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कहानी संग्रह >> चिरस्वयंवरा

चिरस्वयंवरा

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5213
आईएसबीएन :9788183611183

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शिवानी का श्रेष्ठ कहानी संग्रह.

Chirsvayamvara

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

गौरा पंत ‘शिवानी’ का जन्म 17 अक्टूबर, 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात) में हुआ। आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। माता और पिता दोनों ही विद्वान संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्य और संगीत के प्रति एक गहरा रुझान ‘शिवानी’ को उनसे ही मिला। शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान पं. हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे, परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे। महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी। वे प्रायः अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अतः अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता, किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में। पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमेरिका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया। उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेल है, उनकी जड़ें, इसी विविधमयतापूर्ण जीवन में थीं।

शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली ‘नटखट’ नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी। तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गईं, जहाँ स्कूल तथा कॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें ‘गोरा’ पुकारते थे। उनकी सलाह, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखन करना चाहिए, को शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया। ‘शिवानी’ की एक लघु रचना ‘मैं मुर्गा हूँ’ 1951 में ‘धर्मयुग’ में छपी थी। इसके बाद आई उनकी कहानी ‘लाल हवेली’ और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलता रहा। उनकी अन्तिम दो रचनाएँ ‘सुनहुँ तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं।

1979 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया। उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र ‘स्वतन्त्र भारत’ के लिए ‘शिवानी’ ने वर्षों तक एक चर्चित स्तम्भ ‘वातायन’ भी लिखा। उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्तां कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य प्रेमियों के साथ समाज के हर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे। 21 मार्च 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।


उपहार


‘‘वाह, खूब मिलीं आप ! मेरी गाड़ी छूटने ही को है, भाग्य अच्छा था, जो आप पहले ही चौराहे पर मिल गईं....ऐ रिक्शावाले, चलो स्टेशन।’’
वह कूदकर मेरे पार्श्व में बैठ गया, साथ ही उसके घिनौने शरीर से आते दुर्गन्ध के भभके से मेरा माथा चकरा गया।
मैं भय से थर-थर काँप रही थी, वही था, एकदम वही।
मेरा रिक्शाचालक कटरा के उस भीड़-भरे चौराहे पर मेरा रिक्शा रोक, अपनी बीड़ी लेने गया ही था कि यह आ गया।
बार-बार अपनी कलाई पर बँधी काल्पनिक घड़ी देखता वह बड़बड़ाता जा रहा था, ‘‘अजीब झक्की है मेरा यार, यह भला कोई जगह है रिक्शा खड़ी करने की, सात बीस पर देहरा छूट जाएगी।’’

मैंने उसकी विवेकहीन, अमानवीय दृष्टि पहचान ली और दूसरे ही क्षण मैं कूदकर सड़कपर खड़ी हो गई। शायद इसी बीच कुछ राहगीर उस कौपीनधारी घिनौने पगले को, दोनों टाँग फैलाए, मेरी रिक्शा में बैठा देख चुके थे।
‘‘हाँ-हाँ, कौन है ससुरा, धरो ससुर के दो हाथ, बेहुदा बड़ा पागल बना फिरता है, कल भी इसने यूनिवर्सिटी जाती दो लड़कियों को छेड़ा था।’’ देखते-ही-देखते मेरी रिक्शा में बड़े प्रभुत्व से आसन जमाए पगले को भीड़ ने घेर लिया। एक चन्दनधारी प्रौढ़ रसिक-से दिखनेवाले व्यक्ति, जो शायद संगम-स्नान से लौट रहे थे, भीड़ देख रसास्वादन करने इक्का रोककर गरजे, ‘‘बदमाश है ससुरा, पागल-वागल कुछ नहीं है। दिन-दहाड़े राह चलती बहू-बेटियों से छोड़खानी करनेवालों का तो मुँह काला करना चाहिए।’’

