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सौदामिनी

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5307
आईएसबीएन :81-85023-39-5

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पीड़ित वर्ग की कथा...

Saudamini

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैंने अपने जीवन के आधी सदी से अधिक वर्षों में, देश के जन-सामान्य के दु:ख-सुख को अपना माना। उस समय के प्रत्येक पीड़ित वर्ग की व्यथा मेरी अपनी व्यथा बनी और वही व्यथा कथा, कहानी उपन्यासों के रूप में चित्रित की। क्योंकि मेरा विश्वास था कि उपदेशों की अपेक्षा घटनात्मक कथाएँ देश की जनता को साहित्यिक रस के साथ, अच्छा मानव बनने की प्रेरणा देंगी।

पच्चीस वर्षों तक मैं ‘आकाशवाणी-लखनऊ’ में प्रमुख लेखिका के रूप में कार्यरत रही। महिलाओं, बालकों और जनता के लिये सैकड़ों नाटक व कथाएँ लिखीं। आकाशवाणी को मैं मजाक में ‘अंधों का सनीमा’ कहती थी अर्थात् कानों को रुचने वाली रचनाएँ ही वहाँ सफल होती थीं; इस कारण उन रचनाओं की शैली प्रकाशन हेतु लिखी रचनाओं से थोड़ी पृथक है। उनमें आपको सम्वाद-सौन्दर्य की प्रचुरता मिलेगी।
ये विविध रचनाएँ पढ़कर आप कथारस का आस्वादन करें; इसी महत् आशा के साथ।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

चिर कुमार

प्रमीला ने हारमोनियम सम्हाला और गाने लगी-
निश दिन बरसत नैन हमारे.....
सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जब से श्याम सिधारे।।
उसकी लम्बी पतली उँगलियाँ रीड्स पर थिरक रही थीं और उसका लचीला कोमल स्वर वरदा भवन के उस बड़े हाल में एक कयामत-सी बरपा कर रहा था, उसने फिर गाया-
दृंग अंजन सब.....।
इतने में ही सब गुड़ गोबर हो गया, हारमोनियम के सारे स्वर एक-साथ ही चीख पड़े, रे रे, ई ई।
अरे यह क्या करती है, यह क्या करती है साथ ही कई लड़कियाँ पुकार उठीं। हाँफते-हाँफते शीला ने बाहर से आकर अपने दोनों हाथ हारमोनियम के रीड्स पर रख दिए थे, गीत बन्द करके प्रमीला ने कहा-‘‘अरे, यह क्या किया शीला ?’’
शीला ने उत्तर नहीं दिया, खड़ी-खड़ी लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी, मालूम होता था वह दौड़ती हुई आई इसी से दम फूल रहा होगा।

प्रतिमा ने भी उसकी चिकोट काटते हुए कहा ‘‘अरी जा री शीला, कैसा अच्छा गीत चल रहा था, आखिर तुझे यह हुआ क्या, जो यों हारमोनियम पर बरस पड़ी, एक तो इतनी लेट आई।’’
अभी वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि शीला ने हाँफते-हाँफते ही कहा-‘‘बस बोल मत नहीं तो मार बैठूँगी’’ और पास बड़ी कुर्सी पर बैठते हुए उसी स्वर में कहने लगी-‘‘श्याम बिरह में तो तुम सबों की आँखें नीरद बन गई हैं, और सर पर वह जो भीष्म का भी गुरु बिजली गिरा रहा है उसकी कुछ चिन्ता ही नहीं।’’
कॉलेज की सभी छात्राएँ जानती हैं कि शीला जल्द उत्तेजित हो जाती है, थोड़ी सी ही बात पर थिरकने लगती है, इसीलिए उसकी इस समय की चंचलता देखकर उनमें से किसी को अधिक विस्मय नहीं हुआ।
‘‘कौन-सा भीष्म शीला’’ प्रमीला ने ही पूछा।

