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रेवा

बृजलाल हांडा

प्रकाशक : सावित्री प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4899
आईएसबीएन :0000

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एक श्रेष्ठतम उपन्यास...

Reva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1

चियोग के घने जंगल में देवदार के पेड़ तने हुए खड़े थे। उन्हें देखकर ऐसा लगता था कि मानो फौजी सैनिकों के दल अनुशासनबद्ध तरीके से परेड ग्राउंड पर खड़े हों। पत्तों से छनकर आती हुई धूप मनोज को बहुत प्यारी लग रही थी। एक टाँग में प्लास्टर चढ़ा होने के कारण हिलने तथा डुलने में उसे तकलीफ हो रही थी।
‘मुझ पर आक्रमण करने वाले लोग कौन हो सकते हैं ?’ मन-ही-मन उसने अपने आप से पूछा। इस प्रश्न का उत्तर ढूँढ़ना आसान नहीं था। उसने इस धरती की माटी तथा यहाँ के लोगों से प्यार किया था। समर्पित भाव से उसने जन कल्याण के लिए कई कार्य किये थे। फिर उससे भूल कहाँ हो गयी ?
हर इन्सान के भीतर भी एक घना जंगल होता है। इस जंगल के भीतर देवदार की तरह सद्प्रवृत्तियों के वृक्ष भी होते हैं जो अपनी ठंडी-ठंडी छाँव से हमें जीवन के प्रति आस्थावान बनाते हैं। इसी जंगल के भीतर एक हिंसक जानवर भी विचरता रहता है। अनियंत्रित हो जाने पर उचित-अनुचित के बीच भेद-भाव नहीं करता। अपनी तांडव लीला से तबाही का दृश्य उत्पन्न कर देता है। इस हिंसक जानवर को विवेक की लगाम से सदा नियंत्रण में रखना पड़ता है।
टाँग टूटने का उसे इतना गम नहीं था। उसके दुःख का कारण शैलजा का नृत्य न देख पाने की असमर्थता थी। आखिरी क्षणों तक वह उसके आने की बाट जोहती रहेगी। समय पर उपस्थित होने का उसने स्वयं ही वायदा भी किया था। कई बार जीवन में परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं चलता। कौन जानता था कि रात के समय कुछ अज्ञात लोग उस पर सोये-सोये आक्रमण कर देंगे। लाठियों की चोट उसकी टाँग में फ्रैक्चर होने के कारण वह चलने-फिरने में असमर्थ हो जायेगा। प्लास्टरनुमा इस टाँग के सहारे वह शिमला के रिज पर नहीं पहुँच सकता था। अपनी असहाय स्थिति पर उसे काफी क्षोभ हुआ। नियति से प्रश्न नहीं पूछे जा सकते। उसकी इच्छा का अनुसरण करना ही पड़ता है।
शैलजा का चेहरा उसकी आँखों के सामने मुखर हो उठा। अपने दृढ़ संकल्प के सहारे उसने असम्भव को भी संभव बना दिया था। परीक्षा की इस घड़ी में वह शैलजा के निकट होना चाहता था, परन्तु कई बार परिस्थितियों पर सचमुच ही हमारा नियंत्रण नहीं रह जाता।
शैलजा से पहले उसकी अकस्मात् भेंट रेवा से हुई थी। गुजरे हुए वक्त की उस घटना को क्या वह कभी भुला सकता है ? एक सायंकाल अपने मन के द्वंद्वों से उद्वेलित होकर वह नदी के किनारे टहल रहा था कि उसकी दृष्टि एक युवती पर पड़ी। कौतूहलवश उसके पास जाकर वह बोला, ‘‘इस समय तुम यहाँ क्या कर रही हो ?’’
उसका यह कथन सुनकर वह युवती सकपका गयी। अपने माथे का पसीना पोंछते हुए बोली, ‘‘कुछ नहीं।’’ युवती के स्वर में कम्पन था। उसने सैंडिलें रेत पर खोल रखी थीं। रेत पर पत्थर के नीचे एक पत्र दबाकर रखा था। युवती की मनोस्थिति तथा उसके मनोभावों को पढ़ने में उसे किंचित् मात्र भी देरी नहीं लगी।
‘‘परिस्थितियों से डरकर भागना पलायनवाद कहलाता है।’’

शून्य में आँखें गड़ाये हुए वह युवती बोली, ‘‘जीवन जब एक अँधेरी सुरंग बन जाता है तो इन्सान कब तक संघर्ष कर सकता है !’’
