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कालरात्रि

ताराशंकर वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5204
आईएसबीएन :81-7145-234-5

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एक श्रेष्ठ उपन्यास...

Kaalraatri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय का जन्म 25 जुलाई, 1989 को पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के लाभपुर गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हरिदास वंद्योपाध्याय और माता का नाम श्रीमती प्रभावती देवी था। एक बहन और दो भाई वाले अपने परिवार में वे सबसे बड़े थे।

ताराशंकर जब केवल आठ वर्ष के थे, तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी मां पटना के एक शिक्षित परिवार की थीं। अव्यवस्थित और अस्त-व्यस्त गृहस्थी को इनकी मां ने योग्यतापूर्वक बड़ी शालीनता से चलाया। इसका ताराशंकर पर बहुत अच्छा असर हुआ। वे अपनी मां से वैसे भी प्रभावित थे। इधर ताराशंकर की बुआ अपने पति और पुत्र को एक साथ एक ही दिन खो देने की हृदय विदारक घटना के बाद अपने भाई के पास ही रहने लगी थीं। वे भी ताराशंकर को बहुत चाहती थीं। सही और गलत की गहरी सूझ-समझ और मूल्यों के उच्चतम मानदण्डों को अपनाने वाली परिवार की इन दोनों महिलाओं ने ताराशंकर के जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ताराशंकर के परिवार में धर्मपरायणता और परमात्मा में गहरा विश्वास था। अच्छाई और बुराई, सही और गलत को अच्छी तरह देखा और परखा जाता था। यहां अच्छाई-अच्छाई थी और बुराई-बुराई, सही-सही था और गलत-गलत। ऐसे विचारों के प्रभाव तले पल बढ़ रहे ताराशंकर के मानस में युवावस्था तक निजी मूल्यों का विकास हो चुका था। इस प्रकार जन-मानस, प्रकृति, समाज और परिवार के प्रभाव, आध्यात्मिकता तथा ईश्वर में विश्वास ने इनके विचारों का गठन किया और इनके सोचने-विचारने के ढंग को परिपक्व बनाया।

इनकी अधिकांश महत्वपूर्ण रचनाएं धरती से इस प्रकार जुड़ी हैं कि इन रचनाओं के पात्र क्षेत्रीय नहीं रह जाते, बल्कि पाठक को ऐसा लगता है कि स्थान और वातावरण के थोड़े से अन्तर के पश्चात् वे पात्र, वातावरण तथा स्थान उसके अपने आस-पास ही फैले हैं। इस प्रकार वह अपने पाठकों के हृदय को सहज ही जीत लेते हैं।

ताराशंकर पाठकों को सहज स्वीकार्य क्यों हो गए, इसका उत्तर मूलत: उनके विषयों के चुनाव में मिलेगा। सर्वप्रथम उन्होंने अपने महाकाव्यात्मक, उपन्यासों की सफलता से यह दिखा दिया कि किसी एक व्यक्ति विशेष या परिवार पर न लिखकर एक पूरी जाति के बारे में लिखने वाला व्यक्ति अधिक से अधिक पाठकों तक बड़ी आसानी से पहुंच सकता है। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिसकी स्वीकार्यता में बाधा आ सकती हो। यद्यपि वह निरन्तर मानव-प्रगति के बारे में लिखते रहे, लेकिन वे परम्परा के भी प्रेमी थे। उन्होंने अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर बंगाल के गांवों के बारे में खूब लिखा, जिसके कारण उन्हें चौथे-पांचवें दशक के पाठकों की स्वीकृति सहज ही मिल गई।

ताराशंकर भावावेग तथा मानवचरित्रांकन के पहले नहीं तो कम-से-कम सफल लेखक तो अवश्य हैं। उनके बृहदाकार उपन्यास इस बात के प्रमाण हैं। गांवों और ग्रामीणजनों पर लिखते हुए उन्होंने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी, क्योंकि शरतचन्द्र तथा कुछ अन्य लेखक भी गांवों के बारे में लिख चुके थे, पर शरतचन्द्र तथा अन्यों के पास ताराशंकर जैसा ज्ञान और व्यापक दृष्टि नहीं थी। उनके पास ताराशंकर-सा इतिहास बोध भी नहीं था।

