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नारी विमर्श >> तृष्णा

तृष्णा

यादवेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :109
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5314
आईएसबीएन :81-8072-011-x

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नारी मन के अधूरेपन व सूक्ष्मता का तार्किक वर्णन....

Trashna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘तृष्णा’ हिन्दी व राजस्थानी के विख्यात लेखक यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ का ऐसा उपन्यास है जिसमें जीवन के अधूरेपन को सूक्ष्मता व तार्किक दृष्टि से दर्शाया गया है। नारी मन के ‘चन्द्र’ अप्रितम चितेरे हैं और इस उपन्यास में चित्रित चरित्रों का अन्तर्द्वन्द्व और पीड़ा उस यथार्थ को बताती है जो हमारे आसपास साकार सी खड़ी है। मन का पार पाना दूभर है पर उसकी अतल गहराइयों में छुपी तृष्णाओं की सम्पूर्ति कठिन है। ये तृष्णाएँ कैसे-कैसे रूप धारण करती हैं दृष्टव्य है। भाषा सहज और शैली रोचक है। पठनीय इतना है कि आप तन्मय हो जाएँगे।

प्रकाशक

आदमी का मन

दोपहर की गर्म हवा क्षण-भर चल कर इस तरह रुक गयी थी मानो सावन के अम्बर में श्वेत बादलों के टुकड़ों को अपलक होकर देखना चाहती हो। कभी-कभी बादलों के छोटे-छोटे टुकड़े मिलकर प्रचण्ड सूर्य को ढँक लेते थे तो धुँधला-सा छा जाता था।
अपने सज्जित कमरे में क्लान्त, चिन्ता-प्रखर मस्तिष्क वकील सरजूराम व्यग्रता से चहलकदमी कर रहा था। उसकी भंगिमा से ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह अपने अन्तराल में तूफान छिपाए हुए है। उसने प्राणपण से अपने को स्थिर व संयत रखना चाहा पर वह इसमें असमर्थ रहा। उसकी चहलकदमी बढ़ती गई। अशाँत, उद्विग्न और व्यथित।

प्रशान्त-स्थिर नीले नभ में भागते हुए बादल के टुकड़े अकस्मात् भीमकाय काली घटाओं में परिवर्तित हो गए। घटाओं का गर्जन-पल-पल अधिक मुखरित हो रहा था।
चिन्ता की प्रखरता से अभिभूत उसे घटाओं के बीच दीप्त दामिनी ने चौंका दिया था। बूँदों का वर्षण प्रारंभ हो गया था। एकाध बूँद उस पर भी पड़ जाती थी। बिजली तड़प रही थी, घन गरज रहे थे और बाहर सड़क पर दो-चार बच्चे स्नान कर रहे थे।

सरजू ने उन बच्चों के साथ अपने को आत्मसात् किया। उसे अपने आपको इस तरह आत्मसात् कर देने में असीम आनंद का अनुभव हुआ। स्मृति के पँख उड़े, अतीत की ओर उड़े।
जब वह छोटा था, ठीक उसी प्रकार स्वच्छन्द होकर वर्षा में स्नान किया करता था। उसकी माँ हरदम उसे टोका करती थी पर वह उसकी जरा भी परवाह नहीं करता था। वह अपनी माँ का इकलौता बेटा था-हृदय का सहारा और आँखों का तारा।
वर्षा में खेलने वाले बच्चे खेल ही खेल में झगड़ पड़े। एक बच्चे ने कसकर दूसरे बच्चे के मुँह पर घूँसा लगा, दिया दूसरा बच्चा दुर्बल था, इसलिए प्रतिरोध की शक्ति उसमें नहीं थी। वह करुण रोदन करता हुआ एक ओर रवाना हो गया।
विजयी लड़का जैसा कि समर-भूमि में शत्रु को पराजित करने के पश्चात् विजेता विजयोल्लास में उन्मादित होकर हुँकार करता है, ठीक उसी भाँति हुँकारने लगा।

