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एक किशोरी फुलझड़ी सी

टी.पद्यनाभन

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4877
आईएसबीएन :81-237-1881-0

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एक किशोरी फुलझड़ी सी मलयालम के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार टी. पद्मनाभन की बारह कहानियों का संकलन है।

Ek kishori fuljhari Si

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

‘प्रकाशं परत्तुन्ना ओरु पेणकुट्टि’ मलयालम का उल्लेखनीय कहानी-संकलन है। इसके रचयिता श्री टी.पद्मनाभन सन् 1931 में कण्णूर में पैदा हुए। उन्होंने 1952 में मंगलोर के गर्नमेंट्स आर्ट्स कालेज से अर्थाशास्त्र में स्नातक की उपाधि और सन् 1955 में मद्रास लॉ कालेज से कानून की उपाधि प्राप्त की। दस वर्ष तक कण्णूर में वकालत करने के बाद 1966 में वे आलुवा की एफ.ए.सी.टी. कंपनी (अखिल भारतीय ख्याति का राष्ट्रीय रासायनिक उर्वरक कारखाना) में अफ़सर हो गए। सन् 1989 में उन्होंने कारखाने से उपमहाप्रबंधक के पद से अवकाश ग्रहण किया। जवानी के प्रारंभ से अब तक पद्मनाभन अपने देश की सांस्कृति वातावरण की गतिविधियों से पूर्णतः अवगत रहे हैं, सक्रिय और संवेदनशील भी।

पद्मनाभन ने अपना साहित्य-सृजन कहानी विधा तक ही सीमित रखा है। उन्हें संदेह है कि लंबे उपन्यास की रचना-प्रक्रिया में अपनी सृजन-चेतना को कैसे बनाए रखेंगे ? उनकी राय है कि महान कथाकार भी अपनी कहानियों की-सी सघनता और हृदयहारिता उपन्यासों में व्यक्त नहीं कर सके हैं। इसके अवाला, लेखक चाहे कितना ही महान क्यों न हो, वह एक ही विधा पर अधिकार पा सकेगा। इस दृढ़ विश्वास के विषय में पद्मनाभन शायद अनजाने ही बोहर्श की नीति को अपना रहे थे जिन्होंने अधिकतर कहानियाँ ही लिखी हैं।

एक सशक्त, प्रभावशाली और ध्वन्यात्मक कहानी की रचना के लिए कथावस्तु पर एकनिष्ठ ध्यान तथा कला के प्रति समर्पित भावना अत्यंत आवश्यक है। पद्मानभन को यह कुशलता सहज ही प्राप्त है। फिर भी उन्होंने बड़ा दायित्व-बोध से उसका उपयोग किया है। उनकी अभिव्यक्ति की प्रेरणा जब अत्यंत प्रबल व अनिवार्य रहा तभी उन्होंने कहानी रची। उन्होंने कहानी के मात्र बारह संकलन ही प्रस्तुत किए हैं, जबकि उनके समसामियक लेखकों ने बड़ी संख्या में कहानी लिख डाली हैं।
हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा पद्मनाभन ने बड़ी संख्या में रचना नहीं की, पर वे अकालिक प्रौढ़ थे। अर्थात, अन्य लेखकों के औसत रचनाकाल के पहले ही वे प्रौढ़ लेखक हो गए। इस संग्रह की अधिकांश कहानियाँ उनकी महाविद्यालय की छात्र-मनोदशा की हैं। जब उनकी उम्र सिर्फ 18 या 19 वर्ष की थी। ये कहानियाँ प्रमुख मलयालम पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं और शीघ्र ही कुशल समीक्षकों की प्रशंसा भी पा गईं। उन दिनों मलयालम की कहानी-मंच पर सर्वश्री तकषि पिल्लै, मोहम्मद बशीर, पी केशवदास, एस.के. पाट्टेक्काड तथा उरुब (पी.सी. कुट्टिकृष्णन) जैसे प्रमुख कथाकारों का सितारा बुलंद था। फिर भी यह युवक जिसकी मसें भी भीगी भी नहीं थीं —उन सशक्त कहानीकारों की मंडली में उचित स्थान का अधिकारी हो गया। यह कैसे संभव हुआ ? इसीलिए कि पद्मनाभन की कहानियों में उनकी प्रतिभा का विस्फोट था।