ताराशंकर की सबसे बड़ी शक्ति अपने विषय का उनका प्रत्यक्ष ज्ञान था। गांव में जन्में एक व्यक्ति के नाते वे समझ गए थे कि शहरी अर्थतन्त्र के भारी दबाव में गांव का आर्थिक ढांचा चरमराने लगा है। बंगाल अथवा भारत के गांवों के सर्वनाश की जिम्मेदारी का अगर कोई एक कारण है तो औद्योगिक क्षेत्रों का दानवीय विकास। इस तरह का एकांगी विकास हानिकारक है और वह गांवों को तेजी से दरिद्र बना रहा है। एक कृषि-प्रधान देश में ग्रामीण अर्थतंत्र की घोर उपेक्षा आज भी हो रही है, जो एक घातक भूल है।

उनके उपन्यास बताते हैं कि गरीब खेतिहर मजदूरों को भूस्वामी और सूदखोर लगातार चूसते जा रहे हैं और वे रोजी-रोटी की तलाश में गांवों से शहरों की ओर पलायन करने के लिए विवश हो रहे हैं।
पुराण, मिथक, किंवदन्ती तथा लोक-कथा विषयक, ताराशंकर का ज्ञान और उन लोगों के बारे में उनकी जानकारी, जिन पर उन्होंने लिखा, उनके लेखन में विशेष सहायक सिद्ध हुई। उनके पात्र हमारे आज के समाज के जीते-जागते लोग हैं। उनकी कलात्मक सफलता का रहस्य, उनके अपने विषय-वस्तु के विषद-ज्ञान में ही निहित था। उपन्यासकार के रूप में उनकी सफलता और उपलब्धि का रहस्य भी यही था।

 उन्होंने कहानी कहने का जो सीधा सरल ढंग अपनाया, उससे भी उन्हें सहायता मिली। वे नाटकीयता, विचित्रता और मानव-मन के रहस्यमय रूपों के प्रति आकृष्ट थे और उन्होंने मुख्यत: अपनी किस्सागोई के आकर्षण में पाठकों को बांधा। पाठक-प्रथमत: उनके उपन्यास पठनीयता के कारण पढ़ते है बाद में उनमें छिपी गहराइयों तथा विस्तृत आयामों को भी खोजते हैं। पाठक उनसे प्रभावित होते हैं, क्योंकि कथा-वस्तु में वर्णित लोगों के अस्तित्व से जैसे वे अपने आपको परिचित पाते हैं।

हमारे ग्रामीण लोग निरक्षर होते हुए भी रोजमर्रा की बोल-चाल में संस्कृत-निष्ठ शब्दों का सहज प्रयोग करते हैं। उनकी समृद्ध शब्दावली में महाकाव्यों, पुराकथाओं और पुराणों की उस समृद्ध विरासत की छाप मिलती है, जिसमें वे पले और बड़े हुए हैं। ताराशंकर भारत के ऐसे पहले लेखक थे, जिसने सामान्य लोगों के अपने शब्दों और मुहावरों से युक्त जीवित और जीवन्त भाषा का सफल प्रयोग किया है।

ताराशंकर ने अपने कई उपन्यासों में स्थानीय बोली का प्रयोग किया है, जो बीरभूम की बोली से भिन्न है। इस तरह ताराशंकर ने एक बड़ी समस्या का समाधान सुझाया है, जिसकी भारतीय लेखक नितान्त उपेक्षा करते रहे हैं। बंगाल में प्राचीन काल से ही किसान, बुनकर, मछुआरे-बढ़ई, कुम्हार और अन्य गैर औद्योगिक मजदूर अपने काम के सिलसिले में अपनी-अपनी शब्दावली अपनाते रहे हैं। किसी बोली में लिख लेना मात्र काफी नहीं होता, वरन सम्बद्ध लोग दैनिक जीवन में जिस शब्दावली का प्रयोग करते हैं, उसका उपयोग ही सटीक तथा जीवंत होता है।

ताराशंकर ने इस बोली का प्रयोग मात्र कुछ विशिष्ट प्रभाव पैदा करने के लिए नहीं किया है। उन्होंने इसका प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि वह उस समुदाय विशेष के बारे में लिख रहे थे। अत: उस समुदाय की बोली का प्रयोग आवश्यक था। इससे उपन्यास की संरचना अधिक साफ-सुथरी और प्रभावशाली हो जाती है।