‘‘मन में साहस और संकल्प हो तो अँधेरी सुरंग के पश्चात् भी जीवन में रोशनी की लौ अवश्य नजर आती है।’’
‘‘मुझे कहीं भी वह रोशनी की लौ नजर नहीं आ रही है।’’
‘‘धैर्य रखो, रोशनी अवश्य नजर आयेगी।’’
उसने आगे बढ़ कर पत्थर के नीचे रखे हुए कागज के उस टुकड़े को जमीन पर से उठाया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
‘‘जानते हो इसमें क्या लिखा था ?’’
‘‘जानने की कोई इच्छा नहीं है। पहले तुमने जो कुछ भी क्यों न लिख रखा हो, अब तुम प्यार के गीत तथा प्यार की परिभाषा कागज पर लिखोगी।’’
‘‘क्या ऐसा करना इतना सरल है ?’’
‘‘इस दुनिया में सरल कुछ भी नहीं है। भोजन कमाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है। उसे खाने के लिए भी प्रयास करना पड़ता है।’’
‘‘भोजन तो इन्सान किसी-न-किसी तरह कमा कर खा भी सकता है। लक्ष्यहीन जीवन हमारे भीतर कुंठाओं का प्रादुर्भाव कर हमें अकर्मण्य बना देता है।’’
ठंडी-ठंडी पुरवइया हवा चलने लगी थी। धवल चाँदनी की स्निग्धता नयनों को ठंडक पहुँचा रही थी। वे दोनों नदी के किनारे रेत पर बैठ गये।
‘‘तुम्हारी समस्या क्या है ?’’
‘‘तुम जानकर क्या करोगे ?’’
‘‘मैं तुम्हारी प्राणरक्षा का निमित्त बना हूँ। प्रकृति की इच्छा के बिना ऐसा होना सम्भव नहीं है।’’
‘‘तुम कैसे जानते हो कि मैं प्राण देने के इरादे से यहाँ आयी थी ?’’
‘‘पत्थर के नीचे दबाये हुए पत्र से मैं तुम्हारी मनोस्थिति समझ गया था।’’
‘‘परन्तु तुमने तो वह पत्र पढ़ा ही नहीं।’’
‘‘पढ़ने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी। इस पत्र का मजमून कुछ भी रहा हो, परन्तु यह निर्विवाद सत्य है कि इस समय तुम किसी द्वंद्व से गुजर रही हो।’’
‘‘तुम्हारा यह अनुमान सही है।’’
‘‘क्या मैं तुम्हारे दुःख का कारण जान सकता हूँ ?’’
पल-भर के लिए वह युवती ठिठकी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपने मन की बात किसी अजनबी युवक से कहे या न कहे।

‘‘मैं तुम्हारे मन की दुविधा समझ रहा हूँ। एक बात अवश्य कहना चाहता हूँ। इस सृष्टि में कुछ रिश्ते खून के होते हैं, कुछ सम्बन्ध परिस्थितिवश भी जुड़ते हैं। आज के बाद जब कभी हम पुनः मिलेंगे, एक-दूसरे के लिए अजनबी नहीं रह जायेंगे।’’
‘‘उसकी यह बात युवती को तर्क-संगत एवं सारगर्भित लगी। कम्पनपूर्ण स्वर में वह बोली, ‘‘मैं वास्तव में दुःखी हूँ।’’
‘‘तुम्हारा दुःख स्वयंसिद्ध है। बिना दुःख के इस प्रकार का दुस्साहस भला कौन कर सकता है ?’’
‘‘मेरे पिता मेरी शादी एक शराबी-जुआरी तथा अधेड़ व्यक्ति से करना चाहते हैं।’’
‘‘पर क्यों ?’’
