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जन्मान्तर

ताराशंकर वन्द्योपाध्याय

प्रकाशक : सर्वोदय साहित्य संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5122
आईएसबीएन :0000

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बंगाल के ग्रामीण समाज की कहानी

Janmantar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय ज्ञानपीठ से पुरस्कार से सम्मानित ताराशंकर वंद्योपाध्याय, रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र के बाद बंगाल के प्रमुख लेखकों में से एक हैं। उनका नाम विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय और माणिक वंद्योपाध्याय के साथ लिया जाता है।
ताराशंकर का समग्र साहित्य स्वाधीनता की लड़ाई की पृष्ठभूमि में मनुष्य का जीवन संगीत-मात्र नहीं है। कथा-साहित्य के तीन प्रमुख उपादानों स्थान, काल और पात्र की नींव पर जिन अविस्मरणीय कहानियों और उपन्यासों की उन्होंने रचना की है, वह जनता का सार्वकालिक जीवन संगीत है।

रवीन्द्रनाथ ने एक बार कहा था, ‘बहुसंख्यक गांवों से भरपूर हमारा जो देश है उस देश को देखने की दृष्टि हमने खो दी है। हमारे साहित्य क्षेत्र में जिन लोगों ने इस संकीर्ण सीमाबद्ध दृष्टि को पूरे देश में व्यापकता से प्रसारित किया है उनमें ताराशंकर का स्थान सबसे आगे है।’
खासकर रवीन्द्रनाथ ने जिन्हें ‘अंत्यज’ ‘मंत्रवर्जित’ कहा है, उन अवज्ञात अनार्य लोगों के सुख-दुख, सुगति-दुर्गति को ताराशंकर ने जिस रसदृष्टि से देखा था वैसी दृष्टि बांग्ला साहित्य में विरल ही है। इस दृष्टि से उनके उपन्यासों की तुलना में उनकी कहानियां बांग्ला साहित्य की अविस्मरणीय संपदा हैं। उनकी कहानियों ने विचित्र रस के उपादान से हमारे कथा-साहित्य को समृद्ध किया है।

बंगाल के गांवों पर लिखते हुए ताराशंकर ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी थी, क्योंकि शरत्-चंद्र तथा कुछ अन्य लेखक ग्रामीणजनों के बारे में लिख चुके थे, पर उनके पास ताराशंकर जैसा ज्ञान, विशाल दृष्टि और इतिहास बोध नहीं था।
वस्तुतः बंगाल के ग्रामीण समाज को ऐसी समग्र और सार्वभौग दृष्टि से ताराशंकर से पहले किसी और ने नहीं देखा।

भूमिका

साहित्य में लेखकों के दो प्रकार के वर्ग होते हैं। पहले वर्ग में ऐसे लेखक होते हैं जो आते ही सफलता के सर्वोच्च शिखर पर बैठ जाते हैं। बांग्ला साहित्य में विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय ऐसे उदाहरण हैं। उनका पहला उपन्यास ‘पथेर पांचाली’ ही उनके जीवन का श्रेष्ठ उपन्यास साबित हुआ। बाद में उन्होंने ढेरों उच्चकोटि की कहानियां, उपन्यास आदि लिखे लेकिन शायद अपनी बाद की लिखी हुई किसी भी कृति को अपनी सर्वप्रथम कृति से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं बना पाये।
दूसरे वर्ग के लेखकों की शुरुआती रचनाएं सामान्य ही होती हैं। उनकी प्रतिभा को लोगों की नजरों में आने के लिए दीर्घकालीन कठोर साधना की जरूरत पड़ती है। ताराशंकर इसी वर्ग के लेखक थे। उनकी पहले दौर की लिखी काफी रचनाएं औसत दर्जे की हैं। लंबे समय तक काफी कुछ देखने परखने के बाद, व्यर्थता की काफी ग्लानि और निराशा पार करके उन्होंने अपने लेखन की धाक जमायी थी। अपराजित आत्मविश्वास और ईश्वर-भक्ति ने उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचाया।
अपनी अभिव्यक्ति के उचित माध्यम की तलाश में भी उन्हें कम भटकना नहीं पड़ा। उन्होंने पहले कविताएं लिखीं, फिर नाटक और सबसे अंत में कथा-साहित्य लिखा। कहानियां और उपन्यास ही ताराशंकर को अपनी बात कहने के उपयुक्त माध्यम नजर आये।

