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भारतीय संस्कृति का संक्षिप्त इतिहास

हरिदत्त वेदालंकार

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4947
आईएसबीएन :81-8346-005-4

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प्राचीन भारतीय संस्कृति का सरल, सुबोध एवं प्रामाणिक दिग्दर्शन....

Bhartiya Sanskrati Ka Sanshipt Itihas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुस्तक का उद्देश्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के सब पहलुओं का सरल एवं सुबोध रूप से संक्षिप्त तथा प्रामाणिक दिग्दर्शन कराना है। प्राचीन संस्कृति के सम्बन्ध में जिज्ञासा रखने वाले सामान्य पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे।
पुस्तक की भाषा और शैली अत्यन्त सरल और सुबोध रखी गई है। विभिन्न विषयों का काल-क्रमानुसार वर्णन किया गया है। पाठक और विद्यार्थी स्पष्ट रूप से यह जान सकेंगे कि हमारी संस्कृति में कौन-सी संस्था, प्रथा, व्यवस्था, कला-शैली, दार्शनिक विचार किस समय और किन कारणों से प्रादुर्भूत हुए। पुस्तक विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को भी ध्यान में रखते हुए लिखी गई है ताकि छात्रों के लिए भी उपयोगी हो।
इस पुस्तक का उद्देश्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के सब पहलुओं का सरल एवं सुबोध रूप से संक्षिप्त तथा प्रामाणिक दिग्दर्शन कराना है।

पुस्तक की भाषा और शैली अत्यन्त सरल और सुबोध है। पुस्तक में इस बात का प्रयत्न किया गया है कि प्रत्येक युग के सांस्कृतिक पहलू के अधिक विस्तार में न जाकर उसकी मुख्य बातों की ही चर्चा की जाए, विभिन्न विषयों का काल-क्रमानुसार इस प्रकार वर्णन किया गया है कि सारा विषय हस्तामलकवत् हो जाए। हम यह जान सकें कि हमारी संस्कृति में कौन-सी संस्था, प्रथा, व्यवस्था, कला-शैली, दार्शनिक विचार किस समय और किन कारणों से प्रादुर्भूत हुए। उदाहरणार्थ जाति-भेद का वैदिक, गुप्त तथा मध्य युगों में कैसे विकास हुआ, इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इस प्रकार धर्म तथा अन्य क्षेत्रों में भी सांस्कृतिक उन्नति की क्रमिक अवस्थाओं का निदर्शन है। भारतीय कला वाले अध्याय में भारतीय कला की विशेषताओं तथा उसकी विभिन्न शैलियों का परिचय दिया गया है।
पुस्तक विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को भी ध्यान में रखते हुए लिखी गई है ताकि छात्रों के लिए भी उपयोगी हो।
यदि यह पुस्तक छात्रों तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमियों को इस विषय का ज्ञान करा सके और इसके प्रति अनुराग उत्पन्न कर सके तो प्रकाशक अपना प्रयत्न सफल समझेगा।

भूमिका

इस पुस्तक का उद्देश्य प्राचीन भारतीय संस्कृति के सब पहलुओं का सरल एवं सुबोध रूप से संक्षिप्त तथा प्रामाणिक दिग्दर्शन कराना है। यह पुस्तक विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखते हुए लिखी गई है, उनमें वर्णित सभी विषयों का इसमें संक्षिप्त एवं सारगर्भित प्रतिपादन है। आशा है कि विश्वविद्यालयों के छात्रों के लिए यह पुस्तक उपयोगी होगी तथा प्राचीन संस्कृति के सम्बन्ध में जिज्ञासा रखने वाले सामान्य पाठक भी इससे लाभ उठा सकेंगे।
पुस्तक की भाषा और शैली अत्यन्त सरल और सुबोध रखी गई है। इसमें इस बात का प्रयत्न किया गया है कि प्रत्येक युग के सांस्कृतिक पहलू के अधिक विस्तार में न जाकर उसकी मुख्य बातों की ही चर्चा की जाय, विभिन्न विषयों का काल-क्रमानुसार इस प्रकार वर्णन किया जाय कि सारा विषय हस्तामलकवत् हो जाय। पाठक और विद्यार्थी स्पष्ट रूप से यह जान सकें कि हमारी संस्कृति में कौन-सी संस्था, प्रथा, व्यवस्था, कला-शैली, दार्शनिक विचार किस समय और किन कारणों से प्रादुर्भूत हुए। उदाहरणार्थ जाति-भेद का वैदिक, गुप्त तथा मध्य युगों में कैसे विकास हुआ, इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है। इस प्रकार धर्म तथा अन्य क्षेत्रों में भी सांस्कृतिक उन्नति की क्रमिक अवस्थाओं का निर्दशन है। भारतीय कला वाले अध्याय में भारतीय कला की विशेषताओं तथा उसकी विभिन्न शैलियों का परिचय दिया गया है।
यदि यह पुस्तक छात्रों तथा भारतीय संस्कृति के प्रेमियों को इस विषय का ज्ञान करा सके और इसके प्रति अनुराग उत्पन्न कर सके तो लेखक अपन प्रयत्न सफल समझेगा।

