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विश्वासघात

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :275
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5337
आईएसबीएन :0000

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राजनीति पर आधारित उपन्यास...

Vishvasghat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युवावस्था से ही राजनीतिज्ञों से सम्पर्क, क्रान्तिकारियों से समीप का संबंध तथा इतिहास का गहन अध्ययन-इन सब की पृष्ठभूमि पर ‘‘सदा वत्सले मातृभूमे’’ श्रृंखला में चार राजनीतिक अत्यन्त रोमांचकारी एवं लोमहर्षक उपन्यास श्री गुरुदत्त ने हिन्दी जगत् को दिये है-
1. विश्वासघात
2. देश की हत्या
3. दासता के नये रूप
4. सदा वत्सले मातृभूमे !
समाचार पत्र, लेख, नेताओं के वक्तव्यों के आधार पर उपन्यास की रचना की गई है ! उपन्यासों के पात्र राजनीतिक नेता तथा घटनाएं वास्तविक हैं।

 

सम्पादकीय

उपन्यासकार गुरुदत्त का जन्म जिस काल और जिस प्रदेश में हुआ है उस काल में भारत के राजनीतिक क्षितिज पर बहुत कुछ विचित्र घटनाएँ घटित होती रही हैं। गुरुदत्त जी इसके प्रत्यक्षद्रष्टा ही नहीं रहे अपितु यथा समय वे उसमें लिप्त भी रहे हैं। जिन लोगों ने उनके प्रथम दो उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ और ‘पथिक’ को पढ़ने के उपरान्त उसी श्रृंखला के उसके बाद के उपन्यासों को पढ़ा है उनमें अधिकांश ने यह मत व्यक्त किया है कि उपन्यासकार आरम्भ में गांधीवादी था, किन्तु शनै:-शनै: वह गांधीवादी से निराश होकर हिन्दुत्ववादी हो गया है।

जिस प्रकार लेखक का अपना दृष्टिकोण होता है। उसी प्रकार पाठक और समीक्षक का भी अपना दृष्टिकोण होता है। पाठक अथवा समीक्षक अपने दृष्टि-कोण से उपन्यासकार की कृतियों की समीक्षा करता है। उसमें कितना यथार्थ होता है, यह विचार करने की बात है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि व्यक्ति की विचाधारा का क्रमश: विकास होता रहता है। यदि हमारे उपन्यासकार गुरुदत्त के विचारों में विकास हुआ है तो वह प्रगतिशीलता का ही लक्षण है। किन्तु हम उन पाठकों और समीक्षकों के इस मत से सहमत नहीं कि आरम्भ या गांधीवादी गुरुदत्त कालान्तर में गांधी-विरोधी रचनाएँ लिखने लगा। इस दृष्टिकोण से गुरुदत्त की विचारधारा में कहीं भी परिवर्तन हमें नहीं दिखाई दिया। गांधी के विषय में जो धारणा उपन्यासकार ने अपने प्रारम्भिक उपन्यासों में व्यक्त की है, क्रमश: उसकी पुष्टि ही वह अपने अवान्तरकालीन उपन्यासों में करता रहा है।

जैसा कि हमने कहा है कि गुरुदत्त प्रत्यक्षद्रष्टा रहे हैं। उन्होंने सन् 1921 के असहयोग आन्दोलन से लेकर सन् 1948 में महात्मा गांधी की हत्या तक की परिस्थितियों का साक्षात् अध्ययन किया है। उस काल के सभी प्रकार के संघर्षों को न केवल उन्होंने अपनी आखों से देखा है अपितु अंग्रेजों के दमनचक्र, अत्याचारों और अनीतिपूर्ण आचरण को स्वयं गर्मदल के सदस्य के रूप में अनुभव भी किया है। अत: लेखक ने घटनाओं के तारतम्य का निष्पक्ष चित्रण करते हुए पाठक पर उसके स्वाभाविक प्रभाव तथा अपने मन की प्रतिक्रियाओं का अंकन किया है।

‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’, ‘स्वराज्यदान’, ‘दासता के नये रूप’, ‘विश्वासघात’ और ‘देश की हत्या’ को जो पाठक पढ़ेगा उसको यह सब स्वयं स्पष्ट हो जाएगा।
श्री गुरुदत्त के उपन्यासों को पढ़कर उनका पाठक यह सहज ही अनुमान लगा लेता है कि राजनीति के क्षेत्र में वे राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक हैं। सच्चे राष्ट्रवादी की भाँति वे देश के कल्याण की इच्छा और इस मार्ग पर चलते विघ्न-संतोषियों पर रोष व्यक्ति करते हैं। लेखक के राष्ट्रीय विचारों को ईर्ष्यावश साम्प्रदायिक कहने वाले सम्प्रदाय विशेष को उन्नति या उत्तमता की चर्चा तथा अन्य सम्प्रदायों का विरोध नहीं किया गया है। हाँ, इसमें कोई सन्देह नहीं कि अपनी कृतियों में वे स्थान-स्थान पर राष्ट्रवादियों के लिए हिन्दुस्तानी अथवा भारतीय अथवा ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग करते हैं। यह सम्भव है कि भारत की तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार, विशेषतया कांग्रेसी और कम्युनिस्ट ‘हिन्दू’ शब्द को इसलिए साम्प्रदायिक मानते हों कि कहीं इससे मुसलमान रुष्ट न हो जाएँ। वास्तव में हमारा लेखक तो हिन्दुत्व और भारतीयता को सदा पर्यायवाची ही मानता आया है।

इसके साथ ही इस उपन्यास में कांग्रेसी नेताओं और कांग्रेस सरकार के कृत्यों पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है। यह सब प्रसंगवशात् नहीं अपितु कथानक की माँग देखकर यह विशद वर्णन स्वाभाविक ही था। इस काल पर जितने भी उपन्यास लिखे गये हैं, लेखक के दृष्टकोण में अन्तर होने के कारण नेताओं तथा दल की राजनीति पर विभिन्न प्रकार की आलोचना हुई हो किन्तु निष्पक्ष लेखक अथवा उपन्यासकार तथ्यों की अनदेखी नहीं कर सकता। यही गुरुदत्त जी ने अपने इस उपन्यास में किया है।

 

विश्वासघात

देश में नदी-नाले हैं, पहाड़ तथा झीलें हैं, फूलों से लदी घाटियाँ हैं, ये सब बहुत सुन्दर हैं परन्तु इनसे भी सुन्दर स्थान अन्य देशों में हो सकते हैं।
देश-प्रेम नदी-नालों, पहाड़ तथा झीलों से प्रेम को नहीं कहते, देश-प्रेम देश में बसे लोगों से प्रेम को कहते हैं। देश की बहुसंख्यक समाज का अहित करना, उनकी सभ्यता तथा संस्कृति का विनाश करना देश के साथ द्रोह करना ही होगा।
कांग्रेस को तन-मन-धन से सहायता दी देश की बहुसंख्यक समाज अर्थात् हिन्दू समाज ने परन्तु हिन्दुओं के साथ विश्वासघात करती रही है कांग्रेस।
इसी विश्वासघात की यह कहानी है।

 

प्राक्कथन

यदि कोई हावड़ा के पुल पर खड़े होकर पुल के नीचे बहते गन्दे जल को देखे और उसमें अनेक प्रकार तथा आकार के जहाज, नौकाओं अथवा बजरों को तैरता देखे तो एक विशेष प्रकार का भाव उसके मन में उत्पन्न होगा। मन पूछेगा कि जिस पानी में अनेक नगरों का मल-मूत्र, अनेक कारखानों का कचरा और नौकाओं के असंख्य यात्रियों की थूक इत्यादि मिली हुई है, क्या यही प्रतिपादन गंगा का जल है ?

हरिद्वार तथा उससे भी ऊपर गंगोत्तरी में जो शीतल, स्वच्छ, मधुर और पावन जल है, क्या वह वही है, जो इस पुल के नीचे से गंधाता हुआ चला जाता है ? दूर पूर्वी किनारे के एक घाट पर, अमावस्या के पर्व पर स्नानार्थ आए असंख्य नर-नारी दिखाई देते हैं। दूर-दूर के गाँव तथा नगरों से आए ये लोग इस हुगली के पानी में डुबकी लगाने को व्याकुल प्रतीत होते हैं। यह क्यों ? यह तो वह पतित-पावनी गंगा नहीं, जिसके दर्शन-मात्र अथवा नाम-स्मरण से पापी देवता बन जाते हैं।
कलकत्ता के घाट पर गंगा में स्नान करने वाले के मुख से, ‘‘हर-हर गंगे’’ के शब्द क्या अनर्गल है ? अत: इसमें सार पूछने की लालसा वाले जिज्ञासु को भक्त के मन में बैठने की आवश्यकता है।

