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मेरा नन्हा भारत

मनोज दास

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4863
आईएसबीएन :81-237-4581-8

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एक दार्शनिक के साथ भारत भ्रमण के दौरान आपको मिलेंगी अनुश्रुतियां, ऐतिहासिक प्रसंग और कुछ ऐसे नए व पुराने चरित्र, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता।

Mera Nanha Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक दार्शनिक के साथ भारत भ्रमण के दौरान आपको मिलेंगी अनुश्रुतियां, ऐतिहासिक प्रसंग और कुछ ऐसे नए व पुराने चरित्र, जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। साथ ही मिलेगी किसी विशाल परिदृश्य को देखने की सूक्ष्म दृष्टि। लेखक का जन्म एक ऐसे गाँव में हुआ था, जहाँ बैलगाड़ी से पहुंचना भी दूभर था। अपनी किशोरावस्था तक वे गाँव के स्कूलों में ही पढ़े। वे जब भारत के विभिन्न हिस्सों को बतौर पर्यटक देखने जाते हैं तो उन ऐतिहासिक स्थलों को देखने में उनकी दृष्टि पर उनका अतीत कहीं न कहीं मंडराता रहता है। कई बार यह दृष्टियां भारत को देखने के क्रम में एक-दूसरे में छितरा जाती प्रतीत होती हैं।
इस पुस्तक में शुरुआत की कुछ रचनाएं अंडमान की हैं। राजस्थान के राजपुताना-अतीत पर लेखक ने कई लेख प्रस्तुत किए हैं। इन आलेखों का प्रकाशन ‘द स्टेट्समेन’ में श्रृंखलाबद्ध रूप से हो चुका है।
मनोज दास (जन्म.1934) देश के विख्यात लेखकों में से हैं। वे अंग्रेजी और ओडिया भाषाओं में लिखते हैं। उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, पद्मश्री जैसे कई सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। वे इन दिनों श्री अरविंद इंटरनेशनल सेंटर ऑफ एजुकेशन, पांडिचेरी में शिक्षक हैं।
अनुवादक दिवाकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और आऊटलुक साप्ताहिक में समन्वय संपादक है।

भूमिका

भारत को देखने के कई तरीके हैं बल्कि कई दृष्टियां हैं जिनसे उस परिघटना का अनुभव किया जा सकता है जो भारत है; एक ऐसे गाँव में जन्म लेने और बड़े होने जहां कि बैलगाड़ी से भी पहुंचना मुश्किल हो और अपनी किशोरावस्था तक गांव के स्कूलों में पढ़ने के कारण इस लेखक की भारत के बारे में दृष्टि में कभी-कभी उसकी अंदरूनी भवानाएं और नोस्टैल्जिया लगी हुई रही हैं, भले ही ऐसा हर वक्त नहीं होता। यह सुझाव देना चाहेगा कि उसे इतिहास के निकष पर कसने से मुक्त कर दिया जाए क्योंकि ये रचनाएं, अगर आप फुर्सत के मूड़ में हैं, तो स्थानों और लोगों के बारे में इस लेखक के भाव के साथ शामिल होने का आमंत्रण हैं। ये भाव पिछले कई वर्षों में इस लेखक के दिमाग और कल्पनाओं में आए हैं।

ये दृष्टियां भारत को देखने के क्रम में एक-दूसरे में छितरा गई भी हो सकती हैं जैसा कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इस देश के बारे में मार्क ट्वेन को हुआ था: ‘यह वास्तव में भारत है। सपने और रोमांस, काल्पनिक धन और काल्पनिक गरीबी, तेज और चीर, महल और कुटिया, अकाल और महामारी, भूत-प्रेत और अलौकिक मानव, बाग और जंगल, सैकड़ों देशों और सैकड़ों भाषाओं के राष्ट्र, हजारों धर्म और बीस लाख देवी-देवताओं, मानव-जाति के झूले, मानव-बोली का जन्म-स्थान, इतिहास की माता, पौराणिक कथा की दादी, परंपरा की परदादी की भूमि,...एक ऐसी भूमि जिसे देखने की सभी लोग इच्छा रखते हैं और जिसे एक बार झलक भर ही सही, किसी ने देख लिया हो तो उसे ऐसी झलक पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगी।’ (मोर ट्रैम्प्स एब्रोड, 1897) शुरूआत की कुछ रचनाएं अंडमान पर हैं और ये यथार्थ पर आधारित हैं जबकि राजस्थान वाली रचनाओं में ‘सपने और रोमांस’ भारी हैं और शेष रचनाएं निरपेक्ष अनुभव और आत्म-चेतना वाली प्रतिक्रियाओं का मिश्रण हैं। चूंकि लेखक दो भाषाओं में गति रखता है, अधिकांश रचनाओं को उड़िया में अंतरंग भारत नाम से संग्रहीत किया गया है।

