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बुद्ध का तीसरा नेत्र

प्रमोद वडनेरकर

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :390
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4914
आईएसबीएन :81-7043-660-5

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‘बुद्ध का तीसरा नेत्र’ संकल्पना ही तिब्बत के रहस्यमय बौद्ध धर्म का एक आविष्कार है। तिब्बती लामाओं ने इसी नेत्र को जाग्रत कर अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।

Buddh Ka Teesra Netra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्री प्रमोद वडनेरकर मराठी भाषा के सिद्धहस्त लेखक हैं। जिन विषयों को लोग छूने से डरते हैं, वडनेरकर उन्हीं की साधना में वर्षों लगा देते हैं। तिब्बती स्वतंत्रता संघर्ष को उन्होंने दूर से दृष्टा की हैसियत से ही नहीं देखा, बल्कि उसकी तपिश को तिब्बत के गाँवों और ल्हासा की गलियों में जाकर अनुभव किया है। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बार्खोर की परिक्रमा की है। पोताला के सैकड़ों कक्षों में उन्होंने दबे इतिहास की सिसकियाँ सुनी हैं। ल्हासा की भयंकर शीत में घूमते हुए उन्होंने तिब्बतियों के चेहरे के दर्द को स्वयं पढ़ा है।
प्रमोद वडनेरकर पिछले कुछ सालों से भारत-तिब्बत सहयोग मंच से जुड़े हैं। यह संस्था अपने ढंग से तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम को भारतीय जनमानस में अंकुरित कर रही है। इस आंदोलन से जुड़े हुए उनके पदचिह्व ढूँढ़ते-ढूँड़ते ल्हासा तक पहुँच गए। उनकी यह साधना लेखनीय प्रतिबद्धता की कहानी है। लिखने से पहले संघर्ष को अपने भीतर अनुभव करने की यात्रा। यह उपन्यास इसी यात्रा का प्रामाणिक दस्तावेज़ है।

भूमिका

‘बुद्ध का तीसरा नेत्र’ संकल्पना ही तिब्बत के रहस्यमय बौद्ध धर्म का एक आविष्कार है। तिब्बती लामाओं ने इसी नेत्र को जाग्रत कर अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।
लेकिन अब सब अतीत बनकर रह गया है। गत दो हजार वर्षों से मनुष्य के आंतरिक विश्व की खोज में डूबी हुई तिब्बती संस्कृति ने एक प्रयोगशाला का रूप धारण कर लिया था। कठोर तपाचरण और ध्यानधारणा के विविध प्रयोगों द्वारा आत्मभाव जाग्रत करने के लिए उन्होंने हजारों विधि और संस्कारों को जन्म दिया। लेकिन इस बीसवीं सदी के दुर्भाग्य से यह देश गत पचास वर्षों से भौतिकवादी चीनी प्रशासन के अधिकार तले अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। वहाँ तिब्बती जनता पर सुयोजित तरीके से क्रूर और अमानवीय अत्याचार हो रहे हैं। तिब्बती बौद्ध की वंशहत्या, धर्मग्रंथ तथा विहारों का विध्वंस, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य और सुरक्षा के अधिकारों का हनन, निजी सम्पत्ति का अपहरण, तिब्बती और आंतरिक यात्रा पर पाबंदी, सत्ता के विरोध में बोलने वाले व्यक्ति को कैदखाना, ऐसे सभी स्तरों पर शोषण जारी है। तिब्बती इन सबका प्रतिरोध करने में असहाय से लगते हैं।
कम्युनिस्ट चीन के प्रचार माध्यम पर बने अंकुश से इन अत्याचारों की विश्व मंच पर अब तक कोई दखलंदाजी नहीं हुई है। तिब्बत की मुक्ति के लिए किए गए प्रयास भी कोई खास अहमियत नहीं रखते। तिब्बत के प्रश्न पर पहले तो बाहरी दुनिया अज्ञात थी, बाद में वह प्रश्न लगातार उपेक्षित रहा। यह प्रश्न इतना ज्वलंत होने पर भी तिब्बत की स्वतंत्रता के प्रति सभी आशंकित हैं। चीन की बढ़ती शास्त्रस्त्रता के कारण उसके विरोध में वक्तव्य देने के लिए कोई भी राष्ट्र सहजता से तैयार नहीं होता है।
तिब्बत के प्राकृतिक संसाधनों का निष्ठुरता से निर्मम दोहन हो रहा है। इतना ही नहीं, चीनी लोगों को ला-ला कर तिब्बत में बसाया जा रहा है। ताकि तिब्बत के मूल वासी अपनी ही जन्मभूमि में अल्पसंख्यक हो जाएँ।