सरजू हठात् सोचने लगा-मनुष्य अपनी आदिम प्रवृत्तियों को नहीं छोड़ सकता। ये प्रवृत्तियाँ उसके अन्तरतम मन में, उसके गुह्य प्रदेश में ज्वालामुखी की आग की तरह छुपी रहती हैं, समय-समय पर उचित अवसर पाकर जरूर जागती हैं तब मनुष्य पशुवत हो जाता है। ये प्रवृत्तियाँ सेक्स, युद्ध भूख और भय ! ये दो लड़के-एक में युद्ध की प्रवृत्ति और दूसरे में भयजनित आत्मरक्षा। मनुष्य सभ्यता के पथ पर आरुढ़ है ? छि....छि:। आदमी इन्हीं प्रवृतियों का दास है।
तभी पराजित बच्चे ने गीली मिट्टी का एक लोथड़ा उठाकर विजयोन्मानित बच्चे पर फेंक दिया। फेंक कर वह सरपट भाग गया।
सरजू ने एक बार महार्जन करते मेघपुंज की ओर निहारा। उसके अन्तर-गगन में कटु स्मृतियाँ बिजली की भाँति ज्योतिमान् होने लगीं।

उसे याद आया-अपना शहर, अपनी जन्मभूमि, जहाँ उसका बचपन अच्छी-बुरी घटनाओं के साथ व्यतीत हुआ था।
नगर की चहारदीवारी के सन्निकट उसका कच्चा घर था। कच्चा भी ऐसा कच्चा, केवल मिट्टी का सफेद और गेहुँए रंग की मिट्टी में गोबर मिलाकर जैसे-तैसे जीवन निर्वाह के लिए घर बना लिया गया था। उसका बाप घिस्सू उसे बूढ़ा घर कहता था। कब जोर की बारिश हो, कब वह भूमिसात् हो जाए ?’ उसके बाप के मस्तिष्क में यह प्रश्न इस घर को लेकर सदा उपस्थित रहता था। जीवन के शेष दिनों में उसे याद है कि इस घर ने उसके पिता को अत्यंत व्यग्र और व्यथित कर दिया था।

उसकी माँ हृदय की दयालु होने के साथ-साथ उसके बाप से बहुत कटु व्यवहार रखती थी। कभी भी उससे मधुर बातें नहीं करती थी। फिर भी उसका बाप उससे प्रेम करता था। उस पर अपने प्राण न्यौछावर कर सकता था।
एक दिन उसका बाप शराब पीकर आया था। बिरादरी में किसी की शादी थी। धोबी जाति में विवाहोत्सव पर दरिद्र से दरिद्र धोबी भी अपने सगे-सम्बन्धियों को प्रसन्न करने के लिए ऋण लेकर भी अफीम और शराब का प्रबन्ध करता है। शराब भी कैसी, विशुद्ध देशी, ठर्रा। उत्तेजक और बदबूदार ! ऐसी दावत देना बिरादरी में सम्मान सूचक व शान की बात समझी जाती है। इसे बेटी का बाप ‘दुल्ली’ अच्छी तरह जानता था। इसलिए अपनी बिरादरी में अपनी मूँछ का चावल रखने के लिए उसने साहूकार से कर्ज लेकर भी बिरादरी को तुष्ट किया। उनसे वाहवाही लूटी।

घिस्सू पुराना पियक्कड़ था। पत्नी-भय से भले ही वह अपनी पीने की तीव्र इच्छा को दबाता रहे लेकिन ज्योंही उसे किसी की आड़ मिलती, त्योंही वह शराब में डूब जाने का प्रयास करता था। वह पीने वालों के बीच की इस तरह स्तुति करता था, जिस तरह मन्दिर का पंडित अपने भक्तजनों के समक्ष प्रभु की करता है।
तब वह मतवाले भैरव की भाँति झूमता हुआ अपने घर आता था। शराब में उसकी चेतना प्रायः खो जाती थी। फिर भी उसके अचेतन मन में अपनी पत्नी का भय काँपती हुई लौ की तरह लहकता रहता था : उन्माद के विषय में अपने को खोकर भी वह इस दुश्चिंता से मुक्त नहीं हो पाता था कि मेरी पत्नी मुझे डाँटेगी।

घर की देहलीज पर वह एक बार सावधान होता। प्यार से पुकारता ‘सरजू’। उसका यह स्वर स्वभाविकता से अधिक लम्बा होता था।
सरजू यदि जागता तो, भागकर उससे लिपट जाता था। वह उसे गोद में उठाकर बेर या सेब देकर, अपनी पत्नी की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास करता था पर पत्नी उसकी चाल को तुरन्त भाँप लेती थी। उसकी आँखों की भाषा तुरंत समझ लेती थी और लड़ाकू की भाँति अकड़ कर, तनकर कर्कंश स्वर में पूछती, ‘‘यह आँखें लाल क्यों हैं ?’’

