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विष्णुगुप्त चाणक्य (सजिल्द)

वीरेन्द्र कुमार गुप्त

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :364
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4903
आईएसबीएन :81-88466-52-2

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एक ऐतिहासिक उपन्यास...

Vishnugupt chanakya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘वत्स यवन! मैं सत्यानवेषी अध्येता और अध्यापक हूँ। यही मेरी मूल वृत्ति और साधना है।

इसी सत्य-शोध की साधना के बीच अनायास ही चन्द्रगुप्त मुझे मिला; नंद-वंश के विनाश और नये साम्राज्य के निर्माण का संकल्प मुझे मिला; संकल्प की पूर्ति मुझे मिली और इस विशाल आर्य साम्राज्य का महामंत्रित्व मिला।
पर सदैव ये सब मेरे लिए माध्यम ही रहे, सत्य ही लक्ष्य रहा।’’

इसी उपन्यास से

दो शब्द


चाणक्य और चन्द्रगुप्त के जीवन एवं उनकी उपलब्धियों के विषय में जो मूल तथ्य निर्विवाद रूप से मान्य हैं:, वे हैं: 1.चाणक्य तक्षशिला में राजनीतिशास्त्र के अध्यापक थे और चंद्रगुप्त को शिष्य-रूप में ग्रहण करके उन्होंने उसे एक वीर योद्धा का रूप दिया था; 2. जिस समय सिकंदर का आक्रमण हुआ, चंद्रगुप्त लगभग 22-23 वर्ष का युवक था और सिकंदर एवं पुरु के युद्ध के समय वह अपने गुरु के साथ युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित था; 3. किसी कारण नंद ने चाणक्य का घोर अपमान किया और क्रुद्ध चाणक्य ने नंद के विनाश का प्रण लिया; 4. चाणक्य और चंद्रगुप्त ने पाटिलपुत्र पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया और नंद के स्थान पर चंद्रगुप्त सम्राट बना; 5.अब चाणक्य के मार्ग-दर्शन में चंद्रगुप्त ने साम्रज्य-विस्तार किया एवं मगध-साम्राज्य में पश्चिम में तक्षशिला तक फैल गया; तथा 6. जब अनेक वर्ष बाद सिल्यूकस ने आक्रमण किया तो चंद्रगुप्त ने उसे सिंधु-तट पर बुरी तरह पराजित किया और उससे कई पश्चिमोत्तर प्रांत छीन लिए। सिल्यूकस को अपनी कन्या का दान भी करना पड़ा। इन मूलभूत तथ्यों से संबंधित विविध विवरण एवं अवर तथ्य अनिश्चित हैं।

 ग्रीक लेखों, बौद्ध-जैन-हिन्दू ग्रंथों में बिखरे उल्लेखों, पुरातात्त्विक अवशेषों-शिलालेखों तथा काव्याख्यानों में प्राप्त वर्णनों एवं किंवदंतियों के हवाले देकर इतिहासकारों ने अपनी-अपनी चिंतना और धारणा के अनुसार चाणक्य-चंद्रगुप्त के अनिश्चित जीवन-तथ्यों को एक निश्चित रूपरेखा देने का प्रमाण किया है। इन दो इतिहास-पुरुषों को लेकर रचे गये अनेक नाटकों एवं उपन्यासों के रचयिताओं ने भी इतिहासकारों के ही पथ पर चलकर अपनी-अपनी कथावस्तुओं की रचना अपने-अपने ढंग से की है। कोई अन्य मार्ग रहा भी नहीं है और प्रस्तुत उपन्यास में भी इसी का अनुसरण किया गया है। अनिश्चित विविरणों-तथ्यों को विषय रूपरेखा देते समय मेरा क्या चिंतन रहा, यह स्पष्ट करना आवश्यक मानकर ही दो शब्द मैं लिख रहा हूँ।