‘‘अरे वही, इसी कॉलेज का विजय, जो पारसाल फिलॉसफी में एम.ए. करके निकला है।’’
‘‘उसे क्या हुआ’’ दूसरी ने पूछा।
‘‘होता क्या, उसने हम सबों की इन्सल्ट करने पर कमर बाँधी हुई है, सारी कॉलेज लाइफ में वह हमें जलाता रहा, इस साल हमने सोचा था कि चलो आफत दफा हुई, पर कहाँ, चार दिन चुप रहकर वह तो और भी जोर-शोर से तैयार हुआ है।’’
इस वाक्य ने सभी लड़कियों की चेतना-शक्ति को जाग्रत कर दिया। कई अपनी-अपनी कुर्सियाँ छोड़कर उसके पास चली आईं।

‘‘क्यों, क्यों, क्या हुआ ?’’ दो तीन ने एक साथ ही प्रश्न किया। परन्तु शीला अपनी ही धुन में कहती गई।
‘‘आ तो जाती मैं ठीक टाइम पर ही। घर से तो मैं ठीक चार बजे ही चली थी, जैसे ही मैं टाऊन हाल के सामने पहुँची तो देखा कि बहुत से आदमी और कॉलेज स्टूडेन्ट जमा हो रहे हैं, और बीच में टेबिल पर खड़ा हुआ वह विजय हाथ-मुँह नचा-नचा कर न जाने क्या-क्या बक रहा है, सुनते ही रक्त खोलने लगे, ऐसी थी उसकी वक्तृता। जनाब कह रहे थे, विवाह, विवाह ने ही भारत को दुर्बल कर दिया है, भारतीय परतन्त्रता के मूल में है उसका विवाह। भारतीय युवको को पंगु बनाने वाला विवाह। वास्तव में सच पूछो तो विवाह केवल हम लोगों का छिपा विलास मात्र है, प्रेम मनुष्य के मस्तिष्क का एक विकार है जो सर्वसाधारण को पागल बनाकर उन्हें संसार की उन्नति में साधक बनाने की अपेक्षा बाधक बना देता है।’’
‘‘तो उसने कुछ बुरा तो नहीं कहा।’’ बीच ही में सविता बोल उठी। आज उसकी जन्म दिवस के उपलक्ष्य में उसके यहाँ पार्टी हो रही थी।

‘‘अच्छा तो आप भी विवाह को विलास समझने लगीं ?’’ शीला ने चिटक कर कहा। उसकी बातों में यदि कोई बोल उठता था तो वह सदैव ही इसी भाँति चिटक पड़ती थी। सविता ने इसको बुरा नहीं माना, वह उसी प्रकार सहास्य मुद्रा में बोली-‘‘मेरे कहने का यह अभिप्राय नहीं, शीला। विवाह विलास हो या न हो किन्तु भारत के इस अनिवार्य विवाह-बन्धन से उसे बहुत हानि पहुँचाई है यह तो मानना ही पड़ेगा।’’
‘‘ओ हो ! तब तो आपको भी उसी के दल में शामिल हो जाना चाहिए किन्तु वह आपको भर्ती भी करेगा या नहीं, यही विचारणीय है। क्योंकि वह यह भी कहता है कि आजकल शिक्षिकाएँ केवल मोटरों की भूखी, फैशन की गुलाम और नजाकत की पुतलियाँ होती हैं, इनके द्वारा कभी कोई ठोस कार्य हो ही नहीं सकता। ये तो केवल हवाई तितलियाँ हैं।’’
‘‘बड़ा पाजी है’’- शीला की इसी बात से प्रभावित होकर व्यग्र स्वर में प्रमीला ने कहा।

