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ऐतिहासिक >> लुढ़कते पत्थर

लुढ़कते पत्थर

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :238
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5301
आईएसबीएन :0000

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

Lurhakte patthar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सम्पादकीय

स्वर्गीय श्री गुरुदत्त ने सामाजिक, सांस्कृतिक पारिवारिक उपन्यासों के साथ-साथ ऐतिहासिक उपन्यासों की भी रचना की है। इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास, के अन्तर को स्वयं श्री गुरुदत्त भली-भाँति जानते और समझते थे तथा अपने उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने इस अन्तर को अपने पाठकों को भी भली-भाँति समझाने का यत्न किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इतिहास की अपेक्षा उपन्यास जीवन के अधिक निकट होता है। इतिहास शुष्क विषय माना जाता है, जबकि उपन्यास रोचक होता है। स्वयं श्री गुरुदत्त ने ऐतिहासिक घटनाओं का अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में जहाँ एक ओर याथातथ्य वर्णन करने का यत्न किया है वहाँ उन्होंने उन्हीं पात्रों के माध्यम से उनमें रोचकता का पुट भी दिया है। कहीं-कहीं उनको अपने काल्पनिक पात्रों का समावेश भी करना पड़ा है। तदपि उनको पढ़ने से यह आभास तक नहीं होता कि ये पात्र काल्पनिक हैं। उपन्यास के कथानक का वे अभिन्न अंग होते हैं।
 
लोकप्रिय उपन्यासकार स्व. गुरुदत्त के विषय में हम सदा से ही कहते आए हैं कि जहाँ अनेकानेक उपन्याकारों का गौरव कालातीत हो गया है अथवा होता जा रहा वहाँ स्वयं गुरुदत्त का गौरव, काल के साथ-साथ प्रगति करता जा रहा है। साहित्यकार अथवा उपन्यासकार की यही सबसे बड़ी उपलब्धि होती है कि वह कालातीत न माना जाए। इस प्ररिप्रेक्ष्य में स्व. श्री गुरुदत्त को कभी कालातीत नहीं माना जाएगा। उनके विभिन्न विषयों के उपन्यास पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वे वर्तमान काल पर ही लिखे गए हैं। ऐतिहासिक उपन्यासों का तो काल निर्धारित होता है, किन्तु गुरुदत्त ने उनकी इस प्रकार विवेचना प्रस्तुत की है कि वे तत्कालीन होते हुए भी सामयिक मानस के ही अनुकूल हैं।

स्व. श्री गुरुदत्त जी की विशेषता यह थी कि वे उद्देश्य विशेष से अपनी रचना किया करते थे। उनकी मान्यता थी कि यदि लेखक किसी उद्देश्य विशेष को ध्यान में रखकर नहीं लिखता है तो वह श्रेष्ठ लेखक नहीं कहा जा सकेगा। वे यह भी मानते थे कि लेखक जो कुछ भी लिख रहा है, पाठक उसको उसी रूप में ग्रहण करें। यदि पाठक उसमें     भ्रमित होकर उसे किसी अन्य रूप में देखने अथवा ग्रहण करने लगता है तो इसे वे लेखक की कमी मानते थे, पाठक का अज्ञान नहीं। अपनी रचना की भूमिकाओं में उन्होंने बारम्बार इस ओर इंगित किया है।

सामान्यतयः श्री गुरुदत्त के समकालीन एक वर्ग विशेष के कुछ लेखकों ने जब उनमें और कुछ त्रुटि नहीं पाई तो उनको उपन्यासकार के स्थान पर  उपदेशक प्रचरित करना आरम्भ कर दिया था। उसके उत्तर में श्री गुरुदत्त का कहना था कि रचना सोद्देश्य होनी चाहिए। इस कार्य में यदि लेखक को उपदेशक बनना पड़ भी जाए तो वह न कोई पाप है और न अपराध। न ही उसे किसी प्रकार की साहित्येतर कोई विधा माना जाना चाहिए। लेखक की रसयुक्त रचना यदि सदुपदेश भी देती है तो यह सोने में सुगन्ध ही कहलाएगी। श्रेष्ठ साहित्य का स्वरूप बुद्धि को व्यावसायात्मिका बनाना होता है। उनका प्रयत्न इसी ओर होता था।