‘‘हाँ भाइयों, आप मेरा मुँह काला करें, मैंने काम ही ऐसा किया है।’’
पागल अचानक उत्तेजित हो, रिक्शा की सीट पर खड़ा हो हाथ हिला-हिलाकर भाषण देने लगा। पास ही में सर्प-वृश्चिक-दंश की वनौषधियों का एक मैली चादर पर बाजार फैलाए एक सपेरा बैठा था। उसके इर्द-गिर्द जुटी भीड़ भी पगले का भाषण सुनने बढ़ आई। मुझे सहसा अपनी स्थिति की अल्पज्ञता का भास हुआ। शहर के बहुत-से लोग मेरे पति के परिचित थे, कहीं किसी ने देख लिया, तो बात का बतंगड़ बन जाएगा। मैं चुपचाप भीड़ के व्यूह से निकल आई, रिक्शावाला एक धक्का मार पगले को नीचे उतार मेरी ओर बढ़ आया। ‘जल्दी भीड़ से रिक्शा निकाल ले चलो।’’ मैंने बैठते ही कहा और वह तीव्र वेग से रिक्शा निकाल ले चला। मेरे धड़कते हृदय ने आश्वस्त होकर स्मृतियों के सिंह-द्वार की अर्गला खोल दी।
नलिनी क्या इतनी बड़ी दुर्घटना मुझसे छिपा गई या इस अभागे की दुर्दशा से वह अनभिज्ञ थी ? तीन वर्ष पूर्व, नैनीताल में नलिनी का कान्वेंट की सधी लिखावट का पत्र देख मैं चौंक पड़ी थी। मोम्बासा से उसने एक सुनहरे छपे कागज में आठ-दस पंक्तियाँ ही लिखी थीं, पर मुझे लगा था, कई वर्ष पहले बिछुड़ गई मेरी प्रिय प्रतिवेशिनी अपनी बड़ी-बड़ी आँखें मटकाती मेरे सामने आकर बैठ गई है। बोलता, जीता-जागता सजीव पत्र लिखना बिरले ही जानते हैं। नलिनी का पत्र खुलते ही बोलने लगा था।

‘‘सुना, तुम्हारे पति अंग्रेज़ी स्कूलों के अफ़सर हैं। यहाँ शिक्षा की उतनी सुविधा नहीं है, इसी से अपने पुत्र को उसी सुशीतल नगरी में पढ़ने भेजना चाहती हूँ, जहाँ मैंने पढ़ा है। परसों पहुँच रही हूँ। जैसे भी हो, अपने पति से कहकर सेंट जोजेफ में एक सीट मेरे पुत्र को दिलवानी ही होगी। (‘मेरा पुत्र’ सुनकर चौंक गया क्या ? जैसे कठोर शिलाखंड तोड़-फोड़कर तुम्हारे सामने पहाड़ी मीठे झरने फूट निकलते हैं, ऐसे ही चालीस वर्ष के कठोर शिलाखंड को तोड़ता-फोड़ता एक बहुत मीठा झरना मेरे प्रांगण में भी आ गया है, नाम है प्रिंस।)
तुमसे मिलने को उत्सुक तुम्हारी सखी
-नलिनी कोठारी

मेरा माथा ठनका। एक तो ‘हमारे प्रांगण’ के बदले ‘मेरा प्रांगण’ और पत्र के अन्त में अपनी कौमार्यवस्था का नाम कोठारी, तब क्या वह नलिनी माथुर नहीं रही ? मेरा अनुमान ठीक था।
मैं बस-स्टैंड के पास उसकी प्रतीक्षा कर रही थी कि एक शानदार टैक्सी मेरे पास ही आकर रुक गई।