मलयालम कहानी-वाङ्मय ने ही हाल में अपनी जन्म-शती मनाई है। मलयालम की सबसे पुरानी कहानियां उस नाम के योग्य नहीं थीं। वे कहानियों से बढ़कर संगृहीत कथाएं थीं। केरल के कहानीकार इस कहानी नाम की नयी विधा की खास बातों और विशेष सम्भावनाओं से सन् 1930-40 के दशक में ही पूर्णतः परिचित हो सके। उस युग में मार्क्सवादी विचारधारा पूरे केरल पर तूफान-सी छा गयी थी और जनता की संवेदना को उद्वेलित कर रही थी। उसी से प्रगतिवादी साहित्य-धारा ने अपनी शक्ति अर्जित की थी। उस युग के लेखक नयी सामाजिक चेतना से प्रेरित हो रहे थे और उन्हें सामाजिक परिवर्तन के लिए सशक्त माध्यम के रूप में कहानी की क्षमता पर विश्वास किया था। उन्होंने मलयालम गद्य को आलंकारिता और कृत्रिम संगीतमयता से मुक्त कराया तथा उसका उपयोग अंतर्भेदिनी शक्ति से सीधे कथाख्यान के लिए किया। फिर भी, उन्होंने स्वच्छंदतावाद को पूरी छुट्टी नहीं दी।

सामाजिक यथार्थ को कला में रूपांतरित करने के लिए स्वच्छंदतावाद की सख्त जरूरत थी। शुरू में पोन्नकुन्नम वर्की, तकपि और पोट्टेक्काड सामाजिक संरचना से अपने संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की विजय पर पूरी आस्था रखते थे। मोहम्मद बशीर और उरूब वर्ग-संघर्ष से बढ़कर अस्तित्ववादी समस्याओं में अधिक रुचि रखते थे। प्रत्येक कहानीकार ने अपनी-अपनी खास शैली ईजाद की थी जिसकी नकल दूसरे मुश्किल से कर सकते थे। पूंजीवादियों के अत्याचार से श्रमजीवी वर्ग को आजाद करने के लिए जो ‘वयलार संघर्ष’ हुआ वह बुरी तरह असफल रहा। इसके फलस्वरूप मार्क्सवाद जीवनदर्शन आनेवाले लेखकों को निराशा हुई। फलतः प्रगतिशील साहित्य-आंदोलन कमजोर पड़ा गया और चौथे-पांचवें दशक के मध्य में धराशायी हो चला था, और इसके पश्चात लेखकों को आलोचनात्मक यथार्थवाद समाजवादी यथार्थवाद में अधिक प्रिय महसूस होने लगा था। लेखक यथार्थ को एक नए दृष्टिकोण से देखने को तरसते थे। वे अपनी अभिव्यक्ति एक नयी शैली में करना चाहते थे। मोहम्मद बशीर तथा उरूब इस क्षेत्र में पथप्रदर्शक साबित हुए। उन्होंने मानव-हृदय के अंतरतम  से उभरती नयी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए नए मुहावरे प्रस्तुत किए। वे सामाजिक यथार्थ से बढ़कर मानव-हृदय की संवेदनाओं पर अधिक जोर देते थे।

भारत के अन्य राज्यों की तरह केरल के भी कहानीकार पश्चिम के कहानीकारों के प्रभाव में आए। मोपासां, ओ. हेनरी तथा चेखव मशहूर नाम थे। उनमें से प्रत्येक ने अपनी विशिष्ट शैली में कहानी-वाङ्मय की श्रीवृद्धि की। ओ. हेनरी ने जिंदगी की छोटी-छोटी विडंबनाओं पर कहानियों का ढांचा खड़ा किया। मोपासां ने यौन संबंध को जीवन का प्रेरणास्रोत माना। चेखव का व्यक्तित्व माननीय करुणा से भरा था। प्रसिद्ध मलयालम समीक्षक प्रो. एम. पी. पॉल ने एक बार कहा था कि अधिकांश मलयालम कहानियां या तो मोपासां से प्रभावित हैं या चेखव से। तकषि शिवशंकर पिल्लै, फ्लाबेर और मोपासां को प्यार करते थे जो जीवन के कटु यथार्थ का चित्रण सुंदर रूप में करते थे।

