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स्वयंसिद्धा

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5217
आईएसबीएन :9788183611268

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Swayamsiddha by Shivani

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वयंसिद्धा

जानबूझकर ही माधवी ने उस बार उस मनहूस तराई स्थित इलाके का दौरा किया था। मन की कितनी अशान्त तरंगों की आवाज को आज वह स्वयं उस कछार पर पटकने को व्याकुल हो उठी थी। नहीं तो भला गर्मी में हलद्वानी का दौरा कोई उस जैसी वरिष्ठ अफसर कर सकती थी ? जाना ही होता तो नैनीताल चली जाती, या रानीखेत, या अल्मोड़ा  ! पूरा उत्तराखंड ही तो अब उसकी मुट्ठी में बंद था। पद के गौरव ने इधर उसके अहंकारी स्वभाव को और भी अहंकारी बना दिया था। कहीं पढ़ा कि भारत के भूतपूर्व वायसराय माउण्टबेटन जब भी भारत आते हैं, उस कमरे में एकान्त के कुछ क्षण अवश्य बिताते हैं, जहाँ उनकी एडविना से प्रथम प्रणयस्मृति भी क्या आज उसे यहाँ नहीं खींच लाई थी ? किन्तु चाहने पर भी वह क्या आज उस कमरे की देहरी लाँघ पा रही थी ?

‘‘मेम साहब, चाय ले आऊँ ?’’ इंस्पेक्शन हाउस के उत्साही चपरासी ने पर्दा उठाकर झाँका और वह चौंक पड़ी। एक क्षण को चेहरे पर उतर आई मधुर स्मृतियों की रेखाएँ विलुप्त हो गईं। एक बार वह रूखी, कर्मठ रौबदार अफसर बन गई—‘‘हाँ-हाँ, जल्दी ले आओ, हमें बहार जाना है।’’

चपरासी के जाते ही उसने हाथ मुँह धोया और दर्पण के सम्मुख खड़ी हो गई। बड़ी ममता से उसने अपने क्लांत चेहरे को देखा। इधर-ही-इधर कितनी नई रेखाओं का जाल चेहरे पर फैल गया था। चश्मा उसने नीचे रख दिया। पूरे चेहरे पर पफ फेरा। बाल खोलकर कंघी की, जूड़ा बनाया और एक बार फिर अपने सँवरे प्रतिबिम्ब को देखा।
‘‘चाय आ गई, सरकार !’ मनहूस गँवार चपरासी ने उसे एक बार फिर चौंका दिया। अपना चपरासी होता, तो बिना पूछे कमरे के अन्दर ऐसे चले आने के लिए वह कान खींच लेती।
‘‘रख दो, और हमारे ड्राइवर से कह दो, गाड़ी निकाल ले।’’ एक–प्याली चाय ने उसे चैतन्य किया और वह बटुए से उसी मुड़ी-तुड़ी चिट्ठी को निकालकर फिर पढ़ने लगी, जिसे पिछले चार दिनों में वह न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी। बीस वर्षों में उसके पिता का यह पहला पत्र था :


‘‘माधवी,


तुमसे कुछ कहने का अब अधिकार नहीं रहा। फिर भी, कर्तव्यवश, आज तुम्हें लिखना जरूरी हो गया। मैंने तुम्हारा कन्यादान किया था। तुम्हारे उस श्लोक की आवृत्ति का साक्षी मैं भी हूँ, ‘आर्ते आर्ता भविष्यामि सुखदुः खनुगामिनी।’ आज कौस्तुभ मृत्युशय्या पर है। इसी से तुम्हारे कर्तव्य से, तुम्हें अवगत करना अपना भी कर्तव्य समझता हूँ।


-शिवदत्त’’


नीचे ‘पुनश्च’ लिखकर उसके पिता ने कौस्तुभ के मकान का पता, टेलीफोन नम्बर, सबकुछ लिख दिया था। अभिमान से माधवी की आँखें छलछला आईं। न आशीर्वाद, न क्षेम-कुशल, न तुम्हारा पिता, केवल शिवदत्त ! किन्तु यही उनसे अपेक्षित था। अपनी जिद, स्वाभिमान उसने पिता से ही विरासत में पाया था। जब उन्होंने आधी रात को अन्धकार में द्वार पर खड़ी पुत्री को बाहर ठेल कर कहा था, ‘निकल जा बाहर आज से न तू मेरी पुत्री, न मैं तेरा पिता,’ तो जिस जननी को उसने देखा भी न था, उसके लिए वह वहीं पर बैठकर थोड़ी देर के लिए सिसकती रही। आज उसकी माँ जीवित होती, तो क्या उसे ऐसे बाहर ठेलकर द्वार बन्द कर देती ?