पहला अध्याय

वैदिक साहित्य और संस्कृति

1.विषय-प्रवेश : भारतीय संस्कृति की महत्ता- भारतीय संस्कृति विश्व के इतिहास में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्व रखती है। यह संसार की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है। मोहनजोदड़ों की खुदाई के बाद से यह मिस्र मेसोपोटेमिया की सबसे पुरानी सभ्यताओं के समकालीन समझी जाने लगी है। प्राचीनता के साथ इसकी दूसरी विशेषता अमरता है। चीनी संस्कृति के अतिरिक्त पुरानी दुनिया की अन्य सभी-मेसोपोटेमिया की सुमेरियन, असीरियन, बेबीलोनियन और खाल्दी प्रभृति तथा मिस्र ईरान, यूनान और रोम की-संस्कृतियाँ काल के कराल गाल में समा चुकी हैं, कुछ ध्वंसावशेष ही उनकी गौरव-गाथा गाने के लिए बचे हैं; किन्तु भारतीय संस्कृति कई हजार वर्ष तक काल के क्रूर थपेड़ों को खाती हुई आज तक जीवित है। उसकी तीसरी विशेषता उसका जगद्गुरु होना है। उसे इस बात का श्रेय प्राप्त है कि उसने न केवल महाद्वीप-सरीखे भारतवर्ष को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, अपितु भारत के बाहर बड़े हिस्से की जंगली जातियों को सभ्य बनाया, साइबेरिया के सिंहल (श्रीलंका) तक और मैडीगास्कर टापू, ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशांत महासागर के बोर्नियो, बाली के द्वीपों तक के विशाल भू-खण्ड पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा। सर्वांगीणता, विशालता, उदारता और सहिष्णुता की दृष्टि से अन्य संस्कृतियाँ उसकी समता नहीं कर सकतीं।
इस अनुपम और विलक्षण संस्कृति के उत्तराधिकारी होने के नाते इसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना हमारा परम आवश्यक कर्त्तव्य है। इससे न केवल हमें उसके गुण प्रत्युत दोष भी मालूम होंगे। यह भी ज्ञात होगा कि किन कारणों से उसका उत्कर्ष और अपकर्ष हुआ। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि भारतीय संस्कृति का अतीत अत्यन्त उज्ज्वल था, किन्तु हमारा कर्त्तव्य है कि हम भविष्य को भूत से भी अधिक उज्ज्वल और गौरवपूर्ण बनाने का प्रयास करें। यह सांस्कृति इतिहास के गम्भीर अध्ययन से ही सम्भव है।
किन्तु इससे पहले संस्कृतिक के स्वरूप का सामान्य परिचय आवश्यक है।

