता था।

जंगल और नदी पार करके आनन्द और उसके दादा-दादी माटी खोदवा पहुंचे। माटी खोदवा एक परती जमीन में था। खोदकर मिट्टी निकालते-निकालते बड़ा गड्ढा हो गया था। गड्ढे में उतरकर मिट्टी खोदनी पड़ती थी। मिट्टी ऐसी होनी चाहिए जो लसगर हो। गोबर के साथ अच्छी तरह सन जाए। मिट्टी दरदर रहे तो फर्श चिकनी नहीं होती है। इसलिए भीतर से अच्छी मिट्टी निकालते-निकालते एक सुरंग सा बन गया था। उस सुरंग में घुसकर खोदने से अच्छी मिट्टी मिल सकती है। आनन्द का दादा फावड़ा लेकर सुरंग में घुसा। आनन्द गढ्ढे में उतरकर सुरंग से अलग खड़ा था। उसकी दादी ऊपर खड़ी थी उसका दादा मिट्टी खोदने लगा। वह जोर-जोर से फावड़ा चलाता था। इससे धब-धब की आवाज़ होती थी।

आनन्द अपने दादा को फावड़ा चलाते देख रहा था। अकस्मात् उसका दादा गायब हो गया। सवेरे हुई वर्षा के कारण मिट्टी गीली हो गयी थी। फावड़े के धक्के से मिट्टी हिल गई और ऊपर से मिट्टी का बड़ा टुकडा बूढ़े पर गिर गया। बूढा उस मिट्टी के तले दब गया। बूढा चिल्ला भी न सका। दादा मिट्टी से दब गया यह देखकर आनन्द ज़ोर से चिल्लाया, ‘दादा ! आनन्द की चिल्लाहट सुनकर दादी का ध्यान उधर आकर्षित हुआ। पति मिट्टी से दब गया है, यह देखकर वह छाती पीटकर रोने लगी। आनन्द भी रोने लगा। बूढ़े को निकालने के लिए वे मिट्टी हटा नहीं सकते थे। आसपास कोई नहीं था। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दादी ने कहा, ‘आनन्द दौड़कर घर जा और तेरे बाप को बोल कि दादा मिट्टी में दब गया है। जल्दी से आकर निकाले।’

आनन्द जान-प्राण लेकर दौड़ा। उतना लंबा रस्ता उसने मिनटों में तय कर दिया। सिलगन (यह आनन्द के पिता का नाम था) काम पर से लौटा था। पिता को देखकर हांफते हुए आनन्द ने कहा, ‘दादा...!’ क्या हुआ दादा को ?’ आनन्द की आवज़ में संकट का आभास पाकर सिलगन ने पूछा। ‘माटी खोदवा में दादा मिट्टी से दब गया आनन्द ने हांफते-हांफते कहा। उसके मुंह से मुश्किल से बोली निकलती थी। यह खबर सुनकर सिलगन सन्न रह गया। वह अभी-अभी काम पर से लौटा था। थका हुआ था। फावड़ा लेकर तुरन्त चल पड़ा। यह खबर गांव में बिजली की तरह फैल गई। बहुत से लोग काम-धाम छोड़कर सहायता के लिए माटी खोदवा की ओर दौड़ पड़े। सिलगन आगे-आगे था। आनन्द यद्यपि दौड़कर आया था। फिर भी साहस बटोरकर दौड़ने लगा। वहां पहुंचकर लोग जल्दी-जल्दी मिट्टी हटाने लगे। मिट्टी हटने में काफी समय लग गया। बूढे का शरीर मिला पर वह निर्जीव था। अपने पति को जीवित पाने की बूढ़ी की जो क्षीण आशा थी, वह चली गई। वह पछाड़ खा-खाकर कर रोन लगी। उसके आसूं थमते नहीं थे। ‘हाय’ ! मेरा राजा, मुझे बीच मझधार में छोड़कर चले गये। मैं कैसे जीऊंगी।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book