पोट्टेक्काड को ओ. हेनरी बड़े हर्षदायक लगे और उन्होंने जीवन की छोटी-छोटी विडंबनाओं पर कहानियां लिखीं। उस युग के मलयालम लेखक अन्य विदेशी लेखकों से भी परिचित थे। चेखव की कहानियों में अबूझ मोहकता है, स्पर्श की कोमलता है, एक खास सृजनात्मक शक्ति है जिन्होंने मोहम्मद बशीर और उरुब  पर अपना जादू जमा लिया था। मेरा विश्वास है कि टी. पद्मनाभन ने चेखव की कहानियां बड़े ध्यान से पढ़ी हैं। अपनी एक नवीनतम रचना में उन्होंने स्टीपन क्रोचिन, ओ. हेनरी, हेनरी जेम्स, चेखव, मोपासां, जोयिस, कोपार्ड, ट्रामन तथा बर्नार्ड मालामड़ की रचनाओं से अपने परिचित होने की बात बताई। पद्मनाभन ने इन लेखकों में किसी से प्रभावित होने से इंकार किया है किंतु महान् लेखक संवेदनसील हृदयों पर अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। चेखव-जैसे प्रतिभावान लेखक की छत्रछाया में रहना किसी के लिए शरम की बात मानने की जरूरत नहीं है। चेखव ने पद्मनाभन ने अपने लिए सजातीय आत्मा के दर्शन किए होंगे। चेखव अपार स्नेही व्यक्ति थे और सारी मानवता से प्रेम करते थे। उन्होंने दुखित पीड़ित मानव का, उसकी आशा, निराशा, दुःख व आतंक का शब्दचित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। चेखव के चित्रों में कभी गहरे रंग नहीं रहे। वे कोई उपदेशक भी नहीं थे। उन्हें मानव-मन की अस्पष्ट स्थिति को—जो शब्दों की अभिव्यक्ति से नहीं प्रकट हो पाती थी—एक स्थान और नाम दिया। चेखव कहानी-विधा को दिशा देनेवाले संसार के श्रेष्ठ कहानीकारों में अन्यतम थे। मलयालम में कम-से-कम दो कहानीकार इस महान कलाकार से तुलना करने योग्य हैं। वैक्कम मोहम्मद बशीर तथा टी.पद्मनाभन। दोनें की रचनाओं में उनकी शिल्प-विधि और भाषा हमेशा अभिव्यंजित  संवेदनाओं से तालमेल रखती थी।

कहानी की शिल्प-विधि के शीर्षस्थ समसामयिक लेखको  से टक्कर लेने में पदमनाभन ने जो सफलता पाई वह बड़ी हिम्मत की बात है। वे इसमें संकोची या भयभीत नहीं रहे। उन्होंने हाल ही में एक साक्षात्कार में अपनी सृजन-प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है। कला के विषय में उनकी राय है कि सृजन एक बीजांकुर के रूपायन से प्रारंभ होता है। पद्मनाभन कहते हैं कि उन्होंने-कथा-बीज  विभिन्न स्रोतों से प्राप्त किए हैं—मुख्यतः अपने और अपने मित्रों के अनुभवों से।’’ ज्यों ही भाव मन में प्रवेश करता है त्यों ही मैं लिखना प्रारंभ नहीं करता। मैं उस भाव-बीज को अपने हृदय में अंतस्थल में सुरक्षित रखता हूं। वर्षों बाद कभी एक कहानी का रूप देता हूं।’’ ये कहानियां केवल तथ्यपरक नहीं हैं। ये सपनों से रूपान्तरित की जाती रही हैं।’’ मैं अब भी सपने देखता हूं। जिस दिन स्वप्न देखने की यह शक्ति कमजोर होगी  उस दिन मेरा साहित्य-सृजन बंद हो जाएगा। मेरा विचार है कि श्रेष्ठ कलाकृतियों के उत्स में बड़े स्वप्न रहे हैं...एक कहानी जब मेरे हृदय में अपना पूर्ण रूप धारण करती है तभी मैं उसे लिखने लगता हूं...लिखते समय मैं अपने शब्दों पर अत्यधिक ध्यान देता हूं ..’’