वह आकुल होकर बगलें झाँकने लगता। इधर-उधर निहार कर रुकते-रुकते कहता ‘‘बात यह है..बात यह है सूरज..।’’ वह पूरा बोल भी नहीं पाता था कि वह बीच में ही गरज पड़ती, ‘‘तू अपनी आदत से लाचार है। तू पिये बिना मानेगा नहीं। अपना सरजू तुझे देख-देखकर बिगड़ जायेगा ? तू सचमुच बाप नहीं, कसाई है, अपने हाथों अपने बेटे के लिए कब्र खोद रहा है। ‘छि:छि:छि: तुम्हें लाज शरम नहीं आती ?’’
घिस्सू गूंगे की तरह मौन रहता और मूर्तिकी तरह निश्चल। पर उसकी पत्नी कब मानने वाली थी, पाँव पटकती रहती थी, ऊलजलूल उपदेश देती रहती थी।

औरत अन्त में तनिक स्थिर और शाँत होकर पूछती, ‘‘आखिर तू चाहता क्या है ?’’
घिस्सू जब देखता कि उसकी पत्नी का गुस्सा कुछ ठंडा पड़ गया है तब उसे साहूकार की भाँति ‘लिछमी’ कहता था। उसने अभी भी वही अनुकरण किया, ‘‘सुन लिछमी, तू गुस्सा व्यर्थ का कर रही है। बिरादरी की बात ठहरी, पीनी ही पड़ती है।...अरे वह दुल्ली है न, उसने जोर-जबरदस्ती इतनी पिला दी ? मैं उसे मना भी करता रहा।’’
‘‘अच्छा, आप उसे मना भी करते रहे और वह आपको पिलाता रहा ! हे राम ! कितना सफेद झूठ बोल रहा है तू, क्या उसने अपने घर में शराब की भट्टी लगा रखी है ? या उसे गड़ा खजाना मिल गया है ?’’ वह तुनककर उसके एकदम समीप आ जाती।
बेचारा घिस्सू, चुप शाँत और भयभीत।

‘‘तू वकील होती तो कितना अच्छा होता। तुझे जीतना बड़ा कठिन है। सच, तू बड़ा तर्क करती है। बात को ऐसे काटती है, बस बोलती बन्द हो जाती है।...हाँ सरजू कहाँ है ?’’
‘‘यहीं कहीं खेलता होगा।’’
‘‘अच्छा-अच्छा, वह आए तो उसे यह सेब दे देना।‘‘ वह सेब अपनी पत्नी को देकर सो जाता था।
पत्नी सेब को सूंघकर बड़बड़ाती, ‘बदबूदार, सड़ी हुई, जरूर यह रास्ते से उठाकर लाया है। यदि ख़रीदा है तो पैसा मुक्त लुटा आया। छि:छि: यह कोई सेब है, महीनों से दुकान में रखी होगी। इसे तो पशु भी न सूंघे’...तब वह तेज स्वर में दूर से ही कहती-‘‘जब खरीदना नहीं आता है तो मत खरीदा करो, पैसा धूल में फेंक आते हो।’’

घिस्सू अपनी पत्नी का फुत्कारना, बड़बड़ाना बड़ी देर तक सुनता रहता था। जब वह बोलती-बोलती थक जाती, तब वह बिस्तरे से ही कहता था, ‘‘लिछमी भूख लगी है।’’
भूख शब्द सुनते ही लिछमी का पारा फिर सातवें आसमान पर। स्वर में सारी घृणा भरकर कहती, ‘‘यह पड़ी नमक-रोटी, आ और खा ले, बादशाह की तरह हुक्म कहीं और चलाया कर, मैं अपने सरजू को खोजने चली।’’

