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दरार

रामावतार

प्रकाशक : अनुराग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5230
आईएसबीएन :81-89498-00-2

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क्रान्तिकारियों के जीवन पर आधारित उपन्यास

Darar

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

मेरे मन में क्रान्तिकारीयों के प्रति गहन श्रद्धा है। लेकिन जब मैं उनके कलुषित पारिवारिक जीवन को देखता हूँ तो बहुत कष्ट होता है और समझ में नहीं आता कि उनकी क्रान्तिकारिता कहाँ विलुप्त हो गयी। कहाँ उनका क्रान्तिकारी आक्रामक तेवर और कहाँ उनका पराजित समझौतावादी जीवन। दोनों के दो छोर हैं जो कभी मिल नहीं पाते। मैंने इस उपन्यास में एक क्रान्तिकारी के जीवन की घटनाओं को जोड़ घटाकर उनके अनुरूप इस प्रश्न का समाधान देने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि में यह समाधान सही है पर मेरी दृष्टि में यह कोरा पलायनवाद है। मैं तो चाहता था कि उन्होंने अपने क्रान्तिकारी जीवन में जो मशाल जलायी थी वह जीवनपर्यन्त जलती रहती और जब बुझती तो लगता कि एक युग का अंत हो गया है। यह मशाल बुझकर भी अमर हो जाती और लोगों को प्रेरित करती रहती। पर मेरे चाहने से क्या ! चाहने से सब कुछ होता रहता तो आदमी दुःखी क्यों रहता।

दो शब्द

    इस उपन्यास की उत्पत्ति मेरी उस जिज्ञासा से हुई है कि क्रान्तिकारियों के पारिवारिक जीवन में वह क्रान्तिकारिता कहाँ विलुप्त हो गयी जो आजादी की लड़ाई में दिखती थी। कहाँ वे परमवीर तेजस्वी क्रान्तिकारी और कहाँ उनका समझौतावादी पराजित पारिवारिक जीवन। दोनों के दो छोर हैं जो आपस में कभी मिल नहीं पाते। यही वह प्रश्न है जो बार-बार मुझे कुरेदता रहा है। मैं समझ नहीं पाता कि उनका वह तेज परिवार में आकर विलुप्त क्यों हो गया ? वे इस मोर्चे पर क्यों पराजित हो गये ? यह प्रश्न आपके मन में भी उठ रहा होगा। मैंने इस संबंध में कई क्रान्तिकारियों से बातचीत भी की पर वे अपने उत्तर से मुझे संतुष्ट न कर सके। प्रश्न जहाँ का तहाँ खड़ा रहा।

    इस उपन्यास में मैंने एक क्रान्तिकारी के जीवन की घटनाओं को जोड़ घटा कर उनके अनुरूप इस प्रश्न का समाधान देने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि में यह समाधान सही और तर्कसंगत है। पर मेरी दृष्टि में यह कोरा पलायनवाद है। यह उनकी गौरवपूर्ण उपब्धियों से बढ़े कद को कुतरकर बौना बना देता है। मेरे मन में यह कचोट पैदा करता है। मैं तो चाहता था कि उन्होंने अपने क्रान्तिकारी जीवन में जो मशाल जलायी थी वह जीवनपर्यन्त जलती रहती ओर जब बुझती तो लगता कि एक युग का अंत हो गया है। यह मशाल बुझ कर भी अमर हो जाती और लोगों को प्रेरित करती रहती। पर मेरे चाहने से क्या ! चाहने से सब कुछ होता रहता तो आदमी दुःखी क्यों रहता।

    मनुष्य में स्वार्थ स्वाभाविक है। स्वार्थ गलत चीज नहीं है। इसे सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। इस दुनिया में कौन है जो स्वार्थी नहीं है। स्वार्थ में ही आदमी एक-दूसरे को पकड़े हुए है। तुलसीदास ने इसी ओर इंगित करते हुए कहा है: ‘स्वारथ लागि करहीं सब प्रीति।’ स्वार्थ के आधार पर ही संबंध बनते बिगड़ते हैं। शत्रु मित्र बनता है और मित्र शत्रु। स्वार्थ का परित्याग बहुत कठिन है। जो त्यागता है वह निष्काम और सन्त बन जाता है। मनुष्यता से देवत्व की उस कोटि में पहुँच जाता है जहाँ से मुनष्य प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करता है। ऐसे लोग ही समाज के प्रेरणा पुरुष होते हैं और अपनी सुरभि सर्वत्र बिखेरते रहते हैं।

    लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। जब स्वार्थ सीमा का उल्लंघन कर अधमता पर उतारू हो जाता है तो वह निर्लज्ज होकर कोई भी कुकर्म कर सकता है। तब उसका निर्मल मन मल की चादर से ढक जाता है। विवेक पर अविवेक भारी पड़ जाता है। दुर्योधन की यही दशा हो गयी थी। कृष्ण के लाख समझाने पर भी उसकी बुद्धी नहीं खुली और उसने दो टूक शब्दों में कहा— ‘‘कृष्ण, मुझे उपदेश मत दो। मैं धर्म-अधर्म सब जानता हूँ। धर्म में मेरी प्रवृत्ति नहीं है और अधर्म से निवृत्ति नहीं है। मेरे अन्दर एक ऐसा देव बैठा हुआ है जो जैसा कहता है वैसा करता हूँ।’’

    वह देव अधम स्वार्थ के अलावा और कौन हो सकता है। स्वार्थान्ध आदमी इसी तरह की भाषा बोलता है। वह अपने पैरों में स्वयं कुल्हाड़ी मारता है। जब परिणाम आता है तो छटपटाने लगता है। लेकिन क्यों ? क्या उसे पता नहीं कि कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता। उसका फल देर सबेर मिलता ही है। जो जैसा बोता है वैसा काटता है। यह चिरन्तन सत्य है। काँटा बोने वाला अमरूद का मीठा फल कैसे पा सकता है।

    इस उपन्यास के नायक पल्टू राम देश प्रेम की भावना में प्रवाहित होकर स्वातंत्र्य संग्राम में जिस गहन आस्था और मनस्विता से कूद पड़ते हैं और अपनी अदम्य क्रान्तिकारिता का परिचय देते हैं वह उनके पारिवारिक जीवन में कहीं नजर नहीं आती। एक विख्यात क्रान्तिकारी पर एक अनपढ़ और गँवार पत्नी बासमती भारी पड़ गयी है। उसे सदा सन्तुष्ट और प्रसन्न रखना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया है। वह उन्हें जैसा चाहती है नचाती रहती है। यहाँ तक कि वह उनके क्रान्तिकारी मित्र नादिरा पर भी चोट करती है और उसे अपनी सौत तक कह देती है पर वह विरोध नहीं करते। सब कुछ चुपचाप सहते रहते हैं। पर उनकी मित्र नादिरा बहुत सावधान है। वह अपने सिद्धान्तों से समझौता नहीं करती और क्रान्तिकारी तेवर के साथ जीना चाहती है। इसी के चलते वह विवाह के बन्धन में नहीं पड़ी और अविवाहित रह कर अन्त तक क्रान्तिकारी बनी रही। उसे पल्टू राम के लोभी और स्वार्थी जीवन पर बहुत तरस आता है। वह उन्हें कुरेदती रहती है। पर उसकी भी एक सीमा है। उसके आगे वह न जा सकी। लेकिन इतना तो उसने कर ही लिया कि उनकी पत्नी बासमती को पटाकर एक रहस्य को उगलवा लिया और पल्टू राम की चूहेदानी में फँसकर बाहर निकल आयी। उसके गये रुपये वापस मिल गये। नादिरा ने मित्र को सबक सिखाने के लिए उन पर एक ऐसी तीखी टिप्पणी की कि वह छनाछन उठे। उन्हें इतना गुस्सा आया कि वह अपने मूर्ख पुत्र से जा भिड़े और उसका प्राणान्त हो गया। जिसका धन में ही प्राण बसता हो उसके चले जाने पर वह कैसे जीवित रह सकता है।

