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नजर-नजर नजरिया

जसबीर चावला

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4955
आईएसबीएन :81-88090-27-1

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‘‘आँखों में जलन सीने में तूफान-सा क्यूँ है इस शहर में हर सख्श परेशान-सा क्यूँ है।’’ आज यह बात किसी एक आदमी किसी एक शहर की नहीं।

Najar Najar Najariya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘आँखों में जलन सीने में तूफान-सा क्यूँ है इस शहर में हर सख्श परेशान-सा क्यूँ है।’’
आज यह बात किसी एक आदमी किसी एक शहर की नहीं। जगह-जगह हालात इतने तंग हो चुके हैं कि नर्क पीछे रह गया है। देवताओं के लिए भी दुर्लभ मानव-योनि इतनी असह्य हो उठी है कि आदमी अपनी जिन्दगी जीना नहीं चाहता। तिल-तिल कर मरने की अपेक्षा वह आत्म-हत्या करना बेहतर समझता है।
आखिर क्यों ? कौन जिम्मेदार है इन हालातों का ? कभी अपने गरेबाँ में झाँककर देखा है आपने ? अपनी बहुत सारी तकलीफों को हमने खुद रचा है। सबसे बड़ी वजह है हमारी अपनी नज़र...अपना नज़रिया। दूसरे के लिए कोई नहीं ? अगले की बात, दूसरों का नज़रिया हमारे लिए किसी महत्त्व का नहीं ? दूसरों की भावनाओं, दुःख-तकलीफों के लिए कोई संवेदना नहीं ?
अपने आस-पास होनेवाले, (रोजमर्रा के काम-काजों में हम इतना व्यस्त हो जाते हैं) बदलावों-तनावों को हम अनदेखा कर जाते हैं; काबिले-गौर नहीं समझते। नतीजतन धीरे-धीरे स्थिति विस्फोटक हो जाती है और हमारी परेशानियाँ सहनशक्ति के बाहर हो जाती हैं।
नज़र-नज़र-नज़रिया में इन्हीं हालातों का जायज़ा पेश करेंगे श्री जसबीर चावला। अपने दिल में ढूँढ़कर जब अपने दोषों पर नज़र डालते हैं और अपने साथ वालों का ध्यान रखते हैं तो जो तस्वीर उभरती है, छीछालेदर से परे, वह कुछ और होती है। यह एक कोशिश है अपने परिवेश को समझने की ताकि अपने नजरिये में संशोधन कर बेवजह तकलीफों से निजात पा सकें। आइए, नज़र डालते हैं।