‘‘वह सभी शिक्षिकाओं को ऐसा ही कहता है।’’ और भी कई लड़कियों के मुख पर असन्तोष के चिह्न दिखाई देने लगे। शीला और भी उत्साह से कहने लगी- ‘‘अपने को भीष्म का अवतार या शंकराचार्य का भी गुरु समझता है और कहता है कि भारतीय स्त्रियाँ इसीलिए तो विवाह के पक्ष में हैं कि विवाहित होकर उन्हें जीविकोपार्जन की चिन्ता से छुटकारा मिल जाता है, उन्हें जैसे बच्चे पालने के अतिरिक्त और कोई काम ही नहीं दिखता। इसके बिना उनका जीवन व्यर्थ दिखाई देता है।’’
‘‘अरे बाबा, बस भी कर। तेरी वक्तृता सुनते-सुनते कान ही बहरे हो गए हैं।’’ तारा ने उसे चुप करने के लिए कहा।
‘‘बकने भी दे स्टुपिड को..........’’ और प्रमीला को लक्ष्य करके कहा-‘‘हाँ री प्रमीला। शुरू कर निशि दिन......’’
शीला के क्रोध का टेम्परेचर एकदम 107 डिग्री पर पहुँच गया। वह फुर्ती से उठ पड़ी और तनकर बोली-‘‘हाँ-हाँ, प्रमीला शुरू कर।’’
निशि दिन बरसत नैन हमारे

‘‘एक तो न जाने वह कहाँ का जंगली हमें पथ-राह-घाट में विलासिनी और जाने क्या-क्या बनाए और तुम लोग मौज से गाओ.........’’
निशि दिन बरसत नैन हमारे......
सविता ने उसे शान्त करते हुए कहा- ‘‘पगली कहीं की। गुस्सा हो गई भला तू ही बता, विजय का हम क्या बनावें, क्या इसी शोक में गाना भी छोड़ दें। जो तेरी मर्जी है, तो यही सही।’’
सविता शीला से उम्र में कुछ बड़ी है, क्लास में भी बड़ी ही है। थर्ड ईयर और सविता फोर्थ ईयर की छात्रा है, शीला उसे मानती भी बहुत है। अतएव उसके कथन से थोड़ा नम्र होकर बोली-‘‘नहीं, सविता बहन। मैं गाने को मना नहीं करती या तो इस विजय का यह भीष्मपन छुड़ा दो और या यह सब विलास प्रियता छोड़कर विश्व में आदर्श बनने के लिए इस प्रेम-रूपी मस्तिष्क-विकार को जय करने का बीड़ा उठा लो।’’
‘‘बिलकुल दो टूक फैसला कर दिया’’- सविता हँसती हुई बोली- ‘‘तो क्या गाना भी विलासिता में शामिल है !’’
‘‘और क्या ? ऐसे ही गीत तो इस मस्तिष्क-विकार के बड़े भारी विज्ञापन हैं.....’’
सदा रहत पावस ऋतु हम पर,
जब से श्याम सिधारे.......
ऐसे गीतों में विलासिता की वृद्धि ही तो होती है।
शीला की जली-भूनी बातें और विचित्र भाव-भंगिमा देखकर सभी लड़कियाँ मुस्करा रही थीं। किन्तु वह बिना किसी ओर दृष्टिपात किए ही कह गई- ‘‘गाना ही है तो गाओ-