2.सभ्यता और संस्कृति-संस्कृति का शब्दार्श है उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसन्धान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊँचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की और संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। प्रारम्भ में मनुष्य आँधी-पानी, सर्दी-गर्मी सब कुछ सहता हुआ जंगलों में रहता था, शनैःशनैः उसने इन प्राकृतिक विपदाओं से अपनी रक्षा के लिए पहले गुफाओं और फिर क्रमशः लकड़ी, ईंट या पत्थर के मकानों की शरण ली। अब वह लोहे और सीमेन्ट की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं का निर्माण करने लगा है। प्राचीन काल में यातायात का साधन सिर्फ मानव के दो पैर ही थे। फिर उसने घोड़े, ऊँट, हाथी, रथ और बहली का आश्रय लिया। अब मोटर और रेलगाड़ी के द्वारा थोड़े समय में बहुत लम्बे फासले तय करता है, हवाई जहाज द्वारा आकाश में भी उड़ने लगा है। पहले मनुष्य जंगल के कन्द, मूल और फल तथा आखेट से अपना निर्वाह करता था। बाद में उसने पशु-पालन और कृषि के आविष्कार द्वारा आजीविका के साधनों में उन्नति की। पहले वह अपने सब कार्यों को शारीरिक शक्ति से करता था। पीछे उसने पशुओं को पालतू बनाकर और सधाकर उनकी शक्ति का हल, गाड़ी आदि में उपयोग करना सीखा। अन्त में उसने हवा पानी, वाष्प, बिजली और अणु की भौतिक शक्तियों को वश में करके ऐसी मशीनें बनाईं, जिनसे उसके भौतिक जीवन में काया-पलट हो गई। मनुष्य की यह सारी प्रगति सभ्यता कहलाती है।

3.संस्कृति का स्वरूप-मनुष्य केवल भौतिक परिस्थितियों में सुधार करके ही सन्तुष्ट नहीं हो जाता। वह भोजन से ही नहीं जीता, शरीर के साथ मन और आत्मा भी है। भौतिक उन्नति से शरीर की भूख मिट सकती है, किन्तु इसके बावजूद मन और आत्मा तो अतृप्त ही बने रहते हैं। इन्हें सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य अपना जो विकास और उन्नति करता है, उसे संस्कृति कहते हैं। मनुष्य की जिज्ञासा का परिणाम धर्म और दर्शन होते हैं। सौन्दर्य की खोज करते हुए वह संगीत, साहित्य, मूर्ति, चित्र और वास्तु आदि अनेक कलाओं को उन्नत करता है। सुखपूर्वक निवास के लिए सामाजिक और राजनीतिक संघटनों का निर्माण करता है। इस प्रकार मानसिक क्षेत्र में उन्नति की सूचक उसकी प्रत्येक ‘सम्यक् कृति’ संस्कृति का अंग बनती है। इनमें प्रधान रूप से धर्म, दर्शन, सभी ज्ञान-विज्ञानों और कलाओं, सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाओं और प्रथाओं का समावेश होता है।

4.संस्कृति का निर्माण-किसी देश की संस्कृति उसकी सम्पूर्ण मानसिक निधि को सूचित करती है। यह किसी खास व्यक्ति के पुरुषार्थ का फल नहीं, अपितु असंख्य ज्ञात तथा अज्ञात व्यक्तियों के भगीरथ प्रयत्न का परिणाम होती है। सब व्यक्ति अपनी सामर्थ्य और योग्यता के अनुसार संस्कृति के निर्माण में सहयोग देते हैं। संस्कृति की तुलना आस्ट्रेलिया के निकट समुद्र में पाई जाने वाली मूँगे की भीमकाय चट्टानों से की जा सकती है। मूँगे के असंख्य कीड़े अपने छोटे घर बनाकर समाप्त हो गए। फिर नए कीड़ों ने घर बनाये, उनका भी अन्त हो गया। इसके बाद उनकी अगली पीढ़ी ने भी यही किया और यह क्रम हजारों वर्ष तक निरन्तर चलता रहा। आज उन सब मूगों के नन्हे-नन्हे घरों ने परस्पर जुड़ते हुए विशाल चट्टानों का रूप धारण कर लिया है। संस्कृति का भी इसी प्रकार धीरे-धीरे निर्माण होता है और उनके निर्माण में हजारों वर्ष लगते हैं। मनुष्य विभिन्न स्थानों पर रहते हुए विशेष प्रकार के सामाजिक वातावरण, संस्थाओं, प्रथाओं, व्यवस्थाओं, धर्म दर्शन लिपि भाषा तथा कलाओं का विकास करके अपनी विशिष्ट संस्कृति का निर्माण करते हैं। भारतीय संस्कृति की रचना भी इसी प्रकार हुई है।

