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दूर के पहाड़

पारमिता शतपथी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5276
आईएसबीएन :978-81-263-1363

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उड़िया साहित्य की समृद्ध परम्परा को उल्लेखनीय विस्तार देती पारमिता शतपथी की कहानियाँ...

Dor Ke Pahad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समकालीन उड़िया कथा-साहित्य में जिन रचनाकारों ने अपने सृजन के जरिये नये क्षितिजों का निर्माण कर उड़िया साहित्य की समृद्ध परम्परा को उल्लेखनीय विस्तार दिया है, उनमें पारमिता शतपथी का नाम प्रमुख है। पारमिता की कहानियाँ दूर से आती भीनी-भीनी महक-सी सुधी पाठकों के मन-मस्तिष्क में छा जाती हैं और उनकी चेतना में एक नया विश्वास जगाती हैं। इन कहानियों में अनुभूतियों की गहराई और चिन्तन के असाधारण दिगन्त की सहज अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।

पारमिता ने इन कहानियों में अपने पात्रों के जीवन में उपस्थित सुख-दुख, राग-विराग, धूप-छाँव जैसी जीवन की तमाम स्थितियों-परिस्थितियों को स्वर दिया है, जिससे कहानियों में विशिष्ट किस्म की इन्द्रधनुषी आभा आ गयी है।

इन कहानियों में पारमिता का प्रगतिशील दृष्टिकोण जीवन के यथातथ्य वर्णन को नये-नये विकल्पों की तलाश के प्रति संवेदनशील बनाता है। इनकी कथाशैली में छिपी है कहानी की गूढ़ता और ऊँचाई को अक्षुण्ण रखने वाली काव्य-संवेदना।

आशा है, पारमिता शतपथी के हिन्दी में प्रकाशित इस प्रथम कहानी-संग्रह का प्रबुद्ध पाठकों द्वारा स्वागत होगा।

बाजार

‘‘अरे, ये सब ताजी है या बासी ?’’
‘‘एकदम ताजी हैं, बाबूजी। बस अभी-अभी आयी हैं। देखिए ना, कैसा माल है’’, गिल उठाकर दिखा दिया मछलीवाले ने, ‘‘पद्मा नदी की हिल्सा है बाबूजी, ऐसी-वैसी नहीं।’’
‘‘ये दिख क्यों रही है ऐसी ? लाल तो नहीं दिख रहीं !’’
‘‘हिल्सा के गिल्स लाल नहीं होते, बाबूजी। ये इंजेक्शन लगी रोहू मछली नहीं है। ठेठ पद्मा की हिल्सा है—यह ऐसी मटमैली ही होती है, बाबूजी। जितनी मटमैली होगी, उतनी ही ताजी।’’
‘‘ठीक है, ठीक है, कैसे किलो दिया ? अभी तो हाँकेगा तू, न जाने कितना ?’’
‘‘पूरे दो सौ रुपये किलो, बाबूजी।’’
‘‘क्या कहा..दो सौ रुपये ? मछली बेच रहा है या सोना ?’’
‘‘क्या बाबूजी, ऐसी मछली के लिए दो सौ ज्यादा हैं ? पूरे हाट में ढूँढ़ आइए, कहीं नहीं मिलेगी ऐसी। और फिर आजकल तो यही रेट चल रहा है।’’