तिब्बत की स्वतंत्रता का प्रश्न आज भी उग्र रूप धारण नहीं कर पाया है। तिब्बती नेतृत्व की अहिंसा पर अटूट श्रद्धा ही शायद इसका प्रमुख कारण है। धर्मशाला में स्थित तिब्बत के निष्कासित सरकार के प्रधानमंत्री प्रो. सामदोंग रिम्पोछे तो अपनी धर्मनिष्ठा को तिब्बत की स्वतंत्रता से अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं। धर्म चेतना के संवर्धन के लिए यदि तिब्बत की स्वतंत्रता की बलि देनी पड़ी तो भी उन्हें एतराज नहीं है। प्रत्यक्ष स्वतंत्रता से सांस्कृतिक निष्ठा और सत्यनिष्ठा का अनुपालन उनकी दृष्टि में अधिक औचित्यपूर्ण है।
तिब्बत की राज्यसत्ता सदियों से धर्मप्रवण रही है। इसलिए सत्ता में टिके रहने की क्षमता, राजकीय कुशलता और शत्रु को परास्त करने की कूटनीति का उनमें अभाव था। सम्पूर्ण देश को सुरक्षा प्रदान करने और सैन्यबल को प्रभावशाली और आधुनिक बनाने में असफल रहे। तिब्बतियों में क्षत्रिय वृत्ति की कमी थी, ऐसी बात नहीं है। सन् 1949 में पूर्व तिब्बत की स्वतंत्रता सेना के खाम्पा तिब्बतियों ने अपने टूटे-फूटे शस्त्र के बल पर भी तिब्बत में घुसनेवाली चीनी सेना से जो लोहा लिया और कई मोर्चों पर विजय हासिल की, वह इतिहास कोई ज्यादा पुराना नहीं है।
सब पूछा जाए तो तिब्बत को चीन के शिकंजे से निकालने की जिम्मेदारी सारे समाज की है। तिब्बतियों ने दुनिया को सम्पूर्ण मानवता का पाठ पढ़ाया है। मनुष्य की अंतरात्मा के उद्घाटन का इतना सुंदर प्रयोग तिब्बत के सिवाय और कहीं नहीं हुआ। यदि तिब्बती संस्कृति नष्ट हो जाती है, तो तिब्बत को अभयदान न देने वाले दुनिया के सत्ताधीशों की यह विवशता मानव जाति पर एक कलंक बनकर उभर जाएगी। अध्यात्म पर भौतिकवाद का ऐसा घिनौना आक्रमण कभी नहीं हुआ।
हिंसक क्रांति से बना चीन, अहिंसक क्रान्ति से उभरे हुए भारत से आज अधिक ताकतवर सिद्ध हो रहा है। अगर अहिंसा की शक्ति हिंसा से बड़ी है तो होना तो उससे उलटा चाहिए था। इससे बुद्ध की करुणा और दलाईलामा के सार्वभौमिक उत्तरदायित्व शिक्षाओं के प्रति संदेह होना स्वाभाविक है। आदर्शों के लिए लड़ने वालों को दुनिया के समझदार नेतागण सरफिरे कहते हैं। बहाव के साथ चलते रहना ही उनकी रणनीति रहती है। ऐसे वातावरण में अंतर्राष्ट्रीय मंच जहाँ वर्चस्व स्थापित करने के लिए कूटनीतिक व्यूहरचना रची जाती है वहाँ तिब्बतियों की पुकार कोई कैसे सुनेगा ?