ताराशंकर का साहित्यिक जीवन आठ वर्ष की उम्र में कविताओं से प्रारंभ हुआ। तदुपरांत उन्होंने नाट्य-लेखन में रुचि दिखायी। उनकी नियमित साहित्य साधना 28 वर्ष की उम्र में लामपुर से प्रकाशित ‘पूर्णिमा’ मासिक पत्रिका से शुरू हुई। कविता, कहानी, आलोचना, सम्पादकीय के रूप में इस पत्रिका की ज्यादातर सामग्री उन्हीं की लिखी हुई होती थी। पूर्णिमा में ही ताराशंकर की पहली उल्लेखनीय कहानी ‘प्रवाह का तिनका’ प्रकाशित हुई थी।

कुछ दिन बाद ही ताराशंकर ने ‘रसकली’ नामक कहानी लिखी और ‘प्रवासी’ पत्रिका को प्रकाशनार्थ भेज दी। कई महीनों तक बार-बार पत्र लिखने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ। आखिरकार ताराशंकर खुद ‘प्रवासी’ ऑफिस में उपस्थित हुए। जैसा अमूमन होता है, नये लेखक की रचना बिना पढ़े ही सम्पादकीय विभाग ने वापस लौटा दी। उस अस्वीकृत रचना को लेकर ताराशंकर पैदल ही मध्य कलकत्ता से दक्षिण कलकत्ता अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे। उस दिन उनकी आंखें कई बार भर आई थीं। एक बार उन्होंने सोचा कि साहित्य साधना की इच्छा को तिलांजलि देकर गंगा नहाकर घर लौट जायें एवं शांत गृहस्थ की तरह अपना जीवन खेती-खलिहानी करते हुए गुजार दें।
साहित्य क्षेत्र में अपने पराजय की बात सोचकर उनका चित्त व्यथित होने लगता था। सौभाग्य से एक दिन डाकघर में उन्हें एक पत्रिका नजर आ गई। उस पत्रिका का नाम था ‘कल्लोल’। ताराशंकर ने कल्लोल का पता नोट कर लिया और उसी पते पर ‘रसकली’ कहानी भेज दी। जल्दी ही उन्हें कहानी के स्वीकृत होने की सूचना मिली। उत्साहित करने वाले पवित्र गंगोपाध्याय ने लिखा, ‘‘आप इतने दिनों तक मौन क्यों बैठे हुए थे ?’ महानगरी के साहित्य क्षेत्र में ताराशंकर की वह पहली स्वीकृति थी।

विचारों का साम्य न होने पर भी नये लेखकों के लिए ‘कल्लोल’ का द्वार हमेशा खुला रहता था। आगे के दो वर्षों तक ‘कल्लोल’ में ताराशंकर की कई कहानियां प्रकाशित हुईं। फिर ‘कालि-कलम’, ‘उपासना’ और ‘उत्तरा’ पत्रिकाओं में भी उन्होंने लिखा। ‘श्मशान के पथ पर’ नामक कहानी ‘उपासना’ पत्रिका में छपी थी।
ताराशंकर ने लिखा है कि उनके साहित्य-जीवन का पहला अध्याय अवहेलना और अवज्ञा का काल था। उनकी पुत्री का देहान्त आठ वर्ष ही उम्र में ही हो गया। कन्या वियोग से शोकाकुल कथाशिल्पी ने इस बार ‘संध्यामणि’ कहानी लिखी। सजनीकांत द्वारा संपादित ‘बंगश्री’ पत्रिका के पहले अंक में यह कहानी ‘श्मशान घाट’ के नाम से छपी थी। ‘संध्यामणि’ के पहले ताराशंकर आठारह-उन्नीस कहानियां लिख चुके थे, जिनमें ‘रसकली’, ‘राईकमल’ और ‘मालाचंदन’ जैसी कहानियां भी थीं। लेकिन ‘संध्यामणि’ ऐसी पहली कहानी थी जिसे बांग्ला साहित्य में सिर्फ ताराशंकर ही लिख सकते थे।