‘‘वे निर्धन हैं और मेरे अलावा उनकी तीन और कन्यायें भी हैं। उस अधेड़ व्यक्ति ने मेरी तीन बहनों की शादी में आर्थिक सहायता करने का वचन भी दिया है। मैं अभी शादी नहीं करना चाहती। मैं जीवन में कुछ बनना चाहती हूँ। कहीं नौकरी करके अपनी बहनों को भी लिखा-पढ़ा योग्य बनाना चाहती हूँ।’’ ‘‘अपनी यह बात अपने पिताजी से भी तो कह सकती हो।’’
‘‘वे मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हैं।’’
उसने ध्यान से उस युवती की ओर देखा। उसकी वाणी में संकल्प था। आँखों में कुछ बनने की चाह थी।
‘‘तुम्हारे लक्ष्यपूर्ति में मैं निमित्त बनना चाहता हूँ।’’
‘‘वह कैसे ?’’
‘‘तुम्हारे लिए किसी अच्छी नौकरी का प्रबन्ध का।’’
‘‘क्या तुम सचमुच में मेरे लिए नौकरी का प्रबन्ध करोगे ?’’
‘‘हाँ।’’
कुछ सोचते हुए वह बोली, ‘‘क्या अपनी इस उदारता का प्रतिफल मुझसे चाहोगे ?’’
‘‘तुम क्या कहना चाहती हो ?’’
‘‘कहीं तुम भी मुझसे शादी का प्रस्ताव तो नहीं करोगे ?’’
दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। उसकी सहायता स्वीकार करने से पूर्व वह अपनी सभी आशंकाओं को दूर करना चाहती थी।
‘‘अपनी ओर से मैं ऐसा कोई प्रस्ताव तुम्हारे समक्ष नहीं रखूँगा।’’
उसका यह कथन सुनकर उस युवती ने चैन की साँस ली।
‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’’
‘‘रेवा।’’
‘‘अपने घर का पता बताकर तुम अभी चली जाओ। कल मैं सारी व्यवस्था कर दूँगा।’’
‘‘मैं अब लौटकर घर नहीं जा सकती।’’
‘‘परन्तु क्यों ?’’
‘‘उस घर से नाता तोड़कर ही मैं यहाँ आयी हूँ।’’

‘‘तुम्हें घर में न देखकर तुम्हारे घर वाले चिन्तित होंगे। कल तुम्हारे पिता से बात कर मैं सब ठीक-ठाक कर दूँगा।’’
‘‘उस घर में मैं अब नहीं रह सकती।’’
‘‘पर क्यों ?’’
‘‘उस घर में उस व्यक्ति का आगमन होता रहता है। उससे मेरी शादी हेतु मेरे पिता ने अपनी सहमति दे दी है। इस सहमति का वह गलत फायदा भी उठा सकता है। वह मुझे कीचड़ में भी धकेल सकता है। मैं साफ-सुथरा जीवन जीना चाहती हूँ।’’
कुछ देर पहले वह मरने की सोच रही थी परन्तु अब साफ-सुथरा जीवन जीना चाहती थी। उसकी यह बात सुनकर उस युवक को प्रसन्नता हुई।
‘‘समस्या केवल आज रात की है। कल तो मैं होस्टल में तुम्हारे रहने की व्यवस्था करा दूँगा।’’
‘‘तुम्हारा भी तो रहने का कोई ठौर-ठिकाना होगा ?’’
‘‘वह तो है।’’
‘‘आज रात मैं तुम्हारे घर में बिता दूँगी।’’
‘‘परन्तु मैं अभी कुँवारा हूँ और मेरे सिवाय उस घर में और कोई नहीं रहता है।’’
‘‘इससे क्या अन्तर पड़ता है ?’’
‘‘क्या तुम्हें मुझसे डर नहीं लगेगा ?’’
‘‘रात के इस निर्जन स्थान पर जब तुमसे मुझे कोई भय नहीं लग रहा है, घर में क्यों लगेगा ? प्रत्येक घर की कुछ-न-कुछ मर्यादाएँ होती हैं।’’
उस युवती ने स्वतः ही उसकी समस्या का हल खोज लिया था।
दोनों रेत पर चलने लगे। हवा से उस युवती के बाल उड़ रहे थे। कभी-कभी उसका चेहरा बालों से ढक जाता। सड़क पर पहुँचने पर ट्यूब-लाइट की रोशनी में उसने उस युवती को ध्यान से देखा। चाँदनी की तरह खिला हुआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, छरहरा बदन। उसके सौंदर्य में गजब की आकर्षणशक्ति थी।
‘‘तुम जीवन में क्या बनना चाहती हो ?’’