सदा की रोबीली नलिनी और भी रोबदार हो गई थी, गालों पर सुर्खी थी, चेहरा भर जाने से बड़ी आँखें कुछ छोटी लग रही थीं और एक प्यारी नन्ही-सी दूसरी ठुड्डी भी निकल आई थी।
मैं दौड़कर उससे लिपट गई।
‘‘हाय, तू तो ज़रा भी नहीं बदली, और यह है तेरा झरना ? भगवान ने रघुनाथ को सामने धरकर ही बनाया है क्या इसे ? एकदम अपने बाप पर गया है, और रघुनाथ, रघुनाथ नहीं आए क्या ?’’ मैंने देखा, नलिनी फौजी अफसर की बेरुखी से सतर खड़ी है।

मैं सकपका गई, कहीं कुछ हो तो नहीं गया रघुनाथ को !
बड़ी कुशलता से मैंने बात पलट दी, ‘‘बहुत दूर रहते हैं हम लोग, तू रुक जा, मैं दो डाँडिया बुलवा दूँ, पैदल चलना तो बहुत खलेगा—’’
‘‘नहीं-नहीं, हम पैदल चलेंगे। तुम्हारे इस पहाड़ी स्ट्रेचर पर तो हमसे नहीं चढ़ा जाएगा।’ वह अपनी साड़ी घुटनों तक समेट लम्बी डगें भरने को उद्यत हो गई।
उसका देवदूत-सा सुन्दर पुत्र बड़े अचरज से पहाड़ों को देख रहा था।
प्रिंस देखने में एकदम छोटा रघुनाथ लग रहा था, गोल मुँह और निर्दोष गठन। उसके पिता के इसी व्यक्तित्व पर रीझकर तो उसकी माँ ने लाखों की सम्पत्ति स्वेच्छा से ही ठुकरा दी थी। अनाथ नलिनी को उसकी लखपति बुआ ने ही पाला था, उनसे मैं कई बार मिल चुकी थी। स्पष्ट मूँछों और गुलमुच्छों—वाली उसकी डरावनी मर्दानी बुआ, बुआ कम और फूफा ही अधिक लगती थीं। वे नलिनी को बड़े लाड़ से रखती थीं, पर उनके शासन का अकुंश कभी-कभी बड़ी क्रूरता से कोंचता था। डॉक्टरी पढ़, नलिनी बुआ के साथ अफ्रीका जाकर अपनी स्वतन्त्र प्रैक्टिस आरम्भ कर देगी, साथ ही उसके सिल्क के कारोबार में भी योगदान देगी, यही बुआ की पूर्वनिर्धारित योजना थी; पर इसी में दाल-भात में मूसरचन्द बन, टूटी कोहनी जुड़वाने सुदर्शन रघुनाथ मेडिकल कॉलेज में न जाने कहाँ से आ टपका ? टूटी हड्डी के साथ-साथ विभिन्न प्रान्तों के दो सर्वथा विरोधी स्वभाव के हृदय भी अनजाने में न जाने कब जुड़ गए ? बुआ ने सुना, तो सिर पीट लिया। पहले अपनी मूँछें नोंची, फूफाजी से लड़ीं, फिर ताबड़तोड़ उड़कर भारत भाग आईं।

‘‘तुम इस अधूरी पढ़ाईवाले जनखे-से छोकरे से ब्याह करोगी तो मैं तुम्हें अपनी सम्पत्ति का एक धेला भी नहीं दूँगी। यू.पी. के कायस्थ का काटा पानी भी नहीं माँगता। छोकरी, तू शूँ गाँडी थई छे ?’’ (लड़की, क्या तू पागल हो गई है।)
पर नलिनी अपनी जिद पर अड़ी रही। निराश होकर बुआजी जहर उगलती अफ्रीका के घने जंगलों में जाकर उसके लिए सदा के लिए अदृश्य हो गईं।