स्व. श्री गुरुदत्त जी की मान्यता थी कि आदिकाल से इस देश में निवास करने वाला आर्य-हिन्दू समाज ही देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित रहा है और भविष्य में भी वही समाज समर्पित रहेगा। शक, हूण, कुषाण सब आए और उसमें मिलकर उसका अभिन्न अंग बन गए तो वे भी उसी प्रकार का समर्पण भाव इस देश के प्रति रखने लगे। किन्तु जो स्वयं को इसमें समाहित नहीं कर सके उन्होंने अपने आगमन काल से ही इसका अहित चिन्तन किया है। इस तथ्य को उन्होंने अपने पाठकों के सम्मुख भलीभांति प्रस्तुत किया है। ‘वैदिक धर्म’ को स्व. श्री गुरुदत्त ने शाश्वत धर्म के रूप में अपने उपन्यासों में निरूपित करने का यत्न किया है। उसके लिए उन्होंने तर्क, प्रमाण और उदाहरण प्रस्तुत किए हैं।
हम आरम्भ में ही बता आए हैं कि उनके ऐतिहासिक उपन्यासों की संख्या न्यून नहीं है। वे मानते थे कि ऐतिहासिक उपन्यासकार का दायित्व द्विविध होने से इतिहास लेखक से कहीं अधिक दुस्तर होता है, क्योंकि उसे अपने उपन्यास में जीवन की सजीवता को साँचे में ढालकर भी इतिहास के तथ्यों को सुरक्षित रखना होता है। भले ही वे तथ्य अब निष्प्राण हो गए हों, किन्तु तथ्यों को तो किसी भी प्रकार तोड़ा-मरोड़ा नहीं जा सकता।

ऐतिहासिक उपन्यासों में उन्होंने मुख्यतया बौद्धकालीन और मुगलकालीन इतिहास को अपना वर्ण्य विषय बनाया है। वास्तव में ये ही दो विचारधाराएँ ऐसी हैं जो भारत के लिए हानिकर ही नहीं अपितु मारक सिद्ध हुई हैं, और कुछ अंशों में आज भी उसी प्रकार सिद्ध हो रही हैं। बौद्धकालीन और मुगलकालीन संस्कृति सभ्यता और घटनाओं के चित्रण के साथ-साथ उनकी अपनी कल्पना भी मुखर बनकर घटनाओं के क्रम-विपर्यय और आकस्मिक रोमांच का भी निर्माण करती है। उनके द्वारा ऐसे नये पात्रों को प्रस्तुत किया जाता है जिनका उपन्यास से भले ही दूर का भी सम्बन्ध न हो परन्तु जो उपन्यास के दृष्टिकोण को सबल रूप से प्रस्तुत कर सकें और समय-समय तथा स्थान-स्थान पर ऐतिहासिक शैथिल्य का बौद्धिक विश्लेषण भी कर सकें।

ऐतिहासिक उपन्यासों में सामान्यतया सभी मुख्यपात्र राजपुरुष ही होते हैं। आचरण भेद और नीति भेद के कारण उनमें शूरता अथवा कायरता के पृथक-पृथक गुण उपलब्ध होते हैं। जो शूर पात्र होते हैं उनमें शौर्य, लगन, राष्ट्रोत्थान की भावना, नीतिमत्ता, संकल्प की दृढ़ता, विपत्ति के क्षणों में धैर्य का प्रदर्शन, ये सब लक्षण दिखाए जाते हैं। ऐतिहासिक उपन्यास षड्यन्त्रकारी पात्रों के बिना अपूर्ण माने जाएँगे। वे षड्यन्त्र आरोपित नहीं होते, अपितु इतिहास का ही अंग होते हैं। इन उपन्यासों में यदि इतिहासपुरुष अर्थात् राजपुरुष क्रूर, दम्भी, हठी आदि स्वभाव का है तो उसके समक्ष प्रजा में कुछ जननायक प्रकार के पुरुष होते हैं। इन पात्रों का वर्णन भी उपन्यास के लिए आवश्यक होता है। इस प्रकार से उस जन नेता को ही इतिहास का नायक बनाने का यत्न किया जाता है।

अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में स्व. श्री गुरुदत्त ने राजा और राज्य का अन्तर, राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध, राज्य की सुरक्षा और उसका विकास, इन सबके साधन एवं बल आदि विषयों को विस्तार से वर्णित किया है। उनकी दृष्टि में राजा की अपेक्षा राज्य स्थायी है, इसलिए वे राज्य को अधिक महत्त्व देते हैं। वे प्रजा के सामूहिक हितों के नाम को राज्य कहते हैं। राजा और प्रजा का पारस्परिक सम्बन्ध शासक और शासित का नहीं अपितु प्रतिनिधि और प्रतिनिधेय का सम्बन्ध है। उनकी दृष्टि में अहिंसा की टेर तो केवल बलवान को ही शोभा देती है। निर्बल की अहिंसा की कोई गणना नहीं की जा सकती। राज्य तभी सुदृढ़ हो सकता है जब कि उसका राजा बलशाली हो।