‘‘नृत्यांगना।’’
‘‘क्या तुमने नृत्य की शिक्षा ग्रहण की है ?’’
‘‘हाँ।’’
थोड़ी देर के उपरान्त उसका घर आ गया। कमरे में जाकर वह चारपाई पर लेट गयी।
किचन में जाकर उस युवक ने चाय के दो प्याले बनाये। उसे सम्बोधित करता हुआ वह बोला, ‘‘लो चाय पी लो।’’
किसी अबोध शिशु की तरह वह सहज भाव से चाय पीने लगी।
‘‘तुम्हें भूख भी लगी होगी ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘मैं तुम्हारे लिए खाना बनाता हूँ।’’
‘‘नहीं, खाना मैं बनाऊँगी।’’
एकाएक चारपाई से उठते हुए वह बोली, ‘‘किचन किधर है ?’’

उसके साथ वह किचन में गयी। एक बार उसने किचन में रखे सामान का निरीक्षण किया। तत्पश्चात् बोली, ‘‘अब तुम कमरे में जाकर आराम करो। मैं जल्दी से भोजन बनाती हूँ।’’ जाने से पहले वह बोला, ‘‘मेरा नाम मनोज है।’’
‘‘और मेरा नाम रेवा।’’
कमरे में आकर मनोज इस घटना की कड़ियाँ मन-ही-मन जोड़ने लगा। क्या एक अपरिचित युवती को इस प्रकार अपने घर में लाकर उसने ठीक किया ? कल को कोई मुसीबत भी तो खड़ी हो सकती है। उसके विरुद्ध कोई आरोप भी तो लगाया जा सकता है। किसी डूबते हुए को सहारा देना कदापि भी अपराध नहीं हो सकता। परिणति जो भी हो, वह इस युवती की सहायता अवश्य करेगा। कुर्सी पर बैठे-बैठे जाने वह क्या-क्या सोचता रहा ? प्रतिदिन की तरह आज सायंकाल भी वह नदी के किनारे घूमने गया था। नदी के किनारे उसके मन को शांति मिलती थी। वहाँ से लौटने के पश्चात् परिवेश में कितना अन्तर आ गया था ? अपने इस घर में वह अकेला नहीं था, उसके साथ रेवा भी थी जो किचन में खाना बना रही थी। खाना बनाते हुए वह क्या सोच रही होगी ? आवश्यक नहीं है कि उसकी तरह उसका हृदय भी उद्वेलित हो। कई बार सुरक्षित नींद मिल जाने पर हम अपनी समस्त दुश्चिन्ताओं से मुक्त हो जाते हैं। रेवा की चिन्ता तो अब उसे करनी ही होगी। उसकी लक्ष्यसिद्धि में निमित्त बनना उसने स्वयं स्वीकार कर लिया था। अपनी चिन्ताओं के साथ-साथ उसे अब रेवा की चिन्ता भी करनी थी।
चिन्ताएँ सदैव नकारात्मक ही नहीं होतीं। अगर मन में संकल्प हो तो ये हमारी सकारात्मक प्रवृत्तियों को मुखर करने में सहायक सिद्ध होती हैं। रेवा के लिए एक अच्छे गुरु की तलाश करनी होगी। वह उसे नौकरी नहीं करने देगा। नौकरी करते हुए भी वह अपने नृत्य के अभ्यास को जारी रख सकती है, परन्तु पराकाष्ठा पर पहुँचने के लिए हमें अपने लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित होना पड़ता है।
कुर्सी पर बैठे-बैठे उसे नींद की झपकी आ गयी थी।
‘‘खाना तैयार है।’’
चौंकते हुए उसने अपने सामने खड़ी रेवा की ओर देखा। हाथ-मुँह धोने के उपरान्त वह आकर्षक लग रही थी।
‘‘थोड़ी देर बैठ जाओ। कुछ बातें करेंगे।’’
‘‘उसके सामने रखी हुई कुर्सी पर वह बैठ गयी।
‘‘क्या तुम्हें किसी ऐसे गुरु की जानकारी है जो तुम्हें नृत्य की बारीकियों से अवगत करा सके ?’’
