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धर्म विजय - भाग 2

ओम् शिवराज

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :344
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4950
आईएसबीएन :81-7043-426-2

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धर्म भारत का एक ऐसा शब्द है जिसका पर्यायवाची शब्द संसार की किसी भाषा में नहीं है। उसी धर्म की विजय की यह कहानी है। यह महाभारत की आद्यन्त कहानी है।

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Dharm Vijay - Part 2 - A hindi book by Om Shivraj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह महाभारत की आद्यन्त कहानी है। महाभारत-कथा को आधार बनाकर हिन्दी में तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनेक ग्रन्थ लिखे गये हैं, परन्तु यह ‘धर्मविजय’ उन सबसे भिन्न है और इस भिन्नता का आधार है धर्म। धर्म भारत का एक ऐसा शब्द है जिसका पर्यायवाची शब्द संसार की किसी भाषा में कोई नहीं है। धर्म भारत की एक ऐसी विशेषता है जो संसार में अन्य किसी देश के पास नहीं है। उसी धर्म की विजय की यह कहानी है। श्रीकृष्ण दै्वपायन व्यास ने महाभारत को ‘जय’ नाम से अभिहित किया है। यह जय किसकी है-यह भी बता दिया है-यतो धर्मस्ततो जयः-जिधर धर्म है उधर जय है। धर्मराज युधिष्ठिर की धर्मपरायणता, परन्तप अर्जुन की गुरुभक्ति, भगवान् श्रीकृष्ण की निश्छल राजनीति तथा पतिव्रता द्रौपदी एवं राजमाता कुन्ती की परिवार-निष्ठा आदि का यथार्थ स्वरूप पाठक इसमें देखेंगे। विश्वास है कि मुग्धकर भाषा-शैली, रोचक संवाद एवं मनोरम कल्पनाओं से अलंकृत यह उपन्यास पाठकों का स्नेह प्राप्त करने में सफल होगा।

81

द्वैवतन में जो कुछ सामग्री उपलब्ध थी-उसी से युधिष्ठिर एक दिवसीय साद्यस्क नामक राजर्षियज्ञ कर रहे थे।
युधिष्ठिर के दक्षिण पार्श्व में द्रौपदी बैठी हुई थी।
उनके भाई तथा अन्य ब्राह्मण भी वहाँ थे।
उसी समय दो वनेचर व्यक्ति कुछ सैनिकों के साथ वहाँ उपस्थित हुए।
युधिष्ठिर सैनिकों को देखकर अपने भाइयों से बोले-ये तो हस्तिनापुर के सैनिक हैं। ये यहाँ क्यों आए हैं ?
इतने में ही एक सैनिक आगे बढ़कर युधिष्ठिर के चरणों में लेटकर बोला-त्राहि महाराज ! रक्षा कीजिए प्रभो !
युधिष्ठिर ने सैनिक से पूछा-क्या संकट आया है सैनिक ?
सैनिक बोला-हस्तिनापुर के युवराज और आपके अनुज दुर्योधन को गन्धर्व-सैनिक बन्दी बनाकर अपने साथ ले जा रहे हैं। युवराज के साथ ही उन्होंने दुःशासन, विविंशति, चित्रसेन, विन्द, अनुविन्द आदि राजकुमारों को तथा राजकुल की समस्त महिलाओं को भी अपने अधिकार में ले लिया है। उन सबको गन्धर्व-सैनिकों के बन्धन से मुक्ति दिलाइए महाराज !
सैनिक का कथन सुनकर भीमसेन ठहाका लगाकर बोले- सैनिक ! हस्तिनापुर के कपटकुशल युवराज को गन्धर्व बन्दी बनाकर ले जा रहे हैं तो वनवासी क्या कर सकते हैं ? युवराज के साथ हस्तिनापुर की विशाल सेना है। हम तो यहाँ मात्र पाँच भाई हैं।
सैनिक हाथ जोड़कर बोला-आप समर्थ हैं आर्य ! हमको विश्वास है कि आप युवराज को अवश्य मुक्त करा सकते हैं।
भीम क्रोध से बोले-सैनिक ! हम चाहें तो तुम्हारे युवराज को अवश्य मुक्त करा सकते हैं। किन्तु हम यह क्यों चाहने लगे ? उस नराधम ने हमारे साथ दुर्व्यवहार करने में क्या कमी छोड़ी थी ? छल से द्यूतक्रीड़ा में इन्द्रप्रस्थ-नरेश को जीतकर इन्द्रप्रस्थ की सम्राज्ञी कृष्णा को राजसभा में गण्यमान्य सभासदों के मध्य केश पकड़कर बुलवाकर कितना अपमानित किया था-यह हम भूले नहीं हैं। सैनिक ! तुम लौट जाओ। गन्धर्व यदि तुम्हारे युवराज के प्राण भी ले लें-तो भी हम उस नीच को बचाने नहीं जाएँगे।
सैनिक ने निराश होकर युधिष्ठिर की ओर देखा।
युधिष्ठिर ने सस्नेह भीम को पुकारा-भैया भीम !
भीम ने हाथ जोड़कर युधिष्ठिर से कहा-भैया ! आप चुप ही रहिए। द्यूत-सभा में आपने एक अक्षर भी नहीं कहा था। इस समय भी कुछ मत कहिए। सैनिक ! लौट जाओ। हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। वे हमको अपना शत्रु मानते हैं, इसलिए वे भी हमारे शत्रु हैं।
युधिष्ठिर भीम से बोले-शान्त हो जाओ भीम !
अर्जुन ने भी भीम से कहा-भैया ! शान्त हो जाओ। बड़े भैया क्या कह रहे हैं-उनका कहना सुन तो लो।
फिर अर्जुन ने सैनिक से पूछा-सैनिक ! युवराज दुर्योधन यहाँ द्वैतवन में क्या करने आए थे ?
सैनिक बोला-युवराज अपने मित्र अंगराज कर्ण के साथ गायों की गिनती करने तथा हिंस्र पशुओं की मृगया करने के लिए आए थे।