सफल कथाकार की तरह ताराशंकर ने भी नितान्त वस्तुपरकता और तटस्थता के साथ कहानियां लिखीं जैसाकि उनके उपन्यासों से भी प्रकट है और इस तरह उन्होंने एक खास तरह का इतिहास बोध पाठकों को दिया। गांवों में रहने वाली कहार जाति के बारे में उनके उपन्यास पढ़ते समय लगता है कि मानो कोई इतिहास-अध्येता किसी जाति के उत्थान-पतन, नैस्तर और पुनरुथान का इतिहास कर रहा हो। वह जिस तरह के उपन्यास लिखते थे, उनमें यह भी एक प्रकार की कलात्मक परिपूर्णता का द्योतक है।

अन्य लोग शैलीगत ढंग से व्यवस्थित करके अपने साहित्यिक विचार व्यक्त करते हैं। ताराशंकर के सम्बन्ध में उनके लेखन पर भावना हावी रहती है। उनके साहित्य विचार नाटकीय ढंग से व्यवस्थित होकर निकलते हैं, विशेषकर उनकी कहानियों और उपन्यासों में। दुर्भाग्य से उनकी भाषा तथा कहानी कहने का ढंग, जो ग्रामीण विषयों के लिए अत्यन्त उपयुक्त है, अन्य विषयों में भटक जाने पर गम्भीर पाठक को प्रभावित नहीं कर पाता। अकाल, युद्ध, साम्प्रदायिक दगा, भारत-विभाजन जैसे सामयिक विषयों पर उन्होंने लिखा। उन्होंने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिनिधि पात्रों की रचना भी की है। कहीं-कहीं ताराशंकर की भाषा समय के साथ नहीं चली, हालांकि उनका चित्रण समय के साथ ही चलता है।

फिर भी उनकी उपलब्धियां प्रभावी हैं। इस नाते उनके उपन्यास तथा कहानियां चिर स्मरणीय हैं। वह उन थोड़े से सच्चे भारतीय लेखकों में से हैं, जिन्होंने अपने साहित्य के द्वारा भारत का पुनराविष्कार किया है।
‘कालरात्रि’ बंगला के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्री ताराशंकर वंद्योपाध्याय का बंगला से हिन्दी में अनुवादित उपन्यास है।
सुख-दुख और आशा-निराशा के बीच एक-एक पग बढ़ते मनुष्य का प्रस्तुत उपन्यास में आशावादी चित्रण हुआ है।
वस्तुत: एक मार्मिक प्रेमकथा होते हुए भी भाग्य से संघर्षरत मनुष्य की गाथा ही यहां प्रस्तुत हुई है।
बंगला के जन-जीवन के अनेक पात्रों और विभिन्न घटनाओं का समावेश होते हुए भी लेखक ने उपन्यास को अपनी क्षमता से रोचक और मनोरंजक बना दिया है।


एक



अंशुमान के लिए कुछ क्षणों तक पृथ्वी की सारी गति, समस्त चेतना, सारा जीवन-स्पंदन जैसे रुक गया। ऐसा लगा, जैसे सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में पृथ्वी का निरंतर घूमना भी रुक गया हो।
परिणाम-स्वरूप अंशुमान की आंखों के सामने ठहरे हुए इस जगत् का सभी कुछ धीरे-धीरे मिटने लगा। वहां न कोई प्रकाश था, न अंधकार। उसका अपना अस्तित्व भी उसके लिए मिटा जा रहा था; बहुत कुछ मिट भी गया था। बुझते हुए दीपक की बाती के किनारे, क्षीणतम आलोक और उत्ताप की तरह उसके अस्तित्व का अवशेष मात्र किसी तरह बच रहा था।

मोटर ऐक्सिडेंट में घायल, खून से लथपथ, वह शिशु क्या उसी का लड़का है ? जिसे वह दोनों हाथों के बीच उठाकर मेडिकल कॉलेज के इमरजेन्सी वार्ड की टेबुल पर डाल आया था, वह अनजान शिशु क्या उसी का पुत्र है ? सीता ने उसके पास से जाकर, अपने ही हाथों अपनी मांग में सिंदूर भरा था और उसी की उपाधि धारण करके उसने उस बच्चे को गर्भ रखा था, जन्म दिया था और उसे इतना बड़ा बनाया था; अन्त में..!

