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धर्मवीर हकीकत राय

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :63
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5304
आईएसबीएन :000

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अद्वितीय अनुपम बलिदानी वीर हकीकत राय

Dharamveer Hakikat Ray

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

क्या आज का ‘‘नपुंसक’’ हिन्दू नाबालिग हकीकत की निर्मम हत्या से कुछ पाठ सीखेगा ? आज का हिन्दू नपुंसकता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है किंतु उसको ‘क्लैब्यं मा स्म गमः’ कहकर उसके अस्तित्व और अस्मिता को जागृत करनेवाले ब्राह्मणों तथा दायित्वों को भी आज साँप सूँघ गया है।
कौन है इसका दोषी ? कौन है इसका अपराधी ? और कौन इस दोष और अपराध का निराकरण करने वाला ?
सुप्रसिद्ध लेखक श्री गुरुदत्त की विचारोत्तेजक तथा प्रेरणा देने वाली रचना।

अद्वितीय, अनुपम बलिदानी वीर

हकीकत राय का बलिदान जहाँ एक ओर हिन्दुओं और हिन्दुत्व की हकीकत का वर्णन करता है वहीं वह मुसलमान एवं इस्लाम की हकीकत को भी अनावृत्त करता है।

प्रस्तुत पुस्तिका में हकीकत राय के तेरह वर्षीय युग में भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि, हिन्दुओं की दुर्दशा और इस्लाम का थोथापन, मुल्ला-मौलवियों की अन्ध साम्प्रदायिकता, इस्लामी न्याय की हास्यास्पद-प्रक्रिया ही नहीं अपितु पैगम्बर की संकीर्णता, पक्षपात एवं नैतिकता तथा चारित्रिक पतन का संक्षिप्त विवेचन हमारे विद्वान् एवं चिन्तक तथा हिन्दुत्व के प्रखर और प्रबल प्रहरी मनीषि श्री गुरुदत्त जी ने वर्णन किया है।

हिन्दुत्व और इस्लाम की यह विवेचना गागर में सागर रूप है। हमारी सुपुष्ट धारणा है कि मात्र इस लघु पुस्तिका को पढ़ लेने पर ही पाठक के सम्मुख इस्लाम की क्रूरता, उसका मजहबी थोथापन, न्याय के नाम पर अन्याय की पराकाष्ठा, कुरान का खोखलापन और सुनी-सुनाई गप्पों को गूँथ कर ‘हदीस’ बनाए गए कागजों के अपवित्र पृष्ठों को पवित्रता और अकाट्यता का परिधान पहनाकर इस्लाम के अत्याचार, अनाचार, अन्याय और अन्धत्व की क्रूर कथा स्पष्ट हो जाएगी।

वही शरा, वही हदीस आज इस्लाम द्वारा हिन्दुस्थान पर हिंसा और साम्प्रदायिकता का ताण्डव करने पर उतारू है। क्या आज का नपुंसक हिन्दू नाबालिग हकीकत की निर्मम हत्या से कुछ पाठ सीखेगा ? आज का हिन्दू नपुंसकता की पराकाष्ठा पर पहुँच चुका है किंतु उसको ‘क्लैब्यं मास्म गमः’ कहकर उसके अस्तित्व और अस्मिता को जागृत करनेवाले ब्राह्मणों तथा दायित्वों को भी आज साँप सूँघ गया है।

कौन है इसका दोषी ? कौन है इसका अपराधी ? और कौन इस दोष और अपराध का निराकरण करनेवाला ?