राजकीय मंच पर बड़े आश्चर्यजनक और नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। कभी-कभी तो बदली हुई दुनिया पहचान में नहीं आती। सोवियत संघ का विघटन किसी ने भी सोचा नहीं था। चीनी शासन भी अपनी आंतिरक विफलताओं से जूझ रहा है। चीन के अधीन रहने वाले पूर्वी तुर्केस्थान और इनर मंगोलिया भी स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस संदर्भ में तिब्बत की स्वतंत्रता के बारे में सोचना कोई कपोल कल्पना नहीं है।
मैंने इस उपन्यास में भविष्य की संभाव्य घटनाओं को एक सच्चे स्वरूप में प्रस्तुत किया है। भविष्य अपने आपमें साकार नहीं होता। सत्ताकेंद्रों की आंतरिक परिस्थिति में हो रही उलट-पुलट आसानी से नजर नहीं आती। लेकिन उनके परिणामों से कोई भी राष्ट्र अछूता नहीं रह सकता। इस उपन्यास में विश्वभर में चल रहे अभियानों को, तथा तिब्बत के जनमानस की प्रतिक्रिया के रूप में घटनाओं को प्रस्तुत किया है। इसलिए इस उपन्यास का स्वरूप कुछ हद तक संशोधात्मक रहा है।
अन्तर्राष्ट्रीय न्याय से वंचित तिब्बती जनता के प्रयासों को आज भी किसी देश की राजशक्ति का समर्थन प्राप्त नहीं है। भारत भी अपनी सुरक्षा की किसी भयभीत रणनीति के तहत तिब्बत की निर्वासित सरकार को मान्यता देने में हिच-किचाता रहा है। तिब्बतियों का धर्मनिष्ठ नेतृत्व ही कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेवार है। उनकी दृष्टि में उनकी संस्कृति ही राजनीति है। तिब्बती उनके सांस्कृतिक, राजनीतिक जीवन और धर्म में कोई फर्क नहीं करते। उनका व्यावहारिक जीवन उसी धर्मसूत्र के साथ बँधा हुआ है। तिब्बतियों के इस दृष्टिकोण का हिंसा पर टिकी वर्तमान विश्व-व्यवस्था और आधुनिक सभ्यता में कैसा स्वागत होगा ? और तथ्य भी तो उसी दिशा में संकेत करते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति में परिवर्तन होते ही रहते हैं। विभिन्न सामाजिक, आर्थिक व्यवस्थाओं को स्वीकार करते हुए उनके सहअस्तित्व की कल्पना अब उभर कर सामने आ रही है। ऐसी स्थिति में तिब्बत का प्रश्न संयुक्त राष्ट्रसंघ में उठ सकता है। जब संसार के कई देश साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द करने का दावा करते हैं तो तिब्बत में हो रही घटनाओं के प्रति आँख बंद कर नहीं बैठ सकते। तिब्बत को भी स्वतंत्र होने का अधिकार है।