घिस्सू आज से नहीं, वर्षों से अपनी पत्नी के इस स्वभाव से परिचित था कि वह इसी प्रकार उससे झूठमूठ ही रुठकर चली जाया करती है, सरजू तो केवल बहानामात्र है, निमित्त है। वह मानिनी उसके समक्ष पराजित होना नहीं चाहती, झुकना नहीं चाहती। वह जब चली जाती थी तो घिस्सू चुपके से उठकर रसोई में चला जाता। एक कोने में घास की छप्पर डालकर बनाई रसोई, धुएँ से काली, मटमैली, घुटनदार। वह आता और एक कटोरे में रखा दूध-शक्कर खाकर अपनी पत्नी को दुआएँ देकर सो जाता।

तब वह प्रेमविह्लवल हो जाता था। उसकी आँखें अश्रुप्लावित हो जाती थीं। वह अपने आप कह उठता था, ‘‘जबान तीर-सी भले ही हो पर हृदय मोम-सा है।’ वह अपनी पत्नी पर अपने आपको व सात लोकों को विसर्जन करता हुआ निद्रा की गोद में सो जाता था। सुख और संतोष की अपरिसीम भावना लिये।
मधुर स्वप्नों में स्वर्णिम पँख उसके अचेतन मस्तिष्क में छाने लगे।

तभी सरजू की माँ आई। उसे सोया हुआ देखकर बिगड़ उठी। अपने आँचल से कुछ पैसे रखकर पूर्ववत् स्वर में बोली, ‘‘घोड़े बेचकर सो गया है। जरूर यह कुम्भकरण का वंशज है।...और सरजू कहाँ है ?..सरजू, वाह, अभी तक साहबजादे पधारे ही नहीं और इसको देखो न, चिंता को खूंटी पर टाँग कर सोया है। बच्चा कहाँ है, क्यों नहीं आया है ? रात बीतती जा रही है। उफ ! यह कैसा बाप है ? न बेटे की चिंता और न धंधे की फिक्र ! सेठ धनीराम ने आद पैसे देने को कहा था, यदि मैं अभी जाकर पैसे नहीं लाती तो सेठ उस मंगलवार देता। कैसा अजीब आदमी है ? शेर की तरह गुर्रा कर कहता है-‘पैसा मैं मंगलवार को ही देता हूँ-बस मंगल तो मंगल, नहीं तो अमंगल ! मंगल गया और हररोज कुआँ खोदकर आग बुझाने वालों का अमंगल आया !’’ वह विचारों के तूफान में उड़ती रहती। उसके उर्वर मस्तिष्क में ऊबड़-खाबड़ पगडंडी की भाँति अप्रासांगिक और असूत्रबद्ध बातें उठती रहतीं। वह उन्हें प्रकट करती रहती। यही उसका स्वभाव था। पल में तोला और पर में मासा।

मूसलाधार वर्षा थम गई थी।
मेघों का गरजना, बिजलियों का तड़पना अब प्रायः बन्द हो गया था। सड़क सूनसान थी। अतीत की मधु स्मृतियाँ विचारोत्तेजक वकील सरजू को तनिक सांत्वना दे रही थीं। अब खिड़की से हटकर वह पलंग पर आकर अर्धशायित हो गया। उसने अपना टेबल-लैम्प जला लिया।
प्रकाश के साथ उसके अन्तम में पावन नवोन्मेष जागा। अतलांत के गहन आवरणों में सुप्तक ममत्व अँगड़ाई ले उठा। उसके म्लान मुख पर वात्सल्य की मधुरिम रेखाएं दौड़ गईं।
उसकी माँ ! ममता की साक्षात् प्रतिमा। धीर और गंभीर। तीखे स्वरवाली और सरल।

जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ता था। उन आठ सालों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, हाँ शहर का राजा मर गया था। युवराज महाराजा बन गया था। बस, इतना ही परिवर्तन इतना ही हेरफेर।
उसके बाप की वही आदत। उसकी माँ का वही स्वभाव, वही खटकट, वही वाग्युद्ध और वही शाँति-समझौता।
रात्रि की बेला। कालिमा का साम्राज्य। सिसकती गली का बल्ब।
लड़के। कबड्डी।
डू डू डू, कबडी कबडी डी डी डी ई ई...
राम राम राम...
राम लक्ष्मण जानकी...जै बोलो हनुमान की...
सीताराम...सीताराम...ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ ऽ