‘‘नृत्य के सम्बन्ध में मेरा ज्ञान बिल्कुल सीमित है। कॉलेज मेरे साथ एक लड़की अर्पणा पढ़ती थी। उसने नृत्य तथा गायन की विधिवत् शिक्षा ग्रहण की थी। उसका अनुसरण कर मैंने नृत्य सीखा। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि विभिन्न समारोहों में नृत्य का पुरस्कार अर्पणा को न मिल कर मुझे प्राप्त हुआ। हमारे कॉलेज की डांस टीचर का कहना था कि नृत्यकला की समझ मुझे संस्कार के कारण दूध में मिली हुई घुट्टी के समान प्राप्त हुई है। क्या ऐसा हो सकता है ?’’
‘‘इस दुनिया में क्या कुछ नहीं हो सकता ? प्रयास करना हमारे हाथ में है, परन्तु फल का निर्धारण तो कोई और करता है।’’
‘‘परिश्रम करने से मैं नहीं घबराती। जीवन में मैं कुछ बनना चाहती हूँ। आम स्त्रियों से हटकर अपनी एक विशिष्ट पहचान स्थापित करना चाहती हूँ। मैंने अपनी नियति तुम्हारे हाथों में सौंप दी है। जो कुछ भी तुम करने को कहोगे, मैं वह सब करूँगी। पर एक बात कभी भी करने को मत कहना।’’

‘‘वह कौन-सी बात है, रेवा ?’’
‘‘उसे मैं पहले भी कह चुकी हूँ।’’
‘‘एक बार पुनः कह दो।’’
‘‘मेरे समक्ष शादी का प्रस्ताव मत करना।’’
‘‘इस सम्बन्ध मैं तुम्हें पूर्व में ही आश्वासन दे चुका हूँ। एक बार पुनः वचन देता हूँ कि अपनी ओर से कभी भी तुम्हारे समक्ष यह प्रस्ताव नहीं रखूँगा। मेरी समझ में नहीं आता कि शादी के नाम से तुम इतनी भयभीत क्यों हो ? शादी एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।’’
‘‘मेरे मन में जो भाव है उससे मैंने तुम्हें अवगत करा दिया। इसके कारण का विश्लेषण करने की मुझमें क्षमता नहीं है।’’
‘‘कोई बात नहीं, रेवा ! जीवन में कुछ अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर हमें समय और काल के साथ मिलते हैं। कई बार भोगा हुआ यथार्थ हमारे दृष्टिकोण में परिवर्तन भी लाता है। इस विषय को लेकर तुम्हें चिन्तित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।’’
‘‘उसका यह कथन सुनकर रेवा की आँखों की चमक उससे छिप नहीं सकी।
‘‘चलो, खाना खायें।’’
‘‘क्या मेरी एक बात मानोगे ?’’
‘‘कौन-सी बात ?’’
‘‘क्या तुम मेरा नृत्य देखोगे ?’’
‘‘तुम्हारा नृत्य मैं कल भी देख सकता हूँ।’’
‘‘परन्तु मैं आज दिखाना चाहती हूँ।’’
‘‘इसका कोई विशेष कारण ?’’
‘‘मैं चाहती हूँ कि तुम मेरी प्रतिभा का आकलन कर लो। यदि मुझमें कोई प्रतिभा नहीं है तो किसी अनगढ़े पत्थर को तराशने का तुम्हारा प्रयास, संकल्प एवं परिश्रम व्यर्थ जायेगा।’’
‘‘इसकी चिन्ता तुम क्यों करती हो ?’’
‘‘हो सकता है अपनी प्रतिभा के बारे में मुझे कोई भ्रान्ति हो।’’
‘‘रेवा, जीवन अपने आप में शुष्क एवं सपाट है। भ्रम तथा भ्रांतियों का परदा इसे सुन्दर बनाये रखता है।’’
‘‘तुम कहना क्या चाहते हो ?’’ भ्रम कभी भी सुन्दर नहीं हो सकता।’’
‘‘परन्तु सुन्दर दिखता तो है।’’
‘‘मैं केवल इस दिखावे की प्रवृत्ति से नृत्य नहीं सीखना चाहती। मैं आत्म-सन्तुष्टि के लिए इसमें पारंगत होना चाहती हूँ।’’
‘‘आत्म-संतुष्टि बड़ा मायावी तथा फरेबी शब्द है।’’
‘‘परिभाषाओं के शब्दजाल में मैं उलझना नहीं चाहती। मैंने अपने दिल की बात कह दी है। क्या तुम मेरा नृत्य नहीं देखोगे ?’’