किन्तु अपने दुर्वासा-से क्रोधी पिता को वह जानती थी। वह द्वार अब सचमुच ही उसके लिए बन्द रहेगा, वह जान गई थी। आज तक उसने जीवन में कभी किसी से हार नहीं मानी थी। ठीक है, वह भी पिता को एक दिन दिखा देगी कि वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। इसके बाद वह कब और कैसे मौसी के पास नैनीताल पहुँची, सबकुछ कल की घटी घटना की भाँति कण्ठस्थ था। वहाँ भी उसे पितृगृह का-सा तिरस्कार मिला था। उसकी स्नेहाशील सौम्य मौसी का चेहरा उसे देखते ही कठोर हो गया। ‘छि-छि, मधुली, तूने तो हम सब की नाक कटा दी ! ऐसा तो आज तक कभी नहीं सुना। पूरे शहर में तेरी ही चर्चा है। जहाँ जाती हूँ, सब मुझसे पूछने लगते हैं—सुना है, तुम्हारी बहन की लड़की शादी के दूसरे दिन ही पति से लड़-झगड़कर मायके भाग गई—और फिर ऐसा कार्तिकेय-सा वर, स्वभाव का गऊ—सबकुछ देख-सुनकर ही तो हम सबने तेरे लिए उसे छाँटा था। क्या किसी दूसरे छोकरे से प्रेम-व्रेम कर बैठी थी ?’’

माधवी बिना कुछ कहे ही वहाँ से चुपचाप निकल गई थी। फिर उसकी निरुद्देश्य यात्रा का एक लम्बा इतिहास था। मद्रास में उसकी एक सहपाठिनी थी—रेचल एंड्रुज। अन्त में वहीं जाकर उसे शान्ति मिली थी। न वहाँ ससुराल से भागकर आने की कैफियत देनी पड़ी, न किसी ने अनावश्यक प्रश्न ही पूछे। रेचल के परिवार ने उसे स्वाभाविक-सहज सौजन्य से अपना लिया। रेचल एम.ए. कर रही थी। उसके पिता ने माधवी को एक बार फिर उसकी सहपाठिनी बना दिया। उसकी प्रखर बुद्धि फिर उसे उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर खींचती चली गई। उन्हीं की मन्त्रणा से वह कंपटीशन में बैठी और एक दिन उसके ‘स्वयंसिद्धा’ बनने का स्वप्न सचमुच साकार हो गया। अब वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी थी। अतीत की स्मृतियाँ अब गहन निद्रा में देखे गए किसी धीर स्वप्न की ही भाँति अस्पष्ट हो चली थीं, तब ही नौकरी उसे एक बार फिर जन्मभूमि की ओर खींच आई। पिता को उसने प्रवास से ही दो-तीन पत्र लिखे। मौसी को भी कई चिट्ठियाँ लिखीं, किन्तु किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। फिर भी उसे इधर-उधर से छुटपुट समाचार मिलते रहते थे।

पिता ने अवकाश ग्रहण कर बहुत बड़ी कोठी बनावा ली थी। पक्षाघात ने उन्हें पंगु बना दिया था। पति ने दूसरा विवाह कर लिया था। मौसी की एक दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी, आदि-आदि। धीरे-धीरे, वह अपने एकाकी निर्लिपित जीवन की अभ्यस्त हो चुकी थी। आत्मीय स्वजनों के मोह की डोर कुछ उन्ही की उदासीनता ने काट दी थी और कुछ उसने स्वयं ही बड़ी निर्ममता से तोड़-मरोड़कर दूर फेंक दी। उसकी बहुत ऊँची नौकरी थी, अर्दली थे, आया थी, सजा-सँवरा बँगला था, कार, फ्रिज, स्टीरियो—सबकुछ उसके करतल पर था, किन्तु नहीं थी शान्ति। कैसा व्यर्थ जीवन बन गया था उसका ! न कहीं उठना, न बैठना, न लड़ना, न झगड़ना। मित्रों की संख्या कम नहीं थी, किन्तु कभी-कभी उनका स्वार्थ उसके दुखी चित्त को और दुखी बना जाता। केवल उपहारों के माध्यम से ही वह अब तक उनका स्नेह पाती रही है, यह वह खूब समझती थी। एक-आध स्नेही परिवार उसे कभी-कभार छुट्टी के दिन खाने पर भी बुला लेते। किंतु खाना खाते ही उसे स्वयं लगने लगता, जैसे उसकी उपस्थिति में गृह के सभी सदस्य स्वाभाविक नहीं हो पा रहे हैं।