जिस रघुनाथ के लिए उसने इतना बड़ा त्याग किया था, वही उसे छोड़ गया।
घर पहुँचते ही नलिनी ने मुझे यह समाचार दिया तो मैं स्तब्ध हो गई।
हम दोनों के परिवार तीन वर्ष तक एक ही बँगले के साझीदार बन बड़ा सुखद समय बिता चुके थे। रघुनाथ अपनी रिसर्च अधूरी छोड़, पत्नी के पास ही आकर रहने लगा था। नलिनी के अस्पताल से लौटते ही दोनों मस्त कबूतरों की गुटरगूँ का स्वर हमारे कानों तक पहुँचता रहता। मैं कभी-कभी अपने वैवाहिक जीवन के व्यापक अनुभव का उस ताजे जोड़े पर बड़ा रोब भी जमा देती। मैं उन दोनों से आठ वर्ष सीनियर थी। मेरी दो जोड़े बच्चियाँ स्कूल जाने लगी थीं और तीसरी की प्रतीक्षा थी।

‘‘किसी दिन साला बेमौत मरेगा।’’ उन दोनों को हाथ में हाथ डाले घूमते देख एक दिन मेरे पति बोले।
‘‘क्यों जी, तुम क्यों जले-भुने जा रहे हो ? तुम्हें यह सब करने को नहीं मिला, इसी से ना !’’ मैंन हँसकर कहा। सच ही तो था। हमारे युग में ‘हनीमून’ तो ससुर-सास के साथ ही मनाया जाता था।
‘देख लेना साल-भर हो गया, न तो इन्हें कभी लड़ते-भिड़ते देखा न रूठते-मनाते; उस पर बीवी की कमाई खाता है, लानत है इस मर्द पर !’’

सच, यह कहने में मुझे आज तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि अतीत की वे रोमांचकारी कुश्तियाँ, जो हमने यौवन-काल के प्रारम्भ में लड़ी हैं, शायद हमारे दाम्पत्य दुर्ग को इतना ठोस बना गई हैं कि आज तक दुर्भाग्य का एक भी भूकम्पी धक्का उसकी सुदृढ़ प्राचीरों को नहीं डिगा सका। गृह-कलह के क्या-क्या मौलिक दाँवपेंच होते थे और कैसी-कैसी पछाड़ें ! एक-दूसरे के माता-पिता, पितामह, पितामही, सबको काल्पनिक चरित्रहीनता के कीचड़-भरे गढ़हों में डुबोया जाता। पति के साथ छात्र-जीवन की सहचरियों के गड़े मुर्दे मैं ढूँढ़-ढूँढ़कर खड़े करती, उधर पल-भर में मेरे पति, मेरे एक सौ बीस काल्पनिक प्रेमियों की लिस्ट तैयार कर देते। कई प्लेटों का संहार होता, बीसियों बार थाली पटकी जाती, यदा-कदा बच्चियों को भी पटका जाता, पर जैसे गर्जन-तर्जन-भरी शिलावृष्टि के पश्चात निर्मल धूप की मुस्कान से आकाश खिल उठता है, हमारी गृहस्थी धुलकर फिर उजली झकझक चमकने लगती। पर नलिनी की गृहस्थी अजीब थी। न वहाँ घटा घिरती थी, न बरसती थी। उन दोनों के भविष्य के लिए हम शंकित थे और हमारी शंका निर्मूल नहीं थी।
घर पहुँचते ही, नहा-धोकर प्रिंस, मेरे बच्चों से घुल-मिलकर खेलने लगा। मेरे पति दौरे पर गए हुए थे।

‘‘नलिनी, तुम लेट जाओ, लम्बे सफर से थक गई होगी।’’ मैंने कहा।
‘‘नहीं, तुमसे कुछ कहना है।’’ वह गम्भीर होकर अपनी अँगूठी को अँगुली में ही घुमाने लगी। स्पष्ट था कि जो कुछ कहना है, उसे कहने में उसे बहुत सुविधा नहीं हो रही है।
‘‘तुम रघुनाथ के लिए पूछ रही थी ना।’’ उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें मेरे चेहरे पर स्थिर कर दीं।