‘‘मैंने इन्कार कब किया है ? मैं तुम्हारा नृत्य अवश्य देखूँगा। क्या बिना वाद्ययन्त्रों के तुम नृत्य कर पाओगी ?’’
‘‘हाँ, मैं बिना वाद्ययन्त्रों के नृत्य करूँगी। अपने भीतर संगीत की एक ध्वनि निरन्तर गूँजती रहती है। इसके होते हुए मुझे किसी वाद्ययन्त्र की ध्वनि की तत्काल आवश्यकता नहीं है।’’

रेवा के इस कथन ने मनोज को निरुत्तर कर दिया।
कमरे में बिछी हुई दरी को मनोज ने ठीक-ठाक किया। उस पर उसने एक सफेद रंग की चादर भी फैला दी।
‘‘तुम शुरू कर सकती हो। मेरे पास घुँघरू तो नहीं हैं।’’
‘‘पर्स में सदैव अपने पास रखती हूँ।’’
रेवा ने पाँवों में घुँघरू बाँध लिए। धीरे-धीरे उसके पाँव जमीन पर थिरकने लगे। घुँघरुओं का स्वर मुखर होता गया। मुँह से वह नृत्य के मुखड़े भी गा रही थी। रात के उस सन्नाटे में हवा ने उसके स्वर को, घुँघरुओं के संगीत को दूर-दूर तक प्रचारित एवं प्रसारित किया। अगल-बगल के घरों में दरवाजे खिड़की खुलने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। इसका कारण समझने में मनोज को कोई कठिनाई नहीं हुई। रात के समय घुँघरुओं की आवाज सुनकर उनका चौंकना स्वाभाविक था। मान लो, उनमें से कोई पड़ोसी रात के इस समय उसके दरवाजे पर दस्तक देकर पूछे, ‘यह युवती कौन है ?’’
इस प्रश्न का वह क्या उत्तर देगा ? जिन परिस्थितियों में उसकी रेवा से भेंट हुई थी, क्या यह कहानी उन्हें आश्वस्त कर पायेगी ? शायद नहीं। रात के समय संभ्रान्त लोगों की इस बस्ती में इस नृत्य का तात्पर्य तथा मंतव्य शायद वह लोगों को नहीं समझा पायेगा। बस्ती में रहते हुए आसपास के लोगों के प्रति उसका भी कुछ कर्तव्य है। लोगों की एकदम अवहेलना करने का दुस्साहस वह नहीं कर सकता।
क्या इस पर वह रेवा से कुछ कह सकता है ? उसकी यह बात सुनकर शायद वह हतोत्साहित हो जाये। पहले ही अभ्यास में रोक-टोक अच्छी नहीं लगेगी।
रेवा बड़ी तन्मयता से नृत्य कर रही थी। उसके बदन का हर अंग झूम रहा था। शरीर का हर भाग कुछ-न-कुछ कह रहा था। समग्र भाव में मनोज को लगा कि वह नाचती ही नहीं बल्कि उसके नृत्य के साथ-साथ सारा परिवेश नाचने लगता है। अन्त में नाचते हुए उसके पाँव थम गये और घुँघरुओं की ध्वनि भी बन्द हो गयी।
चैन की साँस लेते हुए मनोज बोला, ‘‘तुम्हारा नृत्य देखकर मुझे नहीं लगता कि तुम्हें और आगे किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता है।’’
‘‘मैं नृत्यकला की बारीकियों से अवगत होना चाहती हूँ।’’
‘‘रेवा, क्या मोरनी को भी नृत्य सीखने के लिए किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है ? नृत्य का भाव उसके खून में, उसकी रग-रग में समाया होता है। उसके लिए प्रशिक्षण नहीं, गरजते-बरसते बादलों की झंकार तथा टंकार चाहिए। उसके पाँव ध्वनि को सुनकर स्वतः ही नृत्य करने हेतु व्यग्र हो उठते हैं।’’
‘‘मोरनी के सम्बन्ध में तुम्हारा कथन सही हो सकता है। तुम्हारी प्रशंसा के उपरांत भी मैं महसूस करती हूँ कि मुझे अभी और प्रशिक्षण की आवश्यकता है।’’

‘‘शायद तुम्हारा चिन्तन सही है, रेवा ! कला के विस्तार की कोई सीमा नहीं है। ज्यों-ज्यों हम किसी विद्या में पारंगत होते जाते हैं, हमारे अनुभव का क्षितिज त्यों-त्यों और विस्तृत होता जाता है।’’
अगल-बगल के घरों से कानाफूसी की आवाजें आना बन्द हो गयी थीं। लगता था, धीरे-धीरे लोग सोना शुरू कर चुके थे।
जब रेवा ने घुँघरू खोल दिये तो वह बोला, ‘‘तुम भोजन कर लो।’’
‘‘क्या तुम नहीं करोगे ?’’