    मेरी पल्टू राम से बड़ी गहरी सहानुभूति है। आपकी भी हो सकती है। वह इस संसार में नहीं हैं। लेकिन वह जहाँ भी होंगे उनकी आत्मा भटक रही होगी। मेरी और आपकी सहानुभूति किसी तरह उनके पास पहुँच पाती तो उनकी बेचैन आत्मा को निश्चित रूप से परम शान्ति मिलती पर शायद ही यह पहुँच सके।

4.1.2004   
गाजीपुर (उत्तर प्रदेश)

रामावतार

दरार


    26 दिसम्बर 1930
    जाड़े का मौसम। हाड़ कँपकपा देने वाली ठंड। आर्य समाज के वार्षिकोत्सव में लोग चादर और कम्बल ओढ़े ठिठुरे बैठे थे। मण्डप में ठंड ऐसे घुस आयी थी जैसे भारत में अंग्रेज। अन्दर-बाहर सब जगह उसका ही साम्राज्य था। आदमी कितना भी शरीर को ढकता था लेकिन वह कम्बल और चादर को छेद कर शरीर में पहुँच जाती थी और कँपकपी पैदा कर देती थी। लोग परेशान थे। लेकिन तब भी आर्य विद्वानों का भजनोपदेश सुनने के लिए डँटे हुए थे। उनकी दृष्टि मंचासीन विद्वानों की ओर लगी थी।

    जब अंग्रेजों के फन को कुचलने के लिए राष्ट्रीय भानवाओं को धार देने वाले विचारोत्तेक भाषण शुरु हुए तो अचानक वातावरण गर्म हो उठा। जाड़े की ठंड भागती नजर आयी और राष्ट्र प्रेम की गर्मी से शरीर में गर्माहाट आने लगी। पूरा मण्डल जोश और आक्रोश से भर उठा। कायरों की भुजाएँ भी फड़क उठीं। लोग खिसक कर ऐसे आगे बढ़ रहे थे जैसे रण क्षेत्र में लड़ने जा रहे हों।
    आर्य शिरोमणि कुँवर सुखपाल नौजवानों को ललकारते हुए कह कहे थे—आज देश परतंत्र है। स्वतंत्रता की जंग चल रही है। परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ी भारत माँ अपने वीर सपूतों की ओर आशाभरी दृष्टि से देख रही है। अंग्रेजी हुकूमत के दरिन्दे माँ की आँखों के सामने उसकी प्रिय सन्तानों पर जुल्म ढा रहे हैं। माँ-बहनों की इज्जत लूटी जा रही है। भारत की अस्मिता चौराहे पर नीलाम हो रही है।

    ऐ भारत के नौजवानों ! माँ की यह दुर्दशा देखकर गुस्से से तुम्हारी भुजायें फड़क नहीं उठतीं ? तुम ईट का जवाब पत्थर से देने के लिए कमर नहीं कस सकते ? सरफरोशी की तमन्ना लेकर जंगे मैदान में उतर नहीं सकते। अंग्रेजों पर कहर ढाकर उनके दर्प को चूर नहीं कर सकते ? अगर तुम्हारा खून पानी बन गया है तो मुझे कुछ नहीं कहना। तुम चूड़ियाँ पहनकर औरतों की तरह घर में बैठो। लेकिन जिसका खून उबल रहा है उनसे कहना है कि तुम काल बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ो। उनकी ईंट से ईंट बजा दो। उनके मंसूबों को खाक में मिला दो उन्हें यह सबक सिखा दो कि जिस देश के नौजवानों में राष्ट्रीय स्वाभिमान है, उसे कोई पराजित नहीं कर सकता।

    तुम मृत्यु की परवाह मत करो। आत्मा अमर है। इसे न शस्त्र काट सकता है, न आग जला सकती है, न जल डुबो सकता है और न हवा सुखा सकती है। इस अजर अमर आत्मा का कोई क्या बिगाड़ लेगा ?
    उन्होंने भरत की दुर्दशा का चित्रण करते हुए कड़कती आवाज में गाया—