भीमसेन ने तत्काल उस सैनिक से पूछा-सैनिक ! युवराज मृगया करने के लिए आए थे तो अन्तःपुर की स्त्रियों को क्यों साथ लाए थे ? तुम झूठ बोलते हो सैनिक ! तुम्हारा युवराज अपने वैभव का प्रदर्शन करके हम लोगों का उपहास करने यहाँ आया था।
अर्जुन ने सैनिक से पूछा-तुम कह रहे थे अंगराज कर्ण भी युवराज के साथ थे। क्या वे भी बन्दी बना लिए गए ?
सैनिक सिर झुकाकर बोला-नहीं ! गन्धर्व सैनिकों से घिर जाने पर अंगराज ने रणभूमि से पलायन करना ही उचित समझा।
भीम ने पुनः अट्टहास कर कहा-महारथी कर्ण ने रणभूमि से पलायन करना ही उचित समझा। नराधमों को अच्छा दण्ड मिला है। गन्धर्वों ने हम पर बड़ा उपकार किया है।
क्रोध से तमतमाते भीम को शान्त करते हुए अर्जुन बोले-भैया ! शान्त हो जाओ।
भीम जब कुछ शान्त हुए तो युधिष्ठिर कहने-लगे-भैया भीम ! अर्जुन ! दुर्योधनादि हमारे भाई अधर्मज्ञ हैं। शक्ति के मद ने उनके धर्मज्ञान को आच्छादित कर रखा है। किन्तु हम तो धर्मज्ञ हैं। मनुष्य को अपनी दृष्टि सदैव धर्म पर रखनी चाहिए। हम कितना ही कहें कि हस्तिनापुर के महाराज धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है-फिर भी उनसे हमारा जो सम्बन्ध है-वह तो सदा रहेगा ही। वह सम्बन्ध कभी टूट नहीं सकता। पूर्वजन्मों के ऋणानुबन्ध से मनुष्य को वर्तमान जीवन में पिता, माता, भ्राता आदि सम्बन्धी प्राप्त होते हैं। इस सत्य को जो जानता है-वह कभी अधर्म के पथ पर नहीं चलेगा। यहाँ आते ही सैनिक ने मुझसे क्या कहा था ? उसने कहा था-आपके अनुज दुर्योधन को गन्धर्वों ने बन्दी बना लिया है। सारा संसार जानता है कि महाराज धृतराष्ट्र-पुत्र कौरव मेरे अनुज हैं। अपने परिवार में हम पाँच पाण्डव और वे सौ कौरव हैं। परन्तु संसार के लिए हम एक सौ पाँच कौरव हैं।
भीम सन्तुष्ट न होते हुए भी युधिष्ठिर से बोले-तो आपका क्या आदेश है ? जाएँ। भीम ! यदि मैं इस यज्ञ में दीक्षित न हुआ होता तो मैं स्वयं ही दुर्योधन को छुड़ाने के लिए दौड़ जाता। तुम लोग शान्तिपूर्वक ढंग से गन्धर्वराज को समझा-बुझाकर दुर्योधनादि को छुड़ाने की चेष्टा करना। आवश्यक पड़े तो कोमलतापूर्ण युद्ध करना।
अर्जुन ने युधिष्ठिर से पूछा-मुझको दुर्योधन से क्या कहना होगा ?
युधिष्ठिर बोले-केवल इतना कहना-अपने अग्रज युधिष्ठिर के आदेश से तुम्हें बन्धन मुक्त करवा रहा हूँ। और कुछ मत कहना।
अर्जुन ने पुनः पूछा-यदि वह यहाँ आपके पास क्षमायाचना करने आए तो ?
युधिष्ठिर तत्काल बोले-अर्जुन ! यदि दुर्योधन यहाँ आकर आर्या द्रौपदी से क्षमायाचना करेगा तो मैं उसके आज तक के सभी अपराध क्षमा कर दूँगा। परन्तु ऐसा नहीं होगा। हस्तिनापुर का वह घोर अभिमानी युवराज क्षमायाचना करने यहाँ तो आएगा ही नहीं-परन्तु मैं समझता हूँ कि गन्धर्वराज के बन्धन से मुक्त कराने वाले सव्यसाची के प्रति भी कृतज्ञता-ज्ञापन नहीं करेगा।

