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पड़ोसी

गुरुदत्त

प्रकाशक : हिन्दी साहित्य सदन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5292
आईएसबीएन :000

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एक रोचक उपन्यास...

Parosi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विज्ञान की पृष्ठभूमि पर वेद, उपनिषद् दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये।
वेद, उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता रही है।
उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है, रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता।

प्रथम अध्याय
1

लखनऊ से बनारस के लिए पैसेंजर गाड़ी प्रातः आठ बजे छूटती थी। दिसम्बर के महीने में क्रिसमस की छुट्टियों में पूर्व की ओर जा रहे विद्यार्थियों को वह गाड़ी सबसे उपयुक्त रहती थी। उस गाड़ी से जाने पर स्टेशनों से दूर गाँवों को जाने वालों को दिन रहते घर पहुँचने का सुभीता रहता था। यही कारण था कि चौबीस दिसम्बर के प्रातःकाल भारी संख्या में लड़के अपना-अपना सामान उठाए स्टेशन के मुख्य द्वार से उस प्लेटफार्म को जाते दिखाई दिए जिस पर बनारस की गाड़ी खड़ी थी।

प्रायः सब स्कूलों और कॉलेजों के विद्यार्थी थे और छोटी-बड़ी सब श्रेणियों में पढ़नेवाले थे। रेल के थर्ड क्लास के और इंटरक्लास के विद्यार्थीं भारी संख्या में थे। कुछ सैकण्ड क्लास में यात्रा करनेवाले भी थे।
रेल के कर्मचारी समझ गए थे कि विद्यार्थी छुट्टियों पर घर जा रहे हैं। वे देख रहे थे कि कोई जाने वाला रह न जाए। इस कारण उस दिन गाड़ी दस मिनट देरी से छोड़ी जा रही थी।

इस पर भी जब गाड़ी सीटी बजा रही थी, एक विद्यार्थी प्लेटफॉर्म नम्बर सात की ओर अपना अटैची-केस हाथ में लटकाए हुए भागा चला आता दिखाई दिया। गार्ड सीटी मुख में रखे बजाते-बजाते रुक गया।
विद्यार्थी हांफता हुआ गार्ड के समीप से गुज़रा तो गार्ड ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘जल्दी करो बाबू साहब ! आज आप लोगों के लिए खास रियायत हो रही है।’’

विद्यार्थी ने गार्ड के समीप खड़े हो घूमकर पीछे को देखा। इस पर तो गार्ड को कुछ क्रोध चढ़ आया। उसने कह दिया, ‘‘तुमको जाना नहीं है क्या ?’’ और इतना कहकर उसने सीटी बजा दी।
विद्यार्थी के मुख से निकल गया थैंक्यू।’’ और वह भागकर सामने खड़े फर्स्ट क्लास के डिब्बे में सवार हो गया। इस डिब्बे में एक यात्री पहले बैठा था। उसने विद्यार्थी को हांफते हुए दरवाज़े के समीप खड़े बाहर को झाँकते देखा तो कह दिया, ‘‘बैठ जाओ भाई ! क्या कुछ पीछे छूट गया है ?’’

‘‘जी।’’ उसका उत्तर था। गाड़ी चल पड़ी थी और उस समय प्लेटफॉर्म से बाहर निकल रही थी। लड़का अभी भी पीछे लालच-भरी दृष्टि से देख रहा था। सहयात्री ने पुनः लड़के से पूछ लिया, ‘‘क्या कुछ छूट गया है ?’’
‘‘एक साथी था।’’
‘‘कहाँ रह गया है ?’’
‘‘उसके पास सामान था। कुली मिला नहीं और स्वयं वह उठा नहीं सका, इस कारण वह प्लेटफॉर्म नम्बर एक पर ही खड़ा है।’’
‘‘उसे जल्दी आना चाहिए था।’’

‘‘कुछ लाभ न होता।’’
‘‘होता क्यों नहीं ? जल्दी आने से कुली मिल जाता। यदि न भी मिलता तो तुम दोनों मिलकर कई बार में सब सामान ले आते।’’
लड़का इस समय सहयात्री के समीप बैठ गया था। वह यात्री की युक्ति को समझ रहा था और समय पर न आ सकने का दोष दूसरे पर डालने के विचार से कहने लगा, ‘‘ऐसा हो नहीं सकता था।’’
यात्री मुस्कराते हुए पूछने लगा, ‘‘क्यों नहीं हो सकता था ? किसी आवश्यक कार्य में लगे हुए थे जो होस्टल से जल्दी नहीं चल सकते थे ?’’