‘‘रघुनाथ ने मुझे छोड़ दिया है।’’ उसने कहा और बड़ी तेजी से अँगूठी उतारने और चढ़ाने लगी।
मैं चुप रही।
वह फिर स्वयं ही कहने लगी, ‘‘तुम्हारे जाने के बाद ही हमें भी शाहजहाँपुर छोड़ना पड़ा। मुझे मध्यप्रदेश में एक बड़ी अच्छी नौकरी जुट गई थी; थी तो दौरे की नौकरी, पर सुविधाएँ अनेक थीं। सेठ जी की कई चीनी की मिलें थीं और उन सब बस्तियों की डॉक्टरनी मैं ही थी। मेरी नई नौकरी के गरिष्ठ भोजन से रघुनाथ को दिन-रात अपच रहने लगा था। मैं अस्पताल से थककर लौटती तो देखती, पालतू बिल्ले-सा हाथ-पैर सिकोड़े सो रहा है। मुझे देखकर खिसियाकर उठ बैठता और भागकर कॉफी बना लाता।
‘‘मैं कभी-कभी झल्लाकर कहती, ‘इतने सारे नौकर हैं, बुलाते क्यों नहीं ?’
‘‘मैं जानता हूँ, तुम्हें कैसी कॉफी पसन्द है।’ वह दो प्याले में सजाकर ऐसे चला आता, जैसे क्वालिटी का सीखा-सिखाया बैरा हो। मैं होंठों से हँसती, पर हृदय में बीसियों अतृप्त आकांक्षाओं की झुर्रियाँ घाव करने लगतीं, क्या मैंने ऐसे पति की कामना की थी, जो मेरे लिए ट्रे सजा, कन्धे पर झाड़न लटकाए मुझे सलामी दे ? यह तो गुणी भृत्य के लक्षण हैं, गुणी पति के नहीं।
‘‘मैं दिन-रात मनाती, कभी तो ईश्वर मेर निर्वीर्य पति को पौरुष के मद से भर दे, कभी तो मेरा यह आलसी जलसर्प क्रोध की फूत्कार छोड़ सके।

‘‘एक दिन सचमुच ही उसके पौरुष के विषधर ने मुझे डस लिया। मुझे प्रायः ही दौरे पर जाना पड़ता था। ऐसे ही एक दौरे में यात्रा का भद्रानक्षत्र मेरे भाग्य पर चढ़ गया। मुझे बम्बई जाना था, अस्पताल के लिए कुछ सामान खरीदना था। इसी से पर्याप्त रुपया पास में था। हर दौरे से घर सजाने की कुछ-न-कुछ सामग्री लाती रहती थी। उस बार एक फ्रिज लेने के लिए कुछ रुपया रख लिया था। अपने शरीर पर भी कुछ हीरे के आभूषण पड़े रहने दिए, यही मेरी सबसे बड़ी मूर्खता थी। कानों में बुआ के दिए हीरे के कर्णफूल थे, हाथ में उन्हीं की दी अँगूठी थी, गले में नीलम के पेंडेंट की चेन थी। सूटकेस में नई साड़ियों के अतिरिक्त सात हजार की नगदी थी। कूपे में मैं अकेली ही थी, पर यह कोई पहला अवसर तो था नहीं। बीसियों बार मैंने निर्जन कूपे में सैकड़ों मील नापे थे। खा-पीकर, द्वार-खिड़कियों पर चिटखनियाँ चढ़ाईं और लेट गई। साड़ी खोलकर पहले ही सिरहाने तहा दी थी, तुम तो मेरा यह अभ्यास जानती ही हो, छहगजी साड़ी का कफ़न लपेट मैं कभी सो नहीं पाती। पहले दिन एक कठिन प्रसव केस ने रात-भर सोने नहीं दिया था, इसी से ट्रेन के दो-तीन झकोलों से ही मुझे नींद आ गई।