भीम धीरे से बोले-यह जानते हुए भी आप उसको...
भीम को बीच में ही रोककर युधिष्ठिर बोले-हाँ भैया ! फिर भी मैं उसको गन्धर्वों के बन्धन से मुक्त कराऊँगा। यह घटना हस्तिनापुरवासियों से कदापि छिपी नहीं रहेगी। जिन्होंने हमको द्यूतकीड़ा में छल से पराजित कर वन में भेजा है-उन्हीं को हमने दासता के बन्धन से मुक्त कराकर हस्तिनापुर के स्वाभिमान की रक्षा की है-यह विचारकर हस्तिनापुर के निवासी जन निश्चय ही हमारे प्रति कृतज्ञता प्रकट करेंगे। हमारे इस कृत्य से पितामह भीष्म, काकाश्री विदुर, ज्येष्ठ माताश्री गान्धारी और माता कुन्ती-ये सब निश्चय ही प्रसन्नता का अनुभव करेंगे।
भीम ने सिर झुका लिया। उनके अग्रज की दृष्टि कितनी दूर तक जाती है। उनके मन में अर्जुन का कथन गूँज उठा-भैया ! आप तो अपने भाइयों को जानते हैं-किन्तु हम ही अपने अग्रज की ऊँचाई को नहीं देख पाते।
अर्जुन सैनिक से बोले-चलो सैनिक ! युवराज दुर्योधन को गन्धर्वराज के बन्धन से मुक्ति दिला दें।
अर्जुन ने तूणीर पीठ पर लटकाया तथा गाण्डीव कन्धे पर धारण किया।
युधिष्ठिर को प्रणाम कर सैनिक चल दिए। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव उनके साथ जा रहे थे।
युधिष्ठिर यज्ञकार्य सम्पन्न करने में लग गए।
लगभग दो घड़ी बाद।
अर्जुन गन्धर्वराज चित्रसेन के साथ युधिष्ठिर के पास आए।
युधिष्ठिर ने चित्रसेन का यथायोग्य स्वागत-सत्कार किया।
चित्रसेन ने युधिष्ठिर से कहा-राजन् ! देवराज इन्द्र को स्वर्ग में ही दुरात्मा दुर्योधन और पापी कर्म का यह अभिप्राय विदित हो गया था कि ये दोनों आप लोगों को वन में रहकर कष्ट सहते देखकर आपका उपहास करने का निश्चय कर चुके थे। इनकी यह इच्छा जानकर देवेन्द्र ने मुझसे कहा-चित्रसेन ! तुम जाओ और दुर्योधन को उसके भाइयों तथा मन्त्रियों सहित बाँधकर यहाँ ले आओ। क्योंकि कुन्तीनन्दन अर्जुन तुम्हारे प्रिय शखा हैं। देवराज की आज्ञा मानकर मैं शीघ्र ही यहाँ चला आया। दुरात्मा दुर्योधन को मैंने बन्दी बना लिया है। यदि बन्धु अर्जुन नहीं पहुँचते तो मैं इसकी स्त्रियों और भाइयों के साथ इस दुराचारी को भी वहीं ले जाता।
युधिष्ठिर ने गन्धर्वराज की प्रशंसा करते हुए कहा-आप लोग बलवान और सामर्थ्यशाली हैं। आपने मन्त्रियों तथा भाइयों सहित इस दुराचारी का वध नहीं किया-यह बड़े सौभाग्य की बात है। तात ! आकाशचारी गन्धर्वों ने यह मेरा बड़ा उपकार किया है कि इस दुरात्मा का वध नहीं किया है। दुर्योधन है कहाँ ?
चित्रसेन ने कहा-मेरे सैनिक उसको यहीं ला रहे हैं।
थोड़ी देर में ही कुछ गन्धर्व सैनिक दुर्योधन को साथ लेकर वहाँ आ गए। दुर्योधन की दुर्दशा देखकर भीम हँस पड़े।
हस्तिनापुर के द्यूतभवन में छल से युधिष्ठिर को पराजित कर अट्टहास करने वाली तथा पाण्डवों को बार-बार दास और पाण्डव-पटरानी द्रौपदी को दासी कहने वाली जिह्ना अब शान्त थी। बार-बार जंघा पर थाप मारने वाले हाथ पीछे बँधे हुए थे। सिर लज्जा से झुका हुआ था।

अपनी हँसी को अर्जुन ने बड़े प्रयास से रोका और द्रौपदी के पास जाकर वे धीरे से बोले-आर्ये ! बन्धु चित्रसेन को धन्यवाद देना चाहिए। इस अहंकारी को उसने अच्छी शिक्षा दी है।
युधिष्ठिर चित्रसेन से बोले-गन्धर्वराज ! युवराज दुर्योधन हमारा भाई है। इसको बन्धन-मुक्त कर दो।
चित्रसेन के संकेत से एक गन्धर्व ने दुर्योधन के बन्धन खोल दिए।
बन्धन मुक्त हुए दुर्योधन से युधिष्ठिर ने सस्नेह कहा-तात ! फिर कभी ऐसा दुःसाहस न करना। दुःसाहस करने वाले मनुष्य कभी सुखी नहीं होते। भारत ! अब तुम अपने भाइयों एवं स्त्रियों के साथ सकुशल इच्छानुसार भवन को जाओ। वीर ! हम लोगों के प्रति मन में वैमनस्य मत रखना।
युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर को प्रणाम किया और फिर वह धीरे-धीरे वहाँ से चला गया। उसने सिर उठाकर देखा भी नहीं। उसका सिर लज्जा से झुका हुआ था। उसकी इन्द्रियाँ शिथिल हो रही थीं।