‘संध्यामणि’ छपने के बाद अंतरंग साहित्यकारों के बीच इसकी व्यापक चर्चा हुई। इसके बाद ‘भारतवर्ष’ में छपी ‘डाइनीर बांशी’ (डाईन की बांसुरी) और ‘बंगश्री’ में प्रकाशित दूसरी कहानी, ‘मेला’ ने ताराशंकर को कथाकारों की पहली पंक्ति में ला बिठाया।
ताराशंकर ने अपने साहित्य जीवन की बातों में जिस अपमान की घटना का जिक्र किया है। वह ‘देश’ पत्रिका के दफ्तर में घटा था। यह सन् 1934 की बात है। उसके पहले ‘देश’ के शारदीय विशेषांक में उनकी बहुचर्चित कहानी ‘नारी और नागिनी’ छप चुकी थी। ‘देश’ के प्रभात गांगुली ने ‘नारी और नागिनी’ की बेहद प्रशंसा की थी। गांगुली महाशय बड़े मूडी आदमी थे। मिजाज ठीक रहता तो बेहद दिलदरिया थे और अगर मिजाज बिगड़ता तो चीखते-चिल्लाते हुए इस तरह इन्कार करते थे कि लेखक को बहुत अपमानजनक लगता। ताराशंकर की ‘मुसाफिरखाना’ जैसी कहानी उन्हें पसंद नहीं आयी। वे उसे लौटाते हुए बोले, ‘‘यह (अर्थात् ‘देश’ पत्रिका) कोई डस्टबिन नहीं है।’
ताराशंकर की स्थिति धीरे-धीरे ऐसी बन गयी थी कि कोई उन्हें खारिज नहीं कर सकता था। यदा-कदा आलोचना करते हुए कोई कहता, ‘कहानियां अच्छी लिखते हैं, शैली भी अच्छी होती है। लेकिन कहानियां, बड़ी स्थूल होती हैं। उनमें सूक्ष्मता का अभाव है।’ जिज्ञासु ताराशंकर ने इस पर कविगुरु रवीन्द्रनाथ की राय जाननी चाही। उत्तर में रवीन्द्रनाथ ने लिखा, ‘तुम्हारी रचनाओं को स्थूल दृष्टि कहकर जिसने बदनाम किया, मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे लगता है कि तुम्हारी रचनाओं में बड़ा सूक्ष्म स्पर्श होता है और तुम्हारी कलम में वास्तविकता सच बनकर नजर आती है, जिसमें यथार्थ को कोई नुकसान नहीं पहुँचता। कहानी लिखते वक्त कहानी न लिखने को ही जो लोग बहादुरी समझते हैं तुम ऐसे लोगों के दल में शामिल नहीं हो, यह देखकर मैं बहुत खुश हूं। रचना में यथार्थ की रक्षा करना ही सबसे कठिन होता है।’