प्रत्येक लड़का अपना-अपना सूत्र बोल-बोलकर विरोधी दल के लड़कों को निष्कासित करते जय-श्री सहेरा अपने पर लेने का भरसक यत्न कर रहा था।
सरजू चूंकि धोबी था अतः उसने अपना सूत्र सबसे भिन्न बना लिया था। विरोधी दल के क्षेत्र में घुसने के साथ ही होठों से फूट पड़ता था-कपड़ा धोऊँ, कपड़ा धोऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऊँ ऽ ऽ ऽ
लोग उसके इस कथन पर हँसते थे, तालियाँ पीटते थे। हा-हा-हा, ही-ही-ही ! लेकिन सरजू अपने खेल में तन्मय रहता था। उसका ध्यान शत्रु को पराजित करने में लगा रहता था। वह निश्चित रूप से विजयी होता था। उसके दलवाले उसे सदा शाबासी दिया करते थे।
अभी खेल खत्म नहीं हुआ।

तभी बालूराम के लड़के प्रयाग ने लड़कों के बीच से छिपकर सरजू की चोटी खींच दी। सरजू इतनी भीड़ में यह नहीं समझ सका कि यह हरकत किसने की है ? पर उसने सभी के मुखों पर कुटिल हास्य देखा जो उसके लिए असह्य था। वह अब सावधान होकर खड़ा हो गया। प्रयाग ने पुनः दुष्टता की। सरजू ने उसका हाथ पकड़ लिया। बस, फिर क्या था ? गाली-गलौज, गुत्थम-गुत्था, मार-पीट !
प्रयाग तगड़ा था। मोहल्ले के प्रसिद्ध पंडित बालूराम का बेटा था।
वह सरजू पर पिल पड़ा। खेल खत्म ! लड़के उन दोनों को घेरकर खड़े हो गए। कभी प्रयाग को उकसाते और कभी सरजू को वाहवाही देते।

परिणाम यह निकला-सरजू पिट गया। वह अपने कपड़े झाड़ कर जाने को उद्यत हुआ ही था कि उसके कानों में किसी नारी की आवाज पड़ी।
उसके कान खड़े हो गए।
‘‘मौसी !’’ उसके मुँह से हठात् निकला और वह अपनी पीड़ा भूलकर द्रुतगति से अपनी मौसी के घर की ओर भागा।
उसके घर से थोड़ी ही दूर पर उसकी मौसी का मकान था। कच्ची मिट्टी का, पर उसके मकान से जरा बड़ा। क्योंकि उसकी मौसी का ससुर अपनी बिरादरी का सरपंच था। प्रतिष्ठा सम्पन्न वृद्ध।

उसका धंधा भी अलग शर्तों पर चलता था। उसने कई घर बाँध रखे थे। सेठ चिमनलाल के घर से तीन रुपए, सेठ रामदास डागा का घर-पाँच रुपए, पंडित घुन्नीलाल का घर-तीन रुपए, हँसा विधवा का घर-एक रुपया, आदि-आदि।
विवाह-शादी पर अलग-अलग लगा। मृत्यु भोज पर एक थाली मिठाई। सम्बन्ध घरेलू। व्यवहार नौकर-मालिक जैसा।
वह अपने ग्राहकों को सेठजी कहता था और ग्राहक उसे फग्गू या फगला’ वह ‘आप’ से सम्बोधित करके सम्मान देता था, वे तू तू करके उसे गली के कुत्ते का स्मरण दिला देते थे ! फिर भी वह परम्परा का पोषक था। रुढ़ियों के प्रति मोह और आदर।
वह शूद्र है, शूद्र ! नीच, पतित और गुलाम ! ऐसी उसके मन में धारणा थी।

सेवा उसका धर्म, मोक्ष एवं लोक-परलोक का कल्याण !
उस बाप का बेटा था जैतू। सरजू का मौसा। शराबी, जार, कामचोर।
वकील सरजू ने बेचैनी से करवट बदली। वह बेचैन हो उठा। व्यथा की उत्ताल तरंगें उसके मानस को मथने लगीं।
अमृत और सुख ! नहीं, दुःख-पीड़ा, व्यथा। संताप मर्मान्तक आघात।
सरजू का तमाम शरीर स्थिर हो गया।
हाँ, उसकी मौसी ! नारी-चरित्र की प्रतिमा ! विचित्र, महाविचित्र, सुगम-अगम और अबोधगम्य। उसकी मौसी सुरगा और जैतू ! प्रीत के प्रतीक। अनुकरणीय !