5.वेदों का महत्त्व-भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसे पुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू-धर्म का मुख्य आधार हैं। न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है। विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तक नहीं है। मानव-जाति और विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से ही मिलता है। आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है।

6.वैदिक साहित्य-हमारी संस्कृति के प्राचीनतम स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला वैदिक साहित्य निम्न भागों में बँटों है-(1) संहिता, (2) ब्राह्मण और आरण्यक, (3) उपनिषद्, (4) वेदांग, (5) सूत्र-साहित्य। संहिता-संहिता का अर्थ है संग्रह। संहिताओं में देवताओं के स्तुतिपरक मंत्रों का संकलन है। संहिताएँ चार हैं-(1) ऋक् (2) यजुष्, (3) साम, और (4) अथर्व प्राचीन परम्परा के अनुसार वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। उनकी कभी मनुष्य द्वारा रचना नहीं हुई। सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने इनका प्रकाश अग्नि, वायु आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों को दिया। प्रत्येक वैदिक मन्त्र का देवता और ऋषि होता है। मन्त्र में जिसकी स्तुति की जाय वह उस मन्त्र का देवता है और जिसने मन्त्र के अर्थ का सर्वप्रथम प्रदर्शन किया हो वह उसका ऋषि है। पाश्चात्य विद्वान ऋषियों को ही वेद-मन्त्रों का रचयिता मानते हैं। वैदिक साहित्य को श्रुति भी कहा जाता है, क्योंकि पुराने ऋषियों ने इस साहित्य को श्रवण-परम्परा से ग्रहण किया था। बाद में इस ज्ञान को स्मरण करके जो ग्रन्थ लिखे गए, वे स्मृति कहलाए। श्रुति के शीर्ष स्थान पर उपर्युक्त चार संहिताएँ हैं।

7.ऋग्वेद-ऋग्वेद में 10,600 मन्त्र और 1,028 सूक्त हैं, ये दस मण्डलों में विभक्त हैं। सूक्तों में देवताओं की स्तुतियाँ हैँ। ये बड़ी भव्य, उदात्त और काव्यमयी हैं। इनमें कल्पना की नवीनता, वर्णन की प्रौढ़ता और प्रतिभा की ऊँची उड़ान मिलती है। ‘उषा’ आदि कई देवताओं के वर्णन बड़े हृदयग्राही हैं। पाश्चात्य विद्वान ऋग्वेद की संहिता को सबसे प्राचीन मानते हैं। उनका विचार है कि इसके अधिकांश सूक्तों की रचना पंजाब में हुई। उस समय आर्य अफगानिस्तान से गंगा-यमुना तक के प्रदेशों में फैले हुए थे। उनके मत में ऋग्वेद में कुभा (काबुल), सुवास्तु (स्वात), क्रमु (कुर्रम), गोमती (गोमल), सिन्धु, गंगा, यमुना सरस्वती तथा पंजाब की पाँच नदियों शतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुष्णी (रावी), असिवनी (चनाब) और वितस्ता (झेलम) का उल्लेख है। इन नदियों से सिंचित प्रदेश भारत में आर्य-सभ्यता का जन्म-स्थान माना जाता है।

8.यजुर्वेद-इसमें यज्ञ-विषयक मन्त्रों का संग्रह है। इनका प्रयोग यज्ञ के समय अध्वर्यु नामक पुरोहित किया करता था। यजुर्वेद में 40 अध्याय हैं। पाश्चात्य विद्वान इसे ऋग्वेद से काफी समय बाद का मानते हैं। ऋग्वेद में आर्यों का कार्य-क्षेत्र पंजाब है, इसमें कुरु-पांचाल। कुरु सतलुज यमुना का मध्यवर्ती भू-भाग (वर्तमान अम्बाला डिवीज़न) है और पांचाल गंगा-यमुना का दोआब था। इसी समय से गंगा-यमुना का प्रदेश आर्य-सभ्यता का केन्द्र हो गया। ऋग्वेद का धर्म उपासना-प्रधान था, किन्तु यजुर्वेद के दो भेद हैं-कृष्ण यजुष् और शुक्ल यजुष्। दोनों के स्वरूप में बड़ा अन्तर है, पहले में केवल मन्त्रों का संग्रह है और दूसरे में छन्दोबद्ध मन्त्रों के साथ गद्यात्मक भाग सभी है।