यहीं हार गया संजय, वाकई मार्किट में कौन-सी चीज का क्या भाव है। कहाँ जानता है वह ? आज सुबह अचानक इच्छा हुई हिल्सा खाने की, यह भी मन हुआ कि हाट जाकर खुद खरीदकर लाएगा, इसीलिए वह चला आया। वरना चपरासी ही घर का सारा सौदा लाता है। मीरा ही यह सब सँभालती है। महीने के महीने मीरा को घर का खर्च पकड़ा देने से उसका काम खत्म। हालाँकि कभी-कभी हिसाब भी माँगता है वह—जब महीने की बीस तारीख को मीरा दुबारा पाँच-छह हजार रुपये माँगती है—कल की तरह लिस्ट में कहाँ-कहाँ पाँच की जगह पचीस के खर्च का हिसाब लिखा था, समझ गया संजय। उस बारे में पूछा मीरा से। मीरा ने एक धमकी देकर बोलती बन्द कर दी उसकी—आजकल मँहगाई कितनी बढ़ गयी है, कुछ खबर है तुम्हें ? कुछ पैसे पकड़ा देने से काम खत्म हो गया समझते हो ? मैं किस-किस तरह से मैनेज करती हूँ, कुछ मालूम है तुम्हें ? वक्त पर चाय-नाश्ता मिल जाता है, हॉटकेस में लंच भरकर दफ्तर पहुँच जाता है। बन्धु-बान्धव, रिश्तेदार, मेहमान घर पर आकर ठाठ से खा-पीकर चले जाते हैं—होटल में रहने—सा रहते हो तुम : पूछोगे क्यों नहीं ? कल मंजीत सिंह तुम्हें सौ-सौ की दो गड्डियाँ दे गया था, क्या मैं नहीं जानती ? क्या उसमें से कुछ नहीं दे सकते ? छह हजार न सही, चार हजार तो दे सकते हो। इतनी बड़ी-बड़ी बातें करते हो, सँभालो अपना हिसाब अब, घर का खर्च भी।
त्राहि-त्राहि किया था संजय ने मन-ही-मन। क्यों माँगा उसने हिसाब ? पैसा तो आता है, खर्च भी हो जाता है। क्या जरूरत थी इतना कुछ सुनने की ?

पर अपनी हार दिखाई नहीं देनी चाहिए। और फिर हिल्सा तो लेकर ही जाना है।
‘‘ठीक है, ठीक है। चलो एक सौ पचहत्तर लगा लेना। और तो कम नहीं करोगे। कितना वजन होगा बताओ।’’
‘‘लीजिए तौलता हूँ।’’ तौलते हुए बोला, ‘‘दो किलो सौ ग्राम—चार सौ बीस रुपये। न एक रुपया इधर न उधर।’’
‘‘दो किलो तो हुआ, सौ ग्राम कहाँ से आया ? एक सौ पचहत्तर में देना हो दो, नहीं तो छोड़ो। एक मछली का बोल रहा हूँ साढ़े तीन सौ, और क्या दे कोई ?’’
‘‘चार सौ से एक रुपया भी कम नहीं होगा बाबूजी।’’ तराजू से उठाकर नीचे रख दी और इस तरह मुँह बनाकर बैठ गया मानो उसे मछली बेचनी ही नहीं है।
‘‘ठीक है, नहीं देना है तो....
मुँह फेरकर दो-तीन कदम आगे बढ़ गया संजय।
‘‘चलिए बाबूजी, एक सौ नब्बे कर देता हूँ। यही लास्ट है। लेना हो तो लीजिए।’’ पीछे से आवाज दी मछलीवाले ने।
होठ दबाकर मन-ही-मन मुस्कराया संजय। सही टेकनीक जानता है। भूला कुछ नहीं।

‘‘एक सौ पचहत्तर ही दूँगा, इससे ज्यादा नहीं।’’
‘‘बाबूजी, यह एक सौ नब्बे सिर्फ आपके लिए है—और कोई होता तो कम नहीं करता। आप पहले ग्राहक जो हैं।’’
मछलीवाला पुनः निरासक्त हो संजय की ओर मुँह फेरकर दूसरे ग्राहक के लिए मछली तौलने लगा और कनखियों से संजय की ओर देखता रहा।
कुछ कुंठित-सा खड़ा रहा संजय। एक मछली के लिए साढ़े तीन सौ देने को तैयार है वह, यह बदमाश मछलीवाला इतने में भी राजी नहीं है। क्या करे ? इतनी परेशानी पहले ही वह उठा चुका है, दातून नहीं किया अभी तक, ना ही बाथरूम गया है। घर पर कहकर आया है कि आज लंच में भात-मछली खाने घर आएगा। मछली बेहद लुभावनी लग रही है—बड़ी मछली है—स्वाद भी अच्छा ही होगा ! और तीस-चालीस रुपये बचाने के लिए कितनी माथापच्ची करे।