 लौटती, तो फिर कमरे के अवांछनीय एकान्त ! उस एकान्त में कभी उसके अभिशप्त अतीत की स्मृति उसे गहरे पश्चाताप में डुबा देती। क्या उसने स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी ? यह भी कैसा विचित्र संयोग था कि आज ठीक उसके विवाह की तिथि के दिन ही उसे पिता का मनहूस पत्र मिला था। इतने वर्षों का अन्तराल भी उसकी स्मृतिपटल से उस तिथि को पोंछ नहीं पाया था-। मौसी ने पहले कितना हल्ला मचाया था—नहीं, आषाढ़ में माधवी का विवाह नहीं होगा आषाढ़ का विवाह सुखी नहीं होता। ‘आषाढ़े ‘दुःखिता नारी’ किन्तु उधर वर को यही महीना ठीक पड़ता था। पिता के तय किए रिश्ते पर स्वयं माधवी को कोई आपत्ति हो भी नहीं सकती थी। कौस्तुभ को वह अपनी मौसेरी बहन की शादी में देख चुकी थी। ऊँची काठी के उस सुदर्शन तरुण पर उस दिन अकेली वही नहीं रीझी थी, किन्तु विजय उसी की हुई थी। बड़े छल-बल से, उस दिन, उस विवाह की आड़ में, अनेक कुमारियों को दिखाने, कौस्तुभ की माँ उसे स्वयं लेकर आयी थीं। कौस्तुभ के पिता स्वयं दौवज्ञ मार्त्तण्ड थे। अनेक कुण्डलियों में उसने माधवी की कुण्डली जैसे दाँत से पकड़कर उठा ली थी।
वाह-वाह जोशीजी, आपकी पुत्री की ग्रहस्थिति देखकर चित्त प्रसन्न हो गया। गुरु, शुक्र, बुद्ध चन्द्रमा चारों ही लग्न में हैं। जीवन में विलक्षण उन्नति करेगी। सुख ऐश्वर्य, पूर्ण वाहन सुख, उस पर बुद्ध और चंद्र दोनों बलकारक। अपूर्व सुन्दरी होगी कन्या ! उस कुण्डली की स्वामिनी मेरी पुत्रवधू बने, यह मेरा अहोभाग्य !

किन्तु कहाँ चूक गए थे दैवज्ञ मार्त्तण्ड ? जीवन में उसने विलक्षण उन्नति भी की, ऐश्वर्य भी भोग रही है और उस घातक सौन्दर्य की स्वामिनी भी रही है, जो कभी उसकी नौकरी का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया था। किन्तु उसके राजयोग के साथ-साथ उसके राजभंग योग को उसके ससुर क्या नहीं देख पाए होंगे ?
विदा से पूर्व ही तो उसे पत्र मिल चुका था, जिसने उसके राजयोग की धज्जियाँ उड़ा दी थीं।
‘‘बड़ी भूल कर रही हो ‘माधवी’, जिस सोने की काया पर रीझ, दुल्हन बनी उतावली डगें भरती जा रही हो, वह काया तुम्हें कभी सपने में भी नसीब न हो, इसका मैंने टोना-टोटका, अनुष्ठान सबकुछ किया है। माधवी ! अपने रूप के मद में मत रहना, उससे भी अधिक घातक रूप की वरुणी पिलाकर मैं तुम्हारे पति को बहुत पहले ही मदालस बना चुकी हूँ।


-तुम्हारी ही, राधिका’’


क्रोध स माधवी की पूरी देह थरथरा उठी थी। कौन थी वह राधिका ? एक बार जी में आया, चिट्ठी उठाकर मौसी को दिखा दे। किन्तु मौसी का उत्फुल चेहरा देख उसे मलिन करने का सहास नहीं हुआ था। उसने उस चिट्ठी को ब्लाउज में खोंस लिया था। ससुराल पहुँचते ही दुर्भाग्य से उसका घूँघट उठा, पहले-पहले उसका चेहरा देखने वाली भी वही राधिका थी।

‘कहो जी, मेरी चिट्ठी मिली थी ना ?’ फुसफुसाकर वह फिर खिलखिलाती हुई छिटक गई थी। पूजा के बाद, सास उसे गावतकिया लगाकर बिठा गई तो क्षण-भर के उस एकान्त में, वह सुन्दरी चुलबुली फिस उसे घेर कर बैठ गई।
‘सचमुच ही मैं तुम्हारी सौत हूँ, माधवी ! आज रात को अपने पलंग पर हमारे लिए भी जगह रखना, समझी ?’
क्रोध से संभ्रांत-शिष्ट माधवी के कपोल दग्ध हो उठे थे। कैसी बेहया थी यह अपरचिता ! फिर जीवन की उस विस्मरणीय रात्रि के एकान्त में, जब पति ने उसका चिबुक स्पर्श कर चेहरा उठाया, तो दिन-भर का आक्रोश सिसकियों में फूट पड़ा। मुड़ी-सी चिट्ठी उसने पति को पकड़ा दी और घुटने में सिर डालकर सिसकने लगी। यह उसी मधुयामिनी का आरम्भ था जिसके उसने कई रातों तक जग-जगकर मधुर स्वप्न देखे थे !
कुछ देर तक कमरे में एक विचित्र निस्तब्धता छा गई। ‘माधवी !’ आज भी माधवी उस गंभीर स्वर की खनक को भूल नहीं पाई है।

‘तुम पढ़ी लिखी हो, किसी से कुछ उलटा सीधा सुन लो, इससे सच बात मैं ही तुम्हें बताऊँगा, यह मैंने सोच लिया था। इस बीच वह वज्रमूर्खा तुम्हें अंडबंड लिख देगी, यह क्या मैं जानता था ?’ फिर उसने बड़े दुलार से, घुटनों में डूबा माधवी का अश्रुसिक्त चेहरा उठाया था—‘मेरी आखों में देखो माधवी !’
और माधवी की सहमी आँखें स्वयं उसकी ओर उठ गईं थीं। उस सुदर्शन शान्त चेहरे पर विकार की एक भी रेखा नहीं थी।


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