9.सामवेद-इसमें गेय मन्त्रों का संग्रह है। यज्ञ के अवसर पर जिस देवता के लिए होम किया जाता था, उसे बुलाने के लिए उद्गाता उचित स्वर में उस देवता का स्तुति-मन्त्र गाता था। इस गायन को ‘साम’ कहते थे। प्रायः ऋचाएँ ही गाई जाती थीं। अतः समस्त सामवेद में ऋचाएँ ही हैं। इनकी संख्या 1,549 है। इनमें से केवल 75 ही नई हैं, बाकी सब ऋग्वेद से ली गईं हैं। भारतीय संगीत का मूल सामवेद में उपलब्ध होता है।

10.अथर्ववेद-इसका यज्ञों से बहुत कम सम्बन्ध है। इसमें आयुर्वेद सम्बन्धी सामग्री अधिक है। इसका प्रतिपाद्य विषय विभिन्न प्रकार की ओषधियाँ, ज्वर, पीलिया, सर्पदंश, विष-प्रभाव को दूर करने के मन्त्र सूर्य की स्वास्थ्य-शक्ति, रोगोत्पादक कीटाणुओं तथा विभिन्न बीमारियों को नष्ट करने के उपाय हैं। पाश्चात्य विद्वान इसे जादू-टोने और अन्ध-विश्वास का भण्डार मानते हैं। वे इसमें आर्य और अनार्य धार्मिक विचारों का सम्मिश्रण देखते हैं, किन्तु वस्तुतः इसमें राजनीति तथा समाज-शास्त्र के अनेक ऊँचे सिद्धान्त हैं। इसमें 20 काण्ड, 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्त तथा 5,839 मन्त्र हैं, इनमें 1200 के लगभग मन्त्र ऋग्वेद से लिए गये हैं।

11.शाखाएँ-प्राचीन काल में वेदों की रक्षा गुरु-शिष्य परम्परा द्वारा होती थी। इनका लिखित एवं निश्चित स्वरूप न होने से वेदों के स्वरूप में कुछ भेद आने लगा, और इनकी शाखाओं का विकास हुआ। ऋग्वेद की पाँच शाखाएँ थीं-शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकेय। इनमें अब पहली शाखा ही उपलब्ध होती है। शुक्ल यजुर्वेद की दो प्रधान शाखाएँ हैं-माध्यंदिन और काण्व। पहली उत्तरी भारत में मिलती है और दूसरी महाराष्ट्र में। इनमें अधिक भेद नहीं है। कृष्ण यजुर्वेद की आजकल चार शाखाएँ मिलती हैं-तैत्तिरीय मैत्रायणी, काटक, कठ तथा कापिष्ठल संहिता। इनमें दूसरी-तीसरी पहली से मिलती हैं, क्रम में थोड़ा ही अन्तर है। चौथी शाखा आधी ही मिली है। सामवेद की दो शाखाएँ थीं-कौथुम और राणायनीय। इसमें कौथुम का केवल सातवाँ प्रपाठक मिलता है। अथर्ववेद की दो शाखाएँ उपलब्ध हैं-पैप्पलाद और शौनक।