    लाल भगत सिंह छीन लिया पर तुमने कुछ परवाह न की  
    सुखदेव-राजगुरु के जाने पर तुमने मुख से आह न की।
    अरे प्राणसरिस आजाद छिन गया क्या चुपके रह जाओगे
    शरमाओगे जरा नहीं क्या कुलमें दाग लगाओगे।
    अरे ब्याज सहित इन बनियों से खोयी रकम चुकानी है
    आज देखना है किसमें कितना दम कितना पानी है।

    उन्होंने नौजवानों का आवाहन करते हुए कहा:

    उठ भारत के नौजवान
    तेरी माँ की नुच रही खाल
    तुम पर छाये लाखों बवाल
    मन में आता दूँ चपत मार
    उठ भारत के नौजवान।

    श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। इस भजनोपदेश ने सबको हिलाकर रख दिया। उनके हृदय में राष्ट्र प्रेम की ज्वाला जल उठी और उनके मन को विकल करने लगी। इन श्रोताओं में दो युवक भी थे जो किसी गाँव से पैदल चलकर आये थे। वे इतने प्रभावित थे कि स्वाधीनता आन्दोलन में कूदने के लिए मचल पड़े। उन्होंने प्रण किया कि वे भारत माँ को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए अपने प्राण की बाजी लगा देंगे और तब तक चैन की साँस नहीं लेंगे जब तक भारत माँ स्वाधीन नहीं हो जाती।

    रात 11 बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ। दोनों बात करते हुए पैदल गाँव की ओर चल पड़े। वे बहुत प्रसन्न और भावविभोर थे। उनका मन लड़ाई में जाने के लिए उछल रहा था। भुजायें फड़क रही थीं। उन्हें मृत्यु का भय न था। वे अमरत्व के सिद्धान्त को आत्मसात कर चुके थे। जगदीश ने उत्साहित होकर कहा, ‘‘क्यों मित्र, आज के भजनोपदेश ने तो मन में तूफान पैदा कर दिया। भारत माँ को आजाद कराने के लिए मन तड़प रहा है।’’

    पल्टू राम ने कहा, ‘‘मैं भी तो यही महसूस कर रहा हूँ। मैं तो उस दिन लंका के मैदान में महात्मा गाँधी का भाषण सुनकर बहुत प्रभावित हुआ था लेकिन आज कुँवर सुखपाल ने उस प्रभाव को कर्म में प्रवृत्त कर दिया। मैंने दृढ संकल्प कर लिया है कि देश की आजादी के लिए आज से मेरा तन, मन, धन, समर्पित रहेगा। मेरे पैर घर की ओर बढ़ रहे हैं और मन क्रान्तिकारियों की तलाश में भागा जा रहा है।’’
    ‘‘क्या तुम घर छोड़ दोगे ?’’
    ‘‘और क्या घर में बैठकर क्रान्ति होगी ?’’
    ‘‘इसके लिए तुम्हारे माँ-बाप तैयार हो जायेंगे ?
    ‘‘वे मत तैयार हों। क्या अंतर पड़ता है। मैं तो तैयार हूँ। लड़ना मुझे है परिवार को नहीं। जहाँ देश की आजादी का प्रश्न हो वहाँ परिवार की बात सोचना मूर्खता है।’’
    ‘‘तुम्हारे परिवार का खर्च कैसे चलेगा ?’’