‘‘सहसा किसी ने मेरा कन्धा पकड़कर हिलाया, आँखें खुलीं और मेरा रक्त जम गया। एक लम्बा, काला खबीस मेरे सिरहाने खड़ा था।
‘‘ ‘उतार सब गहने और ला बटुआ इधर।’ उसने हाथ का नंगा छुरा दर्पण-सा चमकाया।
‘‘मैं अँगूठी उतारकर, सिरहाने छिपाने की चेष्टा की तो, उसने कसकर मेरी कलाई मसक दी...।
‘‘औरत है न ससुरी ! सिर के ऊपर तनी छुरी के नीचे भी गहने का लोभ नहीं छूटता, खबरदार जो नक्शे दिखाए !’ वह गरजा और मैंने कांपकर उसकी ओर दृष्टि उठाई। असंख्य घावों के निशानों से बीभत्स चेहरा, एक आँख कानी थी और दूसरे काले इंजन की सर्चलाइट की भाँति मेरे चेहरे पर चमक रही थी।

‘‘मैंने सब गहने उतार दिए। मेरी अँगुलियाँ, जो कठिन-से-कठिन शल्यक्रिया में संलग्न रहकर भी कभी नहीं काँपी, तेज हवा में काँपती इमली की पत्तियों-सी थरथरा रही थीं। उसने गहनों की पोटली बनाई, सूटकेस थामा, स्वयं चेन खींची और पेशेवर अन्दाज से गाड़ी के रुकने की प्रतीक्षा करने लगा। एक बीहड़ जंगल में जाकर गाड़ी रुकी, बड़े उत्साह से मैं उठी, क्यों न जोर से चीख पड़ूँ ! कोई न कोई सुन ही लेगा, कूदने को मुड़ा, मैंने लपककर उसकी तेल से चिकनी बाँह पकड़ ली। क्षण-भर को लगा, वह मुझे लेकर ही कूद पड़ेगा। वह मद्दा, ब्लाउज की बाँह पकड़ उसने मुझे एक सशक्त धक्के से सीट पर गिरा दिया और स्वयं कूद गया।
‘‘क्षण-भर को मैं अवश पड़ी रही, हाय मेरे गहने, मेरे रुपये, नई साड़ियाँ ! मैं दोनों हाथों में मुँह छिपाकर बिलख उठी। ‘यही डिब्बा है, माथुर, यहीं चेन खींची गई है।’ मैं उठने की चेष्ठा कर रही थी कि रेल कर्मचारियों और उत्सुक यात्रियों से मेरा डिब्बा भर गया। मुझे अपने विचित्र पेटीकोट परिधान का स्मरण हो आया, लैस के फटे ब्लाउज की आधी बाँह हवा में फड़फडा रही थी। मैं लज्जा से लाल पड़ गई, तेज प्रकाश में बीसियों पुरुष-चक्षुओं की उत्सुक दृष्टि मुझे गिद्ध की भाँति नोचने लगी।...