82

अपने अपमान का विचार करता हुआ दुर्योधन चला जा रहा था। उस अभिमानी राजकुमार ने इतना अपमान जीवन में नहीं सहा था।
गन्धर्वों के बन्धन से मुक्त होकर कौरव-सैनिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे। सेना के गणनायक सैनिकों को एकत्रित कर रहे थे। दुर्योधन को आता हुआ देखकर उसके भाइयों और मन्त्रियों ने उसको घेर लिया। दुर्योधन की आँखें कर्ण को ढूँढ़ रही थीं। किन्तु कर्ण वहाँ नहीं था। अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ दुर्योधन हस्तिनापुर की ओर चल दिया। चलते-चलते सूर्यास्त हो गया। दुर्योधन ने मार्ग में एक ऐसा स्थान देखा जहाँ जल की सुविधा थी तथा धरती पर घास बिछी हुई थी। दुर्योधन ने सेना को वहीं रुकने का आदेश दिया।
सेवकों ने दुर्योधन के लिए पलंग बिछा दिया। रात्रि के अन्त में चन्द्रमा पर राहु द्वारा ग्रहण लग जाने पर जैसे उसकी शोभा नष्ट हो जाती है-वही दशा इस समय दुर्योधन की हो रही थी। दुःशासन उसके पास खड़ा था। कुछ सेवक भी वहाँ खड़े थे।
उसी समय वहाँ कर्ण आ गया। दुर्योधन को देखकर वह बोला-राजन् ! बड़ा सौभाग्य है कि मैं तुमको यहाँ बैठा हुआ देख रहा हूँ। यह भी भी महान् प्रसन्नता का विषय है कि तुमने कामरूपधारी गन्धर्वों पर विजय प्राप्त की है।
किन्तु दुर्योधन ने कुछ न कहा।
उसने सिर उठाकर कर्ण की ओर देखा भी नहीं।
कर्ण कहने लगा-कुरुनन्दन ! क्या तुम मुझसे रुष्ट हो-जो मुझसे नहीं बोल रहे हो ? गन्धर्वों ने जब आकाश-युद्ध प्रारम्भ कर मेरे सारे शरीर को बाणों के आघात से क्षत-विक्षत कर दिया तब असह्य वेदना के कारण मुझको रणभूमि से पलायन करना पड़ा और मैं भागती हुई सेना को स्थिर न रख सका। भारत ! तुम लोग उस अमानुष युद्ध में विजय प्राप्त कर यहाँ स्त्रियों-वाहनों तथा सेना सहित सकुशल क्षतिरहित दिखाई पड़ रहे हो। तुमने जो पराक्रम किया है-ऐसा पराक्रम करने वाला पुरुष इस संसार में दूसरा कोई नहीं है।
दुर्योधन ने सिर उठाकर कर्ण की ओर देखा।
दुर्योधन की आँखों में आँसू देखकर कर्ण हतप्रद हो गया।
दुर्योधन कर्ण से बोला-राधानन्दन ! तुम्हारा कहना सत्य नहीं है। मैंने अपने शत्रुभूत गन्धर्वों को अपने पराक्रम से नहीं हराया है।
कर्ण ने विस्मय से पूछा-तुमने गन्धर्वों को नहीं हराया ? फिर किसने उन पराक्रमी गन्धर्वों को पराजित किया ?
दुर्योधन ने उत्तर दिया-पाण्डवों ने !
कर्ण ने और अधिक चकित होकर पूछा-पाण्डवों ने हराया गन्धर्वों को ! पाण्डव वहाँ कहाँ से आ गए ? मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। स्पष्ट कहो राजन् !
दुर्योधन ने कर्ण को पलंग पर बैठने का संकेत किया। कर्ण बैठ गया।