    ‘‘फिर वही निरर्थक प्रश्न ? मैं मर जाऊगाँ तो खर्च कैसे चलेगा ? मैंने परिवार का ठेका नहीं ले रखा है। हाँ, देश की आजादी का ठेका अवश्य लिया है। इसके लिए मैं अपने प्राण की बाजी लगा दूँगा। कभी उफ् तक न करूँगा।’’
    ‘‘तब मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। भारत माँ मुझे बुला रही है। मैं उसके साथ विश्वासघात न करूँगा।’’
    ‘‘यह हुई न बात। आदमी को दो टूक निर्णय लेने चाहिए। मुझे अगर-मगर पसंद नहीं है।’’ पल्टू राम ने अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा।
    पल्टू राम कलकल निनाद करती गंगा नदी के पावन तट पर बसे एक छोटे से गाँव में रहते थे। वह बचपन से ही घुम्मकड़ स्वभाव के थे। वह सुबह मित्रों के साथ निकल जाते तो रात को ही घर लौटते थे। माँ जानकी देवी बहुत समझाती पर उन पर कोई आसर न पड़ता था। गंगा नदी में तैरना, अखाड़े में लड़ना, मुदगल भांजना, नाल उठाना, ऊंची कूद कूदना और दौड़ लगाना उन्हें बहुत पसंद था। शरीर गठा हुआ और सुडौल था। वह स्वाभिमानी और दबंग स्वभाव के थे। किसी के आगे झुकते न थे और अपना पक्ष प्रभावशाली ढंग से रखते थे। उनके इन  गुणों के कारण ही उनके मित्रों की एक लम्बी फौज तैयार हो गयी थी।

    मिडिल स्कूल पास करने के बाद उनका झुकाव स्वाधीनता आंदोलन की ओर हुआ। वह अपने गाँव के युवकों के नेता बन गये। उन्हें साथ लेकर वह जुलूसों और सभाओं में सम्मिलित होने लगे। क्रान्तिकारियों से जान पहचान बढ़ी। वह उनके काम में सहयोग करने लगे। ऐसे उत्साही और कर्मठ युवक की उन्हें जरूरत भी थी। उन्हें छिपे क्रान्तिकारियों के पास चिट्ठी-पत्री, जब्त पुस्तकें और अखबार पहुँचाने का काम सौंपा गया। वह यह सब काम बहुत गोपनीय ढंग से करने लगे। रोज बीसों मील पैदल चलना, पूरे दिन भूखे रहना, क्रान्तिकारियों को आवश्यक संदेश पहुँचाना और अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंकने वाली हरकतें करना इनके दायें-बाएँ हाथ का खेल था।

    वह साधारण धोती-कुर्ता पहने, गले में गमछा डाले और पुराना जूता पहने बहुत सामान्य लगते थे। असामान्यता कहीं दिखती न थी। उन्हें देखकर कोई सोच भी न सकता था कि यह क्रान्तिकारी होगा। वह कभी बोरी और खुर्पी ले लेते थे। ऊपर से घास होती थी। जब कभी पुलिस को देखते घास काटने बैठ जाते थे। उस पर कभी उसकी नजर न जाती थी। पुलिस कभी समझ न पायी कि घास करने वाला भी क्रान्तिकारी हो सकता है।

    अब पल्टू राम पार्टी के सक्रिय कार्यकरता बन गये। उन पर नेताओं का विश्वास जम गया। चिट्ठी-पत्री पहुँचाने से परिचय का दायरा भी बढ़ा। आसपास के जिलों के क्रान्तिकारी और नेता उन्हें जानने लगे। कभी-कभी वे उनकी पीठ थपथपाकर प्रोत्साहित भी करते थे।

    पल्टू राम ने अपने गाँव के दस युवकों का एक दल बनाया। उसका नाम रखा क्रान्तिकारी दल। एक दिन यह तय हुआ कि सब लोग घर से भागकर गंगा पार नेता जी के यहाँ चलें और वहाँ क्रान्तिकारियों के साथ कार्य करें। उन दिनों क्रान्तिकारियों को हथियार खरीदने के लिए धन की जरूरत थी। यह धन सरकारी खजाना लूटकर एकत्र करना था। इसके लिए मंशा राम को दस युवकों की जरूरत थी। वह इस क्षेत्र के बड़े क्रान्तिकारी नेता थे। उन्होंने एक डाकखाना लूटने की योजना तैयार की थी और इसकी जानकारी पल्टू राम को दी थी। जब पल्टू राम अपने साथियों के साथ पहुँचे तो वह बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुम लोगों को एक सप्ताह तक प्रशिक्षण दूँगा और इसके बाद काम बताऊँगा।