पोस्टर की नज़र

कोई कहे कि केवल बच्चे ही टी.वी. देखकर प्रभावित होते हैं, तो यह गलत है। बड़ों की, यहाँ तक कि बूढ़ों की भी सोचनी और करनी पर टी.वी. के अनेकानेक चैनलों से दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों/सीरियलों का असर पड़ता है। वैसे लोग जो वयस्क सोच-सम्पन्न हैं, जो ज्यादातर अपने अनुभवों में पक चुके हैं और जल्दी किसी बहकावे में नहीं आते, वे भी मनोरंजन के इस डिब्बे की रंगीन अदाओं में जादू-ग्रस्त हो जाते हैं। बच्चों पर असर की गई घटनाएँ अखबारों में छपती रहती हैं। अभी पिछले दिनों मसलन दो बच्चों ने आग लगा दी, खुद को टी.वी. पर दिखाए जाने वाले शक्तिमान धारावाहिक से उपजे विचार में रखकर कि उनकी रक्षा के लिए नायक शक्तिमान आएगा। किसी बच्चे ने जय हनुमान के चरित्र से सीख लेकर छत से छलाँग आजमाई कि वह भी उड़ सकेगा। परन्तु, हकीकत और कहानी का अन्तर नन्हें दिमाग समझ नहीं पाते। उम्र में जो शारीरिक रूप से प्रौढ़ हो चुके हैं परन्तु मानसिक रूप से बाल-तुल्य ही हैं, उन पर टी.वी. कितना घातक हो सकता है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। विभिन्न हिंसात्मक और लूटपाट, सनसनी पैदा करने वाले कारनामों का प्रेरणा से ज्यादा घिनौना है, ब्लू-फिल्मों का संसार। सामूहिक बलात्कार तथा अबोध बालिकाओं से जबरदस्ती की घटनाओं में जिस तरह इज़ाफा हुआ है, वह चौंका देने वाला है और सामाजिक कुरीतियों से अधिक मनुष्य के सिरफिरेपन, यौन ग्रन्थियों की तरफ इशारा करता है। अमानुषिक व्यवहारों को बढ़ावा इन भद्दी अश्लील तस्वीरों से मिलता है। आज अगर हिन्दी फिल्मों को ही लें जिनके संगीत और गाने ‘चित्रहार’ जैसी टी.वी. कार्यक्रमों के माध्यम से घर-घर में परोसे जाते हैं तो कहना अनुचित न होगा कि कामुकता, कामोत्तेजना और अति-कामुकता का ही उनका उद्देश्य है। छोटी उम्र के दर्शक उन गीतों नृत्यों से सिवा यौन-चेष्टाओं के और क्या सीख सकते हैं ? न सिर्फ दृश्य भाव-भंगिमाएं बल्कि शब्द भी इस तरह के संगीत में ढाले जाते हैं ताकि अधिक-से अधिक उत्तेजना उत्पन्न की जा सके। कारण बड़ी सादगी से बताया जाता है-पब्लिक डिमांड...जनता यही पसन्द करती है। वह कौन-सी जनता है-बम्बइया फिल्म प्रोड्यूसरों की भाड़े पर इकट्ठी की गई एक्स्ट्रा-समूहों की जनता अथवा सादगी-पसन्द चरित्र की उज्ज्वलता को पूजने वाली धार्मिक जनता ? चलो अगर मान भी लें, इस तरह खूब मुनाफा कमाया जा सकता तो समाज में बढ़ रही अपराध-वृत्तियों और उनकी वजह से हो रही बेकसूर मौतों और अन्याय की शिकार मासूम जिन्दगानियों का मुआवजा वे देंगे ? फैलने वाली बदअमनी और मूल्यों के टूटने से पैदा होने वाली बेचैनी की भरपाई करेंगे वे-सिर्फ लाभ कमाने के लालची ? क्या किसी व्यापार की समाज और देश के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं ? सिर्फ पैसा बटोरना ही सफलता का अन्तिम लक्ष्य है ? अगर नहीं तो फिर यह मानने में आनाकानी क्यों कि भद्दे और अश्लील प्रदर्शन चाहे जिस माध्यम से हों-फिल्म, टी.वी. सीरियल, साहित्य पोस्टर आदि-सब बन्द किए जाने चाहिए। थिएटरों, सिनेमा-गृहों, वीडियो पार्लरों और अंग्रेजी फिल्मों के नाम पर दिखाई जाने वाली पोर्नो प्रदर्शनियों से स्कूली, कॉलेजों के छात्र/छात्राओं को बचाने का और रास्ता क्या है ? ‘सब खुला कर दो अपने आप विरक्त हो जाएगी।’ वाली दलील वहीं तक ठीक है जहाँ दर्शकों की गिनती तय हो, और बढ़े नहीं, जहाँ समाज में सम्पन्नता से अधिक प्रचुरता हो।