‘‘चलो हटाओ, तुम लोगों का ही युग है, ठीक से काट दो, देखना पित्त न कटे। ज्यादा छोटे-छोटे टुकड़े भी मत करना।’’
‘‘हिल्सा मछली में कैसा पित्त साहब ! खाएँगे तो जानेंगे, क्या चीज है !’’
‘‘और खराब हुई तो ?’’
यहीं आकर पटक जाइएगा—बनाने के बाद भी। मैं रोजाना का आदमी हूँ, बाबूजी—कोई ठगबाज नहीं—धन्धा डूब नहीं जाएगा मेरा ?’’
घर लौटने तक लगभग आधा नहा चुका था पसीने से संजय। अकसर इस समय वह नित्य कर्म करके दफ्तर जाने के लिए जल्दी-जल्दी तैयार हो रहा होता है। आज देर हो चुकी है। दो-तीन लोग बाहर बरामदे में भी बैठे हुए हैं। जरूर किसी ऊटपटाँग काम से आये होंगे—लग भी रहे हैं सड़क छाप—इनसे तो दाल भी नहीं गलने की। बरामदे की ओर से कन्नी काटकर पिछले दरवाजे से अन्दर आँगन में चला गया संजय।

‘‘आओ मीरा, देखो कैसी मछली लाया हूँ !’’
‘‘हाँ-हाँ, किला जो फतह कर लिया ! हाय राम, यह तो कहीं से भी फ्रेश नहीं लगती।’’
‘‘नहीं लगती ! अरे नहीं, एकदम ताजी है। न हुई तो पैसे लौटा देगा बोल रहा था मछलीवाला।’’ यह कहते हुए आँगन के नल के नीचे मछली धोने बैठी निधि को पुकारा।
‘‘सुनो, ये बाहर बरामदे में कौन बैठे हुए हैं ?’’
‘‘साहबजी, दो दिन से आप ही को ढूँढ़ रहे हैं ये लोग, दफ्तर में आपसे मिल नहीं पाये—इसलिए घर चले आये।’’
‘‘नहीं मिल पाये तो मैं क्या करूँ ? कह दो उनसे दफ्तर में ही मिलें। अभी समय नहीं है मेरे पास ?’’
‘‘साहब जी, ये लोग एक घंटे से बैठे हुए हैं...’’
‘‘ठीक है, पर अभी तो नहीं हो सकता—जाओ, दफ्तर में मिलने को बोल दो।’’
‘‘किस समय साहब जी ?’’

‘‘अभी से कैसे बता दूँ किस समय ? न जाने कितनी मीटिंग हैं आज—एम.डी. भी बुला सकते हैं।’’
‘‘साहब जी, ये लोग मेरे गाँव के हैं—इसीलिए...’’ब्रश में पेस्ट लगाते हुए निधि की ओर देखा संजय ने, ‘‘ओ ये बात है ? चलो ठीक है, कह दो बारह बजे आने को—कह देना, एक पर्ची में तुम्हारा नाम लिखकर भेज दें मुझे।’’ संजय ब्रश करने में जुट गया।
‘‘आज तो अच्छा नाश्ता बना है।’’
‘‘इडली तुम्हें अच्छी लगती है, तभी....’’
संजय सिर झुकाए खा रहा था।
‘‘एक बात कहनी थी’’, मीरा ने मिन्नत भरे स्वर में कहा।
‘‘क्या है, बोलो ?’’ संजय ने खाते हुए अन्यमनस्क हो कहा और दूसरे ही क्षण चौकन्ना हो गया—जरूर और पैसे चाहिए मीरा को।
‘‘चलो रहने दो, दफ्तर से लौट आओ फिर बोलूँगी।’’
‘‘ठीक है।’’ संजय ने उठकर हाथ धोया और जल्दी-जल्दी तैयार होने लगा। दफ्तर में घुसते ही खबर मिली कि एम.डी. उसे ढूँढ़ रहे थे और सचिवालय निकल गये। चलो ठीक है, ढूँढ़ने दो बुढ़ऊ को—दुबारा बुलाएँगे तो जाऊँगा...यों मन को आश्वस्त किया और टेबल पर रखे कागजात उलटने-पलटने लगा।