मूल समस्या यह है कि चाणक्य को किस रूप से ग्रहण किया जाए ? क्या वे मात्र एक कुटिल कूटनीतिज्ञ थे, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत प्रतिशोध के लिए दुर्द्धर्ष कूटनीति को साधन बनाया ? अथवा, किसी महत् राजनीतिक-राष्ट्रीय लक्ष्य से अनुप्राणित होकर कूटनीति को शस्त्र के रूप में उन्होंने ग्रहण किया; नंद द्वारा किए गए व्यक्तिगत अपमान का प्रतिशोध उनका मुख्य साध्य था या वह मात्र एक उद्दीपक प्रेरण थी ? चाणक्य की प्रवृत्ति के विषय में कुछ तथ्य सर्वमान्य हैं। विशाल मौर्य साम्राज्य के निर्माता एवं महामात्य होते हुए भी जीवन-भर वे राजधानी के राजकीय वैभव से दूर एक आश्रम में ही रहे। अपने महान् कृतित्व एवं उच्चमत पद के आधार पर किसी व्यक्तिगत लाभ का दावा उन्होंने कभी नहीं किया। अध्यापन को तो अंत तक नहीं छोड़ा। ऐसा निस्संग सिद्ध पुरुष किसी भी व्यक्तिगत प्रतिशोध से अभिभूत नहीं रह सकता। प्रतिशोध उसका लक्ष्य नहीं, उसके महदुद्देश्य, उसकी किसी विराट् योजना का गौण अंग मात्र ही बन सकता है। वस्तुतः ऐसा ही था भी, क्योंकि नंद के विनाश के साथ चाणक्य चुक नहीं गए। वे एक अधिक विशद, अधिक गहन आयास में जुट गए। पूरे भारत को उन्होंने एक साम्राज्य के रूप में संगठित किया और यवन आक्रामक सिल्यूकस को वह मुँहतोड़ उत्तर दिया जिसका, उदाहरण बाद के इतिहास में अप्राप्त है। चाणक्य एक ऋषि थे, अध्यात्मवादी ऋषि नहीं, कूटनीतिज्ञ ऋषि। चाणक्य को इसी रूप में चित्रित करने का प्रयास प्रस्तुत उपन्यास में किया गया है।

चाणक्य कहाँ के थे और चंद्रगुप्त कौन था ? ये दोनों प्रश्न निरंतर विवादास्पद रहे हैं। हेमचन्द्र ने ‘अभिधान चिंतामणि’ में चाणक्य के अनेक नाम दिए हैं। वात्स्यायन, मल्लिनाग, कुटिल, चाणक्य द्रामिल, पक्षिलस्वामी, विष्णुगुप्त और अंगुल। (सत्यकेतु विद्यालंकार, ‘मौर्य साम्राज्य का इतिहास’, पृष्ठ 21)। मात्र द्रामिल और पक्षिलस्वामी नामों की साक्षी से चाणक्य को दाक्षिणात्मक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। असंभव नहीं हैं कि उनके पूर्वज दक्षिण में आकर उत्तर में बसे हों।  पर बौद्ध गंथों में चाणक्य को तक्षशिला का वासी बताया गया है (महाबंशो एवं वंशत्थप्पकासिनी)।

 जैन अनुश्रुति के अनुसार वे गोल्ल जनपद के चण ग्राम में उत्पन्न हुए थे और उनके पिता चणक नाम से प्रसिद्ध थे (उत्तराध्यायन सूत्र टीका एवं परिशिष्ट पर्व)। गोल्ल जनपद की भौगोलिक स्थिति अज्ञात है। ऐसी स्थिति में बौद्ध साक्ष्य का अनुसरण करके यह मानना संगत लगता है कि गोल्ल जनपद का उल्लेख पश्चिमोत्तर प्रदेश में ही था। भरहुत के एक उत्कीर्ण लेख में गोल्ल जनपत का उल्लेख भी यही बात पुष्ट करता प्रतीत होता है। कुछ विद्वानों ने चाणक्य को मगध का वासी माना है। पर अंतः साक्ष्य इस मान्यता से मेल नहीं खाते। चंद्रगुप्त को शिक्षित करके वे तत्काल मगध नहीं लौट गए। पंजाब में रहकर उन्होंने पहले यूनानियों से टक्कर ली और फिर वहीं रहकर मगध-अभियान के लिए सेना का संग्रह किया। पंजाब के छोटे-छोटे गणों एवं राज्यों में बँटे-बिखरे होने और इनकी क्षुद्र पारस्परिक कलह से वे अत्यंत त्रस्त रहे। यह बात ‘चाणक्य नीति’ से भी उभरकर आती है और इस तथ्य से भी स्पष्ट है कि मौर्य साम्राज्य की शक्ति का उपयोग उन्होंने पंजाब एवं पश्चिमोत्तर प्रदेश को संगठित और सुदृढ़ बनाने में विशेष रूप से किया। प्रस्तुत उपन्यास में गोल्ल जनपद को तक्षशिला का समीपवर्ती माना गया है। चाणक्य के पिता चण ग्राम के होने के कारण चणक और वे स्वयं चणक-पुत्र होने के कारण चाणक्य कहलाए। उनका व्यक्तिगत नाम विष्णुगुप्त था, जिसका हर कहीं उल्लेख मिलता है। कुटल संभवतः उनका गोत्र नाम था और कौटल्य उसी से बना।