यहां उसकी चेतना और चेतना की लौ को बुझ जाना चाहिए था; लेकिन वहीं से यह लौ थोड़ी और जगमगा उठी थी और धीरे-धीरे पूरी चेतना में लौट आई थी। साथ ही साथ पृथ्वी भी चलने लगी-सवेरे का प्रदीप अपने प्रकाश और उत्ताप से जगमग हो गया। याद आया कि पास के बाथरूम के फर्श पर वह बच्चा और सीता के खून-सने कपड़े, लथपथ हुए पड़े हैं।
बाथरूम के अंदर से एक मीठी गंध आ रही है। वह लैवेंडर साबुन इस्तेमाल करता है, बेशक देशी लैवेंडर, उसी साबुन से उसने हाथ-मुंह धोया है-वही गंध हवा के साथ मिली हुई है-उसके साथ ही कुहासा जैसा  कुछ। सामने रंजन खड़ा है। रंजन ही यह खबर लाया है।

गति का वेग उसे पीछे की ओर ले गया। सामने बढ़ने की सीमा तो श्मशान तक फैली है; उससे आगे नहीं। कम से कम अभी, इसी क्षण नीमतल्ला अथवा केवड़ातल्ला के श्मशान को लांघकर आगे नहीं जाया जा सकता। नहीं, वैतरणी नहीं; भागीरथी और काटी गंगा आगे नहीं बढ़ने देती। मृत्युलोक या अमरलोक या परलोक के स्वर्ग-नरक की बात भी नहीं है। अंशुमान उस पर विश्वास नहीं करता। वास्तविक जीवन में ही मानो इसके बाद कोई कल्पना अपने डैने नहीं फैला पाती। श्मशान में लकड़ी की एक चिता सजाकर उस पर उस बच्चे की लाश रखकर....।’’
वह चौंक उठा। उसका हृदय ऐंठने लगा। वह बच्चा उसी की सन्तान जो है !

चिता में आग देने जाकर उसका मन थमकर रुक जाता है। पीछे की ओर भागता है। मन उसका पीछे की ओर भागता है।
उसका मन चौरंगी रोड और धर्मतल्ला के जंक्शन पर जाकर रुका। पिछले दिन का तीसरा पहर-पांच बजे का वक्त; पश्चिम आकाश में सूर्य तब भी काफी तप रहा था और उसकी दीप्ति भी खूब प्रखर थी। अंशुमान टैक्सी से लौट रहा था। उसकी टैक्सी के सामने ही एक प्राइवेट कार थी। उसके सामने था एक खाली ट्रक और दो तल्लेवाली एक स्टेट बस। ये सभी गाड़ियां दाहिनी ओर, धर्मतल्ला स्ट्रीट में मुड़ रही थीं-सामने की बस, ट्रक और प्राइवेट भी। उसकी टैक्सी सीधे उत्तर की ओर जाएगी।

प्राइवेट कार ने ट्रक और बस को पार करके, जिसे कहते है ‘पार कर निकल जाना’, उसी तरह आगे बढने की कोशिश में एक कर्कश आवाज़ के साथ धक्का लगाया। धक्का ट्रक के साथ लगा था। गाड़ी का दाहिनी ओर का पिछला हिस्सा एक दम चूर-चूर हो गया। एक भयानक आवाज़ हुई।
इस गाड़ी पर सीता थी। और एक बच्चा था। पीछे की सीट पर ये ही दोनों थे। आगे बैठकर जो सज्जन गाड़ी चला रहे थे, वे बच गए। छोटे बच्चे का एक हाथ एकदम कुचल गया था-टूटे हुए शीशे के टुकड़ों से कटकर छोटे-छोटे घाव बन गये थे और उनसे खून बह रहा था।

सीता को देखकर अंशुमान चौंक उठा था। बच्चा सीता का ही था, इसमें संदेह नहीं। सीता के चेहरे का प्रतिरूप था-इसके अलावा जो औरत टैक्सी पर संदूक-पिटारी, बेडिंग वगैरह लादे लिए जा रही थी, अस्पताल में जिसके वैनिटी बैग से, सेकेंड क्लास के रेल के दो टिकट निकले थे, वह बच्चा उसकी संतान के अलावा और क्या हो सकता था ?
जो गाड़ी चला रहे थे, उन्हें कुछ न हुआ था। पुलिस उन्हें थाने में ले गई। सीता को और उस बच्चे को उठाकर अंशुमान अपनी टैक्सी में मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में ले आया था। बेशक, साथ में पुलिस भी थी।

सीता की चोट बाहर से ज्यादा नहीं जान पड़ी थी। उसके माथे पर डेढ़ इंच लंबा कटने का घाव ही सबसे बड़ा था। इसके अलावा कांच के छोटे-छोटे टुकड़े बिध गए थे; वे बहुत चिन्ताजनक नहीं लगे थे किसी को। लेकिन वह बेहोश हो गई थी, यह डर की बात थी। बाहर से न दीख पड़ने वाली कोई चोट अगर उसके माथे या कलेजे में लगी हो तो वह मामूली न होगी।