पद्मनाभन ने बताया है कि उनकी कहानियों की धुरी करुणा है। वस्तुतः चेखव की कहानियों की तरह पद्मनाभन की कहानियां भी करुणा की कहानियां हैं। आर्नाल्ड बेनेट ने कहा था कि एक उपन्यासकार में (यह किसी भी साहित्य-विधा के लिए लागू है। ईसा मसीह की तरह व्यापक करुणा होनी चाहिए। पद्म्नाभन में यह बड़ी मात्रा में है। यह सहमनुभूति दलितों, शोषितों, उपेक्षितों और अत्याचारियों के लिए भी सुलभ रही है। पद्मनाभन बड़ी विनम्रता से स्वीकार करते हैं कि वे जीवन भर करुणा से द्रवित होते रहे हैं। करुणा जाति, वर्ण और सिद्धांत के अंतर से परे प्रभाव में विश्वव्यापी  है, यह लौकिक और अलौकिक दोनों प्रकार की किसी भी परिस्तिथि के मानव पर समान रूप से लागू होती है।

पद्मनाभन इंसानियत की पीठिका पर अपनी कहानियों का तानाबना बुनते हैं। उनके मतानुसार मानव स्वतंत्र होने के लिए ही दंडित नहीं, वह मानव द्वारा अपने सहजीवी लोगों को अपने गुलाम बनाने के लिए निर्मित शोषक-संस्थाओं का शिकार होने के लिए भी अभिशप्त है। ये संस्थाएं उसके सहचरों को नष्ट-भ्रष्ट करती हैं या उनके जीवन को दीन-हीन बना देती हैं। उदाहरणार्थ ‘छोटी जिंदगी और बड़ी मौत’ कहानी लीजिए। उसमें मोहिउद्दीन नामक एक छोटे बालक की कहानी है। वह अपना गुजारा करने और हो सके तो गांव में उपेक्षित पड़ा मां को चार पैसे भेजने के लिए नगर पहुंचता है। नगर का एक निठुर होटल-मालिक उसका शोषण करता है। वह उसे निपट गरीबी और अत्यंत दीन दशा में नरकीय यातना झेलने के लिए विवश करता है। ऐसे बालक इस प्रकार के जीवन के भीषण अंत का अनुभव क्यों करें ? इस त्रासदी के लिए उत्तरदायी कौन है ? बालक का बाप, होटल मालिक या सामाजिक संरचना ?

 दिल को बेधने वाली इस कहानी में जो करुणा है वह बहादुर कुत्ते ‘शेखू’  की मौत की कहानी की करुणा के समान्तर है। शेखू वीर कुत्ता था जो किसी अजनबी पर भीषण क्रोध से भूंकता था या निर्दयता से उसे काटने को तैयार रहता था। दुर्भाग्य से उसका मालिक उसको ठुकाराता है। जो बूढ़ा उस कुत्ते की देख-रेख करता है वह उसे बुरी तरह कष्ट देता है। शेखू नजरबंदी-शिविर के कैदी की तरह ही मर जाता है। पद्मनाभन का शेखू कोई मामूली कुत्ता नहीं, वह हमारे समाज का सदस्य है जो हमारी सलीब कंधे पर ढोता है, हमारी मौत मरता है।

‘झड़ी मानव आत्माएं’ नामक कहानी में हम तंकम्मा का परिचय पाते हैं। तंकम्मा वृत्ति से वेश्या है, पर उसका दिल सोने का है। उसने उसकी (तंकम्मा की) कथा सुनने वाले युवक की मदद की थी, पर वह उसके बदले में कुछ कर नहीं सका। वह उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने को तैयार था। पर तब वह उससे बहुत दूर चली गई। हमें पता नहीं चलता कि वह जिंदा है या मर गई। तंकम्मा की इंसानियत कहानी की धुरी है। ‘यादों का झरोखा’ का ईप्पन तथा ‘और एक कोंपल कुम्हलाई’ का जनार्दन और ‘झड़ी मानव आत्माएं’ की तंकम्मा फरिश्ते हैं जो अपना सबकुछ औरों के दे देते हैं और बदले में कुछ नहीं माँगते। उनसे भी बड़े फरिश्ते हैं हेलन, उसकी बहन और उनके मां-बाप। वे अपने जीवन को भगवान के प्रति अपना कार्यभार मानते हैं जो प्रेम की वेदी पर चढ़ाने के लिए ही बना है।

‘पतिदेव’ व्यंग्यात्मक कहानी है। इसके लेखक ने दिखलाया है कि स्त्री भी पुरुष के समान हुक्म कर सकती है। अम्बुजम अपने आदमियों को खूब नाचाती है—जो उसके इशारे के गुलाम हैं। ‘कंचा’ एक बालक की कहानी है और बड़ी निपुणता से रची गई है। बालक के लिए खिलौना या खेलने के साधन सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। वह स्कूल की फीस से भी अधिक महत्त्व उसे देता है। पद्मानाभन अपने बचपन तथा बच्चों को बहुत चाहते हैं। ‘यह छोटी जिंदगी और बड़ी मौत’ तथा ‘कंचा’ में दिखलाया गया है। ‘वह पेड़ नहीं फलता’ बालक की ही कहानी है, पर उसमें राजनीतिक पृष्ठभूमि भी महत्त्व की है। हमें याद रखना है कि एक साहब ने गरीब बालक को निष्ठुरता से मारा है। वह अपने पुत्र और अपने बटलर (खानसामा) के पुत्र की घनिष्ठता का महत्त्व पहचान नहीं सका है।