‘‘अवश्य करूँगा परन्तु तुम्हारे पश्चात्।’’
‘‘साथ-साथ क्यों नहीं ?’’
‘‘घर में एक ही थाली है।’’
‘‘क्या एक ही थाली में एक साथ भोजन नहीं कर सकते ?’’
‘‘यह भावना पर निर्भर करता है।’’
‘‘किस प्रकार की भावना ?’’
‘‘अपनत्व की भावना।’’
‘‘तुमने मुझे जीने की राह दिखाई है। तुम मेरे अपने हो। मेरे बारे में तुम्हारी क्या धारणा है, मैं नहीं जानती ?’’
कुछ प्रश्नों का उत्तर देना सदैव सरल नहीं होता। हमारी प्रतिक्रिया से हमारी विचारधारा स्वतः ही परिलक्षित हो जाती है। थाली में भोजन डालकर लाने के पश्चात्, ‘‘शुरू करें।’’
खाना वास्तव में स्वादिष्ट बना था। खाना खाने के पश्चात् वह बोला, ‘‘तुम चारपाई पर सो जाओ। तुम थकी हो, तुम्हें आराम की आवश्यकता है।’’
‘‘परन्तु नींद की आवश्यकता तुम्हें भी तो है।’’
‘‘रेवा, जो मैं कह रहा हूँ, तुम वह करो। मेरे सोने की व्यवस्था भी हो जायेगी।’’
बिस्तर पर लेटते ही किसी अबोध शिशु की तरह उसे नींद आ गयी। उसकी नाक बजने लगी थी। एक नजर उसने उसके चेहरे की ओर देखा। पूर्णमासी के चाँद की तरह उसका गोल चेहरा बहुत मनमोहक लग रहा था। एक अजनबी घर में किसी अपरिचित के साथ रहते हुए भी वह कितनी बेफिक्री से सो रही थी। उसके मन में किसी भी प्रकार की कोई आशंका या भय विदित नहीं होता था। एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से शादी की सम्भावना के कारण उसने अपना घर छोड़ दिया था। घर त्यागा ही नहीं था बल्कि दुनिया छोड़ने का इरादा भी कर लिया था। नाटक का सूत्रधार तो कोई और होता है। नाटकीयता-भरी स्थितियों में कथानक बदल जाता है। इस प्रकार एक सुन्दर लड़की से अप्रत्याशित भेंट की उसने कभी मन में कल्पना भी नहीं की थी। परिणति क्या होगी, कौन कह सकता है ?

रेवा वास्तव में अद्वितीय सुन्दरी थी। उसके शरीर का प्रत्येक अंग साँचे में ढला हुआ था। उसके मनमोहक व्यक्तित्व में किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेने की अद्भुत क्षमता थी।
‘क्या वह रेवा के सौंदर्य के प्रति आकर्षित है ?’