चंद्रगुप्त की पहचान भी विवादों से मुक्त नहीं रही है। यह सब मानते हैं और उसकी माँ का नाम मुरा था। कहा गया है कि मुरा-पुत्र होने के कारण ही वह मौर्य कहलाया। पर ‘महाबंशों के अनुसार मोरिय खत्तियों (मौर्य क्षत्रियों) का एक गण पिप्पलिवन प्रदेश में अवस्थित था और चंद्रगुप्त इस गण के राजा का पुत्र था। मौर्यों को शाक्यों की एक शाखा भी माना गया है। महापरिनिब्बान सुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध के निर्वाण पर पिप्पलिवन के मोरियों ने भगवान की अस्थियों के एक अंश की माँग की थी। भगवान महावीर ग्यारह गंधर्वों में एक था, मोरिय सन्निवेश का कश्यप-गोत्रीय मोरय-पुत्र। पटना से 58 मील पूर्व में ईस्ट इंडिया रेलवे पर एक स्टेशन है, मोर, जहाँ प्राचीन टीले बहुत मिलते हैं।

 बौद्ध एवं ब्राह्मण धर्म-चिन्ह यहाँ से बड़ी संख्या में मिले हैं। पीपल के वृक्ष भी यहाँ बहुतायत से पाए जाते हैं। संभवतः यही मोरिए क्षत्रियों का नगर था। यह कहना संगत नहीं लगता कि चंद्रगुप्त मुरा-पुत्र होने का कारण मौर्य कहलाया। मुरा को किसी नंद की पत्नी या दासी मानना भी अनुचित है। संभावना यही लगती है कि नंद ने पिप्पलिवन के मोरिय नगर को ध्वस्त किया हो और मुरा अपने पति के मारे जाने अथवा बंदी बन जाने पर अपने नवजात पुत्र को लेकर भागी हो और पाटिलपुत्र में किसी संबंधी के यहाँ आश्रम लेकर रहने लगी हो। यह भी हो सकता है कि चंद्रगुप्त के पिता को बंदी बनाकर पाटिलपुत्र लाया गया हो और मुरा पीछे वहीं आ गई हो। कुछ भी हुआ हो, चंद्रगुप्त क्षत्रिय-पुत्र था और मुरा नंद की दासी या पत्नी नहीं थी। ‘मुद्राराक्षस’ नाटक में चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त को ‘वृषल’ संबोधित किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि वह शूद्र था। इसकी सूचना यही है कि ‘संभवताः चंद्रगुप्त सनातन वैदिक या पौराणिक धर्म का अनुयायी नहीं रहा था।’ (सत्यकेतु विद्यालंकार) प्राच्य प्रदेशों के क्षत्रियों को प्रायः ‘क्षत्रिय-बंधु’ या ‘व्रात्य’ कहा गया है।