विद्यार्थी ने समझ लिया कि उसकी हंसी उड़ाई जा रही है। इस कारण उसने व्यंग्यात्मक भाव से कह दिया ‘‘साहब ! सर्दी का मौसम है। कॉलेज-होस्टल रेल के स्टेशन से तीन मील के अन्तर पर है। लखनऊ के ताँगे भी ठुकर-ठुकर चलते हैं और फिर रेल बाबू भी तो टिकट जल्दी बनाकर नहीं देता।’’
‘‘ओह, यह सब तो मुझे ज्ञात ही नहीं था !’’ यात्री ने व्यंग्य के भाव से कह दिया। उसका विद्यार्थी की युक्ति से समाधान नहीं हुआ था। वह जानता था कि लड़कों पर घर जाने का कार्यक्रम एकाएक तो बना नहीं होगा। छुट्टियाँ आरम्भ होने से कई दिन पहले ही ये तैयार हुए होंगे। यदि दूरदृष्टि से काम लिया होता तो ये सब बहाने बनाने का अवसर न होता। परन्तु इसके अतिरिक्त भी कुछ बात थी। इस कारण यात्री ने पूछ लिया, ‘‘किस स्कूल में पढ़ते हो ?’’
‘‘स्कूल नहीं, साहब ! गवर्नमेंट कॉलेज के सैकण्ड ईयर में पढ़ता हूँ।’’

‘‘ओह ! पर तुम तो अभी छोटी आयु के प्रतीत होते हो ?’’
‘‘क्या आयु समझते हैं आप मेरी ?’’ विद्यार्थी की आंखें शरारत से चमकने लगी थीं।
यात्री ने लड़के को भली-भाँति देखकर कहा, ‘‘यही सात-आठ वर्ष।’’
‘‘जी नहीं, मैं अठारहवाँ वर्ष पार कर रहा हूँ।’’
‘‘तब तो तुम युवक कहे जा सकते हो।’’ सहयात्री हँस पड़ा। उसने पूछ लिया, ‘‘तुम्हारा साथी ?’’
‘‘वह सहपाठी है।’’
‘‘दोनों एक ही स्थान के रहने वाले हो ?’’
‘‘जी नहीं। मैं तो प्रतापगढ़ उतरने वाला हूँ। वह जँघई तक जाने वाला था।’’
‘‘क्या नाम है ?’’
‘‘मेरा या उसका ?’’

यात्री मुस्कराते हुए बोला, ‘‘दोनों का।’’ यात्री हँस रहा था।
लड़के ने साथी का नाम बताने से बचने के लिए कह दिया, ‘‘आप किसी स्कूल-कॉलेज में पढ़े नहीं मालूम होते, जो इस तरह पूछ रहे हैं।’’
‘‘यदि पढ़ा होता तो किस तरह पूछता ?’’
‘‘देखिए, मैं बताता हूँ। मैं आपको कहता—जी मैं चन्दनदास हूँ। सरवरगंज का रहने वाला हूँ। पिताजी का नाम दिलजीत सिंह है। हम मध्यम श्रेणी के ज़मींदार हैं। इस प्रकार अपना परिचय देकर मैं आशा करता और आप भी अपना परिचय दे देते।’’

‘‘और यह तरीका तुम्हारे स्कूल-कॉलेज में सिखाया जाता है ?’’
‘‘जी मैं काल्विन स्कूल में पढ़ा हूँ और उसमे सभ्य व्यवहार का तरीका सिखाया जाता है। यह वहाँ ही बताया गया है।’’
‘‘तब तो ठीक है। तुम्हारे मास्टर बहुत ही योग्य लोग मालूम होते हैं मगर व्यवहार में यह चल नहीं सकता। मान लो कि मैं अपना नाम बता भी देता और तुम अपना और अपने साथी का नाम बताना नहीं चाहते तो झूठ बोल देते। कुछ नुकीली बात बता देते। झूठ बोलनेवाला या छूठ बोलने में प्रोत्साहन देने वाला तो पाप का भागी होता है। इससे मैं यह तरीका गलत समझता था। अब तुम यह कहते हो कि यह तुम्हारे मास्टर ने सिखाया है। यदि ऐसा है तो यह जरूर ठीक मानना चाहिए। मास्टर तो योग्य व्यक्ति होते हैं।
‘‘क्यों चन्दनसिंहजी ! तुम क्या कहते हो ?’’