बचपन जाति, वर्ण या धर्म का अंतर नहीं पहचानता। कलाकार ने इसी कहानी में प्रसंशनीय कलात्मक ढंग से भयानक वातावरण का सृजन किया है। ‘यादों का झरोखा’ शीर्षक कहानी में स्वाधीनता के लिए केरलीयों का संघर्ष प्रतिध्वनित हो रहा है। ‘एक और कोंपल कुम्हलाई है’ कहानी की कथावस्तु में धार्मिक समन्वय की समसामयिक चेतना है। ‘वे बिस्कुट जिन्हें खा नहीं सका’ शीर्षक कहानी में छुआछूत की विडंबना बड़ी कुशलता से अभिव्यंजित है। ‘भविष्य की ओर’ कहानी में देश-विभाजन की गहरी त्रासदी ध्वनित हुई है। यह थीं पद्मनाभन की ही अन्य कहानी ‘माखनसिंह की मौत’  में भी व्यंजित हैं। वह कहानी का संकलन नहीं। मानवता की करुण रागिनी पद्मनाभन की आंखों को गीला कर देती है। उस संगीत की निपुण अभिव्यक्ति पाठकों के दिलों के तारों को भी कंपित करती है। उनके हृदय में भी करुणा की सरगम ध्वनित होती है।
फिर भी पद्मनाभन निराशावादी नहीं हैं। हेलन, तंकम्मा जनार्दन और माखनसिंह अपनी मानवता और निस्वार्थ त्याग से बुराई पर विजय पाते हैं।

फुलझड़ी-सी किशोरी दुखित या पीड़ित नहीं है। वह जीवन और प्रेम की सदा बहार स्फूर्ति की पूर्ण मूर्ति है। कोई बुराई उसे हरा नहीं सकती। प्रसन्नता से लबालब भरी इस कहानी में बालिका का मंदहास युवक के हृदय से आत्महत्या का विचार दूर कर देता है। ‘पावम मानव-हृदयम’ (बेचारा मानव हृदय) नामक कविता में श्रीमती सुगतकुमारी ने इसी भाव को अपनाया है। उसकी निम्नांकित पंक्तियों में यही भावना गूँजती है—
‘‘बेचारी मानव-चेतना नक्षत्र को देखकर अंधेरे को भूल जाती है। वर्षा को देखकर सूखा विस्मृत कर देती है। दुधमुंहे बच्चे की मीठी मुस्कराहट देख मौत को भुला देती है।’’

फुलझड़ी-सी बालिका अंधकार और मृत्यु पर विजय पाती चेतना का प्रतीक है। पद्मनाभन की कहानियाँ पीड़ित और शोषित सहजीवियों के लिए मानव की सहानुभूति के पर्यायवाची शब्द हैं। पद्ममनाभन किसी तरह की क्रांति  का आह्वान नहीं करते। न वे दलितों की स्वतंत्रता का नारा लगाते हैं। किंतु वे कलात्मक ढंग से मानव की त्रासदी से पाठकों को अवगत कराते हैं। वे शब्दों के प्रयोग में किफायत से काम लेते हैं। प्रत्येक शब्द सशक्त होता है और किसी गहरी मानवीय संवेदना को मुखरित करता है। पद्मनाभन अनायास ही अपनी कहानी का एक पात्र बना लेते हैं। और कहानी के मध्य से किसी अंतरंग अनुभव की कहानी निःसृत होती है। जब पाठक कहानी की संवेदना में स्वयं डूब जाता है तब वह कहानी के शब्द-गठन के विषय में ध्यान बिल्कुल नहीं देता। यह गठन पारदर्शी माध्यम का काम देता है। पृष्ठभूमि, पात्र, संवाद और आवेग-सभी सम्मिलित होकर एक हृदयकारी अनुभव कराते हैं। प्रत्येक कहानी में एक प्रभु प्रकाश का क्षण आता है जब पाठक वस्तुओं के चैतन्य के भीतर दृष्टिपात कर लेता है। लेखक जान-बूझकर ऐसे क्षणों का अविष्कार नहीं करता। लेखक को सही क्षण में ये सूझते हैं। ऐसा अनुभव कहानीकारों को ही हो सकता है।