यथार्थ लेखन के इस दुरूह मार्ग पर ताराशंकर की जययात्रा बिना किसी रोक-टोक के निरंतर आगे बढ़ती ही गयी।
ताराशंकर के रचनाकार के केन्द्रीय वृत्तभूमि में देहात का ब्राह्मण समाज था। लेकिन उनके जीवन बोध ने धीरे-धीरे फैलते हुए सामान्यजन को अपने दायरे में ले लिया। रवीन्द्रनाथ ने सबसे पहले अपनी कहानियों में गांव-देहात के क्षुद्र मानव को स्थान दिया था। लघु प्राण, मामूली कथा, छोटी-छोटी दुख की बातें, जो बेहद सहज और सरल हैं। जिनका जीवन है, उन्हीं को लेकर कविगुरु ने अपनी छोटी कहानियों की मंजूषा सजाकर बांग्ला साहित्य में कहानियों की प्राण-प्रतिष्ठा की। शरत् साहित्य में मुख्यतः देहातों के मध्यवित्त समाज को ही प्राथमिकता दी गयी है। ताराशंकर ने समाज के दीन-हीन अछूत स्तर के लोगों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया। उन्होंने समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपनाकर अपने रचनालोक को पूर्णता प्रदान की। इस दृष्टि से ताराशंकर सम्पूर्ण समाज के जीवन-बोध के सर्वप्रथम कलाकार हैं। उनकी कहानियों में अपने समय का परिवेश उजागर हुआ है। माटी से बने मानव जीवन को ही उन्होंने आविष्कृत किया। इसी दृष्टि से उनके साहित्य को आंचलिक कहा जाता है। अंचल विशेष की प्रकृति और उसी के प्रभाव से नियंत्रित मनुष्य के सुख-दुख की यथार्थता को कहानियों को चित्रित करने से जाहिर है उनमें आंचलिक विशेषताएं नजर आयेंगी ही। इस दृष्टि से यथार्थ जीवन पर जो भी लिखा जाए वही आंचलिक हो जाता है। लेकिन अपने समय और परिवेश की विशेषताओं को ग्रहण करके चिरंतन मानव-सत्य को उजागर करता है उस साहित्य को आंचलिक कहकर उसे संकीर्ण बनाना उचित नहीं होगा। ताराशंकर के साहित्य का व्यक्ति अपनी आदिम प्रवृत्ति, युगों से संचित संस्कार और वंशानुगत आजीविका ढोने वाला परिचित इन्सान है। इसीलिए ताराशंकर बंगला के सार्वभौमिक जीवन-शिल्पी हैं।

ताराशंकर की कहानियों की मुख्य विशेषता है समाज के अज्ञात कुलशील क्षुद्र समझे जाने वाले लोगों के प्रति उनकी गहरी संवेदना और अंतरंगता। भारतीय मानव समाज के आदि स्तर के जो निर्माता थे, परवर्ती काल के आर्य सभ्यता के प्रसार और प्रतिष्ठा के फलस्वरूप वे लोग समाज की रूपरेखा के बाहर अवज्ञात और अवहेलित होकर पड़ रहे; शिक्षित और सभ्यताभिमानी तथा अपने को ऊंचा समझने वाले लोगों ने जिनकी ओर मुंह उठाकर नहीं देखा, ताराशंकर उन्हीं पतितों-अवहेलितों के कथाकार थे।

‘विस्फोट’ कथा-संग्रह में ताराशंकर की चुनिंदा कहानियों को सम्मिलित किया गया है। ‘विष्टु चक्रवर्ती की कहानी’, ‘काली लड़की’, ‘विस्फोट’, ‘जटायु’, ‘वह क्षण’, ‘अफजल खिलाड़ी और रमजान शेरअली’ तथा ‘आलोकाभिसार’ ये सभी कहानियां उनके बेहतर कथा-शिल्प का नमूना हैं और इन कहानियों में मानवीय जीवन के विविध रूप सामने आते हैं।

वंश परंपरा और अपने देश काल की परिस्थितियों की दृष्टि से भी ताराशंकर सार्वभौम मानव मुक्ति के महान शिल्पी हैं। मनुष्य की जैविकता उसे पशु स्तर तक ले जाती है। युग-युग से संचित अंध-संस्कार एवं असंयत प्रवृत्ति के वशीभूत होकर वह अमानुष बन जाता है। ताराशंकर ने रचनाकार की सर्वोपरि दृष्टि और लेखक की संवेदनशीलता सहभागिता के जरिये लोगों के प्रतिदिन के स्खलन-पतन तथा उनके दोषों को महसूस किया था। मानवतावाद के ज्योतिर्मय प्रकाश में मनुष्य की अमानुषिकता का असली चेहरा दिखाना ही उनके रचनाकार का दायित्व रहा है।