इन सभी प्रश्नों का एक उत्तर ही है-हम और केवल हम। हमें परमुखा-पेक्षिता को छोड़कर आत्मबल को पहचानना होगा। समय और स्थितियाँ बार-बार चुनौती और चेतावनी दे रही हैं-जागो और कर्त्तव्य पथ पर आगे बढ़ो। काल (समय) की गति को कोई नहीं रोक सकता, केवल उसके साथ सहअस्तित्व वीर भावना वाले उसकी गति का सामना कर सकते हैं और नपुंसक समुदाय काल प्रवाह में प्रवाहित होकर अपना अस्तित्व, अस्मिता, और पहचान खो बैठते हैं।

काल का पुनरागमन कभी नहीं होता, तदपि इतिहास की पुनरावृत्ति होती देखी गई है। ‘गतं न शोचन्ति’ का वाक्य चिरनिद्रा में सोने का सन्देश नहीं देता अपितु कहता है-जो बीत गया सो बीत गया किन्तु अब तो जागो ! अपनी वीरता के इतिहास को दोहराओ ! हमारे पूर्वज, हमारे इतिहास पुरुष, हमारे रण बाँकुरे, हमारे हकीकत जैसे धर्मध्वजी, प्रताप जैसे प्रणवीर, शिवा जैसे शौर्यशाली, छत्रसाल जैसे क्षत्रप, गोविन्दसिंह जैसे गुरु, बन्दा वैरागी जैसे वीरों की गाथाएं आपके कानों में बार-बार डाली जा रही हैं। चिरनिद्रा त्यागों और हकीकत (बलिदानी वीर और वास्तविकता दोनों) की हत्या का प्रातिकार करने तथा अपना अस्मिता की स्थापना एवं अपने अस्तित्व का अहसास जताने के लिए मोहनिद्रा त्यागकर कटिबद्ध हो जाओ। इसी मन्त्र का उच्चारण करने के उद्देश्य से इस पुस्तिका का प्रकाशन किया जा रहा है।

अशोक कौशिक

भूमिका

विक्रमी संवत् 769 में हिन्दुस्थान पर इस्लाम का प्रथम आक्रमण हुआ था, जिसे कुछ अंशों में ही सफल आक्रमण कहा जा सकता है। यह आक्रमण समुद्र मार्ग से किया गया था और भारत के पश्चिमी भाग सिन्ध देश पर हुआ था।

इससे पूर्व भी इस देश पर विदेशी आक्रमण होते रहे थे, किन्तु इस्लाम का यह आक्रमण उन सबसे भिन्न था। इस आक्रमण का उद्देश्य केवल भारत देश की धन सम्पत्ति पर अधिकार करना, मात्र नहीं अपितु इससे कहीं अधिक था। देश पर अधिकार करना, उस आक्रमण का एक उद्देश्य होने पर भी उसका कारण कुछ और ही था। वह कारण था, इस देश में ‘इस्लाम’ का प्रचार करना। यही कारण है कि यह आक्रमण बगदाद स्थित इस्लाम के खलीफा की ओर से किया गया था।

खलीफा न केवल बगदाद का शासक ही था अपितु वह इसके अतिरिक्त इस्लाम, जो महजब के रूप में विद्यमान है, का कर्णधार भी था। वास्तव में बगदाद में उसकी नियुक्ति भी इसी प्रकार द्विविध उद्देश्य के लिए की गई थी। एक तो उस प्रदेश पर शासन करना और दूसरे उस प्रदेश में इस्लाम का प्रचार-प्रसार करना।
इस्लाम एक मजहब है इस महजब का प्रचलन मक्का निवासी मोहम्मद ने किया था, जो स्वयं को परमात्मा का पैगाम लानेवाला-सन्देशवाहक कहता था। इसी कारण वह कालान्तर में पैगम्बर कहलाने लगा और आज वह इसी नाम से जाना जाता है।
मोहम्मद साहब का यह सौभाग्य था कि उनका विवाह एक धनी महिला से हुआ था। इस कारण उनको आजीविका की किसी प्रकार की कोई चिन्ता नहीं रही। परिणामस्वरूप उनके मस्तिष्क में भाँति भाँति की कल्पनाएँ उड़ान भरने लगीं। इस प्रकार कई वर्ष तक चिन्तन करने के उपरान्त उन्होंने स्वयं को परमात्मा का सन्देश वाहक अर्थात् पैगम्बर घोषित कर दिया। इस घोषणा के साथ ही उन्होंने अपने कल्पित परमात्मा और उसके सन्देश को सुनाना आरम्भ किया। इस पर वह पैगम्बर के रूप में विख्यात हो गया।

अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ उसने अपनी एक निजी सेना भी गठित करनी आरम्भ कर दी और समय पाकर वह इसके लिए युद्ध भी करने लगा। इस प्रकार मोहम्मद साहब ने परमात्मा और मनुष्य के रहन-सहन आदि-आदि के विषय में अपनी एक धारणा बनाई और अपने विचारों को अपनी उस निजी सेना के बल पर जन-साधारण पर थोपना आरम्भ कर दिया।

आरम्भ में जैसा कि स्वाभाविक है, मोहम्मद साहब को अपने इस कार्य में अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं हुई। इसके विपरीत उनको अपने पैतृक स्थान मक्का से भागकर मदीना जाना पड़ा था। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी स्थिति पर विचार किया और फिर अपने सैनिकों को अधिक प्रोत्साहन देने के लिए उनको अपने प्रकार की सुविधाएँ देने का आश्वासन दिया। उसका पारिणाम यह हुआ कि उनके सैनिक अधिक उत्साह से जन साधारण पर बल प्रयोग करने लगे।

मोहम्हद ने, जो अब हजरत मोहम्मद कहे जाने लगे थे, अपने सैनिकों को आदेश दिया कि जिस किसी नगर, कबीला आदि के लोग उसको पैगम्बर रूप में स्वीकार नहीं करते; वे उन पर आक्रमण कर दें। उनको यह अधिकार दिया गया कि वे उस स्थान से धन सम्पत्ति, मकान खेमे, आभूषण अथवा औरतें, जो कुछ भी देखें अपने अधिकार में कर लें, उन्हें लूट लें, जिस प्रकार चाहें और जो चाहें वे सब अपने अधिकार में कर लें। उस लूट और अधिकार का पाँचवाँ भाग वे हजरत मोहम्मद को नजर कर शेष सब कुछ को परमात्मा की ओर से दिया गया समझकर उस पर अपना पूर्ण अधिकार समझें।

इस घोषणा से मोहम्मद साहब के सैनिकों के मन उछल पड़े। उनके लिए यह बहुत बड़ा आकर्षण था और मोहम्मद साहब के लिए यह बहुत बड़ी सफलता का कारण सिद्ध हुआ। मोहम्मद साहब की ओर से उनको किसी प्रकार का वेतन नहीं मिलता था। जो भी मोहम्मद को परमात्मा का पैगम्बर स्वीकार कर लेता उसको ही सेना में भरती होने का अवसर प्राप्त हो जाता था। अतः मदीना में बेकार घूमनेवाले सभी मोहम्मद के सेवक बन गए और फिर झुण्ड-के-झुण्ड बनाकर आसपास के नगरों, कबीलों, गाँवों और घरों पर आक्रमण करने लगे। धन सम्पत्ति और महिलाओं को लूटने का ऐसा आकर्षण था कि वे बेकार लोग प्राण प्रण से आक्रमण करते और जितना अधिक से-अधिक लूट मचा सकते थे, अत्याचार कर सकते थे, वह सब करते।
इस आक्रमण और लूट में उनको जो कुछ भी प्राप्त होता था उसका पाँचवाँ भाग वे मोहम्मद को नजर कर देते और शेष भाग के स्वयं स्वामी बनकर उसका उपभोग करते।

इस प्रकार मोहम्मद साहब का राज्य-वृद्धि करने लगा। जो भी क्षेत्र मोहम्मद के अधीन हो जाता उसके निवासियों को न केवल मोहम्मद को अपना शासक स्वीकार करना पड़ता था, अपितु उनको मोहम्मद के मजहबी विचारों को भी मानना पड़ता था। उन विचारों में जो मुख्य बात थी वह यह कि ‘मोहम्मद रसूले इलाही है’ अर्थात् मोहम्मद इस संसार में परमात्मा के पैगम्बर के रूप में प्रकट हुआ है।

