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मेरा कुछ सामान

गुलजार

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5243
आईएसबीएन :81-7119-934-8

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गीत-संग्रह...

Mera kuchh saman

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बहुत छोटी-छोटी बातें होती हैं-रोटी, तवा, धुआँ, पत्ती, कोहरा या पानी की एक बूँद। लेकिन उनके बड़ेपन की तरफ कोई हमें ले जाता है, तो हम अनायास ही एक तल से ऊपर उठ जाते हैं, नितांत निर्मल होते हुए। गुलज़ार की शायरी इसी निर्मलता की तलाश की एक कोशिश जान पड़ती है। वे बहुत मामूली चीजों में बहुत खास तरह से अभिव्यक्त होते हैं। उदासी, खुशी या मिलन-बिछोह अथवा बचपन...लगभग सभी नितांत निजी इन स्पर्शों को वे शब्दों के जरिये मन से मन में स्थानांतरित करने की क्षमता रखते हैं।

एक विशेष प्रकार की रूमानियत के बावजूद ये विराग में जाकर अपना उत्कर्ष पाते हैं। इसलिए उदास भी होते हैं तो अगरबत्ती की तरह ताकि जलें भी तो एक खुशबू दे सकें औरों के लिए।

गुलज़ार की यह सारी मौलिकता और अपनापन इसलिए भी और—और महत्त्वपूर्ण जान पड़ता है क्योंकि वे अपनी संवेदनशीलता और शब्द फिल्मों से लेकर आए हैं। बेशुमार दौलत और शोहरत की व्यावसायिक चकाचौंध में जहाँ लोकप्रियता का अपना पैमाना है, वहां साहित्य की संवेदनात्मक, मार्मिक तथा मानव हृदय से जुड़े हर्ष-विषाद की जैसी काव्यात्मक अभिव्यक्ति गुलज़ार के हाथों हुई, वह अपने आप में एक अव्दितीयता का प्रतीक बन गई है।

 

बोसकी के नाम

 

पहला-पहला गीत जो बोसकी के लिए
लिखा था, वह था :
बिट्टूरानी बोसकी
बूँद गिरी है ओस की
तब से और उसके पहले से जितने गीत हुए हैं,
सब इस किताब में रख कर उसे सौंप रहा हूँ।
यह उसी की पूँजी है।

 

गुलज़ार

 

मोरा गोरा रंग लई ले


मोरा गोरा रंग लई ले इस गीत का जन्म वहाँ से शुरू हुआ जब विमल-दा (बिमल राय) और सचिन-दा (एस.डी.बर्मन) ने ‘सिचुएशन’ समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगुनाती हुई बाहर निकल आई।

‘‘ऐसा ‘करेक्टर’ घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता’’, बिमल-दा ने वहीं रोक दिया।
‘‘बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी ?’’ सचिन-दा ने पूछा।
‘‘बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती ?’’ बिमल-दा ने दलील दी।
‘‘यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।’’
‘‘तो कविता लिखो। वह कविता गाएगी।’’

‘‘गाना घर में घुट जाएगा।’’
‘‘तो आँगन में ले जाओ। लेकिन बाहर नहीं गाएगी।’’

‘‘बाहर नहीं गाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा’’, सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी।
कुछ इस तरह से ‘सिचुएशन’ समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से। देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंस थे। सरन से वैष्णव कविताएँ सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक़्त है, बाहर जाते डरती है, चाँदनी रात है कोई देख न ले। आँगन से आगे नहीं जा पाती।
सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया : चाँदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आँगन के तरफ़ देखती है।
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है।
सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई :
ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहल बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने थोड़ा से संशोधन किया :
ददद दा ददा दा
सचिन-दा ने पिर गुनगुनाकर ठीक किया :

ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा- मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूँ :
तता ता ततता तता ता

सचिन-दा कुछ देर हारमोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे शब्द आने लगे :
दो-चार...दो-चार...दुई-चार पग पे आँगना-
दुई-चार पग....बैरी कंगना छनक ना-
ग़लत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए :

बैरी कगना छनक ना
मोहे कोसो दूर लागे
दुई-चार पग पे अँगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूँ धुन की बहर हाथ में आ गई।
चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा। कल्याणी के खयाल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हाँ, एक बात ज़िक्र के काबिल है। एक ख़याल आया, चाँद से मिन्नत करके कहेगी :


मैं पिया को देख आऊँ
जरा मुँह फराई ले चंदा


फौरन ख़याल आया, शैलेन्द्र यही ख़याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :

 

दम-भर के जो मुँह फेरे-ओचंदा—
मैं उन से प्यार कर लूँगी
बातें हजार कर लूँगी

 

कल्याणी अभी तक चाँद को देख रही थी। चाँद बार-बार बदली हटाकर झाँक रहा था, मुस्करा रहा था। जैसे कह रहा हो, कहाँ जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूँगा। सब देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी :


तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाई जी जलाई के


चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊँ। लेकिन मोह, बाँह से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पाँव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया, क्या करे ? किधर जाए ? अपने ही आप से पूछने लगी :

 

कहाँ ले चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के

 

गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी चाँदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चाँदनी में छलक-छलक जाती। अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढँकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आयी बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई। यही गुनगुनाते :

 

मोरा गोरा रंग लई ले
मोहे श्याम रंग दई दे


ग़ुलजार


मेरे सरहाने जलाओ सपने
मुझे ज़रा-सी नींद आए


ज़िन्दगी वैसी नहीं होती, जैसे दिखाई देती है, वह उतनी ही भर दिखाई नहीं देती जितनी ये दो आँखें देखती हैं। शायद तितलियाँ, फूल और चाँद खुद नहीं जानते कि उनके होने के बावजूद कितना न होना बचा है या उनके होने से कितना कुछ हो गया है। दरअसल, एक गहरी रागात्मकता के साथ जब अनुभूतियाँ आकार लेती हैं तो वे कभी चित्र बनाती हैं, उनमें रंग भरती हैं या बने हुए चित्रों अथवा रंगों में नए-नए चित्र और नए-नए रंग चढ़ते-उतरते देखती हैं। प्रकृति और एक साशय जीवन के बीच बहुत-सा ऐसा बचा रहता है, जिसे समझने की अगर कोशिश की जाए तो उस बच जाने में भी बहुत भरा-पूरापन जीवन्त हो आता है।

बहुत छोटी-छोटी बातें होती हैं—रोटी, तवा, धुआँ, पत्ती कोहरा या पानी की एक बूँद ! लेकिन उनके बड़ेपन की तरफ कोई हमें ले जाता है, तो हम अनायास ही एक तल से ऊपर उठ जाते हैं, नितान्त निर्मल होते हुए गुलज़ार की शायरी इसी निर्मलता की तलाश की एक कोशिश जान पड़ती है।

वे बहुत मामूली चीजों में बहुत खास तरह से अभिव्यक्त होते हैं। उदासी, खुशी या मिलन-विछोह अथवा बचपन...लगभग सभी नितान्त निजी इन स्पर्शों को वे शब्दों के जरिए मन से मन में स्थान्तरित करने की क्षमता रखते हैं। एक विशेष प्रकार की रूमानियत के बावजूद ये विराग में जाकर अपना उत्कर्ष पाते हैं। इसलिए उदास भी होते हैं तो अगरबत्ती की तरह ताकि ख़ुद जलें तो भी एक खुशबू दे सकें औरों के लिए।