-अनुवादक

डाइन


इन दिनों तुम लोगों को डाइन नजर नहीं आती। न डाइन, न मायाविनी।
इस हिसाब से आज के लड़के सौभाग्यशाली हैं।
हमारे जमाने में, मतलब चालीस-पैंतालीस साल पहले डाइन, डाकिनी, मायाविनी सब थीं। आज के लड़के डाइन-डाकिनी की बात सुनकर हंसने लगते हैं। लेकिन उन दिनों उनका नाम सुनकर हम लोगों का कलेजा सूख जाता था।
हमारे गांव में हमारे घर के पूरब की ओर एक बड़ा तालाब था जो चारों तरफ बड़े-बड़े ताड़ के पेड़ों से घिरा हुआ था। उसके उत्तर-पूर्व कोने में स्वर्ण डाइन का घर था।
वह गांव का अंतिम छोर था। एक तरफ मांझीपाड़ा, दूसरी तरफ बाउरीपाड़ा—बीच में थोड़ी-सी खाली जगह थी। वहां पर एक बरगद का पेड़ था। उस पेड़ के नीचे एक छोटा-सा घर था। इसके बाद स्वर्ण के घर के बाद पूरब की ओर कोई बस्ती नहीं थी, बस मैदान था। बलुहा और काली मिट्टी का मैदान। इस मैदान के बीच में लालुकचांदा नाम का तालाब गांव का श्मशान था। यहां पर शवदाह नहीं होता था, मुखाग्नि होती थी। चारों तरफ मुर्दे के बिस्तर, चटाई, तकिये, चिथड़े, बांस, मिट्टी के कसोरे, कुल्हड़, अधजली छोटी-छोटी लकड़ियां बिखरी रहती थीं। तालाब की दूसरी ओर एक छतनार-पीपल का पेड़ था। दिन के वक्त भी कोई उस पेड़ के पास नहीं फटकता था। रात में वहां गहरे अंधेरे की तरह सन्नाटा छाया रहता था।

स्वर्ण अपने मकान के ओसारे पर बैठकर एकटक उस पेड़ को देखती रहती।
हम लोग ऐसा ही सोचते थे।
अन्यथा, जहां पर मैदान खत्म होता था, वहीं से धान के खेत शुरू होते थे। हराभरा शस्यक्षेत्र। लेकिन डाइन को भला हरा अच्छा लगता था ? या लग सकता था ?
स्वर्ण डाइन। हम लोगों के गांव की बोली में ‘स्वना डान !’
सूखी लकड़ी जैसा उसका चेहरा था। दांतों के जबड़े बड़े मजबूत थे। लेकिन आंखें नहन्नी से चीरी हुई लगती थीं—बेहद छोटी। पुतलियां भूरे रंग की थीं। बड़ी विचित्र स्थिर दृष्टि थी। भावशून्य नीरस वे पीली आंखें उस पथरीले मैदान की ओर देखती रहती थीं। डाइन की नजर।
ऐसी ही नजरों से डाइनें बच्चों का मुलायम देह, सुंदर जवान औरतों की देह की अस्थि, चर्म, मांस को भेद करके प्राण पुतली ढूंढ़ती थीं। उसे पा जाने पर उसे वे लोग खा लेती थीं। हृष्ट-पुष्ट आदमी सूखकर कांटा हो जाता था, सोने जैसा रंग काला पड़ जाता था। युवती नववधु का सलोना रूप खत्म हो जाता था। सिर्फ आदमी ही नहीं, हरा-भरा समूचा पेड़ अचानक सूख जाता था। डाइनें उनके भी सरस प्राण को अपनी आंखों से देखते ही देखते पी लेती थीं।