‘‘परन्तु आपके तरीके से भी तो बतानेवाला इच्छा न होने पर झूठ बोल सकता है।’’
‘‘हाँ, बोल तो सकता है। परन्तु उसके बोलने में प्रोत्साहन नहीं मिलता। मैं नाम बता दूँ तो सभ्य व्यवहार के विचार से तुमको भी कोई नाम बताना चाहिए। असल नाम तुम बताना नहीं चाहते, इस कारण प्रश्नकर्ता की ओर से झूठ बोलने के लिए प्रेरणा हो जाएगी।
‘‘जैसे मैंने पूछा है, वह तो एक प्रकार से प्रार्थना मात्र है। तुमको नाम बताने की विवशता नहीं। तुम कई प्रकार से इन्कार कर सकते हो। तुम कह सकते हो—‘जी, मुझ नाचीज के विषय में जानकर क्या करिएगा ?’ तुम यह भी कह सकते हो कि ‘श्रीमान ! मैं सैकड़ों-लाखों में एक हूँ। नाम बताने का क्या लाभ ?’ यदि तुममें साहस हो तो तुम कह सकते हो, ‘‘क्षमा करें, गुमनाम रहना चाहता हूँ, ‘इत्यादि। यह आपका अधिक मानयुक्त व्यवहार होता।’’

चन्दनसिंह देख रहा था कि यात्री देहाती पहरावे में होता हुआ भी युक्ति करने में चतुर है। इस पर भी उसने बच्चों की-सी चपलता का प्रदर्शन करते हुए पूछ लिया, ‘‘आप बताइए कि आप मेरा नाम-धाम किसलिए पूछ रहे हैं ?’’
‘‘इसलिए, ‘‘सहयात्री का सतर्क उत्तर था ‘‘कि तुममें रुचि उत्पन्न हो गई है। तुम्हारे हृदय में अपने साथी के लिए इतनी सहानुभूति देख कि तुम घूम-घूमकर उसकी ओर देख रहे थे, परन्तु उसके लिए यह गाड़ी छोड़ नहीं सके, तुम्हारे विषय में और जानने की इच्छा हो गई। इस पर भी यदि तुम बताना न चाहो तो कई तरीकों से टाल भी सकते हो। उन तरीकों में से कुछ मैंने अभी-अभी बताए हैं।

‘‘देखो चन्दनसिंह ! तुम्हारे मास्टरवाला तरीका कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता मेरे तरीके से तुम बताने से इन्कार भी कर सकते हो, परन्तु उस तरीके से तुम झूठ-सत्य कुछ-न-कुछ बताने के लिए विवश हो जाते।
‘‘यदि तुम बताने से इन्कार कर देते तो मैं तुमसे पूछने के लिए क्षमा माँग लेता और तुम्हारी इच्छाओं का मान करता।
‘‘सबसे बड़ी बात यह है—तुम कह रहे हो कि वह तुम्हारा साथी है, सहपाठी है और प्रतापगढ़ तक सहयात्री भी हो सकता था। इस पर भी तुम्हें उसको पीछे छोड़, भागकर गाड़ी पकड़ते देख तुम्हारे मन में एक और रूप का पता चलता है।’’
सहयात्री इतना कहकर लड़के का मुख ताकने लगा। चन्दनसिंह इतने लम्बे व्याख्यान से व्याकुलता का अनुभव करने लगा था। इस पर भी अभी कुछ और कहे जाने का नोटिस सुन पूछने लगा, ‘‘जी, क्या पता चला है ?’’