तिब्बत के मुक्ति-आंदोलन को यदि गति प्रदान करनी है तो जन आंदोलन, अहिंसक सत्याग्रह, प्रचार माध्यमों द्वारा तिब्बत की भूमिका का प्रतिपादन ये सब बातें व्यापक स्तर पर होनी चाहिए। वर्तमान स्थिति में वहाँ हिंसाचार का उद्रेक होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सच देखा जाए तो अत्याचारों का प्रतिकार करना सहज मानवीय प्रवृत्ति है। रूढ़िनिष्ठ अहिंसक तत्त्वज्ञान के दृष्टिकोण से उस हिंसा का निषेध भी किया जा सकता है। लेकिन यदि हम दुनिया के इतिहास पर नजर डालें तो स्वतंत्रता पाने के लिए हाथ में शस्त्र उठाने पर किसी भी स्वतंत्रता-प्रेमी संगठन ने विरोध नहीं दर्शाया।
तिब्बत मुक्त होगा, लेकिन यह मुक्ति क्षण कब आएगा कोई बता नहीं सकता। ऐसी घड़ी कठोर साधना के बाद ही आती है। इस स्वतंत्रता-संग्राम में संघर्षमय आंदोलन, संहार, शांतिप्रिय असहयोग, भूख हड़ताल ऐसे किसी भी मार्ग का प्रयोग हो सकता है। कोई भी साधना हो, जो ऊर्जा-स्रोत है, स्वयं गतिशील होता है। उसके अन्दर छिपा प्राणतत्त्व चाहे किसी भी विचारप्रणाली से संलग्न हो, किसी भी समय किसी भूमि पर कभी नष्ट नहीं होता।
मैं कोई दूरदर्शी या पथप्रदर्शक नहीं हूँ; लेकिन जो मानवीय मूल्य अनादि अनंत हैं वे विनाश की गहरी खाई से प्रस्फुटित होकर फिर नई चेतना से जीवन समृद्ध करेंगे इस पर मेरा पूर्ण विश्वास है। यही कारण है कि मैं इस मुक्ति-संग्राम की रचना करने का धैर्य जुटा पाया। मैं किसी की निष्ठा पर आघात नहीं करना चाहता। ध्येय प्राप्त करना अधिक महत्त्वपूर्ण है, या निष्ठा अबाधित रखना, इस पर मतांतर हो सकता है। इस उपन्यास में मैंने तिब्बत की स्वतंत्रता को अहम स्थान दिया है। उतना ही मेरा उसमें निजी तौर पर अंतर्भाव है।
भारत-तिब्बत सहयोग मंच के पदाधिकार होने के नाते मैंने अप्रैल 2003 से आज तक उनके सभी अधिवेशनों में भाग लिया। चर्चा के माध्यम से उनके विचारों की दिशा दी जानी। तिब्बत से भारत भाग आए अनेक तिब्बतियों की दर्दभरी कहानियाँ सुनीं। तिब्बत की स्वतंत्रता के बारे में मेरे विचार मंथन को यहीं से प्रेरणा मिली।
इस उपन्यास के लिए विविध स्तर पर जानकारी प्राप्त करने हेतु भारत-तिब्बत सहयोग मंच का अमूल्य योगदान रहा। इस संस्था की प्रेरणा से मैंने स्वयं तिब्बत जाकर वहाँ की राजकीय और सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन किया। इस उपन्यास का स्वरूप संशोधनात्मक होने से मुझे अनेक ग्रंथों का अध्ययन करना पड़ा। उसकी सूचि अलग से दी गई है। इस उपन्यास के प्रकाशन के लिए मैं आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

1.