12.ब्राह्मण-ग्रन्थ-संहिताओं के बाद ब्राह्मण-ग्रन्थों का निर्माण हुआ। इनमें यज्ञों के कर्मकाण्ड का विस्तृत वर्णन है, साथ ही शब्दों की व्युत्पत्तियाँ तथा प्राचीन राजाओं और ऋषियों की कथाएँ तथा सृष्टि-सम्बन्धी विचार हैं। प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण हैं। ऋग्वेद के दो ब्राह्मण हैं-(1) ऐतरेय और (2) कौषीतकी। ऐतरेय में 40 अध्याय और आठ पंचिकाएँ हैं, इसमें अग्निष्टोम, गवामयन, द्वादशाह आदि सोमयागों, अग्निहोत्र तथा राज्यभिषेक का विस्तृत ऐतरेय ब्राह्मण-जैसा ही है। इनसे तत्कालीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ता है। ऐतरेय में शुनःशेप की प्रसिद्ध कथा है। कौषीतकी से प्रतीत होता है कि उत्तर भारत में भाषा के सम्यक् अध्ययन पर बहुत बल दिया जाता था। शुक्ल यजुर्वेद का ब्राह्मण शतपथ के नाम से प्रसिद्ध है, क्योंकि इसमें सौ अध्याय हैँ। ऋग्वेद के बाद प्राचीन इतिहास की सबसे अधिक जानकारी इसी से मिलती है। इसमें यज्ञों के विस्तृत वर्णन के साथ अनेक प्राचीन आख्यानों, व्युत्पत्तियों तथा सामाजिक बातों का वर्णन है। इसके समय में कुरु-पांचाल आर्य संस्कृति का केन्द्र था, इसमें पुरूरवा और उर्वशी की प्रणय-गाथा, च्यवन ऋषि तथा महा प्रलय का आख्यान, जनमेजय, शकुन्तला और भरत का उल्लेख है। सामवेद के अनेक ब्राह्मणों में से पंचविंश या ताण्ड्य ही महत्त्वपूर्ण है। अथर्ववेद का ब्राह्मण गोपथ के नाम से प्रसिद्ध है।

13.आरण्यक-ब्राह्मणों के अन्त में कुछ ऐसे अध्याय भी मिलते हैं जो गाँवों या नगरों में नहीं पढ़ जाते थे। इनका अध्ययन-अध्यापन गाँवों से दूर अरण्यों (वनों) में होता था, अतः इन्हें आरण्यक कहते हैं। गृहस्थाश्रम में यज्ञविधि का निर्देश करने के लिए ब्राह्मण-ग्रन्थ उपयोगी थे और उसके बाद वानप्रस्थ आश्रम में वनवासी आर्य यज्ञ के रहस्यों और दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन करने वाले आरण्यकों का अध्ययन करते थे। उपनिषदों का इन्हीं आरण्यकों से विकास हुआ।

145.उपनिषद्-उपनिषदों में मानव-जीवन और विश्व के गूढ़तम प्रश्नों को सुलझाने का प्रयत्न किया गया है। ये भारतीय अध्यात्म-शास्त्र के देदीप्यमान रत्न हैं। इनका मुख्य विषय ब्रह्म-विद्या का प्रतिपादन है। वैदिक साहित्य में इनका स्थान सबसे अन्त में होने से ये ‘वेदान्त’ भी कहलाते हैं। इनमें जीव और ब्रह्म की एकता के प्रतिपादन द्वारा ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक उड़ाने ली गई है। भारतीय ऋषियों ने गम्भीरतम चिन्तन से जिन आध्यात्मिक तत्त्वों का साक्षात्कार किया, उपनिषद उनका अमूल्य कोष हैं। इनमें अनेक शतकों की तत्त्व-चिन्ता का परिणाम है। मुक्तिकोपनिषद् चारों वेदों से सम्बद्ध 102 उपनिषद् गिनाये गये हैं, किन्तु 11 उपनिषद् ही अधिक प्रसिद्ध हैं-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर इनमें छान्दोग्य और बृहदारण्यक अधिक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।

15.सूत्र-साहित्य-वैदिक साहित्य के विशाल एवं जटिल होने पर कर्मकाण्ड से सम्बद्ध सिद्धान्तों को एक नवीन रूप दिया गया। कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ-प्रतिपादन करने वाले छोटे-छोटे वाक्यों में सब महत्त्वपूर्ण विधि-विधान प्रकट किये जाने लगे। इन सारगर्भित वाक्यों को सूत्र कहा जाता था। कर्मकाण्ड-सम्बन्धी सूत्र-साहित्य को चार भागों में बाँटा गया-(1) श्रौत सूत्र, (2) गृह्य सूत्र, (3) धर्म सूत्र और (4) शुल्ब सूत्र। पहले में वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड का वर्णन है। दूसरे में गृहस्थ के दैनिक यज्ञों का, तीसरे में सामाजिक नियमों का और चौथे में यज्ञ-वेदियों के निर्माण का। श्रौत का अर्थ है श्रुति (वेद) से सम्बद्ध यज्ञ याग। अतः श्रौत सूत्रों में तीन प्रकार की अग्नियों के आधान अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास, चातुर्मास्यादि साधारण यज्ञों तथा अग्निष्टोम आदि सोमयागों का वर्णन है। ये भारत की प्राचीन यज्ञ-पद्धति पर बहुत प्रकाश डालते हैं। ऋग्वेद के दो श्रौत सूत्र हैं-शांखायन और आश्वलायन। शुक्ल यजुर्वेद का एक-कात्यायनः कृष्ण यजुर्वेद के छः सूत्र हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, भारद्वाज, मानव, वैखानस। सामवेद के लाट्यायन, द्राह्मायण और आर्षेय नामक तीन सूत्र हैं। अथर्ववेद का एक ही वैतान सूत्र है।