गांव के दोपहर के सन्नाटे को भेदकर ताड़ के पेड़ पर बैठी चील चीख उठती थी—चि ई लो, चि ई लो, चि ई लो।
ध्यान लगाकर सुनने पर पता चलता था कि अपने मकान के ओसारे में बैठकर डाइन भी उसी के सुर में सुर मिलाकर नकियाकर महीन आवाज में गाती रहती थी—छि ई हूं ई हूं ! हिं ई ई ई हूं।
रात में—आधीरात को स्वर्ण डाइन के घर दीवार से कान लगाकर सुनने पर कुछ उठा-पटक की आवाज सुनायी पड़ती थी।
स्वर्ण घिसट रही थी। जो डाइन होती हैं, वे भगवान् के शाप से रात में जमीन पर औंधे मुंह घिसटकर चलती रहती हैं।
भला इसके बाद भी डर नहीं लगेगा ?

स्वर्ण साग-सब्जी की फेरी लगाती थी। यही उसकी आजीविका थी। वह तीन-चार कोस दूर हाट से सब्जियां खरीदकर आसपास के गांवों में बेचती थी। पान, कच्चे केले, साग, कुम्हड़े यही सब। हमारे गांव में वह नहीं बेचती थी। अगल-बगल के गांव में बेचती। गांव में किसी के घर में वह घुसती नहीं थी। पता नहीं, न जाने किसका अमंगल वह कर बैठे। उसके भीतर जो लोग हैं, वह जब जीभ निकालकर लपलपाने लगेगा, तब वह स्वर्ण के रोकने पर भी नहीं रुकेगा। लेकिन स्वर्ण तो आज से मर जायेगी। हि-हि-हि ! उसके भीतर की डाइन उसके वश में नहीं रहती। वही उसके जीवन की मालिक है, उसी के हुक्म पर उसे चलना पड़ता है। उसके हुक्म के बिना उसे मरने का भी अधिकार नहीं है। उसके भीतर की जो डाइन है, वह सिद्धविद्या है, उसे किसी नये व्यक्ति को दिये बिना वह मर नहीं सकती।
स्वर्ण की मौसी या ऐसी ही कोई डाइन थी।
अपने मरने के वक्त उसने नाते-रिश्तेदारों को खबर भिजवायी थी, मगर कोई नहीं गया था। वे इस डर से नहीं गये थे कि कहीं मरते वक्त वह किसी चातुरी से यह सर्वनाशी भयानक विद्या न दे जाए। जिसे देगी वह डाइन बन जायेगी।
मरने के बाद स्वर्ण गयी थी। वह निश्चिंत होकर गयी थी। अपनी विद्या तो वह किसी को दे ही गयी होगी। नहीं तो वह मरती कैसे ! वहां जाकर देखा, तब तक मौसी के काफी रिश्तेदार वहां आ पहुंचे थे। उन लोगों ने सामान का बंटवारा कर लिया था। फिर वे सब चले गये। विधवा युवती स्वर्ण उसी ओसारे में बैठी रही। उसकी तकदीर ही ऐसी थी। अचानक म्याऊं-म्याऊं कर मौसी की पालतू बिल्ली उसके पैर से सटकर बैठ गयी। उसे कोई नहीं ले गया था। बिल्ली ने उसके पैर से अपना पंजा घिसा, धीरे-धीरे गुर्रायी भी। अपनी पूंछ से उसका चेहरा छुआ। जैसे कह रही हो, तुम मुझे अपने साथ ले चलो। मुझे कुछ भी नहीं मिला है। मुझे किसी ने लिया नहीं है।