पोताला पैलेस के सामने स्मिथ ने गाड़ी रोक ली। हजारों कमरों का, ऊँची मीनारों का एक भव्य मध्ययुगीन महल सामने दिखाई दे रहा था। किसी समय दलाई लामा का निवासस्थान रह चुकी यह लाल महल की इमारत मध्यभाग में अलग से नजर आ रही थी।
लेकिन अब यह सब कई वर्षों की धूल से लिपटा हुआ तिब्बती सभ्यता के अनुरूप, सीधा-सादा, फिर भी भव्य, उसके चारों ओर चहारदीवारी थी। उसमें खड़े हजारों खिड़कियों के चौकोर, उपेक्षित से अपने अकेलेपन का अहसास लिये खड़े थे। इस अवस्था में भी वह किला किसी परिकथा के राजमहल से कम आकर्षक नहीं रह रहा था।
रोलेंड स्मिथ और सोनल ने मार्पोरि पहाड़ी की प्राचीर की सीढ़ियाँ चढ़कर महल के सामने खुले परिसर में प्रवेश किया। ऊपर की ओर महल के कमरे में, बड़े कक्ष, सभाग्रह और उनकी खिड़कियाँ बिल्कुल सामने से दिखाई देती थीं....सभी तरफ सन्नाटा था...फिर भी लग रहा था इस वास्तु में किसी जमाने में रहने वाले हजारों बौद्ध भिक्षुओं की प्रार्थना के धीमे स्वर गूँज रहे थे। अचानक लगा कहीं दलाई लामा का संरक्षक दल इन्हीं बरामदों में मार्चपास करता हुआ अभी-अभी गुजर गया हो।
इस महल के हजारों कमरे, कई हमेशा के लिए बंद किए हुए, कुछ कमरे पुरानी चीजों के प्रदर्शन के लिए आरक्षित, कहीं सोने-चांदी से ढली हुई बोधिसत्व की मूर्तियाँ, उन पर झूमते झिलमिल रेशमी वस्त्र के परदे, कहीं देवताओं की असंख्य प्रतिमाएँ, उनके चेहरे पर मुग्ध प्रेममय भाव, उनमें से कुछ गुफाओं में बंद प्राचीन शिल्प सी सनातन, आदिमाया सी, चैतन्य से भरी हुई, गूढ़ता का वलय लिए...जिन्हें देखते ही अंतर्मन भयाक्रांत हो।
यहाँ झरोखों से आने वाला हवा हल्का सा झोंका भी पुरानी यादों के परदों में उलझता हुआ, किसी ठंडी साँस की तरह और महल के दूसरे छोर पर मस्ती में नाचते हुए बेताब चीनी सैनिकों के काफिले और उनसे छुपकर किसी अज्ञात कमरे में दलाई लामा के सचिव धीमे स्वर में राजनीतिज्ञों से वार्तालाप करते हुए...सच देखा जाए तो यह सन् 1959 में घटित घटनाक्रम अब तो केवल आभास मात्र ही था।
हजारों कमरों वाला अनदेखे सभागृहों का, पवित्र शिल्पों वाला, तहखानों के बने बंदीघरों का और अज्ञात सुरंगों का यह राजमहल असल में क्या था यह कोई भी नहीं जानता था। शायद वह एक बुद्ध विहार था। मजबूत प्राचीर वाला किला था या तिब्बती कलाकृतियों का अमूल्य खजाना था। यह राज की बात थी।