‘‘यही कि तुम्हारे घर में कोई उस साथी से भी प्रिय तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। तुम्हारा विवाह हो चुका है ?’’
चन्दनसिंह हँस पड़ा। उसने हँसते हुए कहा, ‘‘जी नहीं। अभी नहीं हुआ।’’
‘‘तो माँ होगी, जिसका स्नेह पाने के लिए उतावले हो रहे होगे।’’
चन्दनसिंह को अपनी माँ से किसी प्रकार का विशेष स्नेह नहीं था। इस कारण वह मुस्कराकर चुप रहा।
दोनों में वार्तालाप आरम्भ हुआ तो फिर चलता ही रहा। अनेकानेक विषयों पर बातचीत होती गई और चन्दनसिंह को और भी अधिक ज्ञात होता गया कि यह यात्री पढ़े-लिखे लोगों के संसार से अनभिज्ञ है। इस पर भी उसके विस्मय का ठिकाना नहीं रहता था जब वह उसको बात-बात पर निरुत्तर कर देता था।

स्टेशन पर स्टेशन आते गए और गुज़रते गए। नौ बजे के लगभग रायबरेली स्टेशन आया। सहयात्री का नौकर एक लोटे में जल लाया और सहयात्री के हाथ धुला ऊपर की सीट पर रखे कटोरदान से खाना परसने के लिए अपने मालिक के सम्मुख पत्तल बिछाने लगा। सहयात्री ने चन्दनसिंह की ओर संकेत कर कहा, ‘‘इनके लिए भी लगा दो।’’
चन्दनसिंह ने कहा, ‘‘जी नहीं। आप अल्पाहार लीजिए। मैं कुछ ले चुका हूँ और शेष घर जाकर ले लूँगा।’’
‘‘परन्तु तुम घर पर तो चार बजे के लगभग पहुँचोगे।’’
‘‘मुझे इस प्रकार यात्रा करने का स्वभाव है।’’

‘‘परन्तु, तो भी, भूखे रहने का अर्थ क्या है ?’’
‘‘मैं यही विस्मय कर रहा हूँ कि आप मुझमें बहुत अधिक रुचि और सहानुभूति दिखा रहे हैं। मैं समझ नहीं सका कि क्यों ?’’
‘‘देखो, पहले हाथ धो लो। फिर खाते हुए बात कर लेंगे।’’
चन्दनसिंह के लिए इन्कार करना सम्भव नहीं रहा। वह गाड़ी से प्लेटफॉर्म पर निकला और नौकर से जल ले हाथ धोने लगा।
हाथ धो, रुमाल से पोछ गाड़ी में आ बैठा तो नौकर ने उसके सामने भी पत्तल बिछा दी। नौकर ने दोनों पत्तलों पर मिठाई, पूरी, साग लगा दिया और पीने के लिए दो कुल्हड़ों में जल डालकर रख दिया। दोनों यात्री खाने लगे तो नौकर सामने खड़ा रहा। गाड़ी फिर चल पड़ी और उन दोनों में पुनः रुचिकर वार्तालाप चलने लगा।

‘‘मैं आपकी अपने में रुचि का कारण समझ नहीं सका।’’
‘‘यह तो बहुत ही सरल-सी बात है। तुम सहयात्री हो, मनुष्य हो, कुमार हो। और फिर तुम्हारे साथी की परिभाषा जानने में अभिरुचि बनी ही है।’’
‘‘साथी तो साथ रहने वाला ही होता है।’’
सहयात्री हँस पड़ा। हँसते हुए पूछने लगा, ‘‘यह तुमने साथी के अर्थ बताए हैं अथवा उसका पर्याय बताया है ? मैं समझता हूँ कि दोनों में एक भी नहीं।’’
इस पर चन्दन ने बता दिया, ‘‘साथी वह है जो साथ-साथ चले। साथी वह है जो एक ही कमरे, मकान, मुहल्ले, प्रान्त अथवा देश में रहे। कभी-कभी साथी पूर्व  और पश्चिम के रहनेवालों में भेद बताने के लिए भी प्रकट किया जाता है।’’
‘‘और हम-मज़हब साथी नहीं होते क्या ?’’ सहयात्री ने पूछ लिया।
‘‘मज़हब मूर्खों के बनाए हुए हैं। इनसे साथी और न—साथी का पता नहीं चलता।’’

‘‘यह भी तुम्हारे मास्टर ने बताया है ?’’
‘‘जी।’’
‘‘बात यह भी दोषपूर्ण है। साथी अधिकतर हम-मज़हबों में ही मिलते हैं। परिवार, मुहल्ले, गाँव, प्रान्त, देश तथा भूमण्डल में तो साथी बहुत कम पाए जाते हैं।’’
ये सब चन्दनसिंह के लिए नवीन बातें थी। वह विचार करने लगा। बातों-बातों में खाना भी समाप्त हो गया। फिर स्टेशन-पर-स्टेशन पार करते हुए डेढ़ बजे के लगभग वे प्रतापगढ़ पहुँचे।