    उन्होंने युवको को समझाया, तुम लोग यह मत समझना कि सरकारी खजाने पर डाका डालना गलत कार्य है। यह गोरी सरकार हमारी दुश्मन है। दुश्मन को लूट कर कमजोर करना स्वाधीनता आंदोलन का एक अंग है। इससे एक तरफ जहाँ हथियार खरीदने और क्रान्तिकारियों को काम करने के लिए धन प्राप्त होगा वहीं दूसरी तरफ सरकार पर दबाव बढ़ेगा। वह घबड़ाकर यहाँ से भागेगी। यदि तुम पकड़े जाओगे तब भी देश-भक्त कहे जाओगे।’’

    यह सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए। पल्टू राम ने कहा, ‘‘हम लोग काम करने के लिए तैयार हैं। हमारे साथी बहुत पक्के हैं और हिलने वाले नहीं हैं। हम लोगों का पूरा जीवन क्रान्तिकारी आंदोलन और भारत माँ के लिए समर्पित है।’’     
    वे नेता मंसा राम के यहाँ रहने लगे। वह इनकी परीक्षा लेने के लिए पूरे दिन गाँव से काफी दूर अपने बगीचे में रखते थे और केवल एक समय रात का भोजन करते थे। वे दिन भर बगीचे में रहते और भूख लगने पर खेतों से ककड़ी तोड़कर और चने उखाड़कर खा लेते थे। मंसा राम सुबह प्रातः भ्रमण के बहाने बगीचे में पहुँचते और उन्हें प्रशिक्षण देते थे। यही उनकी रोज की दिनचर्या थी।

(2)


    युवकों के फरार होते ही गाँव में हड़कम्प मच गया। पल्टू राम को छोड़कर सभी युवक दबंग घरों के थे। उनकी तलाश शुरू हो गई। लेकिन कहीं उनका अता पता न चला। सन्देह की सुई पल्टू राम पर जा कर रुक गयी। लोग उसके घर पहुँचे। पूछताछ शुरु हुई। लेकिन वहाँ भी कोई सुराग नहीं मिला। पल्टू राम के पिता हरभजन स्वयं चिन्तित थे। वह भी अपने पुत्र को ढूँढ रहे थे। गंगा तट के मल्लाह ने बताया कि पल्टू राम सहित दस नौजवान उसकी नाव से उस पार किसी नेता के घर गये हैं। वे सब नाव पर यही बात कर रहे थे। युवकों की तलाश के लिए इतना सूत्र काफी था।

    वे लोग नेता मंशा राम के घर पहुँचे। उन्होंने स्वीकार कर लिया कि कुछ युवक उनके बगीचे में टिके हैं। उन्हें बुलाया गया। वे आये। उन्होंने सब कुछ सही-सही बता दिया। सारी गलती पल्टू राम की निकली। क्योंकि वही उसके नेता थे। लोग गुस्से में थे और पल्टू राम को मारना चाहते थे। लेकिन उनके साथियों ने इसका विरोध किया। युवकों और उनके अभिभावकों में कहासुनी शुरु हो गयी। दोनों लोग तैश में आ गये थे। युवक बार-बार पल्टू राम में अपना विश्वास व्यक्त कर रहे थे और घर जाना नहीं चाहते थे। तब मंशा राम ने इसमें हस्तक्षेप किया और उन्हें निर्देश दिया कि वे अभी अपने अभिभावकों के साथ घर चले जायँ।

    वे उनकी बात मान गये और चले आये। लेकिन गाँव वालों का गुस्सा अभी कम न हुआ था। अगर उनकी चलती तो मारपीट कर पल्टू राम के हाथ पैर तोड़ डालते और उसे गाँव से भगा देते। लेकिन उसके पिता हर भजन राम धार्मिक प्रकृति के विनीत व्यक्ति थे। सुबह-शाम सबको नमस्कार करते थे। इसलिए उनका लिहाज कर लोग चुप रह गये। लेकिन वे पल्टू राम की माँ जानकी देवी को एक चेतावनी देना चाहते थे।
    गाँव के लोग उसके घर पहुँचे और उसकी माँ को सुनाकर धमकाया। नरसिंह चौधरी ने कहा, ‘‘तुम कान खोल कर सुन लो इस बार तो हम लोग पल्टुवा को छोड़ दे रहे हैं लेकिन फिर कोई गलती की तो जान से मार डालेंगे। इसे अपने घर में बंद करके रखो।’’