मैं द स्टेट्समैन को धन्यवाद देता हूं जिसने इसे श्रृंखलाबद्ध ढंग से प्रकाशित किया। पाठकीयता की दृष्टि से मैं भाग्यशाली रहा क्योंकि कई लोगों ने इस श्रृंखला के पुस्तक रूप में आने की संभावना के बारे में पूछताछ की जबकि एक ने इसके प्रकाशन का प्रस्ताव किया। वे थे नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के निदेशक श्री निर्मल कांति भट्टाचार्यजी। मैं उनके प्रति आभारी हूं और बिन्नी कूरियन के प्रति भी जिन्होंने इसे संपादन के नजरिये से देखा। इसके साथ ही मैं ट्रस्ट के अधिकारियों के प्रति भी आभारी हूं।

कुरूप गोधूलि

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी डा.दीवान सिंह के लिए पोर्ट ब्लेयर में गोधूलि का समय कभी इतना सुहावना नहीं था। इस वातावरण ने उन्हें घर पर पड़े रहने को मजबूर कर दिया था; क्षितिज पर हलके बादल, डूबते सूरज के अस्थिर ब्रश से बने मुलम्मे ने दूर में बने उनके घर पर केवल बाह्य रेखा दिखाने वाला चित्र बना दिया था।
सन् 1941 की उस खास शाम ने उन्हें काफी विचलित कर दिया था-वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्यों ? वैसे एक मेडिकल कैंप का निरीक्षण करने के बाद अपने हे़डक्वार्टर लौटते समय रास्ते में एक छोटे द्वीप से गुजरते हुए उन्होंने एक आदिवासी गांव से खून जमा देने वाली चिल्लाहट सुनी थी। यह उनके कानों में बार-बार गूंज रही थी और उन्हें अपशकुन जैसा लग रहा था-लेकिन वह नहीं समझ सके कि ऐसा क्यों था !

उन्हें छली भविष्यज्ञान के अपने दिमाग को शुद्ध करने के लिए जरूर कुछ करना चाहिए। उन्होंने कागज का एक टुकड़ा लिया और पंजाबी में अपनी सोच घसीटी:
‘यह तूफान है-वहां पर,
क्रोध से देर तक ठहरा हुआ,
क्षितिज के आरपार यह वार करेगा;
यह वार करेगा-
और नींद से जगने पर छोड़ जाएगा,
अंधेरा, नाशवान सूरज-चांद-तारे।
तबाही, उत्पात और बदलाव का तूफान।
मैं तुम्हें नहीं जानता, न तुम मुझे।
तूफान वार करेगा-
तूफान...’

कुछ ही दिनों में उनकी संवेदना पूर्वबोधक सिद्ध हुई।
दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया। जापानियों ने 23 मार्च, 1942 को पोर्ट ब्लेयर पर हमला किया। तब तक टापुओं पर से अधिसंख्य अंग्रेज अधिकारी मुख्य भूमि पर भाग चुके थे। प्रशासन के बचे-खुचे हिस्से की ड्यूटी अनिश्चित थी।
कुछ हजार जापानी सैनिक शहर के अंदर घुसे जबकि उनसे भी अधिक समुद्र तट पर अपने जहाजों पर इंतजार कर रहे थे, पीछे छूट गए औपनिवेशिक नौकरशाही को तुरफ-फुरत निर्णय लेना था कि वह पराजित ब्रिटिश शेर के प्रति राजभक्ति जारी रखे या उगते सूर्य को नमस्कार करे। पहले के पक्ष में निर्णय करने वाले लोगों में टेलीग्राफ विभाग के कर्मचारी थे। सुरंग में पहले लगाए गए विस्फोटक पदार्थों की मदद से उन लोगों ने कार्यालय को जला डाला-लेकिन पकड़ लिए गए।
अभागे देशवासियों को दांत पीसते घुसपैठियों के लिए स्वागत के चिह्न प्रदर्शित करने की जुगत करनी पड़ी। बिना एक भी गोली चलाए बारह घंटे के अंदर पूरा अधिकार हो चुका था। कुछ ने उसे अच्छा शकुन माना। और जब जापानियों ने सेलुलर जेल के दरवाजे खोल दिए और कैदियों को बाहर आने के संकेत दिए, उन लोगों के बीच आह्लाद जैसा था जो इतिहास और बेस्टाइल के पराभव के बारे में कुछ जानते थे।