हमारा समाज वैसा नहीं है। जनसंख्या नित-नई बदलने वाली है। हर साल लाखों बच्चे वयः सन्धि के रेखाएँ छूते हैं, हर साल टीनेजर बढ़ते हैं अर्थात् अश्लीलता के प्रति प्रथम आकर्षित होने वाले दिमाग लाखों में नए हैं। और हमारी अर्थव्यवस्था प्रचुरता की नहीं, एक-दूसरे पर टिकी कमी-पूरकता की है। इसलिए अर्थ पर आधारित शोषण की बहुलता है। अगर हमारी संस्कृति से धर्म-कर्म-मोक्ष का दर्शन पंगु बना दिया जाए तथा पुनर्जन्म-सह कर्मफल के सिद्धान्तों का दिवाला निकाल दिया जाए तो देखते-देखते पूरा भारतवर्ष एड्स का निवाला बन जाए। सब कुछ घोर वैज्ञानिक ही मान्य हो ऐसा नहीं सोचना चाहिए। समाज-वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी स्वीकार्य है। यदि उनसे एक स्वस्थ और सुदृढ़ पीढ़ी बनती हो। एक पुनीत उद्देश्य को रखकर अगर दस बारह वर्ष किसी बच्चे की आरम्भिक विकासमान जिन्दगी सेक्स-रहित हो, वर्जनापूर्ण हो तो किसी को एतराज नहीं होगा। स्वस्थ नागरिक बनाने का दायित्व सिर्फ माँ-बाप, सरकार तथा स्कूल/कॉलेज का ही नहीं, समाज की अन्य संस्थाएँ, सह-संस्थाएँ भी उतनी ही जिम्मेवार हैं। प्रवीण छात्र, खिलाड़ी, कर्मी पूरे देश का गर्व होते हैं, उनका लाभ पूरी प्रणाली को मिलता है फिर क्यों न ऐसी कोशिशें हों ताकि आ रही जनसंख्या सच्चरित्र, रोग-मुक्त तथा स्वस्थ मानसिकता से लैस हो ? ऐसे तमाम उत्प्रेरक जो उन पर कुप्रभाव डालें, जो उनके चिन्तन और कर्मों को प्रदूषित करें हटा देने चाहिए। भोंडी—अश्लील फिल्में, पत्रिकाएँ, किताबें तो तुरन्त बन्द होने ही चाहिए। सड़कों, गलियों चौराहों पर नग्न अर्द्धनग्न कोमोत्तेजक पोस्टरों, तस्वीरों का प्रदर्शन किसके लिए है ? स्कूल जाते बच्चे-बच्चियाँ इन सबसे क्या सन्देश ग्रहण करें ? एक सौम्य सभ्य समाज को इसकी क्या आवश्यकता है ? गंदे पोस्टरों पर नज़र पड़ते ही उन्हें फाड़ देना उचित नहीं ? बस-स्टैंडों और बाजारों में कोकशास्त्र और भद्दा कामुक साहित्य नज़र पड़ते ही जलाना उचित नहीं ? कानून बनते-बनते, प्रशासन के चुस्त-दुरुस्त होते बहुत समय निकल गया। बीमारी और बढ़ी। छूत रोग बन गई। स्वदेशी चलाने के लिए विदेशी का बहिष्कार किया गया था। विदेशी कपड़े जलाए गए थे, सांकेतिक विरोध के तहत। आज जनता को देशी-विदेशी गन्दे साहित्य और सांस्कृतिक प्रदूषण का बहिष्कार करना है।

रिक्शे की नज़र

‘एक सवारी...एक सवारी’, अगर रिक्शेवाला आवाज़ लगाए तो इसका मतलब है आप बस स्टैंड आधे किराए में पहुँच जाएँगे। अगर आप रिक्शे पर और किसी के साथ बैठना पसन्द नहीं करते, तो इन्तजार करें। कोई खाली रिक्शा अजीज भवन के पास रुकेगा तो आप पूछ लेना। अक्सर शहर में रिक्शा-भाड़ा तय (फिक्स) नहीं होता। ले जाने वाले चालक और बैठने वाली सवारी के बीच बातचीत द्वारा जो करार होता है वह कई दफे बहस का कारण बन जाता है। आदमी शहर में अजनबी हो, रास्तों से नावाकिफ हो तो रिक्शेवाले को पूरा मौका मिल जाता है। और क्यों न कमाए वह ? बिहार-उत्तरप्रदेश के दूरदराज इलाकों से परदेशी यहाँ कुछ खा-पीकर बचाने को ही तो, घर-परिवार से अलग जी, कष्ट कर रहा है। चोरी-डकैती तो नहीं कर रहा। अपनी मेहनत से आपको खींच रहा है जानवर की तरह। उसका तर्क यह है कि जब हर आदमी मौके का फायदा उठाता है तो वह सवारी की मजबूरी से क्यों न कुछ अतिरिक्त कमाई करे ? तेज धूप और गर्मी से बचने के लिए आदमी बिना वजह इन्तजार नहीं करना चाहता, इसलिए रिक्शा वाला जो माँगे, दे देता है। यही हाल तेज सर्दी, बारिश में भी होता है। अथवा जहाँ एक अनार सौ बीमार वाली हालत हो, वहाँ जो ज्यादा दे रिक्शावाला उसी को ढोना स्वीकार करता है। इन्सान जब जल्दीबाजी में हो, मसलन बस/ट्रेन का टाईम निकला जा रहा हो तो एक बड़ा नुकसान बचाने के लिए छोटे नुकसान को सहन कर लेता है। कोई सवारी गाड़ी प्लेटफार्म पर लगी हो और हुजूम शहर चलने को उतावला हो तो हर रिक्शेवाला तुरन्त पहली सवारी पकड़ लेना चाहता है; इधर सवारी भी अपने बोरिया-बिस्तर के साथ झटपट रिक्शे पर लद जाना चाहती है। ऐसे में दो कम क्या और दो ज्यादा क्या, भाड़ा पट जाता है।