अंशुमान उस बच्चे के लिए अपना कुछ खून भी दे आया था। किस्मत की बात है-डॉक्टर ने यही कहा था। उसका खून लेते समय डॉक्टर ने कहा था-इसे किस्मत की बात ही कहना पड़ेगा। एक ही ग्रुप का खून है।
तब अंशुमान थोड़ा चौंका था। सीता के बच्चे का और उसका खून एक ही ग्रुप का है ?
उसका मन और पीछे चला गया।
उसकी आँखें अपने-आप लौटकर उसके सोने के कमरे की ओर जा लगीं; उसकी सिंगल-बेड चारपाई पर।

पांच साल पहले चला गया मन। 1962 में। तारीख भी याद है। 27 जुलाई। तारीखें उसे याद नहीं रहतीं। डायरी रखना उसे पार नहीं लगता। बहुतेरी संस्थाएं साल के शुरू में ही उसके पास डायरी-कैलेंडर वगैरह भेजती हैं। एक डायरी में वह खर्च नहीं, जमा लिख सकता है। लाचार होकर ही लिखता है। न लिखे तो हिसाब के वक्त गड़बड़ी होती है। एक दूसरी डायरी में वह नाम-ठिकाना लिख रखता है कि डायरी लिखेगा। 1 जनवरी से कई दिन लिखता भी है, लेकिन उसके बाद नहीं लिख पाता। अचानक किसी दिन डायरी उठाकर दो-चार पंक्तियां लिख देता है।

1962 की 27 जुलाई को लिखा है-‘आज सीता चली गई। कल रात वह यहीं थी। मैंने उसे जबर्दस्ती रोक रखा था।’
उसके बाद कई पंक्तियां लिखकर काट दी गई हैं। स्याही के दाग से उस लिखावट को बिल्कुल ढक दिया गया है। लेकिन अंशुमान को याद है। ‘पछतावा हो रहा है। अन्याय..।’ काट दिया है। उसके बाद लिखा था-‘वह समय के साथ नहीं चल सकी। मुझे अचरज होता है...यह क्या वही सीता है ?’

सवेरे के वक्त वह गहरी नींद में सोता है। उस दिन नींद गहरी नहीं थी। नहीं हो सकी थी। सीता के साथ उसने इसी एक चारपाई पर रात बिताई थी। नींद हल्की थी। एक जेट प्लेन की लैडिंग की कर्कश आवाज़ से उसकी नींद खुल गई। प्लेन रोज आता है, रोज उतरता है-लेकिन उस दिन सिर पर इतना नीचे आ गया था कि वह चौंककर जाग गया था।
उसे याद है, पहले उसे नींद में ही ऐसा लगा था कि शायद कोई दुर्घटना हो गई है। शायद जेट टूट गया है और मकान के ऊपर गिर रहा है।

दूसरे ही क्षण वह प्लेन उसके घर से आगे बढ़ गया था। लेकिन उसके मुंह से अपने-आप एक ऊबी सी आवाज़ निकल आई थी।
‘अ:’ कहकर उसने आंखें खोल दी थीं।
सब कुछ ठीक-ठाक याद आता है।
इतना स्पष्ट याद आता है, जैसे किसी आश्चर्यजनक सोते में नहाकर ऐसा स्पष्ट हो गया हो। नहीं तो इन पांच बरसों में हवा से उड़ने वाली धूल के आवरण को किसी तरह हटाया नहीं जा सकता था। वह याद धुंधली हो ही जाती।
उसे याद आता है, बिस्तरे पर सोए उसके चेहरे के पास ही एक तकिया था जिस पर सीता ने सिर रखा था। कोई गंध उसकी नाक में आई थी या नहीं, याद नहीं, याद नहीं है। कम से कम इस बारे में वह सजग नहीं था।

तकिये ने ही उसकी सुधि का दीपक जला दिया था। वह बिजली के बल्ब की तरह ‘दप्’ करके जल उठा था।
पल-भर में उसे पिछली रात की सारी बातें एक साथ याद आ गई थीं। उसने खुली आंखों से देखा कि सीता उसी की ओर देखती खड़ी थी; जैसे जाने के लिए तैयार होकर वह आंखें खोलकर उसके देखने की प्रतीक्षा में ही खड़ी हो। आंखें मिलते ही, या शायद उससे पहले से ही सीता के होंठों पर जरा-सी और हल्की-सी हंसी फूट आई थी।
उस हंसी और उस दृष्टि ने कांटे की तरह अंशुमान को बींध दिया था। उसे याद है, उसने तुरंत आंखें मूंद ली थीं। लेकिन सीता ने कहा-आंखें न मूंदो। मैं जा रही हूं।