गुलज़ार की यह सारी मौलिकता और अपनापन इसलिए भी और-और महत्त्वपूर्ण जान पड़ता है क्योंकि वे अपनी संवेदनशीलता और शब्द फिल्मों में लेकर आए हैं। यह कोई नई खोजी रचना नहीं है कि हिन्दी फिल्म संगीत लोकप्रियता की व्यावसायिक उड़ान में कहाँ तक पहुँच गया है और झुमरी तलैया के फ़रमाइशी कार्डों की शोहरत कहाँ-कहाँ नहीं पहुँची। और, यह भी जाना-माना सच है कि प्यारेलाला आवारा से लेकर पंडित सत्यनारायण तक, कान्स्टेबल से लेकर कलेक्टर तक, कार्यकर्ता से लेकर मिनिस्टर तक कभी न कभी, कहीं न कहीं हर जिन्दगी के किसी न किसी पन्ने पर नौशाद/गुलाम मुहम्मद से लेकर आर.डी. बर्मन तक दस्तखत कर गए हैं ! इसीलिए बेशुमार दौलत और शोहरत की व्यवसायिक चकाचौंध में जहाँ लोकप्रियता का अपना पैमाना है, वहाँ साहित्य की संवेदनात्मक, मार्मिक तथा मानव-हृदय से जुड़े हर्ष-विषाद की जैसी काव्यत्मक आभिव्यक्ति गुलज़ार के हाथों हुई, वह अपने आप में एक अद्वितीयता का प्रतीक बन गई है। इस अर्थ में गुलज़ार के शब्द, लोक-हृदय के उफानों, सुखों, इच्छाओं तथा याथार्थ के प्रति उत्पन्न आवेगों को इस तरह बाँटते प्रतीत होते हैं

कि हम उन्हें देखने-सुनने-महसूस ने लगते हैं। दुरूहता के विरुद्ध एक सादगी हमेशा छू लेती है।
अक्सर गुलज़ार एक प्रिय पितृत्व, अनन्त प्रेम की प्यास, मोहक उदासी तथा बहुत सारे प्यारे-प्यारे बच्चों का, बड़ों के लिए तर्कहीन किन्तु सुखी पलों की यथार्थ वांछा का निश्छल संसार अपने भीतर समेटे, जीवन जीने की इच्छा से भरपूर एक औसत तथा हमारे ही बीच के आदमी की तरह सामने आते हैं।

 वे ‘छोटी-छोटी बातों की हैं यादें बड़ी (आनन्द) और ‘एक सौ सोला चाँद की रातें, एक तुम्हारे काँधे का तिल’ (इजाज़त) के साथ-साथ बहुत धीमे से याद दिलाते हैं—इक बार वक्त से/लम्हा गिरा कहीं/वहाँ दास्ताँ मिली/लम्हा कहीं नहीं/थोड़ा-सा हँसा के/थोड़ा सा रुला के/पल जो यह जाने वाला है/आने वाला पल/जाने वाला है (गोलमाल)

गुलज़ार की कुछ काव्य-यात्रा प्रकृति और मन के बीच अपने-आपको खो देने की प्रबल इच्छा से संपन्न होती हैं। चूँकि फिल्में, संगीत के अपने वैशिष्ट्य तथा अभिनय व कथा के रूपाकार के साथ आती हैं, इसलिए धुनों में शब्दों के सामर्थ्य को डालना व्याख्या के पृथक उपकरणों की माँग करता है। बर्मन-किशोर या आशा के बावजूद यदि शब्द गूँजते रहें और हमें उनमें समो लें तो स्वर-संगीत माधुर्य से ऊपर क्षणों की मित्रता कायम होती है। इस मित्रता में परिभाषाओं की परम्परागतता से परे छुपा अपनत्व होता है।

उनके पास लगभग गिनती के शब्द हैं, ठीक वैसे जैसे ‘आम आदमियों’ के शब्दकोष में होते हैं। उनके पास लगभग नियत जीवन-हृदय हैं जैसे आम आदमियों की ज़िन्दगी में होते हैं। उनके पास करीब-करीब वही इच्छाएँ हैं जो किसी भी आदमी के निजीपन में उसे तरंगित या उद्वेलित कर सकती हैं। हिन्दी फिल्मों की लोकप्रियता में संगीत के जादू के जरिए जो मनहरणकारी क्रिया संपन्न होती है, उसका मूल भी यही बिन्दु है। लेकिन, गुलज़ार इसी मनहरणकारी व्यवसाय में अपनी संवेदनशीलता से रिश्तों के स्पर्श देने में कामयाब होते हैं, यही उनकी सबसे बड़ी खूबी है। ‘फिल्मी’ गीतों में भी, प्रकृति की सूक्ष्म व्यंजना गुलज़ार के हाथों इस तरह खुल कर जाती हैं :


चुलबुला यह पानी अपनी
राह बहना भूलकर
लेटे-लेटे आईना
चमका रहा है फूल पर....
(हवाओं पे लिख दो/‘खामोशी’)