और देखा गया है कि भीड़ छँट जाने के बाद वही रिक्शा जो स्टेशन से बस स्टैण्ड का बीस रुपया माँग रहा था, अब दस पर तैयार हो जाता है। पहले उसकी नज़र आप के सामान पर होती है (जितना ज्यादा वजन उतना ज्यादा किराया), वही अब कहता कि साहब आपके अटैची-बैग के लिए हम अलग-से थोड़ा माँगते हैं अगर आप खाली हाथ हैं तो उसकी क्या गलती ? भाड़ा तो वही लगेगा। अगर आप यह तर्क दें कि हम अकेले हैं भाई ! दो को खींचने से तो निश्चित कम मेहनत लगेगी। पर नहीं ये उसके तर्क हैं अगर सवारी उनका सहारा लेकर किराया कम कराना चाहे तो यह टेढ़ी खीर है। मसलन, चढ़ाई के लिए उसके पास तर्क है-‘‘साहब चढ़ाई पर खींचना है दम निकल जाता है। जायज पैसे माँग रहे हैं।’ वही उतराई के लिए अगर आप कहिए-‘‘अरे भई, पूरी ढलान है। बस पैडल पर पाँव रखना है और रिक्शा लुढ़कता चलेगा, खींचने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।’’ तो यह तर्क व्यर्थ है। इस बिनाह पर आप भाड़े पर कोई कटौती नहीं करवा सकते। बशर्ते, रिक्शावाला जरूर ज्यादा चढ़ाई पर आपको पैदल चलवा देगा जैसा अमृतसर में फ्लाई ओवर पर होता है और उस पार पैसे भी पूरे वसूल लेगा। इसलिए रिक्शा के किराए, कोई बाँधना चाहे तो पूरे शोध का काम है। जिसमें सवारी का मूड और रिक्शेवाले की चारित्रिक विशेषताएँ दोनों मायने रखती हैं। अगर रिक्शेवाला हमदर्दी और सलीके से पेश आता है तो यात्री खुद-ब-खुद अधिक भुगतान कर देता है-बख्शीश की तरह। जैसे पत्नी उस दिन जालंधर का अनुभव बताने लगीं कि बेचारे ने बस स्टैंड पर पहले अन्दर से समान उतरवाया, सँभालकर बच्चे को गड्डा पार करवाया और घर के अन्दर तक ट्रंक पहुँचा गया तो मैंने उसे पाँच रुपए फालतू (एक्सट्रा) दे दिए। इसी तरह बुजुर्ग सवारी के साथ पूरे आदर और श्रद्धा के साथ पेश आने वाला चालक ज्यादा कमा लेता है। लेकिन ‘‘सभी के साथ एक जैसा व्यवहार और एक जैसा किराया’’ वाला आदर्श न कोई रख पाया है, न सम्भव है। क्योंकि रिक्शेवाला कोई गुलाम नहीं है, वह स्वयं को एक उद्योगपति मानता है-स्वतन्त्र; अपनी मर्जी का मालिक। फर्ज कीजिए किसी पेड़ की छाँव में वह दोपहर की नींद का जायका ले रहा है तो कोई शक्ति नहीं उसे टस से मस कर ले। आपको जोर-जबरदस्ती करने का न कोई हक है, न कोई बर्दाश्त करेगा। उससे ऊँचा बोलकर कोई अपना रुतबा ही बेकार करेगा। मुँहफट रिक्शेवाला तू-तू मैं-मैं की स्थिति में अक्सर तानाशाह बन जाता है। इसलिए कई बार सवारी अपनी इज्जत बचाने के चलते मुँहमाँगा मेहनताना देने को मजबूर हो जाती है। ज्यादातर रिक्शेवालों ने घड़ी नहीं बाँधी होती पर वे समय का हिसाब करने में सबसे आगे रहते हैं। मलसन, अगर सवारी रास्ते में रुककर कुछ खरीदने लगती है अथवा किसी से बात करने लगती है तो समय की रफ्तार कई गुना बढ़ जाती है। इससे किराया अधिक वसूलने के लिए एक आधार मिल जाता है। यदि पहले से ही बातचीत कर यह तन न किया हो कि यात्री कितनी देर करेगा जब रिक्शेवाले को इन्तज़ार करते बैठे रहने होगा, तो नब्बे फीसदी आशंका रहती है कि रिक्शा छोड़ते समय भाड़े के मुद्दे पर दोनों पक्षों में तकरार होगा-ही-होगा। यह बात अलग है, पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। कभी सवारी झुक जाती है कभी गरीब रिक्शेवाला। परन्तु ऐसा कोई कानून जैसा कि प्लेटफार्म पर भारकों (कुलियों) के लिए बना है, वैसा रिक्शेवालों के लिए नहीं बना। न तो कोई दूरी और रेट का सम्बन्ध ही बन पाया है। अगर रिक्शा खाली जा रहा है अथवा सवारी छोड़कर कहीं से खाली आ रहा है तो उसकी अलग माँग होती है और अगर कहीं ऐसी जगह सवारी को जाना है जहाँ से वापसी के लिए सवारी जल्दी या ज्यादा नहीं मिलती तो रिक्शेवाले की माँग अलग होती है। अगर रिक्शा-चालक बूढ़ा है तो उसकी माँग अलग होती है और यदि अपेक्षाकृत बच्चा है तो सवारी की रहमदिली अलग होती है। अगल रिक्शेवाला नया अनजान है तो सवारी ठग लेती है और सवारी दूसरे शहर की है तो रिक्शेवाला चरा लेता है। गरज कि जितनी बातें उतनी अलग। माँग और आपूर्ति के सिद्घान्त कह लें या मेहनत और समय के ऐकिक नियम कह लें, कोई भी इस रिक्शे-भाड़े की गुत्थी को पूरी तरह सुलझा नहीं सकते। पाप-पुण्य, कर्म-फल, भावुकता, मार्क्सवाद आदि-आदि कई दर्शनों का सामंजस्य इस धन्धे में देखने को मिलता है, जो विज्ञान-सम्मत रिक्शा-खिंचाई का मेहनताना तय करने की प्रणाली को निरस्त कर देता है। वस्तुस्थिति यह है कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर लगभग पूरे हिन्दुस्तान में रिक्शा-चालकों की मजदूरी और सुविधाओं पर कोई जिम्मेदाराना पहल नहीं हुई है। यूनियनें बनती हैं और अड्डा-फीसों या चंदा जमा करने के अलावा कोई ठोस रचनात्मक काम न कर पाने की वजह से बिखर जाती हैं। रिक्शा-चालकों को ट्रैफिक नियमों का प्रशिक्षण, साक्षरता, स्वास्थ्य, सफाई इत्यादि कई साधारण दायित्वों का ज्ञान कराने के साथ-साथ उन्हें लाइसेंस, जीवन-बीमा, चिकित्सा इत्यादि की सहूलियतें देने को न तो सरकार न कोई स्वयं-सेवी संस्था ही सामने आती है।