वे ऊपर चढ़ कर छत पर आ पहुँचे। वहाँ से उतरती सुनहरी छपरियों की कमानी, उस पर दमकता सोने का गुंबद, प्राचीन वैभव के ये अवशेष बरबस ही ध्यान आकृष्ट कर रहे थे। बतखों, हंसों से भरा हुआ, हिमालय की गोद में बसा हुआ वह ताल किसी रत्न की तरह दिखता था। अब वह जंगली झाड़ियों से घिरा था।
उन्होंने कई दालानों को देखा। सभी जगह तिब्बती साम्राज्य का पुराना वैभव, चीनी प्रशासन के मजबूत पंजों तले दबा हुआ कसमसाता प्रतीत हो रहा था। ऊपर से नजर आनेवाला ‘ल्हासा’ शहर भी पूरी तरह बदल चुका था। ल्हासा के उत्तरी दिशा में बनी आधुनिक काल की इमारतों द्वारा जोखांग परिसर के पुराने घरों को घेर लेने से, वे पूरी तरह जकड़े हुए नजर आ रहे थे।
पोताला पैलेस को देखते हुए काफी समय बीत गया था। अच्छी कसरत हो चुकी थी। अब वे सबसे ऊपरी मंजिल पर थे। नीचे का दृश्य देखते ही उनकी सारी थकान मिट गई। तेरह मंजिल ऊँची इमारत से दिखने वाले जोखांग मंदिर के कलश तथा आसपास गहरे घाटी से ऊपर उठने वाले हरे वृक्ष मन को मोहित कर रहे थे। लेकिन सोनल के प्रेम में गिरफ्त स्मिथ को सामने केवल सोनल ही नजर आ रही थी। आज सोनल ने विशेष रूप से भारतीय पोशाक पहनी हुई थी। गहरे हरे रंग की सुनहरी बेलबूटे वाली साड़ी में वह अलग ही नजर आ रही थी। आज तक उसने स्मिथ के साथ मित्रवत संबंध रखे थे। केवल निस्वार्थ मित्रता....उसके पीछे केवल आदरयुक्त भावना थी। इस नाते वह उसका एकमात्र मित्र था और इसीलिए उसके साथ दिल खोलकर बातें करने में उसे कभी दिक्कत नहीं महसूस हुई।
पोताला पैलेस के टेरेस पर खड़े रहकर वे सामने का दृश्य सँजो लेना चाहते थे। वह प्राचीन जोखांग मंदिर का परिसर, उस पर ल्हासा की दो मंजिला पुरानी इमारतें तथा दाहिनी दिशा में बहनेवाली क्युचू नदी का शुभ्र धवल प्रवाह, तिब्बती प्राचीन परंपरा के इतने ही अवशेष बाकी थे।
उसने पूछा, ‘‘स्मिथ, क्या तुमने एक बात पर गौर किया है ?’’
‘‘क्या ?’’
‘‘यहाँ से नजर आनेवाले ये स्तूप, बुद्ध विहार के कलश तथा प्राचीन ल्हासा शहर के अवशेष ज्यादा समय तक बदलते विश्व से टक्कर नहीं ले पाएँगे।

स्मिथ ने कुछ न बोलते हुए केवल गर्दन हिलाकर हामी भरी। ‘‘सत्ता का उपयोग क्या दूसरों के श्रद्धास्थान, कला, साहित्य को नेस्तनाबूद करने के लिए ही होता है ?’’ सोनल ने कहा। अब स्मिथ को बोलना ही पड़ा ‘‘किसी प्रदेश को जीतना है, तो पहले वहाँ की संस्कृति को नष्ट करना आवश्यक है। केवल लोगों को मार कर प्रदेश अपना नहीं हो जाता। चीनी धूर्त हैं। चीनी जानते हैं, तिब्बतियों के श्रद्धास्थान नष्ट कर तथा उन्हें चीनी साम्राज्य की श्रेष्ठता से परिचित किए बिना तिब्बती चीनी संस्कृति को नहीं अपनाएंगे।
‘‘लेकिन यहाँ तो हत्याओं का दौर शुरू है। जेलों में तिब्बतियों पर अमानवीय अत्याचार क्या दर्शाते हैं ?’’
‘‘अगर तिब्बती जनता चीनी वर्चस्व स्वीकार नहीं करेगी, तो ऐसा ही होगा।’’
‘‘लेकिन इस आधुनिक युग में यह क्रूरता समाप्त होनी चाहिए, ऐसा नहीं लगता तुम्हें ?’’
‘‘सर्वशक्तिमान होने के लिए सब तरफ यह स्पर्धा चल रही है। जब तक अहंकार है, सामर्थ्य की लालसा है, तब तक मनुष्य ऐसे ही लड़ता रहेगा।’’
सोनल का करीबी मित्र गांदेन ताशी ल्हासा की जेल में जब से बंद हुआ जब से सोनल निरंतर मनुष्य प्रवृत्ति का विचार करने लगी थी। वह बीच में ही स्मिथ से मन की बात पूछ लेती और स्मिथ किसी तत्त्वज्ञानी की तरह उसे जवाब देता। स्मिथ के साथ यहाँ आने के पश्चात् उसके उत्साह में काफी वृद्धि हुई थी। गांदेन ताशी को वे अवश्य छुड़ा सकेंगे, यह आशा प्रबल होती जा रही थी। लेकिन फिर भी वह सहजता से किसी भी बात में रुचि नहीं ले पा रही थी।
‘‘क्या ताशी इस यातना घर से मुक्त हो सकेगा ?’’ अचानक ही सोनल के होंठों पर प्रश्न उभर आया।
‘‘हाँ क्यों नहीं निश्चित रूप से।’’
‘‘और कितने दिन तुम यहाँ रह सकोगे ?’’
‘‘कुछ सप्ताह ...गांदेन ताशी छूटने तक।’’
‘‘सच ?’’
‘‘क्या तुम्हें छोड़कर मैं अकेला अमेरिका वापस जाऊँगा ?’’
‘‘फिर हम निश्चित रूपरेखा तैयार कर उसे जरूर छुड़वाएँगे। समय तो लगेगा। वैसे भी हमें यहाँ कौन जानता है ?’’
हमारी जान-पहचान सामने न आए यही बेहतर है। जरा-सी आशंका होने पर यहाँ के पब्लिक सिक्यूरिटी ब्यूरो के लोग हमें जिंदा नहीं छोड़ेंगे। हम चीन से आए हैं, यह हमें ध्यान में रखना चाहिए।’’