16.गृह्य सूत्र-इनमें उन विचारों तथा जन्म से मरणपर्यन्त किये जाने वाले संस्कारों का वर्णन है, जिनका अनुष्ठान प्रत्येक हिन्दू-गृहस्थ के लिए आवश्यक समझा जाता था। उपनयन और विवाह-संस्कार का विस्तार से वर्णन है। इन ग्रन्थों के अध्ययन से प्राचीन भारतीय समाज के घरेलू आचार-विचार का तथा विभिन्न प्रान्तों के रीति-रिवाज का परिचय पूर्ण रूप से हो जाता है। ऋग्वेद के गृह्य सूत्र शांखायन और आश्वलायन हैं। शुक्ल यजुर्वेद का पारस्कर, कृष्ण यजुर्वेद के आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, मानव, काठक और वैखानस, सामवेद के गोभिल तथा खदिर और अथर्ववेद का कौशिक। इनमें गोभिल प्राचीनतम है।

17.धर्मसूत्र-धर्मसूत्रों में समाजिक जीवन के नियमों का विस्तार से प्रतिपादन है। वर्णाश्रम-धर्म की विवेचना करते हुए ब्रह्मचारी, गृहस्थ व राजा के कर्त्तव्यों, विवाह के भेदों, दाय की व्यवस्था, निषिद्ध भोजन, शुद्धि, प्रायश्चित्त आदि का विशेष वर्णन है। इन्हीं धर्मसूत्रों से आगे चलकर स्मृतियों की उत्पत्ति हुई, जिनकी व्यवस्थाएँ हिन्दू-समाज में आज तक माननीय समझी जाती हैं। वेद से सम्बद्ध केवल तीन धर्मसूत्र ही अब तक उपलब्ध हो सके हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी व बौधायन। ये यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं। अन्य धर्मसूत्रों में गौतम और वसिष्ठ उल्लेखनीय हैं।

18.शुल्ब सूत्र-इनका सम्बन्ध श्रौतसूत्रों से है। शुल्ब का अर्थ है मापने का डोरा। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।

19.वेदांग-काफी समय बीतने के बाद वैदिक साहित्य जटिल एवं कठिन प्रतीत होने लगा। उस समय वेद के अर्थ तथा विषयों का स्पष्टीकरण करने के लिए अनेक सूत्र-ग्रन्थ लिखे जाने लगे। इसलिए इन्हें वेदांग कहा गया। वेदांग छः हैं-शिक्षा, छन्द, व्याकरण, निरुक्त, कल्प और ज्योतिष। पहले चार वेद मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और अर्थ समझने के लिए तथा अन्तिम दो धार्मिक कर्मकाण्ड और यज्ञों का समय जानने के लिए आवश्यक हैं। व्याकरण को वेद का मुख कहा जाता है, ज्योतिष को नेत्र, निरुक्त को श्रोत्र, कल्प को हाथ, शिक्षा को नासिका तथा छन्द को दोनों पैर।

20.शिक्षा-उन ग्रन्थों को शिक्षा कहते हैं, जिनकी सहायता से वेद-मन्त्रों के उच्चारण का शुद्ध ज्ञान होता था। वेद-पाठ में स्वरों का विशेष महत्त्व था। इनकी शिक्षा के लिए पृथक् वेदांग बनाया गया। इसमें वर्णों के उच्चारण के अनेक नियम दिये गये हैं। संसार में उच्चारण-शास्त्र की वैज्ञानिक विवेचना करने वाले पहले ग्रन्थ यही हैं। ये वेदों की विभिन्न शाखाओं से सम्बन्ध रखते हैं और प्रातिशाख्य कहलाते हैं। ऋग्वेद अथर्ववेद, वाजसनेयी व तैत्तिरीय संहिता के प्रातिशाख्य मिलते हैं। बाद में इसके आधार पर शिक्षा-ग्रन्थ लिखे गये। इनमें शुक्ल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्य-शिक्षा, सामवेद की नारद शिक्षा और पाणिनि की पाणिनीय शिक्षा मुख्य हैं।