 रिक्शा-चालक बदलते रहते हैं। मालिक रिक्शा चालकों की संख्या पर विश्वस्त आँकड़ा नहीं मिलता। जबकि यह ध्रुव-सत्य है कि आने वाली सहस्राब्दि तक ऐसा कोई सरंजाम नहीं होगा जो हिन्दुस्तान से रिक्शा गाड़ियों का प्रचलन खत्म कर सके। प्रदूषण-रहित यह एक ऐसा वाहन है जो भारतवर्ष की गलियों-कूचों में बड़ी सुविधाजनक तरीके से इस्तेमाल किया जाता रहेगा। महानगरों, शहरों, कस्बों, और यहाँ तक कि दूर-दराज गाँवों में भी जहाँ पक्की सड़कों का अभाव है रिक्शा आराम की सवारी है। अपने देश की विशाल जनसंख्या का अन्दाज़ लगाते हुए अपढ़/ अर्धशिक्षित बेरोजगारों के लिए रिक्शा चलाना सर्वाधिक सुलभ रोज़गार है। जरूरत है इसे सिर्फ एक सम्मानयुक्त रोज़गार का दर्जा देने की/क्योंकि कम से कम पूँजी लगाकर, इस धन्धे में इतनी क्षमता है कि आदमी अपने परिवार का पेट पाल सके। रिक्शा-चालक को देखकर यह अहसास पैदा करना ‘‘WHAT MAN HAS MADE OF MAN’’ कि आदमी जानवर से बदतर जी रहा है; कि आदमी का शोषण हो रहा है; यदि अतिभावुक कथनी नहीं तो अर्ध-सत्य जरूर है। प्रदूषण की समस्या जिस तेजी से विकराल होती जा रही है; पेट्रोल के आयात पर जिस दर से विदेशी मुद्रा का अपव्यय हो रहा है; विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जिस कदर नई कारों/गाड़ियों की होड़ में जुटी हैं; उतनी ही शिद्दत से साइकिल और रिक्शा की आवश्यकता बढ़ती जाएगी। वह दिन दूर नहीं जब नियम होगा कि डीजल पेट्रोल के वाहन शहर के बाहर खड़े हों और शहर का सम्पूर्ण यातायात रिक्शा-टमटमों पर सम्पन्न होगा। तब एक सवारी ले जाता हुआ रिक्शा (रेयर साईट होगा) कहीं नहीं दिखेगा।