साठ और सत्तर के दशकों में मलयालम कहानी आस्तित्ववादी हो गई। कहानी उरूब, एम. टी. वासुदेवन नायर और पद्मनाभन से काक्कनाडन, मुकुनद और वी. विजय के नये युग में आ गयी है। किसी महान लेखक को दूसरा लेखक नष्ट नहीं कर सकता। चेखव विश्व साहित्य में अब भी हैं। कोई उन्हें चुनौती नहीं दे सका और न नष्ट ही कर सका। उसी तरह बशीर और पद्मनाभन अपनी पूरा आभा छिटकाते हुए हमारे साथ अभी भी हैं। पद्मनाभन पूरी आभा छिटकाते हुए हमारे साथ अभी भी हैं। पद्मनाभन की वैशाली कला हमारी सौन्दर्य –चेतना को धनी बनाती है। उसकी करुण हमारे मन को उदात्त व विशाल बनाती है तथा हमें अधिक मानवीय बना देती है। उनकी रचनाएं आधुनिक क्लासिक कही जा सकती हैं।

-प्रो.के.एम. तरकन

यादों का झरोखा


लंबे-लंबे नौ साल


इस दौरान कितना ही घटनाएं घट चुकी हैं। जिंदगी अनेक दिशाओं में बही जा रहा है। बहाव की तेजी अब जरूर कम हुई है। फिर भी पानी का मटमैलापन अभी भी शेष है। देखा बहुत कुछ, थोड़ा बहुत भुगत भी लिया है। बीते दिनों की याद आती है तो बरसाती बादलों से भरे आसमान की तरह मेरा दिल भी भर आता है। दिनानुदिन मेरा मिजाज शक्की होता जा रहा है। यही हाल आगे भी कहीं जारी न रहे, यह आशंका मुझे सता रही है।
गोधूलि वेला में इस पुराने घर के बरामदे में बैठे-बैठे मेरा मन घोड़ा बेलगाम न जाने कहां-कहां की सैर किया करता है। यह पूरा मुल्क मेरा है। फिर भी मेरा अपना निजी कहलाने का कुछ भी नहीं। मुझे नउम्मीद थी कि ये कठिनाइयाँ खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएंगी। कई मामलों में उम्मीद सही भी निकली। ऐसी ही धुन में पड़े-पड़े जब निराश होता हूँ तब मेरी परेशानी और विकट हो उठती है। मगर ऐसी घड़ी में कहीं से ईप्पन भाई की याद मन में उभर आती है तथा सेवा के स्वच्छ शीतल जल के छींटे मन में पड़ने लगते हैं।
ईप्पन मेरे लिए आशा की बुझती अंतिम किरण के समान था। मैंने और किसी में इतनी इंसानियत तथा बड़प्न नहीं देखा था।

हाल ही में मुझे परवूर तक जाने की जरूरत आ पड़ी। याद आया, ईप्पन ने अपने घर का जो पता दिया था वह स्तान आलुवा के आसपास ही था। मुझे आलुवा से होकर ही जाना था, तब क्यों न उससे मुलाकात कर ली जाए ? यह सोचकर मैंने पुरानी डायरी से ईप्पन का पता नोट किया।

इस मुलाकात के पीछे मेरा एक खास मतलब भी था। मैंने ईप्पन से एक झूठ कहा था। बाद में महसूस किया कि ऐसा नहीं करना चाहिए था। लेकिन उस दिन मैं लाचार था। उन दिनों की खादी पहनने भर की वजह से पुलिस लोगों को गिरफ्तार कर हवालात में बंद कर देती थी। ऐसे मौके कम नहीं थे कि जब खून के रिश्तेवाले  भी अपनी खैरियत के लिए एक-दूसरे की मुखबिरी करते थे। इस तरह के माहौल में मैं अजनबी पर कैसे भरोसा करता ?
मैंने अपना एक कल्पित नाम बताया। यह बिल्कुल  मामूली झूठ था। फिर भी उसकी याद इतने लंबे अरसे से मेरे मन को कचोटती रही है।