‘‘पर मैंने अपने को तटस्थ कर लिया, जल्दी-जल्दी मुझे साड़ी लपेटती देख, एक-दो मनचले मुस्कराने लगे, तो मैंने खून का घूँट पी लिया। फिर एक लम्बी तहकीकात का क्रम चला। भरी सभा में, एकसाथ कई दुःशासन मेरी चीर खींचने निरर्थक ही बढ़ आए, पर मैंने रिपोर्ट लिखाते ही बड़ी रुखाई से पूरी भीड़ को झाड़-झूड़कर बाहर फेंक दिया। ‘चोर क्या मेम साहब का सूटकेस और गहने ही लेकर उतर गया। तब तो मेरा यार काठ का उल्लू रहा होगा।’ एक यात्री का अशिष्ट स्वर मेरे कानों तक आया, साथ ही एक राशिभूत ठहाका ! मैंने भड़काकर द्वारा बन्द कर दिए। अगले स्टेशन से ही मैं लौट गई; पर मेरे घर पहुँचने से पूर्व मेरी ट्रेन-डकैती का समाचार वहाँ पहुँच चुका था। किसी मनचले पत्रकार ने एक सम्भ्रान्त डॉक्टरनी के फर्स्ट क्लास में हुई ट्रेन-डकैती का लम्बा-चौड़ा विवरण देकर मेरी विवस्त्र अवस्था का भी उल्लेख कर दिया था। कहना व्यर्थ है, उसकी एक ही पंक्ति ने मुझे सहस्रों पाठकों के काल्पनिक रसचक्षुओं के सम्मुख कैबरे नर्तकी की मोहक भाव-भंगिमा में खड़ा कर दिया। कुछ कुंठाग्रस्त पुरुष ऐसे समाचारों की चूरन-चटनी चटखारे ले-लेकर चाटते हैं उन्हीं में से एक रघु भी था। कैसे मूर्ख होते हैं ये पत्रकार ! क्या ये अपनी माँ-बहनों के फटे-ब्लाउज और पेटीकोट परिधान का इसी नंगी भाषा में समाचार छाप सकते ? यह लिखने की भला क्या आवश्यकता थी ! पर तब तक अपने पति के कलुषित दुर्विचार की छाया भी मेरे चित्त पर नहीं पड़ी थी।..

‘‘मैं लौटी तो उसने मुझे बड़ी व्यंग्यात्मक दृष्टि से सिर से पैर तक घूरा।
‘‘जानते हो, मेरा सबकुछ चला गया।’’ मेरा गला शायद कुछ काँप भी गया था। मेरे ‘सबकुछ’ से मेरा अभिप्राय मेरे आभूषण और नई साड़ियों से था। क्षण-भर को मैं मूर्खा यह भूल गई थी कि स्त्री का सबसे बहुमूल्य आभूषण उसका शील और उसके खो जाने से ही उसका सबकुछ खो जाता है, अन्यथा संसार की कोई भी शक्ति उसका वैभव नहीं छीन सकती।
‘‘मैं जानता हूँ।’ कह रघु बड़ी बेरुखी के द्वार भिड़ाकर चला गया। घूमघामकर वह बड़ी रात को लौटा तो मैं सो गई थी। सुबह उठी तो वह नहाने जा चुका था। नाश्ते की मेज पर मैं उसकी प्रतीक्षा कर रही थी कि वह आ गया और मेरी ओर देख बड़े लाड़ से मुस्कराया। मेरे हृदय पर पड़ी शिला जैसे उठ गई।

‘‘अच्छा बताओ तो,’ मैंने हँसकर बड़े अधिकारपूर्ण स्नेहसिक्त स्वर में उससे कैफियत माँगी, ‘कल भला तुम्हारा कैसा मूड था ! सिर पर तनी छुरी के नीचे से मैं बचकर घर लौटी और तुमने मुँह फुला लिया। वह राक्षस मेरा गला घोंट देता तब ?’
‘रघु के खिले चेहरे की बत्ती दप्-से बुझ गई। बस, उसी जलते-बुझते चेहरे के बीच मैंने अपने पति की आँखों में नाचते सन्देह और अविश्वास के मत्त दानव का नग्न नर्तन स्पष्ट देख लिया।
‘‘ ‘कसम खाकर कहो नलिनी, उसने तुम्हें नहीं छुआ ?’ उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए।
‘‘ ‘पागल हो गए हो क्या ! देखते नहीं, कम्बख्त नौकर घूर रहे हैं !’ मैंने उसे अंग्रेजी में डपटा, उसने सहम कर हाथ छोड़ दिए; पर उस दिन से हम दोनों के बीच बर्लिन की-सी अभेद्य दीवार खड़ी हो गई। कितना अविश्वास, कैसी नीच कल्पना—मैं घृणा से सिहर उठी।