‘‘सर, कोई नवघन बाबू आये हैं, कहते हैं कोई अर्जेंट काम है। कहते हैं आपके बचपन के दोस्त हैं।’’ खीझ कर हाथ हिलाने वाला ही था संजय कि रुक गया वह। नवघन कहाँ आ गया ? दलाल है, पर चतुर भी। देखते हैं, क्या काम है उसका ?
‘‘क्या गरीब दोस्तों को भूल गया ? ऐसा ही होता है, बड़ा अफसर बन जाने पर !’’ यथासम्भव अभिमान भरे स्वर में कहते हुए अन्दर घुस आया नवघन—बिलकुल टेबल के किनारे से घूमकर हाथ मिलाने आ रहा था।
‘‘बैठ—बैठ वहीं’’, टेबल के सामने पड़ी कुर्सी की ओर संकेत किया संजय ने। ऐसे तो कभी सुध नहीं लेता, आज अचानक कैसे दौड़ा चला आया गले मिलने। जाने किस काम से आया होगा। मन-ही-मन खीझ रहा था संजय।
‘‘हमारे गाँव के राधू मिश्र के बेटे नवीन की फाइल पड़ी है तेरे पास—रुपये पैसे कुछ मिले नहीं उसे।’’
नवघन काम के बारे में इस तरह सीधे-सीधे कह डालेगा, सोचा नहीं था संजय ने। आश्वस्त हुआ वह।

‘‘क्या हुई उसकी फाइल ? जरूर कोई गड़बड़ी होगी। वरना क्यों अटकी रहती ?’’
‘‘नहीं, वैसी कोई बात नहीं है। कई मर्तबा कह चुका हूँ उससे, तू खुद जा, संजय बहुत अच्छा आदमी है, मेरा परिचय देना, तेरी मदद जरूर करेगा। पर वह घबराता है, बस रट लगाये रहता है : तुम्हीं चले जाओ चाचा। आज सुबह-सुबह मेरे चबूतरे पर आकर बैठ गया। बिना गये काम नहीं चलेगा।...ज़रा मँगाना यार उसकी फाइल। उसके पास अब पैसे-वैसे तो हैं नहीं। तभी छुपता फिर रहा है। तुम्हारे बड़े बाबू ने बुलवाया था उसे। मुझसे कह रहा था : चाचा, पैसे वैसे तो कुछ हैं नहीं, नाहक उस ऑफिस में जाकर क्या मुँह दिखाऊँ ?’’
और भी चिढ़ गया संजय मन-ही-मन। स्साला, आया है चिकनी-चुपड़ी बातें करके काम करवाने। भला कंट्राक्टर के पास पैसे नहीं होते। नवघन ने जरूर उससे एक अच्छी रकम ऐंठी होगी।

‘‘चल ठीक है, न हुआ न सही। इस गरीब दोस्त को याद रखना। दो-तीन महीने बाद तो नवीन खुद ही आएगा, सँभाले अपना काम।’’ नवघन ने उसे भाँपते हुए कहा और कुर्सी छोड़कर खड़ा हो गया।
संजय इतना खीज चुका था कि उसे चाय तक ऑफर नहीं की। नवघन कमरे से बाहर ही था कि बड़े बाबू अन्दर घुस आये।
‘‘सर, वह मेडम, डाटा एंट्री के लिए जो रहना चाहती हैं...ड़ेलीवेज़ में, वे आयी हैं—सरिता महान्ति। आपसे मिलने को कह रही हैं।’’
जरा भौहें सिकोड़ी संजय ने, ‘‘पर समय तो बिलकुल नहीं है मेरे पास। ठीक है, बुला लो उसे पाँच मिनट के लिए’’—मन-ही-मन प्रफुल्लित हो रहा था संजय, यह सुनकर कि सरिता माहन्ति का नाम बड़ी इज्जत से ले रहे हैं बड़े बाबू।
‘‘सर, दीदी और भैया कह रहे थे यदि गेस्ट हाउस में मुझे थोड़ी सी जगह मिल जाती रहने को तो अच्छा होता। रोजाना तीस-तीस किलोमीटर आने-जाने में परेशानी होती है।’’ सरिता ने काफी शान्त और निरीह भाव से कहा—उसके चेहरे पर आशा झलक रही थी।