‘‘मेरे लिए तो यह अभी भी तिब्बत ही है।’’
कुछ समय और बातचीत कर वे लौट रहे थे। कल का कार्यक्रम उन्हें तय करना था। वे पोताला पैलेस की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे, उसी समय एक तिब्बती लड़का उन्हें देखकर दौड़ कर पास आया। वह काफी तेज लग रहा था।
‘‘क्या सेरामठ देखने जाना है ? नॉरबुलिंगा देखा है क्या ? यहाँ के द्रेपंग, नेच्युंग विहार देखने योग्य हैं।’’ वह अपने तरीके से बुद्ध विहारों का महत्त्व बता रहा था।
दोनों ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, लेकिन उसको इतनी आसानी से टाल देना आसान नहीं था। ‘‘मैं तिब्बती हूँ, इसीलिए बता रहा हूँ यहाँ प्रत्येक स्थान की जानकारी सच मायने में हम तिब्बती ही दे सकते हैं।’’
एक चीनी गाइड उनकी बातें सुन रहा था। वह तुरंत दौड़कर वहाँ आया।
‘‘क्यों रे, क्या तू टूरिस्टों को बहकाना चाहता है ? हम चीनी लोगों के बारे में क्या बोल रहा था ?’’
और उन दोनों में अच्छी खासी बहस होने लगी। हाथापाई की नौबत आ गई। उसे मारने के लिए उसके साथी गाइड आने पर वह सरपट भाग खड़ा हुआ।
उसके पश्चात स्मिथ न सोनल नॉरबूलिंगा पार्क देखने गए। वहाँ गाइड की आवश्यकता नहीं थी और सच देखा जाए तो वह पार्क ल्हासा होटल के एकदम निकट था।
नॉरबूलिंगा पार्क देखकर जैसे ही वह लौट रहे थे, गेट के पास वही तिब्बती गाइड खड़ा था। उसके चेहरे पर खरोचें थी, बाल धूल से सने थे।
‘‘साहब, ल्हासा के पवित्र स्मारकों को चीनी गाइड समझा नहीं पाते। गलत जानकारी देते हैं। तिब्बती गुफा, उनमें तपस्या करने वाले लामा, उनकी मंत्रशक्तियों का प्रभाव, उनकी दफनभूमि के रहस्य यह सब आप जानना चाहते हैं न ? मैं तुम्हें वह सब दिखाऊँगा और काफी कम खर्च में। हमें चीनी पुलिस का डर लगा रहता है’’...कुछ सोचकर वह बोला। ‘‘क्या कल आपकी लॉज में आऊँ ?’’
स्मिथ को उसका लालच अच्छा नहीं लगा। लेकिन सोनल को उस पर दया आ गई।
उसने पूछा, ‘‘क्या नाम है तुम्हारा ?’’
‘‘ल्यूसँग’’
‘‘अच्छा, यह तो चीनी लगता है। सच बता, तूने उस चीनी गाइड के साथ मारपीट क्यों की ?’’