:2:


चन्दनसिंह के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा जब उसने देखा कि उसका सहयात्री भी प्रतापगढ़ स्टेशन पर ही उतरा है। इसपर उसके मन में यह जानने की उत्सुकता उत्पन्न हुई कि यह कौन व्यक्ति है ? अभी तक वह समझ रहा था कि यह बनारस जा रहा है।
चन्दनसिंह पहले गाड़ी से उतरा। प्लेटफॉर्म पर उतर वह यात्री को नमस्ते कहने के लिए घूमा तो वह यात्री भी नीचे उतर आया और उसका नौकर उसका सामान नीचे उतारने लगा। इस पर विस्मय में चन्दनसिंह ने पूछ लिया, ‘‘तो आप भी यहीं उतर रहे हैं ?’’

यात्री मुस्कराया और चन्दनसिंह के साथ स्टेशन के द्वार की ओर चल पड़ा। नौकर सामान इकट्ठा कर लाने के लिए पीछे रह गया। द्वार पर चन्दनसिंह ने सैकण्ड क्लास का टिकट बाबू को दिया और बाहर निकल गया। यात्री ने टिकट नहीं दिया। नौकर कुछ पीछे रह गया था। चन्दनसिंह अपने गाँव तक जाने के लिए इक्का करने लगा तो सहयात्री उसको भाव-ताव करते देखता रहा। स्टेशन के बाहर एक सर्वथा नई शिवर्ले मोटरगाड़ी थी। सहयात्री ने चन्दनसिंह का किसी भी इक्केवाले से भाव न बनते देख कह दिया, ‘‘इधर आओ चन्दनसिंह ! मैं तुम्हारे लिए सवारी का प्रबन्ध कर देता हूँ।’’
चन्दनसिंह ने प्रश्न-भरी दृष्टि से सहयात्री के मुख पर देखा तो सहयात्री ने नौकर से कह दिया, ‘‘इन बाबू साहब का सामान मोटर पर रख दो।’’

नौकर ने चन्दनसिंह का अटैची-केस पकड़ा और उसको गाड़ी के कैरियर पर रख दिया।
‘‘तो यह गाड़ी आपकी है ?’’
‘‘नहीं, परन्तु मैं इसमें चढ़ सकता हूँ और किसी अन्य को चढ़ा भी सकता हूँ।’’
इसपर तो चन्दनसिंह को दुःख लगने लगा कि उसने छः घंटे तक इस महानुभाव के साथ यात्रा की है, बातें की हैं, परंतु यह नहीं जाना कि यह कौन है। अब गाड़ी में बैठते हुए वह जानने की योजना बनाने लगा। उसको सन्देह होने लगा था कि यह कोई इसी इलाके का रईस हो सकता है। फिर वह विचार करता था कि इसने तो कहा है कि यह गाड़ी इसकी अपनी नहीं है। इसपर भी वह इसमें यात्रा कर सकता है और किसी को चढ़ा भी सकता है। यह किसी रईस का मेहमान भी हो सकता है। अब उसने इस दिशा में पूछने का निश्चय कर लिया।

दोनों गाड़ी में बैठे तो नौकर आगे ड्राइवर के पास बैठ गया और गाड़ी चल पड़ी। चन्दनसिंह अपने मन की उत्सुकता शान्त करने को अभी ढंग ही सोच रहा था कि सहयात्री ने एक अन्य विषय पर बात आरम्भ कर दी। उसने पूछ लिया, ‘‘तुम्हारे पास तो सैकण्ड क्लास का टिकट था और तुम यात्रा कर रहे थे फर्स्ट क्लास में ?’’