सुमरन बिन गोते खाओगे, सुमरन बिन......’’
‘‘वह क्या बुड्ढ़ा गीत पसन्द किया है एकदम वैराग्यशतक की आवृत्ति ही है।’’ सुलोचना ने कहा- ‘‘ऐसी स्निग्ध सन्ध्या बेला, चारों ओर फूल-पौधे, हरियाली, उस पर हमारा बरस पन्द्रह या सोलह का सिन, जवानी की रातें, मुरादों के दिन और गाना गाओ- सुमरन बिन गोते खाओगे। मैं तो, गाना तो दूर, सुनूँ भी नहीं। वसन्त में मल्हार कहीं सोहता भी है यह असमय का संन्यास। भला कोई बात है।’’
‘‘इन मिस्टर विजय का दिमाग इतना खराब क्यों हो गया है, क्या वे विश्व को तर्क के आधार पर स्थिर समझते हैं’’- प्रमीला भी सुलोचना के स्वर मिला कर बोली- ‘‘अभी जनाब वास्तविकता के क्षेत्र में नहीं उतरे हैं वरना सारी चौकड़ी भूल जाते, यह नहीं कहते कि आलसी भारतीय युवकों को थोड़ा बहुत कर्मशील बनाती हैं तो उनकी स्त्रियाँ ही। उन्हीं की प्रेरणा और कार्य-कुशलता के कारण ही तो यह लोग थोड़ा बहुत उपार्जन न करते।’’ सविता ने उसके वाक्य में अपना वाक्यांश जोड़कर विषय की गम्भीरता मिटानी चाही, किन्तु शीला फिर बोली-‘‘नहीं, सविता बहन, विजय फ्लॉसफर है न। वह अपने को निष्काम कर्मरत समझता है। बस इसीलिए दूर तीन की उड़ाता है। कॉलेज में भी तो वह विवाह, प्रेम, स्नेह और परिस्थिति इत्यादि को हल्की और साधारण वस्तुएँ कहकर उड़ा दिया करता था।’’

‘‘उसे कोई उपयुक्त शिक्षा गुरु नहीं मिला न।’’ सविता ने उत्तर दिया।
‘‘हाँ-हाँ।’’ शीला एकदम नाच-सी पड़ी- ‘‘यह बात है, बहन। दिल चाहता है कि इन महाशय को ऐसी शिक्षा दी जाए कि चौकड़ी भूल जाएँ।’’
‘‘तू ही सोच भाई, यह कैसे हो सकता है।’’ सविता ने कहा।
‘‘न-न, सविता बहन ! तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, पाँव पड़ती हूँ, यह काम तुम्हें ही करना होगा। प्रमीला ! आ जा न तू भी, जरा मेरी मदद कर देना, बहन।’’
उस दिन फिर गीत न गाया गया, शीला ने सभी को इस विषय में फाँस कर व्यस्त कर दिया। बहुत रात बीतने पर बड़ी कठिनता से सविता ने पार्टी भंग की ! वह भी तब जब शीला सन्तुष्ट हो गई।
सिनेमा हाल में बैंठे हुए एक युवक ने दूसरे से कहा- ‘‘सतीश ! इस बार की कॉलेज मैगेजीन पढ़ी ?’’
‘‘न, अभी तक तो नहीं।’’
‘‘अरे ! वाह, इस बार तो वह पढ़ने लायक है। हमारे विजय के ऊपर एक बड़ी अच्छी आलोचना निकली है।’’
‘‘क्या ? किसने लिखी है।’’

‘‘उसके हिन्दी विभाग की सम्पादिका ने।’’
‘‘मिस सविता गुप्ता ने ?’’
‘‘हाँ-हाँ, वही।’’ आनन्द ने सिगरेट जलाते हुए कहा- ‘‘अरे यार ! उसने तो इसकी इतनी प्रशंसा की है मानो वही भारती का उद्धार करता है। उसके सिद्धांतों को उसने इतना ऊँचा, इतना विशाल बताया है कि वे भारत के लिए ही नहीं, विश्व के लिए भी अनुकरणीय हैं।’’
‘‘ओ हो ! भई इन लड़कियों की आदतों का कुछ पता ही नहीं लगता। मैं तो समझता था इन दिनों जिस प्रकार विजय विलासिता और प्रेम को लेकर स्त्रियों के ऊपर कटाक्ष करता है उससे यह लड़कियाँ बहुत बिगड़ेगी। किन्तु हुआ बिल्कुल उल्टा ही।’’
‘‘उल्टा हो या सीधा, पर भई सतीश ! चाहे मैं विजय के तर्क के सम्मुख न ठहर सकूँ, किन्तु उसके सिद्धांतों का पालन नहीं कर सकता।’’


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