चाणक्य ने बालक चंद्रगुप्त को पाटिलपुत्र के निकट पाया, इससे यह स्थापित नहीं हो जाता कि ये दोनों पाटिलपुत्र के थे। चंद्रगुप्त निस्सहाय होने के कारण वहाँ था और चाणक्य स्यात् भ्रमण के लिए वहाँ आया था। उस काल में नियम था कि छात्र गुरुकुल की शिक्षा समाप्त करके देश का भ्रमण करते थे और अपने-अपने विषय के विद्वानों से मिलते थे। चाणक्य का विषय राजनीति होने के कारण विशाल नंद-साम्राज्य की राजधानी पाटिलपुत्र उसके लिए स्वाभाविक आकर्षण थी। फिर तक्षशिला के स्नातक शकटार साम्राज्य के महामंत्री थे।

ग्रीक अभिलेखों के अनुसार सिकंदर और पुरु के समय चाणक्य एवं चंद्रगुप्त कर्रई के युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित थे। इनकी उपस्थिति के पीछे तीन कारण हो सकते हैं; चाणक्य ने चाहा हो कि युवक चंद्रगुप्त युद्ध का अनुभव प्राप्त करे और ग्रीक युद्ध-कौशल का अध्यनन करे। दूसरा कारण पुरु की सहायता करना हो सकता है। ये दोनों कारण प्रस्तुत उपन्यास में स्वीकार किए गए हैं। तीसरा कारण, जैसा कि ग्रीक लेखक कर्टियस ने लिखा है, यह था कि चंद्रगुप्त युद्ध के परिणाम पर दृष्टि रखने के लिए वहाँ था। वह नहीं चाहता था कि सिकंदर या पुरु कोई भी पूर्ण पराजय का मुँह देखे, क्योंकि पुरु से उसके अच्छे संबंध थे और सिकंदर से उसने तक्षशिला में संधि की थी कि सिकंदर यहाँ के बाद नंद-साम्राज्य पर आक्रमण करेगा। कर्टियस ने यह भी लिखा है कि जब युद्ध के अनिर्णीत चलने की स्थिति में बात करने के लिए आए आम्भीक पर भाला फेंककर पुरु ने उसे भगा दिया, तब मेरोसे (चंद्रगुप्त) ने पुरु से बात की और पुरु और सिकंदर के बीच संधि कराई।

प्रसिद्ध विद्वान डा. बुद्धप्रकाश का मत है कि ग्रीक लेखकों ने स्वात के एक महात्त्वाकांक्षी सामंत शशिगुप्त (ग्रीक अभिलेखों में सिसिकोट्टस) को चंद्रगुप्त से मिला दिया है। यह भ्रम मेरोस नाम के कारण हुआ है, जो मौर्य से मिलता-जुलता है। शशिगुप्त आम्भीक और पुरु से सुपरिचित था और आरंभ में ही सिकंदर के पक्ष में आ गया था। ध्यान देने की बात है कि यद्यपि चाणक्य और चंद्रगुप्त युद्धस्थल पर थे, पर उस क्षण वे ऐसी स्थिति में कहां थे कि प्रबल केकय-नरेश पुरु और विश्व-विजेता सिकंदर के निर्णयों को प्रभावित कर सकते। उस क्षण न तो उनके पैरों के नीचे धरती थी, न हाथ में कोष था और न ही साथ में कोई सेना थी। चाणक्य मात्र एक शिक्षक थे और चंद्रगुप्त हाल ही में स्नातक बना एक साधनहीन युवक था। फिर चाणक्य के चरित्र और बाद में उनके द्वारा छेड़े गए ग्रीक-विरोधी अभियान को देखते हुए भी यह असंगत लगता है कि उन्होंने सिकंदर से साँठ-गाँठ करने की अनुमति चंद्रगुप्त को दी होगी। वस्तुतः. आम्भीक के भाग जाने के बाद पुरु से मिलने आने वाला भारतीय ‘मोरोस’ शशिगुप्त था, न कि चंद्रगुप्त। शशिगुप्त बाद में पुष्कलावती का क्षत्रप नियुक्त किया गया और वर्षों बाद ग्रीक सेनापतियों के आपसी संघर्ष में लड़ता हुआ मारा गया।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या कर्रई के युद्ध में पुरु पराजित हुआ था और बंदी बनाया जाकर सिकंदर से  सामने पेश किया गया था ? इतिहासकारों ने यही तस्वीर सबके सामने रखी है। इस विषय में ग्रीक लेखकों ने अलग-अलग मत व्यक्त किए हैं। जस्टिन और प्लूटार्क के अनुसार पुरु बंदी बना लिया गया था डियोडोरस का कहना है कि घायल पुरु सिकंदर के कब्जे में आ गया था, पर सिकंदर ने उसे उपचार के लिए भारतीयों को लौटा दिया था। कर्टियस ने मत रखा है कि घायल पुरु की वीरता प्रभावित होकर सिकंदर ने संधि प्रस्ताव रखा। एरियन ने भी यही लिखा है कि हारते हुए घायल पुरु के साहस को देखकर सिकंदर ने शांति के लिए पुरु के पास दूत भेजा। एक विवरण में यह भी मिलता है कि पुरु लड़ाई में मारा गया। यथार्थ में पुरु नहीं, उसका पुत्र इस युद्ध में खेत रहा था। कुछ का मत है कि युद्ध अनिर्णीत रहा है और पुरु के दबाव के सामने सिकंदर ने संधि का मार्ग ही उचित समझा। ग्रीक लेखकों की मतभिन्नता से स्पष्ट है कि अपने विश्व-विजेता सम्राट् के गौरव को बचाने के प्रयास में वे एक अरुचिकर तथ्य पर पर्दा डाल रहे हैं। वे मान रहे हैं कि संधि की पहल सिकंदर ने की थी। पर क्यों ? मेसीडोनिया से झेलम तक की यात्रा के बीच ऐसी उदारता उसने कहीं भी नहीं दिखाई थी।