चने की नज़र

गेहूँ नहीं, चना हिन्दुस्तान का मुख्य खाद्य है।
रात को भिंगाया चना सुबह खाइए कहते हैं कई घोड़ों की शक्ति मिल जाती है। अंकुरित चने खाने की तो डॉक्टर सलाह देते हैं। पहलवान कसरत के बाद फुलाये हुए चनों की खुराक लेते हैं।
यहाँ बात सफेद या काबुली चनों की नहीं हो रही। गुलाबी या देसी चने जो हिन्दुस्तान के खेतों में गेहूँ कटने के बाद बो दिए जाते हैं, जो हरे होते हैं-विटामिन ‘ए’ से भरपूर रहते हैं। उन हरे चनों की क्या बढ़िया सब्जी बनती है और उसके पौधे जिन्हें ‘बुचड़ियाँ’ कहते हैं, साग की तरह खाए जाते हैं। हाँ, शहरी लोगों के पास इतना वक्त नहीं है कि एक-एक दाना निकाल इकट्ठा करें-दो किलो बुचड़ियों से जो पाव-भर निकले। इसलिए आजकल महँगे सही, निकले हुए दाने मिल जाते हैं। और कच्चे हरे चने बेशक आप थोड़ा नमक मसाला नींबू मिला वैसे ही खा लीजिए जैसा कि ट्रेनों में बेचते मिल जाते हैं, महीन प्याज के टुकड़ों के साथ कच्चा चटपटे खाने को। उसी की सब्जी बनाते कई गृहणियाँ सूप निकाल लेती हैं। अगर हरे चने पौधों पर थोड़ा पक जाएँ तो आग से भूनकर बड़े स्वादिष्ट बन जाते हैं। देहातों में उन्हें अलग नाम देकर बड़े चाव से लोग खाते हैं।
जो चने हरे नहीं सूखकर भूरे से हो गए हैं उन्हें किसी गहरे बर्तन में चार-पाँच घण्टे डुबो तो दीजिए फिर देखिए कैसी रंगत खिलती है गुलाबों-सी। मिट्टी के बर्तन मिगाये दानों की खुशबू से तो बन्दर तक खिंचे चले आते हैं ! बल्कि बन्दरों को फँसाया ही इसी तरीके जाता है। सुबह का नाश्ता तो चनों में प्याज और टमाटर काट बड़ा सलीके का बन सकता है। ये अंग्रेजी टोस्ट-आमलेट से कहीं बेहतर। वैसे भी भिंगाए चने किसी वक्त खाए जा सकते हैं। यहाँ तक कि मैंने महान् कवियों बुद्धिजीवियों को एकाध पैग के साथ भी इस्तेमाल करते पाया है। कारण इसका कोई साइड-एफेक्ट नहीं है ! बल्कि घुग्नी बनाई ही इसलिए जाती है। चनों को फ्राई कर उनमें मिर्च-मसाला डालकर गाँवों में ताड़ी के साथ लोग खाना पसन्द करते हैं। वैसे भी थके-प्यासे इन्सान के लिए कम खर्च में इससे बढ़िया कलेवा दूसरा नहीं हो सकता। गुलाबी चनों की रसदार सब्जी, ऐसे मौसम जब हरी सब्जियों की किल्लत हो, बड़ा अच्छा विकल्प है। उसकी तरी अगर गाढ़ी करनी हो तो उबले चनों को कूटकर शोरवे में ही मिला दीजिए, सूरत और शीरत दोनों में इजाफ़ा हो जाता है।