‘‘देखता हूँ, क्या हो सकता है। गेस्टहाउस अक्सर खाली तो रहता नहीं। तुम लड़की हो, क्या अकेली रह जाओगी ?’’ संजय ने कनखियों से देखा उसकी ओर। बुरी नहीं है देखने में—सुन्दरता की अपेक्षा यौवन ने अधिक ताज़गी भर रखी है उसमें। फीके गुलाबी रंग की सलवार-कमीज पहन रखी है। पाँच दिनों से उसके ऑफिस में काम कर रही है। पिछली बार ढेंकानाल दौरे के समय खुद ही आकर मिली थी। सबकुछ कर सकती है, बी.ए. पास है कम्यूटर डाटा एंट्री कोर्स कर चुकी है। काफी अनुनय-विनय करती हुई बोली कि कोई नौकरी चाहिए उसे, कैसी भी हो, शुरू में डेलीवेज़ेज में ही सही। पहले तो संजय अवाक् रह गया, खुद-ब-खुद कोई लड़की आकर कह रही है, सबकुछ कर सकती है। न जाने किस मोह से ‘‘भुवनेश्वर आकर मिलो’’ कह दिया उससे, जबकि उसे मालूम था कि नौकरी दे पाना उसके वश में नहीं। पर उसने सोचा, अभी कम से कम डेलीवेज़ेज पर चले, फिर देखा जाएगा।
‘‘आ जाऊँगी सर। कोई प्रॉब्लम नहीं।’’ सरिता ने दृढ़ता से कहा।
फिर चौंका संजय। कुछ सशंकित भी हुआ—यह तो बड़ी दमदार लगती है, क्या इसको...

‘‘थैक्यू सर, थैंक्यू वेरी मच।’’ मन-ही-मन मुस्कुरायी सरिता और नाटकीय रूप से टेबल पर से हाथ उठाकर चल पड़ी।
बड़ी चालाक है यह लड़की तो। पूरी जान ही लेने पर उतारू है क्या ? संजय सोच रहा था मन-ही-मन।
‘‘हाँ सरिता, सुनो, परसों दौरे पर जाना है, चिलिका के आस-पास, तुम साथ चलो, स्टेनो तो अभी और पाँच दिन की छुट्टी पर है।’’
‘‘नो प्रॉब्लम सर। किस समय चलना होगा सर ?’’
‘‘परसों सुबह नौ बजे ड्राइवर तुम्हें गेस्ट हाउस से पिकअप कर लेगा। मैं ऑफिस से फाइल साथ लेता आऊँगा।’’
‘‘ऑल राइट सर।’’ दुबारा नमस्ते करके मटकती हुई सरिता महान्ति कमरे से बाहर चली गयी। उसे पीछे से देखकर मुस्कुरा उठा संजय और मन-ही-मन सोचा, देखा जाए।

‘‘तुमसे कहा था ना कि कुछ पूछना चाहती हूँ—क्या पूछ रही थी ? तुमने फिर पूछा भी नहीं !’’ लाड़ भरे स्वर में कहा मीरा ने।
‘‘पूछती क्यों नहीं,’’ संजय के स्वर में कोई आग्रह नहीं था। डायनिंग टेबल पर तब तक खाना लग चुका था।
‘‘आज ही चिट्ठी आयी है माँ की,’’ संजय की आँखों से आँखें मिलाकर कहा मीरा ने, ‘‘उनके पेट के निचले हिस्से में काफी दर्द रहता है। उठ-बैठ तक नहीं पा रहीं। वही हॉमियोपैथी की दवा खा रही हैं, दो महीने से, कोई फायदा नहीं। क्या जाने, कहीं ट्यूमर-फ्यूमर तो नहीं हो गया,’’ एक ही साँस में कह गयी मीरा। संजय ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी। ‘‘क्या उन्हें इस रविवार को यहाँ ले आएँ ?’’ मिन्नत की मीरा ने, ‘‘क्या करें ? और कोई है भी तो नहीं यहाँ। उनका आशा-भरोसा तुम्हीं हो। जरा टेस्ट वगैरह करवा देते, एकाध महीने रह लेती यहाँ।’’
‘‘तुम अपने भाई को क्यों नहीं खबर कर देती, दिल्ली में तो अच्छे-अच्छे डॉक्टर हैं—टेस्ट भी ढंग से हो जाएँगे, सही बीमारी भी पकड़ में आ जाएगी।’’ शान्त भाव से कहा संजय ने।