दुर्योधन कहने लगा- मेरे साथ रहकर मेरे भाइयों ने बहुत देर तक युद्ध किया। परन्तु जब अधिक शक्तिशाली गन्धर्व आकाश में खड़े होकर युद्ध करने लगे तब उनके साथ हमारा युद्ध समान स्थिति में नहीं रह सका। युद्ध में हमारी पराजय हुई और हम सेवक, सचिव, पुत्र स्त्री, सेनासहित बन्दी बना लिए गए।
कर्ण ने साँस रोककर पूछा-फिर क्या हुआ ?
दुर्योधन कहने लगा-गन्धर्व हमको ऊँचे आकाश-मार्ग से ले चले। उस समय हम लोग अत्यन्त दुःखी हो रहे थे। तदनन्तर हमारे कुछ सैनिक दीन होकर पाण्डवों के पास पहुँचे और उनको सम्पूर्ण घटना-चक्र बताकर हम लोगों को गन्धर्वों के बन्धन से छुड़ाने का आग्रह किया। तब युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को हम सब लोगों को छुड़ाने के लिए आज्ञा दी।
कर्ण ने पूछा-किन्तु पाण्डवों ने तुम लोगों को कैसे छुड़ाया ? क्या युधिष्ठिर के उन भाइयों ने युद्ध में गन्धर्वों को जीत लिया ?
दुर्योधन बोला-अर्जुन ने पहले तो गन्धर्वों से सान्त्वनापूर्ण शब्दों में हमको छोड़ देने के लिए याचना की। उनके अनुनय करने पर भी आकाशचारी गन्धर्वों ने हमको नहीं छोड़ा। गन्धर्वों बादलों की भाँति गर्जन करने लगे। तब अर्जुन, भीम नकुल और सहदेव ने उन गन्धर्वों पर बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। हमने देखा था कि चारों ओर बाणों का जाल-सा बन गया था। अर्जुन ने अपने तीक्ष्ण बाणों से समस्त दिशाओं को आच्छादित कर दिया था। यह देखकर अर्जुन के सखा चित्रसेन ने अपने आपको उनके सामने प्रकट कर दिया। फिर तो अर्जुन और चित्रसेन दोनों गले मिले। मेरे सामने ही अर्जुन ने चित्रसेन से कहा-वीर गन्धर्व श्रेष्ठ ! तुम मेरे इन भाइयों को मुक्त कर दो। पाण्डवों के जीते-जी कोई इनका इस प्रकार अपमान नहीं कर सकता।
कर्ण विस्मय से बोला-अर्जुन ने यह कहा था ?
दुर्योधन कहने लगा-हाँ। अर्जुन का कथन सुनकर गन्धर्व ने वह बात बता दी-जिसके लिए मन्त्रणा करके हम लोग हस्तिनापुर से चले थे। उसने कहा-ये कौरव सुख से वंचित हुए पाण्डवों तथा द्रौपदी की दुर्दशा देखने के लिए यहाँ आए हैं।
जिस समय गन्धर्वराज यह बात कह रहा था। उस समय मैं अत्यन्त लज्जित हो गया। मेरी इच्छा हुई कि धरती फट जाती और मैं उसमें समा जाता। तत्पश्चात् अर्जुन चित्रसेन को साथ लेकर युधिष्ठिर के पास गया। स्त्रियों के सामने मैं दीनभाव से बँधकर शत्रुओं के वश में पड़ गया था। गन्धर्व सैनिक मुझको उसी दशा में युधिष्ठिर के सामने ले आए।
कर्ण चुपचाप दुर्योधन की ओर देखता रहा।
दुर्योधन निश्वास छोड़कर बोला-जिनका मैंने सदा तिरस्कार किया और जिनका मैं सर्वदा शत्रु बना रहा-उन्हीं लोगों ने मुझ दुर्बुर्धि को शत्रुओं के बन्धन से छुड़ाया है। उन्होंने ही मुझको जीवनदान दिया है। मित्र कर्ण ! यदि मैं इस महायुद्ध में मारा गया होता तो इस भूमण्डल में मेरा यश विख्यात हो जाता। परन्तु इस दशा में जीवित रहना कदापि अच्छा नहीं है। अब हस्तिनापुर में कौन सा मुँह लेकर जाऊँ ?
कर्ण कुछ कह नहीं सका।