स्वर्ण को तरस आ गया। वह बिल्ली को साथ ले आयी। वह उसे मछली-भात, दूध पिलाती थी, अपनी गोद के पास लेकर सुलाती थी। उसे लेकर नजदीक के मांझीपाड़ा, बाउरीपाड़ा में जाती थी।
उस दिन मांझीपाड़ा में शोर मच गया।
मांझियों के एक नवजात बच्चे को जाने क्या हो गया—वह धनुष की तरह टेढ़ा हो गया और इस तरह लगातार रोने लगा जैसे कोई बिल्ली रो रही हो। वाकई बिल्ली की तरह ही उसकी आवाज थी।
ओझा आया। ओझा ने देखकर कहा, ‘डाइन का काम है। लेकिन—’
‘लेकिन क्या ?’
‘लगता है डाइन—’
उसे बात पूरी नहीं करनी पड़ी। स्वर्ण की बिल्ली उसी समय वहां दौड़ी हुई आयी और अपने रोओं और पूंछ को फुलाकर म्याऊं करके पंजे फैलाकर बैठ गयी।

‘अरे, यही तो बिल्ली है, यही डाइन है।’
‘बिल्ली भी डाइन होती है ?’
‘हां, कोई डाइन मरते वक्त उसे डाइन विद्या दे गयी होगी।’
‘ठीक बात ! स्वर्ण की मौसी डाइन थी। बिल्ली उसी की थी। सर्वनाश !’
एक जवान मांझी ने गुस्से से बौखलाकर उसके सिर पर लाठी का भरपूर वार किया। बिल्ली का सिर टुकड़े-टुकड़े हो गया, फिर भी वह मरी नहीं। पूंछ पटकने लगी। अपने नाखून निकालकर जमीन नोचने लगी।
ओझा ने कहा, ‘सावधान, कोई नजदीक नहीं जायेगा। यह इस वक्त डाइन मंत्र देने की कोशिश कर रही है। अन्यथा इसकी मौत नहीं होगी।’
उसने मंत्र पढ़ा। अपना अंग बंधन किया। इसके बाद सावधानी से उसे पूंछ से उठाकर गांव के छोर पर फेंक आया।
स्वर्ण अपने कमरे में बैठी-बैठी सिहर उठी।
लोग उसे गालियां सुना गये। वह क्यों उस पाप को यहां लायी थी।
शाम को कुछ लड़के उधर से जा रहे थे, वे कह गये, बिल्ली अभी तक जिन्दा है। ओह कितना कराह रही है। बाप रे ! वे लोग घबरा गये थे।
स्वर्ण चोरी-चोरी वहां गयी। उसे देखे बिना रह नहीं पायी।
बिल्कुल दूध की तरह सफेद बिल्ली का रंग था। मिट्टी और खून से सनकर वह पिंगल हो गयी थी। बेहद तकलीफ से वह कराह रही थी।
स्वर्ण धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
उसने बिल्ली के बदन पर हाथ फेरा।
बिल्ली मर गयी।
मगर स्वर्ण को क्या हो गया ?
स्वर्ण की नजरें बदल गयीं। उसे यह क्या हो गया ? उसे यह सब क्या नजर आने लगा ? वह जो गर्भवती बकरी जा रही थी, उसके गर्भ में उसे दो मेमने साफ नजर आये। केले के पेड़ के अंदर उसे केले के फूल नजर आने लगे।
उसकी जीभ में पानी आ गया। वह लपलपाने लगी। उसे यह क्या हो गया ? हे भगवान् !
इसी तरह स्वर्ण डाइन बन गई थी।
अब जब भी वह किसी को डाइन विद्या देगी तभी उसकी मृत्यु होगी। वहीं तो उस घायल बिल्ली की तरह कराहती ही रहेगी मगर उसकी मौत नहीं होगी। मौत आंख के सामने बैठी रहेगी।
वह कहेगी, मुझे अपने शरण में ले लो।
मौत कहेगी ? कैसे लूं ? पहले तू इस विद्या को किसी को दे, तब तुझे शरण में लूंगी। ऐसे नहीं ले सकती।
अपने अंदर की डाइन पर स्वर्ण का कोई वश नहीं था।
क्या वह गांव में किसी के घर जा सकती है ? बाप रे !
मेरे बड़े होने के कई साल बाद भी स्वर्ण जीवित थी। मैं उसे कहता—स्वर्ण बुआ।
बचपन में कभी उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, बड़े होने के बाद उस रास्ते से आता-जाता रहा हूं, अपने कमरे के हल्के प्रकाश, हल्के अंधेरे में उसे चुपचाप बैठी हुई देखता था। वह खामोश बैठी रहती थी। किसी से भी बात नहीं करती थी। कोई कुछ पूछता तो झटपट दो-चार बातें कहकर वह अपने कमरे में चली जाती थी।
जब मैं बीस-बाइस साल का हुआ तब उसकी व्यथा को मैंने महसूस किया। बेहद मर्मान्तिक वेदना थी उसकी। वह खुद भी यकीन करती थी कि वह डाइन है। किसी को प्यार करते हुए वह मन ही मन सिहर उठती थी। किसी को देखते-देखते अच्छा लगने पर वह झट से आंख बंद कर लेती थी। उसे संदेह होता कि कहीं वह उसे खा न ले, शायद उसने खा ही लिया है यह सोचते ही सिहर उठती। उसे डाइनी मंत्र की याद आती, उसका प्रेम कितना जहरीला है, लोभ बनकर तीर की तरह जाकर उसके सीने में बेध आता है।
मैं आज डाइनों की बात पर यकीन नहीं करता। आज के लड़के भी नहीं करते। लेकिन स्वर्ण डाइनीपने का एक विचित्र अनुभव मेरी यादों में अब भी बसा हुआ है। मैं वही कहानी सुना रहा हूं।