मेरे दिल में उदासी भी अब दुगनी हो चली है। ईप्पन दुनिया से अब विदा हो चुका है। अब मैं अपने अपराध करने का पाप स्वीकार नहीं कर पाऊंगा !
जब गांव की सड़क पर ईप्पन का घर ढूँढ़ता चला जा रहा था तो कितने ही ख्याल मुझे परेशान कर रहे थे। कहीं ईप्पन मुझे न पहचाने तो ? ईप्पन से मेरा संपर्क कुछ घंटों का ही था। आखिर इसका भी क्या दावा है कि वह घर पर मिलेगा ही ? हो सकता है, वह देविकुलम या पुनलूर के बागान की देखरेख में व्यस्त हो। मैंने चाय की दुकान पर पता किया तो वहां बैठे लोग ईप्पन के बारे में कुछ बता नहीं सके। उनमें से किसी ने कहा, ‘‘यहां कितने ही ईप्पन हो सकते हैं’’, तब मैंने ईप्पन के बारे में उन्हें बताया :
‘‘करीब नौ साल पहले वह तृश्सूर में अध्ययन करता था।’’
एक अधेड़ देहाती व्यक्ति ने यह सुनकर प्रश्न किया—‘‘कहीं पुलिक्काड के वरीद भैया का बेटा तो नहीं ...?’’
मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। ईप्पन के परिवार का नाम वही था। मैं भूल गया था।
‘‘जी हां वही। क्या वह आजकल यहां है ?’’
मेरे सवाल सुनकर वह सकपकाया और खामोश रहा था।

‘‘उसे मरे चार साल हो चुके। खबर अखबारों में आई थी।’’
मैं चौंक उठा। ईप्पन मर गाया ? मुझे यकीन नहीं हो रहा था। ईप्पन जैसे लोग क्यों दुनिया छोड़ जाते हैं ?
ईप्पन धरती का नमक था। ऐसे ही लोगों को जिंदा रहना चाहिए।
सुना की मौत सहज नहीं थी। ईप्पन की मौत जेल में हुई थी। वरीद भैया अपने प्यारे बेटे को आखिरी क्षणों में देख तक नहीं सके। मैं लौट आया। मेरी आंखें गीली थीं। हाय ! मैं ईप्पन को पहचान नहीं सका था। तभी तो झूठा नाम कहना पड़ा होगा। ईप्पन कायर नहीं था।
उस दिन की हर घटना मन में साफ-साफ उभर रही है। सबकुछ कल ही घटित-सा लगता है। मैं उस दिन सांझ को तृश्सूर पहुंचा था। उस शहर को जब पहली बार जा रहा था। किसी से जान-पहचान नहीं थी। जिससे मिलना था उससे भी मैं पहले से परिचित नहीं था।

मालाबार में कई वारदातें हो रही थीं। तार काटना और स्टेशन पर आग लगना दैनिक कार्यक्रम-सा हो गया था। इंकलाबी जवान अपने समय की हुकूमत को अस्त-वयस्त करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे। कफन सिर पर बांधे हुए ऐसे ही जवानों के कई दल थे मैं भी एक ऐसे ही दल का सदस्य था।
भूमिगत रहते हुए आंदोलन चलाने के लिए पैसे की और दूसरी मदद की जरूरत पड़ती थी। हम लोग कुछ चुने हुए अमीरों की तिजोरी और पहुंच पर निर्भर करते थे। वे स्वाधीनता आंदोलन से प्रेम रखते थे। हम लोगों को सरकार की आंखों में धूल झोंकने में उनकी सहायता प्राप्त होती थी। अपने दल के लोगों ने मुझे ऐसे ही एक धनी सज्जन से मिलने तृश्शूर भेजा था। उस सज्जन ने पहले भी हमें मदद पहुंचाई थी।

चादर से पूरे सिर को ढके हुए मैं प्लेटफार्म से आगे निकला। मुझे मालूम नहीं था कि किस दिशा में चलना है ? किसी से पूछा जाए ? मैं झिझककर खड़ा रहा। कुली और रिक्शे वाले अब तक मुझे घेर चुके थे।
मेरे हाथ में चमड़े की छोटी-सी अटैची थी। उसे उठाने के लिए किसी कुली की जरूरत नहीं थी। मैं रिक्शे में दूसरों की नजर बचाकर उस सज्जन के घर पहुंच सकता था। पर मेरे पास पैसे नहीं थे। इसलिए मैं रिक्शेवालों की मदद को ठुकराने पर मजबूर हुआ।