21.छन्द-वैदिक मन्त्र छन्दोवद्ध हैं। छन्दों का ठीक ज्ञान बिना प्राप्त किये, वेद- मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण नहीं हो सकता। अतः छन्दों की विस्तृत विवेचना आवश्यक समझी गई। शौनक मुनि के ऋक्प्रातिशाख्य में, शांखायन श्रौतसूत्र में तथा सामवेद से सम्बद्ध निदान सूत्र में इस शास्त्र का व्यवस्थित वर्णन है। किन्तु इस वेदांग का एकमात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ पिंगलाचार्य-प्रणीत छन्द सूत्र है। इसमें वैदिक और लौकिक दोनों प्रकार के छन्दों का वर्णन है।

22.व्याकरण-इस अंग का उद्देश्य सन्धि, शब्द-रूप, धातु-रूप तथा इनकी निर्माण-पद्धति का ज्ञान कराना था। इस समय व्याकरण का सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ पाणिनी का अष्टाध्यायी है; किन्तु व्याकरण का विचार ब्राह्मण-ग्रन्थों के समय से शुरू हो गया था। पाणिनी से पहले गार्ग्य, स्फोटायन, भारद्वाज आदि व्याकरण के अनेक महान् आचार्य हो चुके थे। इन सबके ग्रन्थ अब लुप्त हो चुके हैं।

23.निरुक्त-इसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति दिखाई जाती थी। प्राचीन काल में वेद के कठिन शब्दों की क्रमबद्ध तालिका और कोश निघंटु कहलाते थे और इनकी व्याख्या निरुक्त में होती थी। आजकल केवल यास्काचार्य का निरुक्त ही उपलब्ध होता है। इसका समय 800 ई. पू. के लगभग है।

24.ज्योतिष-वैदिक युग में यह धारणा थी कि वेदों का उद्देश्य यज्ञों का प्रतिपादन है। यज्ञ उचित काल और मुहूर्त में किये जाने से ही फलदायक होते हैं। अतः काल-ज्ञान के लिए ज्योतिष का विकास हुआ। यह वेद का अंग समझा जाने लगा। इसका प्राचीनतम ग्रन्थ लगधमुनि-रचित वेदांग ज्योतिष है।
श्रौत, गृह्य एवं धर्म सूत्रों के ही कल्प सूत्र कहते हैं। इनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।

25.वैदिक साहित्य का काल-इस विषय के विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है कि वेदों की रचना कब हुई और उनमें किस काल की सभ्यता का वर्णन मिलता है। भारतीय वेदों को अपौरुषेय (किसी पुरुष द्वारा न बनाया हुआ) मानते हैं अतः नित्य होने से उनके काल-निर्धारण का प्रश्न ही नहीं उठता;किन्तु पश्चिमी विद्वान इन्हें ऋषियों की रचना मानते हैं और इसके काल के सम्बन्ध में उन्होंने अनेक कल्पनाएँ की हैं। उनमें पहली कल्पना मैक्समूलर की है। उन्होंने वैदिक साहित्य का काल 1200 ई. पू. से 600 ई. पू. माना है। दूसरी कल्पना जर्मन विद्वान विण्टरनिट्ज की है। उसने वैदिक साहित्य के आरम्भ होने का काल 2500-2000 ई. पू. तक माना। तिलक और याकोबी ने वैदिक साहित्य में वर्णित नक्षत्रों की स्थिति के आधार पर इस साहित्य का आरम्भ काल 4500 ई.पू. माना। श्री अविनाशचन्द्र दास तथा पावगी ने ऋग्वेद में वर्णित भूगर्भ-विषयक साक्षी द्वारा ऋग्वेद को कई लाख वर्ष पूर्व का ठहराया है।

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