 वह एक क्रूर नृशंस विजेता था। विजितों के अनेक नगरों को जलाकर उसने राख किया, जिनमें ईरान के प्रसिद्ध नगर पर्सीपोलिस का नाम उल्लेखनीय है। सहस्त्रों पराजित शत्रुओं को उसने तलवार के घाट उतारा, कुछ ही दिन पूर्व मशकावती में रक्षा का वचन देने के बाद भी पाँच सहस्त्र स्त्री-पुरुष, बच्चों को उसने निर्ममता से काट डाला था। झेलम के इस युद्ध के बाद भी उसने कठों का नरसंहार किया और उसके नगर साँगल की ईंट से ईंट बजा दी। यही नहीं, अपने ही अनेक स्वामिभक्त सहयोगियों को उसने तनिक-सी बात से रुष्ट होकर  तड़पा-तड़पाकर मारा था। इनमें योद्धा बेसस, उनकी अपनी ही धाय का भाई क्लीटोस, पर्मीनियन आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। ऐसा सिकंदर पुरु के प्रति इतना उदार क्यों हो उठा कि जंजीरों में जक़ड़े पुरु को न केवल उसने छोड़ दिया था, बल्कि उसे बराबर में बैठाया और उसका राज्य उसे वापस कर दिया.....?

 इतना ही नहीं, बाद में यमुना तक का विशाल प्रदेश भी, जो उसने गणों को कुचलकर जीता था, पुरु को ही सौंप दिया। ध्यान देने की बात है कि जाते समय पुरु की राजधानी में उसने अपना कोई ग्रीक क्षत्रप नियुक्त नहीं किया, जबकि तक्षशिला में समर्पित आम्भीक के रहते भी उसने फिलिप्स को वहाँ रखा। पुरु के लिए उसने अपने प्रबल सहयोगी और पुरु के शत्रु आम्भीक को निराश और नाराज तक किया। यदि पुरु हार गया था और बंदी बना लिया था, तो तर्कसंगत यह था कि सिंकदर पुरु का राज्य अपने साथी आम्भीक को सौंपकर उसे पूरे उत्तर पश्चिम भारत का एकच्छत्र शासक बना देता। आम्भीक निश्चिय ही ग्रीक-प्रभाव में रहता और तब ग्रीक-विजय सिकंदर के भारत छोड़ते ही बिखर न गई होती।

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