‘‘ओ भक्त ! देखो जल में यह क्या बहता जा रहा है ?’’
किसी जहाज द्वारा छोड़ी गन्दे तेल की धारा थी।
‘‘जै गंगा मैया की।’’ भक्त के मुख से अनायास निकल गया और फिर उसने प्रश्नकर्ता के मुख की ओर देखते हुए कहा, ‘‘वह देखो, कौन स्नान कर रही है ?’’
जिज्ञासु की दृष्टि उस ओर घूम गई एक कुबड़ी, कानी, वृद्धा गले तक पानी में बैठी हुई, सूर्य की ओर मुख कर भगवान की अर्चना कर रही थी। जिज्ञासु की समझ में कुछ नहीं आया। उसने प्रश्न-भरी दृष्टि से भक्त की ओर देखा। भक्त ने पूछा, ‘‘कैसी है वह भक्तिनी ?’’
‘‘अति कुरूप है।’’
‘‘आँखों वाले अन्धे ! उसकी आत्मा में पैठकर देखो। आज वह निर्धन, अपाहिज और निस्सहाय लोगों का एकमात्र आश्रय बनी हुई है। सत्य-मार्ग की पथिक सत्तर वर्ष का मार्ग लाँघकर उस आलोक में लीन होने वाली है जिसमें लीन होने के लिए संसार लालायित रहता है।’’

‘‘परन्तु मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।’’
‘‘बाहरी रूप-रंग देखने वालों को वास्तविक श्रेष्ठता दिखाई नहीं देती। भाई, संसार में जो कुछ दिखाई देता है कितना कुरुप है, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि सब कुछ सराहनीय है ! भगवान शिव कि जटाओं से स्रवित जल इस नदी के कण-कण में व्यापक है। उसका तो एक बिन्दु-मात्र पूर्ण सागर को पवित्र करने की सामर्थ्य रखता है।’’
‘‘यह मन की भावना मात्र है भक्त ! डुबकी लगाकर देखो कि तुम्हारे शरीर को भगवान की जटाओं से निकला जल लगता है अथवा उस जहाज का फेंका हुआ कचरा ?’’
इस भावना में कुछ तत्त्व है क्या ? यह प्रश्न मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है। परन्तु संसार में कहीं शुद्धता-पवित्रता मिलती भी है ? प्रकृति में प्राय: सब वस्तुएँ मिश्रित तथा अन्य वस्तुओं से संयुक्त अवस्था में पाई जाती हैं और बुद्धिमान पुरुष मैल-मक्खी को निकाल शुद्ध वस्तु उपलब्ध कर लेते हैं।

भारतीय संस्कृति भी गंगा की पवित्र धारा की भाँति बहुत ही प्राचीन काल से चली आती है। वेदों के काल से चली हुई, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, दर्शन-शास्त्र अथवा रामायण, महाभारत इत्यादि कालों में समृद्ध होती हुई और फिर बौद्ध, वेदान्त, वैष्णव इत्यादि मतों से व्याख्यात होती हुई बहती चली आई है। कालान्तर में इस सभ्यता में कचरा और कूड़ा-करकट भी सम्मिलित हुआ है और अब हुगली नदी की भाँति एक अति विस्तृत, मिश्रित और ऊपर से मैला प्रवाह बन गई है।

इस प्रवाह में अभी वह शुद्ध, निर्मल और पावन ज्योति विद्यमान है। आँख के पीछे मस्तिष्क न रखने वाले के लिए वह गन्दा पानी है। परन्तु दिव्य दृष्टि रखनेवाले जानते हैं कि इसमें अभी भी मोती माणिक्य भरे पड़े हैं। भारतीय सभ्यता गंगा की भाँति हुगली का पानी नहीं, प्रत्युत वह पवित्र जल है जो त्रिपुरारि की जटाओं से निकलता है।
वैदिक सभ्यता आज हिन्दुस्तानी तहजीब बनने जा रही है; हुगली का मटियाला गंधाता हुआ जल बनने जा रही है। उसमें स्नान करने का अर्थ यह होगा कि पूर्ण विदेशी सभ्यता इसको आच्छादित करने जाए। केवल देखने वाले, इसको पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया समझते हैं, परन्तु समझने वाले इस हुगली के पानी में गंगोत्तरी के जल को व्यापक पाते हैं।

    
     

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