बचपन में सुना चनागान कई दफे याद आता है-
‘‘चना जोर गरम प्यारे
मलाई मजेदार है...चना जोर गरम !’’
और भाई बेचता क्या था ? उबाले चनों को दबाने से फैलकर आकार में बड़े हुए दाने, ऊपर नमक-मिर्च हल्दी लगी हुई और सुखाकर कुरकुरे बनाए हुए। चनाचूर जो नाम मशहूर हुआ है उसमें ज्यादातर चने की दाल मिलती है सेव-मूँगफली आदि मिलाकर। पर अकेले चना ही कई दालों को मात कर देता है।
बालू में भूनकर गुलाबी सुखाए चने बड़े कुरकुरे हो जाते हैं। गाँव, कस्बा, शहर हर जगह इन भुने दानों की बड़ी माँग है। कारण न इसमें कोई मिलावट, न धोखा। जैसे ये ऊपर से साफ वैसे ही भीतर से। बस-अड्डा हो, रेलवे स्टेशन हो, सिनेमा-हॉल हो, सर्कस हो...हर भीड़ के लिए ये माफिक है। न मूँगफली के छिलकों जैसी गन्दगी, न रस चूकर हाथों के गन्दे होने की परेशानी। दाना उठाया सीधा मुँह में-स्वाद का स्वाद, भूख की तृप्ति, टाइमपास, दाँतों की कसरत और सबसे खास बात सस्ते के सस्ते और अपच, गैस, भुस्से डकार वगैरह का कोई झमेला नहीं। यात्रा पर निकले हो, अनजान डगर पता नहीं कुछ मिलेगा कि नहीं, साथ रखिए थोड़ा चबेना, सारी समस्याएँ शान्त। और अब तो डॉक्टर कहते हैं इससे डाइबिटीज (मधुमेह) का प्रकोप भी ठंडा और दिल को अलग से आराम, खून को कोलेस्टोरल से राहत।
यानि तीर एक, निशाने कई। तभी घर के बड़े बूढ़े जब बताते हैं कि अस्सी-पार उम्र में भी अद्धा-अद्धा किलो चने चबा जाते थे तो उन मजबूत दाँतों के पीछे बचपन से खाए चनों का योगदान समझ में आता है।
चलो ऐसे ना सही भूने गुलाबी चनों का सत्तू ही बना देखें। इतना अच्छा रेडी फूड तो दूसरा हो ही नहीं सकता। थोड़ा पानी मिलाया, नमक हो तो ठीक, चीनी हो तो ठीक, साना और भोजन तैयार। न तेल-घी की चिपचिपाहट, न भूनने-गर्म करने उबालने का झंझट। न किसी मिलावट-जूठन का खतरा। जो ज्यादा तेज पसन्द करते हैं वे साथ में एक दो हरी मिर्चे ले लेते हैं। एक लोटा पानी और दिव्य आनन्द। बिहार हो बंगाल हो, धनी हो कंगाल हो सत्तू हर आदमी का सुख है। सत्तू का शरबत गर्मियों के मुँह पर सीधा तमाचे का काम करता है। पेट और दिल की जलन सत्तू के सत-समक्ष नत-मस्तक हो जाती है। लू चल रही हो तो सत्तू के साथ एक लाल प्याज तेज लू के रेगिस्तानी झोंके हों तो सफेद प्याज, यही राज है-ऐसे मौसम में भी जुटे मजूरों की सेहत का ! सत्तू की लिट्टी शाम को खाएँ या दोपहर में एक-सी लज्जतदार होती है। जितने प्यार से बनाई जाती है लिट्टी उपलों की धीमी-धीमी आँच में उतनी ही जायकेदार बन जाती है पुदीने की चटनी के साथ। सत्तू के पराँठे भी उससे कहीं कम नहीं होते। सत्तू भरकर पूड़ियों का प्रयोग भी किया जा सकता है, पर वह सत्तू भी क्या जो खाए जाने के बाद पानी की माँग न करे ?