‘आकर्षण से इन्कार नहीं किया जा सकता। वह भी हाड़-मांस का बना हुआ है। उसका हृदय भी संवेदनशील है। ‘रेवा ने उसके चारों ओर एक लक्ष्मण रेखा खींच दी थी। उस लक्षमण रेखा का उल्लंघन न करने हेतु वह वचनबद्ध है।
‘क्या जीवन-भर रेवा से उसका दूर का ही सम्बन्ध बना रहेगा ?’ यह भाव उसके मन में विचरा। उत्तर भी स्वयं मन ने ही दिया, ‘सम्बन्ध चाहे दूर के हों या निकट के, हमारी अनुभूति पर निर्भर करते हैं। उसके यहाँ विद्यमान होते हुए भी वह कितनी निश्चिंतता से सो रही है। उस अधेड़ व्यक्ति की तरह वह भी तो कामुक हो सकता है। उसकी चंचल इंद्रियाँ उसे भी उत्तेजित कर सकती हैं, परन्तु किसी की जान बचाने वाले हाथ उसे डुबोने के निमित्त नहीं बन सकते। रेवा ने उसके कथन पर, उसके विश्वास की पवित्रता पर भरोसा किया है। उसकी आस्था को वह कभी खंडित नहीं होने देगा।’
कमरे की बत्ती बुझाकर कम्बल और दरी लिए वह बाहर बरामदे में चला आया।
आसमान पर तारे टिमटिमा रहे थे। पूर्णमासी का चाँद बहुत प्यारा दिख रहा था। एक तो उसकी आँखों से नींद उड़ गयी थी और स्वयं भी वह सोना नहीं चाहता था। उसके जीवन में एक अप्रत्याशित बदलाव आया था। उस बदलाव के अनुरूप योजना बनाना अनिवार्य था।
‘क्या रेवा उसके साथ इस मकान में रह सकती है ?’
‘रहने को तो रह सकती है, परन्तु इस रहने में लोग कई अर्थ ढूँढ़ेंगे। किस-किसके प्रश्नों का उत्तर देता फिरेगा वह ? मान भी लिया जाय कि लोगों की अनर्थक टिप्पणियों की वह परवाह नहीं करेगा, उनसे विचलित नहीं होगा, पर क्या रेवा उनकी नजरों का सामना कर पायेगी ? अगर कहीं वह हतोत्साहित हो गयी तो उसके संघर्ष की क्षमता क्षीण हो जायेगी, उसका संकल्प शायद डगमगा भी जाये।’ उसे निर्णय लेने में देर नहीं लगी।
भोर होने में अभी देर थी। उठकर उसने चाय बनाई। रेवा को आवाज देकर जगाया—
‘‘चाय पीकर जल्दी तैयार हो जाओ।’’
‘‘इतनी सुबह कहाँ जाना है ?’’
‘‘रेवा, ट्रेन हमारी सुविधा से नहीं चलती। ट्रेन के समय के अनुसार हमें तैयार होना पड़ता है।’’
‘‘हम कहाँ जा रहे हैं ?’’
‘‘तुम्हें कला-निकेतन में प्रवेश दिलाने के लिए। इस स्थान पर अब तुम्हारा रहना उचित नहीं है। तुम्हें ढूँढ़ते हुए तुम्हारे पिता या वह अधेड़ व्यक्ति यहाँ तक कभी भी पहुँच सकते हैं। उनके यहाँ पहुँचने पर बेकार का झमेला खड़ा हो सकता है। तुम्हारी इच्छापूर्ति के लिए इस शहर में न तो कोई नृत्य संस्था है और न कोई ख्यातिप्राप्त नृत्य शिक्षक।’’
कुछ ही देर में रेवा तैयार होकर आ गयी। मुस्कराते हुए वह बोली, ‘‘चलो।’’ चौराहे से उसने टैक्सी कर ली। स्टेशन पर पहुँचकर दो टिकट खरीदे। तेज कदमों से प्लेफार्म पर पहुँचे। ट्रेन चलने वाली थी। गार्ड हरी झण्डी दिखा रहा था। हड़बड़ा कर वे रेल के डिब्बे में सवार हो गये।
एक यात्रा का आरम्भ हो गया था। जीवन में जो यात्रा आरम्भ होती है, उसका कहीं-न-कहीं अन्त होता है। समुद्र यात्रा के प्रारम्भ नहीं बल्कि अंत होते हैं। ट्रेन कभी गंतव्य स्थल नहीं होती, गंतव्य स्थल से जोड़ने के लिए निमित्त होती है।

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