हमने यह भी बताने का यत्न किया है कि उनके ऐतिहासिक उपन्यासों का कथ्य प्राचीन होते हुए भी समकालीन जैसा ही दिखाई देने लगता है। प्रस्तुत खण्ड के उपन्यास लुढ़कते पत्थर के अशोक और पुष्पमित्र के बृहद्रथ के राज्यों की दुर्बल नीतियाँ, उनके विनाश, राज्यों के पतन और जनता के असन्तोष का कारण बनी थीं। क्या यही कुछ हम आज के राजनैतिक वातावरण में नहीं पाते ? इस दृष्टि से उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में प्रस्तुत तथ्य उनके विशेष दृष्टिकोण का एक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। आज भी राज्यधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार, स्वार्थवश पारस्परिक हित-चिन्तन का अभाव, अनीति, अशान्ति और अस्थिरता का साम्राज्य व्याप्त दिखाई देता है। इस उपन्यास के वर्ण्यकाल में तो केवल राजप्रासादों तथा बौद्ध विहारों में ही षड्यन्त्रों की रचना का उल्लेख पाया जाता है, किन्तु आज के वातावरण में तो नगर-नगर में ही नहीं अपितु नगर की प्रत्येक वीथि तथा ग्राम-ग्राम में अपने ही प्रकार के षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं, कहीं राज्य के विरुद्ध तो कहीं प्रजा के विरुद्ध।

स्व. श्री गुरुदत्त ने अपने उपन्यासों के माध्यम से युग के ऐतिहासिक कर्णधारों को अपने वर्ण्यविषय द्वारा प्रमाण-पुष्ट चेतावनी दी है, दुर्बलता की नीति के परित्याग का आह्वान किया है और उपन्यासों के नायकों के चरित्रों द्वारा उचित और उपर्युक्त मार्ग को परिलक्षित किया है। उनका प्रत्येक उपन्यास अन्यतम है। समस्या चाहे ऐतिहासिक हो अथवा राजनैतिक या कुछ अन्य, उन सबका समाधान वे अपने दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने में समर्थ रहे हैं। अपने विस्मृत ज्ञान के आधार पर वे विषय का सम्यक् मन्थन कर पाठक के लिए नवनीत प्रस्तुत कर देते हैं। रोचकता उनके उपन्यासों की अन्य विशेषता है।

अशोक कौशिक

प्राक्कथन

इतिहास और ऐतिहासिक उपन्यास में यह अन्तर है कि एक घटनाओं का उल्लेखमात्र करता है और दूसरा उन घटनाओं की विवेचना भी। इतिहास लेखक कल्पना से काम नहीं ले सकता। उसको लिखने के लिए ठोस प्रमाण चाहिए। परन्तु प्राचीन काल के इतिहास को लिखने के लिए ठोस प्रमाणों का मिलना प्रायः कठिन हो जाता है।
 
घटनाओं के लिखने वाले, सामयिक लेखक अपने विचारानुसार अथवा तत्कालीन राज्यसत्ता के प्रभाव से कुछ घटनाओं का उल्लेख छोड़ जाते हैं। और कभी वे छूटी हुई घटनाएँ ही भावी इतिहास के निर्माण का कारण बन जाती हैं। अतएव कालान्तर में उस काल का इतिहास लिखनेवाले के लिए वास्तविक इतिहास लिखना कठिन हो जाता है।
राज्य सत्ता के साथ-साथ तत्कालीन जनता के मनोभाव भी इतिहास लेखक को प्रभावित करते रहते हैं। परिणामस्वरूप यह कहना सत्य से दूर नहीं कि इतिहास प्रायः सत्य से दूर होता है।

एक अमेरिकन इतिहास-लेखक ने जो कालान्तर में उपन्यासकर्त्ता बन गया था, अपना मनोरंजक अनुभव लिखा है। वह एक दिन अपने मकान की खिड़की में खड़ा नीचे बाजार में चलते- फिरते लोगों को देखता हुआ अपना मन बहला रहा था। उसने देखा कि एक पथिक ने अकारण दूसरे पथिक को पीट दिया। दूसरा पथिक उससे भिड़ गया। दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। बाजार में से गुजरनेवाले बीसियों इस द्वन्द्व को देखने के लिए खड़े हो गए। जिसने झगड़ा प्रारम्भ किया था, वह दुर्बल सिद्ध हुआ और मार खा गया।


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