उस वक्त मेरी उम्र नौ या दस साल की थी। लेकिन वह घटना लगती है अभी कुछ दिन पहले की घटी हो। अचानक मैंने सुना, उस मुहल्ले के अविनाश दादा को स्वर्ण डाइन ने शिकार बना लिया है। यानी डाइन की नजर से, दृष्टिवाण से विद्ध किया है, उसके भीतर प्रवेश करके उसे चूस रही है। पूरा गांव आंदोलित हो उठा। एक विख्यात ओझा मेरे ही घर में रहते थे। मेरे पिता ने गांव के बाहर बगीचे में तारामंदिर की प्रतिष्ठा की थी, वहां पर एक संन्यासी-हिन्दी भाषी साधु रहते थे। मैं उन्हें गुसाईं बाबा कहता था, अर्थात् गोस्वामी बाबा ! वे कई तरह की विद्या जानते थे। उन्हें खबर भिजवायी गयी। वे आ गये। मैं उन्हीं के साथ स्वर्ण डाइन का कारनामा तथा गुसाईं बाबा की डाइन भगाने की पद्धति देखने चला गया।

अविनाश दादा—अविनाश मुखर्जी तब सत्रह-अठारह साल के थे। घर में मां और दो बहनें थीं। अविनाश दादा की मां गुसाईं बाबा को गुजाईं दादा कहती थीं। अविनाश दादा कहते थे गुसाईं मामा। अविनाश दादा के घर में उस वक्त लोगों की भीड़ लगी थी; स्वर्ण डाइन की नजर अविनाश पर लग गयी है, रामजी साधु अब झाड़-फूंक करेंगे।

अपने कमरे में अविनाश दादा आंख मूंदकर लेटे हुए थे। उन्हें तेज बुखार था। पुकारने पर जवाब नहीं देते थे। उनके सिरहाने मां बैठी हुई थी। बगल में बहनें। सभी रो रही थीं। रामजी साधु जाकर एक तरफ बैठ गये, उनके बगल में मैं भी बैठ गया।
उन्होंने पुकारा—भांजे ! अविनाश भांजे !
अविनाश दादा ने कोई जवाब नहीं दिया।
अरे ओ अविनाश ! सुन ! उन्होंने सिर हिलाया।


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