‘‘उधर अपने निरर्थक सन्देह के घातक कैंसर-कीटाणुओं से घुलता मेरा हतभागा पति। एक महीने तक रघु के महानाटकीय कथोपकथन मुझे निरन्तर डसते रहे। कभी चीखता, कभी गिड़गिड़ाता, कभी नौकरों के सामने ही नौटंकी छेड़ देता। इसी बीच विधाता क्रूर परिहास कर बैठा, मेरा अप्रत्याशित मातृत्व ही मेरे लिए अभिशाप बन गया। रघु सुनते ही खूँखार शेर की भाँति दहाड़ने लगा। ‘डाकू की सन्तान मेरे घर में नहीं पलेगी।’ मैं क्रोध से बौखला गई। ढलती उम्र में मातृत्व का कैसा गहरा मूल्य चुकाना पड़ेगा, उसकी चिन्ता मुझे खाए जा रही थी, उस पर शक्की रघुनाथ का निर्वीर्य क्रोध मुझे पागल बना गया।
‘‘ ‘घर मेरा है, निकल जाओ बाहर, तुम कमीने पशु हो।’ मैंने कहा।
‘‘और वह सिर झुकाए चुपचाप चला गया।
‘दूसरे दिन सुबह अस्पताल गई तो दाइयाँ, वार्ड बॉय, नर्स, सब मुझे ही घूरने लगे। मैं बौखलाती घर लौटी, पर घर में भी चैन कहाँ मिलता !...
‘‘तीन दिन बीत गए थे, चौथे दिन मेरा माथा ठनका। स्पष्ट ही था कि रघुनाथ लौटकर नहीं आएगा। उधर मेरा शहर में रहना दूभर हो उठा था।

‘‘बहुत उधेड़बुन के बाद मैंने बुआ को एक लम्बी चिट्ठी लिखी। उस पत्र में मैंने सबकुछ लिख दिया। रघु से मैंने नाता तोड़ लिया था, क्या बुआ मुझे एक बार फिर आश्रय दे सकेंगी ? इस बार तो उन्हें दो प्राणियों को आश्रय देना होगा।
‘‘बुआ को मैं जानती थी, उन्हें निश्चय लेने में देर नहीं कभी नहीं लगती थी।
‘‘मेरे पत्र के उत्तर में वे स्वयं आ गईं। दूसरे ही दिन बुआ स्वयं मेरा त्यागपत्र टाइप कर दे आईं और उसी रात हमने शहर छोड़ दिया।
‘‘अफ्रीका पहुँचकर मैंने बुआ का कारोबार देखा, तो दंग रह गई। मोम्बासा के भारतीय प्रवासी व्यवसायियों में श्रीमती कोठारी का नाम प्रमुख था। बीसियों नौकर थे, राजसी प्रासाद था, पर मुझे सुख-शान्ति वहाँ भी नहीं मिली। कभी रघु की स्मृति में मैं पागल हो उठती, कभी प्रतिहिंसा की लपटें मेरे उद्विग्न चित्त और रुग्ण देह को झुलसा देतीं। दूसरे ही क्षण उसके साहचर्य की कामना मुझे विकल कर देती।..

‘‘अब मैं दिन-रात एक ही प्रार्थना करती, ‘हे भगवान, मेरी सन्तान अविकल उसी का रूप लेकर जन्मे, जिससे कभी मैं उसे देखकर कह सकूँ--‘मूर्ख, देख ले अपने पुत्र को !’
‘‘सचमुच भगवान ने मेरी सुन ली। मेरे दस पौंड के शिशु का एक-एक नक्शा अपने पिता का था, यहाँ तक कि सिर के घुँघराले बाल भी रघु के-से ही लच्छेदार थे।
‘‘ ‘अब कभी देखेगा नासपीटा, तो सिर धुन-धुनकर रोएगा।’ बुआ ने गर्व से कहा। उन्होंने नाम धरा ‘प्रिंस’। ‘मेरी लाखों की सम्पत्ति का वारिस बनेगा मेरा प्रिंस।’ वह बोलीं।
‘‘बुआ का और था ही कौन ?


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