-जा रही हो ?-अंशुमान आंखें खोले बिना न रह सका।
सीता ने कहा था-लेकिन यह क्या हुआ, बताओ तो ?
इस बार फिर अंशुमान ने आंखें बन्द कर ली थीं। सीता फिर हंसी थी। साथ ही साथ उसके पूरे चेहरे पर बहुत करुण विषाद की छाया उतर आई थी। चुप और अधमुंदी आंखों वाले अंशुमान की ओर देखकर, वेदना से विकल होकर, सीता ने कई बार सिर हिलाया था। कहा था-जबाब नहीं दोगे।

इस बार आंखें बन्द किए हुए ही अंशुमान ने कहा था-डोण्ट बी सेंटिमेंटल।
सीता ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। इस बार उसके होंठों पर व्यंग्य की निष्ठुर हंसी दीख पड़ी थी। सामने के टेबुल से उसने हैंड बैग उठा लिया था, उसके बाद चप्पलें चटकाती, बहुत आहिस्ते से कमरे का दरवाज़ा खोलकर बाहर जाना चाहा था, लेकिन दरवाजे़ तक जाकर वह एक बार फिर थमकर रुक गई थी। बिस्तरे पर उसके हिस्से की जो खाली जगह थी, उसकी ओर देखती रही थी। शायद उसने यह जानने की कोशिश की थी कि वह जगह उसके जीवन का स्वर्ग है या नरक। लेकिन यह सवाल वह किससे करती ?

भगवान को मानती होती तो शायद उनसे कर सकती थी। यह नहीं कि वह मानती ही नहीं-मानती तो है, लेकिन विश्वास नहीं है। सवाल पूछने लायक विश्वास तो नहीं ही है। उसके कलेजे से एक लम्बी सांस जैसे अपने-आप निकल पड़ी। उसका नाम सीता है, लेकिन अंशुमान को वह किसी तरह रावण के रूप में नहीं सोच सकती। ये सीता की ही कही बातें हैं। उसने एक दिन अपने मुंह से ये बातें नहीं कही थीं। कुछ समय बाद चिट्ठी में लिखी थीं। चिट्ठी उसने फाड़कर फेंक दी है, लेकिन बातें आज भी नहीं भूल सका है। लगभग चार महीने बाद वह चिट्ठी आई थी। उसका पता नहीं था। उसने लिखा था-‘‘मेरा नाम सीता है, इसी से इस दिन सवेरे इच्छा हुई थी कि तुम्हें रावण कहकर गाली दूं।

लेकिन किसी तरह वैसा नहीं कर पाई। मैं तुम्हें रावण के रूप में नहीं सोच सकी। तुम रावण को कुसंस्काराच्छन्न बर्बर कहते; ब्राह्मण के शाप को अटल समझकर वह सीता का सर्वनाश नहीं कर सका। तुम कुसंस्काराच्छन्न नहीं हो-बर्बर नहीं हो; और मेरे जीवन का कुछ ऐसा नहीं था जो तुमको दिया न जा सके। लेकिन...। रहने दो- सब भुला दो। तुम भी भुला दो, मैं भी कोशिश करूंगी। तुम रावण नहीं हो। मैं भी सीता नहीं हूं। तुम्हारी किसी आज्ञा से मैं अग्नि-परीक्षा नहीं दूंगी।’’
जाने दो। उस दिन जब दरवाजे के पास खड़ी सीता ने लौटकर बिस्तर की ओर देखा था, तब उसकी आंखें अपने-आप मुंद गई थीं। आंखें बन्द किए ही उसने कहा था-सुनो।

सीता ने कहा था-क्या कहते हो ?
उसने कहा था- कोई दिक्कत होने पर मुझे खबर देना।
इन बातों से उसके माथे पर कई लकीरें उभर आई थीं। जवाब देते उसकी आवाज़ कड़वी हो आई थी। जवाब में उसने कड़वे स्वर में कहा था-दिक्कत ?
आज भी याद है, ये बातें ताने की तरह लगीं थीं और उसने भी कड़वे स्वर में कहा था-हां, हां, दिक्कत। बचपना न करो।


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