ऐसा चने का बेसन नहीं करता हालाँकि वह चने को बहुत बारीक आटे-सरीखा पीसकर बनता है। और बेसन की चर्चा तो ‘हरि अनन्त हरि-कथा अनन्ता’ की तरह कहीं खत्म की ही नहीं जा सकती। इसके तो जितने मेहमान उतने पकवान। भारतवर्ष की महान् भूमि पर बेसन का साम्राज्य कश्मीर से कन्याकुमारी और इधर पाकिस्तान से बांग्लादेश तक सर्वत्र है। यह जिस तरह आलू, प्याज, बैंगन, गोभी, पालक, मिर्च इत्यादि सब्जियों को पकौंड़ों में जोड़ देता है उसी प्रकार हिन्दुस्तान के निवासियों को आपसी प्रेम में इमरती-जलेबी सरीखा ओत-प्रोत कर देता है। गुजरात में चले जाएँ तो बेसन का पापड़ा आम आदमी का नाश्ता है, साथ में भुनी हुई हरी मिर्च और पपीते की सूखी सब्जी। धोकला या ढोकला शुद्ध बेसन की ही सौगात है जो स्पंजी और नमकीन स्वाद में बेहतरीन होती है। हैरानी तो तब होती है जब बेसन का इस्तेमाल चटनी बनाने में भी होता है। यानि बेसन का पापड़ा बेसन की चटनी के साथ बड़े आराम से खाया जाता है। हिन्दुस्तान का कौन-सा प्रान्त होगा जहाँ बेसन किसी-न-किसी रूप में बरता न जाए ? पकौड़े, पकौड़ी, आलूचाप, बैंगनी बटाटा, बोंडा कई नाम हैं। सैंकड़ों नमकीन चीजें बेसन में लपेटकर बन जाती है। सेऊ, सेब, गठिया भुजिया न जाने कितनी मोटाइयों में बेसन जालीनुमा बर्तन से रगड़ कर खौलते तेल या घी छाना जाता है। बेसन में चीनी, गुड़, नमक, अजवायन, मसाला क्या-क्या मिलाकर अलग-अलग स्वाद मिल सकते हैं।
अगर गोल-गोल बूँदी बना ली जाए तो रायता लाजवाब, चासनी में डुबो दी जाए तो मीठी बुँदिया परब-त्योहार-पूजा में कामयाब ! बेसन के लड्डू अलग जायका तो देते ही हैं पर मोती चूर के लड्डूओं का क्या कहना ! मिठाइयों में बेसन का क्या कमाल है। याद करें पतीसा, जिसको बनाने का ख हुनर शहर जालंधर को है। देशी घी में बना पतीसा खास !
बेसन के सैंकड़ों रंग देखकर आदमी भूल ही जाता है कि बेसन के पीछे शक्ति चने की ही है। अतः बेसन से सेहत के लिए फायदों की माँग स्वाभाविक ही है। बेसन में ऐसी शक्ति है कि वह शरीर से फालतू पानी खींच ले। तभी तो जुकाम होने, नाक बहने पर कहते हैं, बेसन का गरम-गरम सीरा पी लो। आजमायी हुई बात है सरसों साग बनाते समय पानी सुखाने के लिए थोड़ा बेसन की सब्जी तैयार की जाती है। दही हो तो चलो भाई झंझट खत्म बेसन मिलाया और बढ़ी बना ली। वैसे भी आदमी चाहे तो बेसन की पिण्डी उबालकर उसका धोका बना सकता है। आलू के साथ लजीज सब्जी बनती है। और तो और अरबी के पत्तों की तरकारी बिना बेसन कोई सोच भी सकता है ? फिर बेसन चाहे ब्रेड-पकौड़े को लपेट या मछली को लपेटे, स्वाद में चार चाँद लगा देता है।
चने की महिमा बेसन में समाप्त नहीं हो जाती। चना अपने आप में एक महानता है वरना लौकी जैसी तरकारी के साथ उसका क्या मेल ? पर नहीं, जो उसकी सोहबत में आया उसे खास बल मिला है। यह अलग बात है कि कहावत बाज लोगों ने उसे बदमान करने की कोशिश की है ‘थोथा चना बाजे घना’ कहकर। उसके अकेले पन पर लांछन लगाए हैं-‘अकेला चना भाँड़ नहीं फोड़ सकता।’ उसके मुकाबले में गेहूँ तक की झूठी दाद देकर उसे नीचा दिखाने की कोशिश की है। समाजशास्त्रियों ने यहाँ तक कह दिया कि गेहूँ ही भारतीयों का स्टेपल फूड है। पर असलियत क्या है ? इतना पढ़ने के बाद और विचार करने की जरूरत नहीं बचती। चना थोथा ही नहीं बजता चनों में वह जान है कि दुंदुभि सारे विश्व में बज उठे-चना बाजे घना !

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