दुर्योधन कहता जा रहा था- मैंने निश्चय किया है कि मैं यहाँ आमरण अनशन करूँगा। दुःशासन सब भाइयों को तथा बान्धवों को साथ लेकर हस्तिनापुर लौट जाए। शत्रुओं से अपमानित होकर मैं अपने नगर को नहीं जाऊँगा। अब तक मैंने शत्रुओं का मान-मर्दन किया था तथा सुहृदों को सम्मान दिया था। आज मैं सुहृदों के लिए शोकदायक तथा शत्रुओं का हर्ष बढ़ाने वाला हो गया हूँ। हस्तिनापुर जाकर मैं महाराज से क्या कहूँगा। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, विदुर, संजय आदि आदरणीय महानुभाव मुझसे क्या कहेंगे और मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा ? उद्दण्ड मनुष्य लक्ष्मी-विद्या तथा ऐश्वर्य को पाकर भी दीर्घकाल तक पद पर प्रतिष्ठित नहीं रह पाते हैं। जैसे मैं मद और अहंकार में मग्न होकर अपनी प्रतिष्ठा खो बैठा हूँ।
सहसा दुर्योधन पर्यंक से उठकर खड़ा हो गया और कहने लगा-नहीं ! अब मैं जीवित नहीं रहूँगा। मैं शत्रुओं के उपहास का पात्र बन गया हूँ। मुझे अपने पौरुष का बड़ा अभिमान था। किन्तु गन्धर्वों के सम्मुख मैं कोई पुरुषार्थ न दिखा सका। पराक्रमी पाण्डवों ने अवहेलनापूर्ण दृष्टि से मुझको देखा है। भैया दुःशासन !
दुःशासन ने फिर उठाकर दुर्योधन की ओर देखा।
दुर्योधन उससे बोला-मैं तुम्हारा अभिषेक करता हूँ, दुःशासन ! तुम मेरे प्रिय भाई हो। तुम मेरे दिए हुए राज्य को ग्रहण करो और राजा बनो। तुम मित्र कर्ण और शकुनि की सहायता से हस्तिनापुर का शासन करना और मुझको भूल जाना। तुम अपने भाइयों का विश्वासपूर्वक पालन करना।
यह कहकर दुर्योधन ने दुःशासन को गले से लगा लिया और कहा-अपने इस बड़े भाई को क्षमा कर देना दुःशासन ! हमारा-तुम्हारा इतना ही साथ था।
दुर्योधन की बात सुनकर दुःशासन का गला भर आया। वह अत्यन्त व्याकुल होकर बड़े भाई के चरणों में गिर पड़ा और रोता हुआ बोला-ऐसा कदापि नहीं हो सकता, भैया ! आप प्रसन्न हों। आपके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगा। आप रहेंगे तो मैं भी रहूँगा-आप नहीं रहेंगे तो मैं भी नहीं रहूँगा।
यह कहकर दुःशासन फूट-फूटकर रोने लगा। उसको दुर्योधन प्राणों से भी अधिक प्रिय था। दुःशासन दुर्योधन की छाया थी। दुर्योधन के न रहने पर उसका अस्तित्व ही कहाँ था !
दोनों भाइयों के दुःख से कर्ण भी दुखी हुआ। करना क्या चाहते थे और हो क्या गया था ? दुर्योधन को किसी भी तरह इस श्मशान-वैराग्य से विरक्त करना ही होगा। गन्धर्व के सम्मुख कर्ण का पराक्रम कुण्ठित हो गया था। परन्तु बुद्धिमान कर्ण अब तक सँभल चुका था।

कर्ण दुर्योधन को समझाता हुआ बोला-राजन् ! पाण्डवों ने यदि तुमको गन्धर्वों के बन्धन से मुक्त किया है तो इसमें उनका उपकार क्या है ? वे तुम्हारे प्रजाजन हैं। तुम इस प्रदेश के स्वामी हो। राजा को सुख देना और राजा की सेवा करना तथा राजा की रक्षा करना और समय आने पर राजा के लिए प्राण अर्पण करना तो प्रजा का कर्त्तव्य है। पाण्डवों ने इस कर्त्तव्य का ही पालन किया है। इसमें तुम्हारा क्या अपमान है ? और पाण्डवों का कैसा उपकार है ? तुम्हारे इस प्रकार आचरण करने से तो शत्रु को प्रसन्नता ही होगी। विचार तो करो। तुम्हारे राज्य में पाण्डव सुखपूर्वक रह रहे हैं। यह तुम्हारा ही उन पर उपकार है। राजन् ! यदि तुम यहाँ से हस्तिनापुर नहीं जाओगे तो मैं ही हस्तिनापुर जाकर क्या करूँगा ? मैं भी यहीं रहूँगा।
शकुनि ने भी दुर्योधन को समझाया। परन्तु फिर भी दुर्योधन ने अपना निश्चय नहीं छोड़ा। वह आचमन करके कुशासन पर बैठ गया-आमरण अनशन का निश्चय कर। शकुनि, कर्ण और दुःशासन भी उसको घेरकर बैठ गए।
दुर्योधन के पास बैठा हुआ कर्ण बहुत ही दुखी हो रहा था। दुर्योधन ने कर्ण को अपना मित्र माना था तथा उसको अंगदेश का राजा बनाया था। अपने मित्र को इस तरह अपनी आँखों के आगे अनशन करके कैसे मरने दे ?
कर्ण दुर्योधन से बोला-राजन् ! आत्महत्या तो पाप है ही-परन्तु एक पराजय होने पर इस प्रकार निराश हो जाना भी दुर्बलता का ही चिह्न है। मित्र ! मैं अपने धनुष की शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं अर्जुन का वध अवश्य करूँगा। राजन् ! मैं अपने प्राणों की धरोहर तुम्हारे पास रखता हूँ। मैं जीऊँगा तो तुम्हारे साथ और मरूँगा तो तुमसे पहले ! क्योंकि तुम्हारे पीछे तो एक क्षण भी मैं जीवित नहीं रहना चाहता हूँ।
दुर्योधन ने कर्ण को बाँहों में भरकर कहा-मित्र ! मैं जीवनभर तुमको नहीं छोड़ूँगा।
आत्महत्या का विचार त्याग कर दुर्योधन बोला-चलो ! हस्तिनापुर चलते हैं।