    जानकी देवी दबंग महिला थीं। कद काठी से मजबूत थीं और आवाज बुलंद थी। उनके आगे लाउडस्पीकर भी फेल था। वह किसी से दबती न थीं। चौधरी की बात सुनकर क्रोध से उनका शरीर जलने लगा। वह गुस्से में फुँफकारते हुए बोलीं, ‘‘सुनिये, आप पल्टू राम की गलती मत दीजिये। आप लोगों ने मेरे देश-भक्त बेटे पर हाथ उठा दिया, यह अच्छा नहीं किया। अगर मेरे सामने किसी ने हाथ छोड़ा होता तो मैं उसे उसका मजा चखाती।’’
    उसकी बात सुनकर सब हैरान रह गये। एक ने कहा, ‘‘तुम अपने बेटे की करतूत नहीं देख रही हो ? उल्टे हम लोग पर बिगड़ रही हो ?’’
    ‘‘कौन सी गलती की है मेरे बेटे ने ?’’तमक कर जानकी ने पूछा।
    ‘‘तुम अनजान बन रही हो ? तुम्हें कुछ नहीं मालूम ?’’
    ‘‘हाँ-हाँ, नहीं मालूम। मुझे बताइए तो सही।’’
    ‘‘हम लोगों के लड़कों को फुसला कर गंगा पार नेता जी के घर ले गया था। यह उसकी गलती नहीं है ?’’ चौधरी जी ने आँख तरेरते हुए पूछा।

    ‘‘नहीं है।’’
    ‘‘नहीं है ?’’
    ‘‘हाँ-हाँ, नहीं है। एक बार नहीं सौ बार कहूँगी। वे लड़कियाँ नहीं हैं कि उन्हें फुसलाकर ले जायेगा। वे जवान लड़के हैं। उन्हें अपना भला बुरा स्वयं सोचना चाहिए। मैं आपसे पूछती हूँ कि अगर पल्टू राम कहेंगे तो वे कुएँ में कूद जायेंगे ?’’
    यह सुनकर उनकी बोलती बंद हो गयी। इसका कोई उत्तर उनके पास नहीं था। वे एक-दूसरे का मुँह देखकर ऐसे मुस्कुराने लगे जैसे कह रहे हो कि एक अनपढ़ औरत ने उन्हें खूब छकाया।

जानकी देवी समझ गयीं कि वे कितने पानी में है। वह चौधरी जी की ओर देखकर बोलीं, ‘‘देखिये, आप लोग गाँव के पढ़े लिखे और समझदार लोग हैं। गाँव में आपस में वैमनस्य नहीं होना चाहिए। मेरा बेटा आपका बेटा है और आपका बेटा मेरा। मैंने तो अपने बेटे को पूरी छूट दी है कि वह आजादी की लड़ाई में खूब बढ़-चढ़कर भाग ले। जहाँ चाहे जाय और जहाँ चाहे रहे। मुझसे जो होता है मैं आर्थिक मदद भी करती हूँ हालांकि मेरा एक ही बेटा है। लेकिन देश के आगे मुझे बेटे का मोह नहीं है। मगर आप लोग अपने बेटों का त्याग करना नहीं चाहते तो उन्हें अपने घर में बन्द करके रखें। मैं क्यों अपने बेटे के बंद रखूँ।’’

    जानकी देवी की तर्कसंगत बात सुनकर सब लोग एक-एक करके धीरे से वहाँ से खिसक गये। उस  दिन पहली बार गाँव वालों को पता चला कि पल्टू राम की माँ भले ही परिवार की जीविका चलाने के लिए भाड़ झोंकती है लेकिन वह विवेकशील महिला है और राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत है। उससे बहस करके कोई जीत नहीं सकता।

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