‘‘चीनी लोगों ने हमारा गाइड का धंधा ही बंद कर दिया है। गाइड एसोसिएशन में इनके ही आदमी है। शिकायत करने पर वे हमें दोषी करार देकर सीधे जेल में बंद कर देते हैं। ऐसे में हमारा पेट कैसे भरेगा।’’
यह बोलते हुए उसका चेहरा कातर हो उठा था।
‘‘कल होटल पर आ जाना। सोनल ने उसे पता दिया। सोनल का यह बर्ताव स्मिथ को पसंद नहीं आया। ‘‘वह तिब्बती लड़का शायद तुम्हें लुभाने में सफल हुआ है।’’
‘‘ऐसा नहीं है। थोड़े से पैसों के लिए उसे क्या-क्या सहना पड़ता है’’।
‘‘अच्छा जानो दो। अब क्या करने का इरादा है ?’’ स्मिथ ने पूछा।
सोनल की लॉज पर जाने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। ‘‘चलो हम जरा घूमकर आएँ।’’ उसने कहा।
स्मिथ ने तुरंत टैक्सी रुकवाई।
टैक्सी क्युचू नदी किनारे के रास्ते से जा रही थी। आँखें बंद कर सोनल पीछे टिककर बैठ गई। ‘साल हो गया गांदेन ताशी को मिले, काफी यादें अब भी ताजा हैं। वह अब किस हालत में होगा। केवल विचारों से ही उसका शरीर काँप उठा।
‘‘गांदेन ताशी अत्यंत बुद्धिमान ! कोमल हृदय का गांदेन ताशी !’ देखते-देखते सोनल अतीत में खो गई.......
.....गांदेन ताशी ! टेक्सास यूनिवर्सिटी फोटवर्थ में अध्ययन करने आया एक तिब्बती। तिब्बत फुलब्राइट स्कालरशिप प्रोग्राम के अनुसार वह पत्रकारिता के स्नातकोत्तर कोर्स हेतु यहाँ धर्मशाला से आया था। गांदेन के चेहरे के भाव कोमल, बिल्कुल छोटे बच्चे जैसे लगते थे, किसी जुझारू सिपाही की तरह, सफर में शीघ्रता से पहाड़ी चढ़नेवाला, पानी में मछली की तरह तैरनेवाला। शर्त लगाओ तो कहीं से भी छलाँग लगाने को तैयार, हाथ-पैर टूटने का कोई भय नहीं। उसी तरह पढ़ाई में भी, एक बार अध्ययन करने बैठने पर, चार-पाँच घण्टे योगी की तरह जगह पर स्थिर रहने वाला। तिब्बती-ध्यान-साधना बड़ी सहजता से करते हैं, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण।

जब सोनल से उसकी मुलाकात हुई वह प्रसंग काफी मजेदार था। उनके पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के तहत दोनों को एक ही गुट में अखबरा के समाचार तैयार करने का प्रोजेक्ट दिया गया था। कौन कितने प्रभावी तरीके से अपने समाचार प्रकाशित कर सकता है, इस संदर्भ में प्रत्येक समूह में होड़ थी। सोनल द्वारा तैयार एक समाचार पर गांदेन ने आपत्ति जताई। उसका कहना था कि दलाई लामा का उल्लेख करते समय सोनल को परमपावन की उपाधि लगानी चाहिए थी। धर्मगुरु चाहे वह किसी भी धर्म का हो, उसका उल्लेख आदरणीय संबोधन से ही होना चाहिए। इससे सोनल सहमत नहीं थी। ऐसा होने पर अनेक प्रख्यात लोगों का उल्लेख करते बाधा आ सकती है। क्योंकि उस व्यक्ति के प्रति समाज के कुछ लोगों का आदर होना स्वाभाविक है, लेकिन हर किसी का दिल कैसे रखा जा सकता है ?

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