83

द्वैतवन में गए हुए कौरवों का वृत्तान्त प्रतिदिन हस्तिनापुर में आ रहा था। उसको सुनकर धृतराष्ट्र संतोष का अनुभव कर रहे थे। शकुनि, कर्ण और अपने भाइयों के साथ दुर्योधन गोधन का निरीक्षण कर द्वैतवन में मृगया-विहार कर रहा था।
धृतराष्ट्र का यह संतोष अधिक समय तक न टिक सका।
एक दिन चर ने जो वार्ता सुनाई उसने धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, द्रोण आदि सबको चिन्तित कर दिया। द्वैतवन में कौरवों का गन्धर्वों के साथ युद्ध हुआ था। उस युद्ध में गन्धर्वों ने कौरवों को पराजित कर दुर्योधन को तथा कौरव स्त्रियों को बन्दी बना लिया था। सौभाग्य से पाण्डव वहाँ निकट ही थे। दुर्योधन के सैनिकों ने जैसे ही इस पराजय की सूचना पाण्डवों को दी वैसे ही वे विपत्ति में पड़े हुए कौरवों की सहायता के लिए दौड़े आए। दुर्योधन और दुर्योधन के परिवार को अर्जुन ने गन्धर्वों के बन्धन से मुक्त कराया। इस घटना से धृतराष्ट्र संतप्त हो रहे थे। भीष्म, विदुर और द्रोण मुक्त कण्ठ से अर्जुन की उदारता और वीरता का गुणगान कर रहे थे।
एक दिन दुर्योधन घोषयात्रा से दल-बल सहित लौट आया।
दूसरे ही दिन राजसभा आमन्त्रित की गयी।
राजसभा में दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण ऐसे बैठे हुए थे-जैसे कुछ हुआ ही न हो !
महाराज धृतराष्ट्र उदास स्वर में बोले-पितामह ! दुर्योधन के व्यवहार से आज कुरुराज्य का सिर नीचा हो गया है। मेरी कुछ भी कहने की इच्छा नहीं हो रही है। मेरी ओर से आप ही बोलिए।
भीष्म आसन से खड़े होकर बोले-वत्स दुर्योधन ! तुम्हारा घोषयात्रा का मैंने विरोध किया था। तुम्हारा द्वैतवन में जाना मुझको अच्छा नहीं लगा था। तुमने वहाँ जाकर जो कुछ किया, वह तो बहुत ही बुरा हुआ है। शत्रुओं ने तुमको बलपूर्वक बन्दी बना लिया। धर्मज्ञ पाण्डवों ने तुम्हें इस संकट से छुड़ाया है। क्या अब भी तुम्हें लज्जा नहीं आती ?
दुर्योधन बोला-पितामह ! हमने ऐसा कौन सा कृत्य किया है, जिसके लिए हमको लज्जित होना पड़े ? फिर तो हमारे पितामह महाराज चित्रांगद ने गन्धर्वों से जो युद्ध किया था- उसके लिए भी हस्तिनापुर को लज्जित होना चाहिए था ?
दुर्योधन का कुतर्क सुनकर पितामह बोले-धन्य हो तुम युवराज दुर्योधन ! गन्धर्व तुमको सपरिवार पकड़कर ले जा रहे थे, फिर भी तुम कह रहे हो कि हमने ऐसा कौन-सा कृत्य किया है-जिसके लिए हमें लज्जित होना पड़े ? अरे ! जिनसे तुम इतना द्वेष करते हो, जिनको तुमने कपट-द्यूत में पराजित कर वनवास भोगने को विवश कर दिया है, उन्हीं पाण्डवों ने तुम्हारी सहायता की। पाण्डवों की उदारता की सीमा नहीं है और तुम्हारी कृतध्नता की सीमा नहीं है।
कर्ण बोला-पितामह ! पाण्डवों की इतनी प्रशंसा मत कीजिए। पाण्डवों ने यदि हस्तिनापुर के युवराज की सहायता कर दी तो इसमें उपकार की क्या बात है ? पाण्डव कौरवों के दास हैं। स्वामी की सेवा करना दासों का कर्त्तव्य है। भीष्म सन्तप्त होकर बोले-अरे सूतपुत्र ! पाण्डव किसी के दास नहीं है।