‘‘माँ ने यह भी लिखा है कि भैया को दो-दो चिट्ठियाँ भेज चुकी हूँ, पर कोई जवाब नहीं आया। हमारे यहाँ कई टेस्ट तो मुफ्त में हो जाएँगे। वैसी कोई दिक्कत भी नहीं होगी। महीने भर की तो बात है।’’
‘‘देखो, महीने-छह महीने की बात मैं नहीं कर रहा, बात यह है कि आज कल तो डॉक्टर हाथ लगाने का पैसा ले लेते हैं—दिखाना मान लो मुफ्त हो जाएगा, पर टेस्ट वगैरह और उसके बाद दवा-ट्रीटमेंट का खर्च कोई कम नहीं होता, समझी ? दस-बारह हजार तो मिनिमम है।’’
‘‘क्या मैं नहीं जानती ? पर क्या करें ? माँ है तो करना ही होगा। मेरे पास भी कुछ पैसे हैं।’’ मीरा की आँखें छलछला आयी थीं।
‘‘अरे नहीं, मैं क्या तुम्हारे पैसे की बात कर रहा हूँ ? भैया को लिखो, माँ इस तरह सीरियस है, यदि लिवा नहीं जा सकते तो कम से कम दस हजार रुपये भेज दें। उन्हें कोई अभाव तो है नहीं। सारी जिम्मेवारी हम ले भी लें, पर कुछ रुपये तो उन्हें देने ही चाहिए। ठीक है, चलेंगे रविवार को, लिवा लाएँगे।’’
‘‘कल मैं भी भैया को फोन करूँगी। वे सोचते होंगे, आसानी से बच जाएँगे।’’
संजय चुपचाप सोने चला गया।

‘‘ए उठो, उठो ना, इतनी भी गहरी नींद कैसी ?’’ मीरा ने संजय को जोर से झकझोरा।
‘‘कितने बजे हैं ?’’ संजय ने हड़बड़ाकर उठते हुए आँखें मलने लगा।
‘‘बजे तो आठ हैं—पर इतनी बार फोन बजा, और तुम हो कि कुम्भकर्ण की नींद सो रहे हो ?’’ मीरा क्यों खीझ रही है, समझ नहीं सका संजय।
‘फोन बज रहा था तो तुमने उठाया क्यों नहीं ?’’ संजय ने सोचा, वास्तव में खीझना तो उसे चाहिए था।
‘‘मैंने नहीं उठाया तो और किसे गरज पड़ी है जो उठाएगा ?’’ मीरा ने नथुने फुलाकर कहा।
‘‘बात क्या है ? किसका फोन था ?’’ संजय ने अपना स्वर कुछ बदलते हुए पूछा।
‘‘बात क्या होगी ? तुम्हारे बाबूजी ने फोन किया था—पूछा, क्या कर रहे हो उस बारे में।’’ मीरा ने पहले जैसे स्वर में ही जवाब दिया।
‘‘किस बारे में ?’’ नींद की वजह से संजय समझ नहीं पा रहा था ठीक से कुछ।
‘‘और किस बारे में ?’’ खीझ उठी मीरा, ‘‘वही, अनीता की शादी के बारे में’’ और चिट्ठी में लिखा था उन्होंने, एक लाख रुपये देने के लिए ? क्या तय किया, पूछ रहे थे। तुमसे बात करना चाहते थे। मैंने कहा, सो रहे हैं—उठा दूँ क्या ? पूछने पर उन्होंने कहा, नहीं रहने दो, संजय से कहना कि बाद में मुझे फोन कर ले।’’
‘‘अरे हाँ।’’ जम्हाई ली संजय ने। रजाई एक ओर हटाते हुए उठकर खड़ा हो गया और बाथरूम की ओर चल पड़ा।
‘‘क्यों, कुछ कर नहीं रहे ?’’ मीरा के स्वर में आसन्न युद्ध की घोषणा थी।
‘‘ऑफिस से लौटकर आता हूँ—देखो न, इतनी देर हो चुकी है।’’ संजय ने संक्षिप्त उत्तर दिया। मीरा कुछ कहे बिना दमदमाती हुई बेडरूम से निकल गयी।


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