इसपर चन्दनसिंह को हँसी सूझी। उसने कह दिया, ‘‘पर साहब ! आपके पास तो किसी भी दर्जे का टिकट नहीं था और आपने पूर्ण यात्रा तो फोकट में ही की है। मैं विस्मय कर रहा हूँ कि बाबू ने आपसे टिकट माँगा क्यों नहीं ? कदाचित इस बढ़िया गाड़ी के रोब में वह टिकट नहीं माँग सका।’’
सहयात्री हँस पड़ा और उसने साथ आए नौकर से पूछ लिया, ‘‘बेनी ! बाबू को टिकट दिया कि नहीं ?’’
‘‘दिया है, महाराज !’’
‘‘चन्दनसिंह, मैंने तो टिकट खरीदा है और बाबू को दिया भी है। यदि सन्देह हो तो लौटकर पूछ सकते हो।’’
‘‘टिकट तो मैंने भी खरीदा था और बाबू को दिया है। मैं सैकण्ड क्लास के डिब्बे में जानेवाला था। फर्स्ट क्लास का डिब्बा खाली समझ उसमें चढ़ आया था। वहाँ, आपको तो भीतर आने पर ही देखा था। इस पर भी वहाँ छः के लिए स्थान था और हम दो ही थे।’’

‘‘यह भी तुम्हारे मास्टर ने बताया है कि जब कोई जगह खाली हो तो वहाँ बैठ जाना चाहिए भले ही वहाँ बैठने का अधिकार न हो ?’’
‘‘जी यह कायदा है।’’
‘‘तो एक दिन ऐसा करना कि कहीं प्रोफेसर देर से आए तो उसके प्रयोग के लिए रखी कुर्सी खाली देखकर उसपर बैठ जाना और फिर क्लास को पढ़ाना आरम्भ कर देना। देखना फिर क्या होता है !’’
चन्दनसिंह झेंप रहा था। उसकी झेंप को मिटाने के लिए सहयात्री ने कह दिया, ‘‘अच्छा छोड़ो इस बात को। बताओ, कब लौटनेवाले हो ?’’

‘‘कहाँ ?’’ बात बदलती देख चन्दनसिंह को सुख मालूम हुआ। इस कारण उसने बात को लम्बा करने के लिए व्यर्थ का प्रश्न पूछ लिया।
सहयात्री ने अपना अभिप्राय बताने के लिए कह दिया, ‘‘कॉलेज को।’’
‘‘दूसरी जनवरी को हाज़िर होना है। पहली जनवरी को गाँव से चलूँगा।’’
‘‘गाँव में तो इक्का मिलता नहीं होगा ?’’
‘‘जी वहाँ से पैदल चला आता हूँ। सामान किसी घर के नौकर से उठवाकर ले आता हूँ।’’
‘‘अगर मानो तो तुम्हारे लौटने के लिए सवारी का प्रबन्ध कर दूँ ?’’

‘‘कैसे कर दोगे ?’’
‘‘यह गाड़ी तुम्हें गाँव में लेने के लिए जा सकती है।’’
‘‘परन्तु आप रहते कहाँ हैं ?’’
‘‘कहीं भी रहता हूँ। मोटर तो यहाँ से कलकत्ता भी जा सकती है।’’
‘‘परन्तु आपने तो कहा था कि गाड़ी आपकी नहीं है ?’’
‘‘तो सब अपनी ही गाड़ी में चढ़ते हैं ? भाड़े पर भी तो गाड़ी मिल सकती है।’’
‘‘तो इस गाड़ी का आप भाड़ा देंगे ? मेरे पास तो भाड़ा देने के लिए दाम नहीं है।’’

सहयात्री ने मुस्कराते हुए कहा, ‘‘कुछ हरज नहीं हुआ। पहले भी तो सेकण्ड क्लास का टिकट लेकर फर्स्ट क्लास के डिब्बे में यात्रा की है। जब वह हो सकी है तो मोटरगाड़ी की यात्रा फोकट में क्यों नहीं हो सकती ? तुम्हारा विचार था न कि मैंने फोकट में यात्रा की है, अतः तुम फोकट में मोटरगाड़ी में यात्रा कर सकते हो। मोटर में भी तो चार यात्री चढ़ सकते हैं और हम हैं दो ही।’’
चन्दनसिंह इन व्यंग्यों से इतना घबराया कि वह आँखें नीची किए सुनता रहा। वह मन में सहयात्री का नाम-धाम पूछने का विचार रखता था परन्तु पूछ नहीं सका। वह अपने संकल्प की पूर्ति नहीं कर सका। सहयात्री ने फिर उसकी ताड़ना आरम्भ कर दी।

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