मोहम्मद के ऐसे कृत्यों के आधार पर ही प्रसिद्ध अंग्रेज लेखक ‘गिब्बन’ ने लिखा है-इस्लाम एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान लेकर विस्तार पा रहा है।’

इस आक्रमण और विचार-प्रसार का यह परिणाम हुआ कि मोहम्मद साहब का राज्य ही स्थापित हो गया था। मोहम्मद की दृष्टि में अपना राज्य और अपना दीन मजहब दोनों एक ही बात थे।

मिस्र देश में एक लेखक हुए हैं-प्रो. इनान। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दि डिसाइसिव मोमेंट्स इन दि हिस्ट्री ऑफ इस्लाम’1 में लिखा है कि जब मोहम्मद साहब का राज्य स्थापित हो गया तो उन्होंने अपने आसपास के राज्यों को लिखा कि वे उसके राज्य से सम्बन्ध स्थापित कर लें। किन्तु उसमें उन्होंने यह शर्त भी रख दी थी कि वे ‘दीने-इस्लाम’ को भी स्वीकार करें। यदि वे मोहम्मद को परमात्मा का दूत स्वीकार करें तो यह मान लिया जाएगा कि उस राज्य की मोहम्मद के राज्य से मित्रता है। अन्यथा उस राज्य को शत्रु राज्य माना जाएगा।
इससे स्पष्ट लक्षित होता है कि मोहम्मद अपने जीवनकाल में स्वयं ही राज्य और मजहब को एक ही बात मानता था।

प्रो. इनान ने यह तो नहीं लिखा कि मोहम्मद साहब की मित्रता के इस निमन्त्रण को उसके समीपवर्ती किस-किस राज्य ने स्वीकार कर लिया और किस-किस ने इसको अस्वीकार किया। किन्तु उसने यह अवश्य लिखा है कि अपने किस-किस पड़ोसी देश को हजरत मोहम्मद ने इस प्रकार का मैत्री सन्देश अथवा निमन्त्रण भेजा था।

मोहम्मद के देहान्त के उपरान्त उसके राज्य के प्रबन्धकर्ता को ‘खलीफा’ की उपाधि दी गई और उसका यह कर्त्तव्य माना गया कि वह मोहम्मद साहब के पद चिन्हों पर चलकर उनके राज्य पर शासन करे और उसकी वृद्धि भी करे।

इस प्रकार खलीफाओं का शासन चलने लगा। कुछ कालोपरान्त, जब तीसरे खलीफा के शासनकाल में इराक में इस्लामी राज्य स्थापित हुआ तो खलीफा ने अरब के रेतीले प्रदेश को छोड़ दिया और इराक की राजधानी बगदाद को ही अपनी राजधानी घोषित कर दिया।

खलीफा हारूँ रशीद के शासनकाल में उसके राज्य सिपहसालार मोहम्मद-बिन-कासिम ने भारत के सिन्ध प्रदेश पर आक्रमण किया। भारत पर यह उसका प्रथम सफल आक्रमण सिद्ध हुआ। यद्यपि इससे पूर्व भी भारत को धन-धान्य से सम्पन्न देश मानकर
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1. इस्लाम के इतिहास में निर्णयात्मक क्षण।



प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. सम्पादकीय
  2. भूमिका
  3. समाज की पृष्ठभूमि
  4. शिक्षा की दुरवस्था
  5. बलिदान की पृष्ठभूमि
  6. न्याय नहीं अत्याचार
  7. मौलवियों की मूर्खता
  8. साम्प्रदायिकता की पराकाष्ठा
  9. असंगत प्रक्रिया
  10. धर्मान्धता
  11. दानवों का समाज
  12. उपसंहार

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