आचार्य द्रोण पितामह को शान्त करते हुए बोले-पितामह ! शान्त हो जाइए। राधेय कर्ण ! तुम तो युवराज के मित्र हो न ! अच्छी मित्रता निभाई तुमने ! रणभूमि में मित्र को अकेला छोड़कर प्राण बचाने के लिए रणभूमि से पलायन तुम जैसा सूतपुत्र ही कर सकता है।
आचार्य द्रोण के कथन का कर्ण कोई उत्तर नहीं दे सका। यह तो कटु सत्य था कि अंगराज कर्ण ने युद्ध क्षेत्र से पलायन किया था।
पितामह बोले-दुर्योधन ! दुर्मति कर्ण का पराक्रम भी तुमसे छिपा नहीं रहा है। द्वैतवन में वनवासी पाण्डवों के सम्मुख जाकर अपना वैभव प्रदर्शित कर उनका उपहास करने की योजना तुमने कर्ण के कहने पर ही तो बनाई थी। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि शौर्य और धर्माचरण में कर्ण पाण्डवों की अपेक्षा चौथाई योग्यता भी नहीं रखता। इसलिए मैं तो इस कुल के अभ्युदय के लिए उन महात्मा पाण्डवों के साथ सन्धि कर लेना ही उचित समझता हूँ। युधिष्ठिर ने तुम लोगों के साथ सहृदयता का व्यवहार किया है। अब तुम भी सहृदयता का परिचय देते हुए पाण्डवों के पास सन्धि-प्रस्ताव भेज दो।
दुर्योधन तत्काल बोला-पितामह ! आप सदा पाण्डवों की प्रशंसा करते रहते हैं। भीम ने मेरे और मेरे अनुज दुःशासन के वध की प्रतिज्ञा की है। उन पाण्डवों से मैं सन्धि कदापि नहीं कर सकता।
इतना कहकर दुर्योधन सभागृह से बाहर चला गया। दुर्योधन को सभा-भवन से बाहर जाते देखकर दुःशासन, कर्ण और शकुनि भी सभा-भवन से बाहर चले गए।
दुर्योधन का यह आचरण देखकर पितामह भीष्म धृतराष्ट्र से बोले-राजन् ! आपके पुत्र दुर्योधन और दुःशासन तथा उनके साथ कर्ण और शकुनि सभागृह से चले गए हैं। यह घोर असभ्यता है। किन्तु आपके पुत्र से मैं सभ्यता की आशा कर भी नहीं सकता। मैं आपको बार-बार चेतावनी दे रहा हूँ कि आपका यह ज्येष्ठ पुत्र आपके कुल के नाश का कारण बनेगा। अब भी आप समाधान हो जाइए। जाता हूँ मैं।
यह कहकर पितामह सभा-भवन से बाहर चले गए।
सभा विसर्जित हो गयी।
उसी दिन रात में दुर्योधन, कर्ण और शकुनि को साथ लेकर महाराज धृतराष्ट्र से मिलने आया।
कर्ण महाराज से बोला-महाराज ! मैं जो कुछ कह रहा हूँ उस पर ध्यान दें। पितामह भीष्म सदा हमारी निन्दा और पाण्डवों की प्रशंसा करते रहते हैं। यह मेरे लिए असह्य है। मैं क्या कर सकता हूँ, यह मैं करके दिखाना चाहता हूँ। इसके लिए मैं महाराज की आज्ञा चाहता हूँ।
महाराज ने पूछा-अंगराज ! तुम क्या करना चाहते हो ?
कर्ण ने कहा-देव ! द्वैतवन में मेरे माथे पर जो कलंक लग गया है, मैं उसको धो डालना चाहता हूँ।
महाराज बोले-स्पष्ट कहो कर्ण !

कर्ण कहने लगा-महाराज ! मैं अपने सुहृद दुर्योधन के लिए पर्वत-वन और काननों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी को जीत लूँगा। पितामह भीष्म अपनी आँखों से मरा पराक्रम देख लेंगे। देव ! जिस भूमि पर चार बलशाली पाण्डवों ने मिलकर विजय प्राप्त की है-उसको मैं अपने मित्र के लिए अकेला ही जीत लूँगा। आप मुझको सेवक, सेना तथा वाहनों के साथ दिग्विजय करने की आज्ञा दीजिए।
दुर्योधन कर्ण का समर्थन करता हुआ बोला-पिताश्री ! आप मित्र कर्ण को अवश्य अनुमति प्रदान कीजिए।
कर्ण के प्रस्ताव से धृतराष्ट्र ने प्रसन्न होकर कहा-कर्ण ! मैं तुम्हें दिग्विजय के लिए प्रस्थान करने की आज्ञा देता हूँ।
दुर्योधन कर्ण से बोला-वीर ! तुम जैसा मित्र पाकर मैं धन्य हूँ। मैं अपनी शुभकामनाएँ तुम्हें देता हूँ। तुम्हारी जय हो।
दुर्योधन ने कर्ण को बाँहों में भर लिया और कर्ण का हाथ पकड़कर वहाँ से चल दिया।
शुभ नक्षत्र, शुभ तिथि और शुभ मुहूर्त में कर्णँ ने अपनी दिग्विजय-यात्रा प्रारम्भ कर दी। यात्रा प्रारम्भ करने से पहले कर्ण ने धृतराष्ट्र और गान्धारी के दर्शन किए। ब्राह्मणों ने मंत्र पढ़कर उसको आशीर्वाद दिया। दुर्योधन की अनुमति लेकर कर्ण रथ पर आरूढ़ हुआ। राजमार्ग के दोनों ओर खड़े नागरिक कर्ण की जय-जयकार कर रहे थे। कर्ण का रथ जब उसके भवन के सामने आया तब कर्ण ने रथ से उतरकर अधिरथ एवं राधामाता का आशीर्वाद लिया। कर्ण की पत्नी भानुलता ने कर्ण की आरती उतारी और उसके मस्तक पर जय-तिलक लगाया। कर्ण पुनः रथारूढ़ हुआ। हस्तिनापुर के नगर द्वार के बाहर विशाल कौरव वाहिनी कर्ण की प्रतीक्षा कर रही थी। कर्ण का रथ दिखाई देते ही सेना ने करण की जय-जयकार किया।

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