एक दिन विलास की तीव्र भावना जीवन-परिधि को लाँघकर उन दोनों के मध्य खड़ी हो गई। वे आपस में प्यार करने लगे। लाग लगी फिर डर कैसा ? ठीक ही तो है। प्यार की लगन, प्रीत की तपस्या, फिर भय और विवशता कैसी ? सुरगा ने संसार के समस्त बन्धनों को तोड़ डाला।
उसका अभी-अभी विवाह हुआ था। हाथ की मेंहदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा था। वातावरण में पैंजनियों के लघु घुँघरुओं का क्वणित भी बंद नहीं हुआ था और उसने अपने पति को त्याग दिया।
एक दिन लोगों ने देखा-सुरगा बिना बिरादरी का निर्णय सुने जैतू के घर में चली आई है।
बिरादरी को चुनौती देना सहज नहीं था।

बिरादरी की अजेय शक्ति, उसके कानून और उसकी मार्यादाएँ।
सुरगा के पति ने आकर पंचों के दरवाजों पर दुहाई लगाई।
घिस्सू सरपंच था। बिरादरी में उसका बड़ा दबदबा था। वर्षों से उसके न्याय की दुंदुभि शहर का धोबी समाज सुनता आया था। दूध का दूध पानी का पानी यही उसका न्याय था। यही उसके निर्णय का प्रतिफल होता था। ‘नीर-क्षीर-विवेक’ यह उक्ति उसके न्याय के लिए कही जा सकती थी।
सुरगा का पति जैतू समाज की देहलीज पर आया। उसने पंचों के कानों के पर्दों को हिलाने की चेष्टा की। वह घिस्सू के पास भी पहुँचा। घिस्सू ने उसकी बात सुनी। उसने जैतू को आश्वासन दिया, ‘‘तुझे न्याय मिलेगा।’’

जैतू असंतोष को स्वर में भरकर बोला, ‘‘देखो घिस्सू, अंधेरा देखकर ठोकर न खा जाना। यह घर का न्याय है, समझा। तेरी सगी साली है कहीं जोरू की डाँट-डपट में न्याय का गला न घोंट देना।’’
‘‘पंच अपनी गद्दी पर बैठकर सिफारिश का सहारा नहीं लेता है।’’ घिस्सू ने दम्भ से कहा, ‘‘एक बात मैं तुझे अपने नाते कहना चाहूँगा, यदि तू उस पर शाँति से विचार करे तो ’’
‘‘क्या ?’’
‘‘तू मर्द का बच्चा है, यदि तेरी जोरु तेरे हाथों में नहीं है तो तू भी दूसरी से नाता क्यों नहीं कर लेता ? अपने समाज में यह सब जायज है।’’
जैतू को यह बात रुचिकर नहीं लगी। वह तुरन्त गुस्से में भर उठा, ‘‘तूने कर दिया न्याय ? अरे घिस्सू ! मैं पहले ही जानता था कि तू फिसलेगा यह सगी साली का मामला है।’’

‘‘फिर अर्थ का अनर्थ निकालने लगा। मैंने तुझे एक मित्र के नाते यह बात कही थी, पंच के नाते नहीं।’’
जैतू निराश होकर वहाँ से चलता बना।
वकील सरजू का हृदय भारी हो गया।
वीणा ने कमरे में प्रवेश करके उसके अतीत के स्वप्न को भंग कर दिया।
वीणा आवश्यकता से अधिक मौन रहती थी। बहुत ही सीधी और सादी। विधवा। हठी।
दिन भर का कठोर श्रम। मेहनताना पचास रुपया और दो जून रोटी और साधारण कपड़े।
‘‘बाबू जी चाय।’’ उसने कमरे में घुसते ही कहा।
सरजू बैठ गयी। उसके चेहरे पर पूर्ववत् गम्भीरता थी। ‘‘नौकरानी कहाँ है ?’’
‘‘छुट्टी पर।’’ वीणा ने उत्तर दिया।



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