 

उनके लिए रिश्तों का बहुत मूल्य है। बकौल गुलज़ार, रिश्ते बस रिश्ते हैं/कुछ परों से हल्के होते हैं/बरसों के तले चलते-चलते/भारी भरकम हो जाते हैं.../कुछ भारी भरकम बर्फ के से/बरसों के तले गलते-गलते/हल्के-फुल्के हो जाते हैं। यही नहीं, नाम होते हैं, कुछ रिश्तों के/कुछ रिश्ते नाम के होते हैं। रिश्ते अगर मर जाएँ भी/बस नाम से जीना होता है।’ (गहराई)

इन रिश्तों में एक अन्तिम आकर्षण है और इनके न रह पाने की विवशता का अहसास भी। इसी के वशीभूत वे कहते हैं—‘बहुत बार सोचा यह सिंदूरी रोगन/जहाँ पे खड़ा हूँ/वहीं पे बिछा दूं/यह सूरज के ज़र्रे ज़मीं पर मिले तो/इक और आसमाँ इस ज़मीं पे बिछा दूँ/जहाँ पे मिले, वह जहाँ, जा रहा हूँ/मैं लाने वहीं आसमाँ जा रहा हूँ।’ (कशिश)

रिश्तों के ताने-बाने को, उनकी जटिलताओं को, जहाँ उनके मूल स्वरूप में पकड़ा गया है, वहाँ उनमें व्याप्त कोमलतम भावनाओं की सरलतम अभिव्यक्ति दी गई है। यह सरलता न सिर्फ़ अपनी कहन में खींचती है, बल्कि प्रकृति के बिम्बों से युक्त होने की वजह से अत्यन्तिक अनुभूति की तरह मन में उतर जाती है।

 सात रंग के होने की वजह से आत्यन्तिक अनुभूति की तरह मन में उतर जाती है। सात रंग के सपने बुनते ‘आनन्द’ के जरिए गुलज़ार आँखों ही आँखों में मन में प्रविष्ट होते हैं/यादें चुनते हैं और ऐसी सर्जना करते हैं जो न सिर्फ मौसम रचती है बल्कि ‘आँधी’ भी लाती है। वे रिश्तों की ज़रूरत का हिस्सा उतनी ही कशिश से सामने लाते हैं, जितना उसकी टूटन में उपजे दुख का।

जहाँ तक बिंबों-प्रतीकों का प्रश्न हैं, ‘चाँद’ के बगैर वहाँ काम नहीं चलता। गुलज़ार ने एक दफे मुझसे बातचीत में मुस्कुराकर कहा था, आशाजी (भोंसले) स्नेह में आकर ताना देती हैं—तुम्हारा कोई गीत चाँद के बगैर पूरा ही नहीं होता। यह कई अर्थों में सच है। लाज और लिहाज, ताना और आत्मीयता...लगभग हर एक प्रसंग के लिए चाँद को गुलज़ार ने याद किया है। चाँद यहाँ इच्छाओं का बिम्ब बन गया है।

लेकिन, यह चाँद हर जगह एक नए रूप में मौजूद है। चाँद से यह करीबी, गुलज़ार की, इतनी गहरी कि एक संग्रह का नाम ‘एक बूँद चाँद’ तो दूसरे का ‘चाँद पुखराज का’ है। कभी वे चाँद चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात करते हैं, तो कभी कहते हैं—‘शाम के गुलाबी-से आँचल में दीया जला है चाँद का/मेरे बिन उसका कहाँ चाँद नाम होता...गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता !’ (देवता)

एकदम शुरू का गीत, ‘बंदिनी’ का ‘मोहे श्याम रंग दई दे’ में नायिका की जिस दुविधा का सजीव चित्रण किया गया है, उसमें चाँद बार-बार बदली हटाकर झाँक रहा था, मुसकुरा रहा था कि कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूँगा। नायिका सोचती रही कि काश, इतनी चाँदनी न होती या मैं इतनी गोरी न होती कि चाँदनी में छलक-छलक जाती। साँवली होती तो कैसे पात में ढँकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती...मोरा गोरा रंग लई ले/मोहे श्याम रंग दई दे।


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