अटैची बदन से सटाए मैं उतावली से चल पड़ा। मन में यही दिलासा बांधे कि कोई आसानी से मिल जाए तो उनके विषय में पूछ-ताछ कर लेंगे, जिनसे काम है। कुली छोकरे मेरे पीछे लगे थे। मैं कुछ क्रुद्ध हो उठा। कानी उंगली से उठाने लायक अटैची ले चलने के लिए और कोई क्यों ? जब उन्हें पता चला कि इस आदमी के पास दाल नहीं गलेगी तब वे एक-एक करके खिसक गए। सिर्फ एक लड़का मेरे पीछे-पीछे आ रहा था।
‘‘बाबू, वह अटैची दीजिए न ! मैं ले चलूँगा, आप कुछ भी न दें।’’ कहते हुए उसने मेरी अटैची हाथ में ले ली।
मैं गुस्से से कांप उठा। इस छोकरे की यह हिमाकत ! अटैची में गैर-कानूनी घोषित की हुई किताबें, दस्तावेज वगैरह थे। इधर किसी की नजर पड़ जाए तो ? मेरी ही बात नहीं और भी लोग इनसे जुड़े हुए थे।
सोचा, लड़के को एक थप्पड़ रसीद करूं। किंतु लड़का चिल्ला उठे तो नयी आफत टूट पड़ेगी। इसलिए सिर्फ घूर कर डराया।
किंतु उस लड़के पर नजर डाली तो गुस्सा काफूर हो गया। वह बालक चुहिया-सा थर-थर कांप रहा था। वह दीनता की पुतली था। उभरी हड्डियों की उसकी छाती पर एक सलीब टंगी थी जो शायद उसे बोझ लगती होगी। उसकी आंखों में आशा की रोशनी चमकी। वह प्रार्थना थी।

मैंने उससे पूछा—‘‘तेरा नाम क्या है ?’’
हो सकता है उसकी जिंदगी में पहली बार किसी ने ऐसी पूछ-ताछ की हो। मैंने उन आंखों को आश्चर्य से खिलते देखा।
‘‘अन्तोणी !’’
उसने कुछ झिझकते हुए कहा—‘‘अन्तोणी ! तू देखता है न, क्या यह अटैची ढोने के लिए किसी की जरूरत है ?’’
‘‘बाबू, आप जो चाहे दे देना। रात को चाय पीने के लिए कुछ नहीं है। आप जहां कहें, पहुंचा आउंगा।’’
और कोई मौका होता तो खतरनाक बक्सा लिए बातचीत करते हुए न रुकता। लेकिन उस बालक की दीनता देख मेरे मन पिघल गया। मैंने जेब में से दो पैसे निकालकर उसे दिए और कहा—‘‘अन्तोणी जाओ और चाय पी लो।’’
वह गया नहीं, कह रहा था—‘‘एक गिलास चाय के लिए एक आना देना पड़ेगा।’’

बात मुझे नहीं अखरी। जो भी हो, वह भीख नहीं मांग रहा था। मैंने जेब टटोलकर देखा तो दो पैसे हाथ लगे। उसे दे दिए। दो पैसे से मेरा कोई काम न चलना था। पर वह तो एक रात की भूख से बच सकता था। अन्तोणी ने मेरा काम भी कर दिया। मुझे जिनसे मिलना था उनका दफ्तर उसे मालूम था। वह मेरे साथ चल पड़ा। पूरा शहर त्यौहार के लिए सज-धजकर खड़ा था। जहां देखो वहीं रोशनी ! रंगीन बिजली की बत्तियां  और मोमबत्तियां हिलमिल कर जगमगा रही थीं। रह रहकर कतिना। पटाखे के धमाके सुनाई पड़ते थे। परंतु मुझे त्योहार का मजा लेने की फुरसत नहीं थी। मेरी यात्रा का ध्येय कुछ और था।
अन्तोणी ने एक बड़े बंगले की ओर इशारा किया। वह एक कारखाने का दफ्तर था। अन्तोणी को विदा करने के बाद मैं वहां पहुंचा। संयोग से वह सज्जन वहां मौजूद थे।
मुझे बाहर थोड़ी देर इंतजार करना पडा। वहां की सज-धज और वैभव देख मैं चकित हो उठा। फर्श पर बिछी कीमती दरी पर पैर रखते मन झिझक उठा। मुझे एहसास हो रहा था कि इस माहौल से कभी अपना समझौता नहीं कर पाऊँगा।

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