कुछ उत्तेजक घंटे गुजर जाने थे इससे पहले कि द्वीपवासी घुसपैठियों के अपनी गोलियों के बचा लेने का अर्थ समझ पाते।
जल्द ही, जापानियों को बाजारों में घूमते, जो भी इच्छा हो, उन्हें उठा लेते और किसी भी दुकान से ऐसा करते देखा जाने लगा। यह ऐसा था कि दुकानदारों के लिए बहुत लंबे समय तक स्वागत में मुस्कान बिखेरे रहने में मुश्किल होने लगी। वे चिल्ला नहीं सकते थे। कुछ को तो अपने चेहरे पर शिकन लाने के लिए थप्पड़ भी खाने पड़े थे। उनका कृतार्थ दिखना जरूरी था।
लूट का उत्सव दूसरे दिन भी जारी रहा-जब तक अनपेक्षित न घट गया।

पोर्ट ब्लेयर में पौराणिक कथा-जैसे और मास्टरजी के रूप में लोकप्रिय श्री केसर दास ने अपनी बालकनी के पार घरों की श्रृंखला दिखाते हुए हमें बताया, ‘देखो, उसके बाद मेरे दोस्त जुल्फिकार का घर था। हम लोग उसे सोनी कहते थे। एक जापानी उसके घर में घुसा और उसने दो अंडे उठा लिए। पीड़ा से दांत पीसते हुए भी नर्म दिखते हुए उसे यह कहने के लिए धृष्ट होना पड़ा कि ‘‘कृपया एक छोड़ दें क्योंकि हमें एक बच्चा है जिसे इसकी जरूरत होती है।’’ लेकिन अधिकारी ने उसे धमकाने वाले अंदाज में देखा कि सोनी उसे रोककर देखने का साहस करे। अचानक सोनी ने अपनी बंदूक निकाली और गोली चला दी।’

उसके बाद की जो तस्वीर उभरी जो मास्टरजी ने हम लोगों को बताई और जापानियों द्वारा क्षेत्र के उपायुक्त नियुक्त किए गए तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस की इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की अंडमान शाखा के चेयरमैन भी रहे तहसीलदार रामकृष्ण द्वारा तैयार बहुमूल्य दस्तावेज से जो जानकारी मिली, वह इस तरह थी: जुल्फिकार की गोली जापानी के सिर को छूती हुई निकल गई लेकिन वह जल्दी ही हजारों सैनिकों के साथ वहां आया जो अपनी राइफलों से हर दिशा में गोलियां बरसा रहे थे। वे लोग अपने रास्ते में आने वाले सभी घरों को आग लगा रहे थे। अंततः उन लोगों ने सोनी को पकड़ लिया।
यह शाम का समय था। पोर्ट ब्लेयर के लगभग सभी लोग बाजार गए हुए थे। इनमें सोनी के मां-बाप और भाई भी थे। साहस और सहृदयता के लिए सबके प्रिय अपने सोनी को उन लोगों ने पीटे जाते और कोने में घसीटे जाते देखा।
और एक प्रत्यक्षदर्शी विजय बहादुर ने ऑल इंडिया रेडियो पोर्ट ब्लेयर पर इस घटना का इस तरह विवरण दिया: ‘एक ह्रष्ट-पुष्ट जापानी सैनिक सोनी के निकट पहुंचा और सोनी को हाथों में पकड़ लिया और पीटना शुरू कर दिया। मैं अपने जीवन में इतना क्रूर कुछ भी नहीं जानता था। तब सोनी को खड़ा कर दिया गया; छह सैनिकों ने अपनी राइफलों के साथ पोजीशन ले ली; कमांडर एक रूमाल के साथ खड़ा था। उसने इसे गिरा दिया और सोनी को गोली मार दी गई।’
जब प्राणनाशक आवाज समाप्त हुई, आश्चर्यचकित भीड़ को छंटने का आदेश दिया गया।

जहां जापानी पोर्ट ब्लेयर को लूट और जला रहे थे, उनके द्वारा छोड़े गए कुछ लोगों ने उपनगरीय गांवों पर हमले किए। इसमें संघर्ष हुए। कई लुटेरे और भोले-भाले ग्रामीण-दोनों मारे गए।
इस तरह की स्थिति में कुछ धनाढ्य स्थानीय लोगों ने जापानियों को मित्र बनाने के लिए पार्टी देने या उन्हें उपहारों के ढेर देने की रणनीति को उचित समझा। इन संपर्कों के जरिये जापानियों ने महसूस किया कि महत्वपूर्ण माने जाने वाले अधिसंख्य लोग द्वीप छोड़कर भाग गए हैं या भूमिगत हो गए हैं। यहां की आबादी को डराया जा सकता है।
और उन लोगों ने त्वरित कार्रवाई की। उन लोगों को सबसे बढ़िया आवास उपलब्ध होना चाहिए। किसी झिझक के बिना वे लोग किसी भी बंगले, निजी या सरकारी, में घुस गए और इसमें रहने वालों को निकाल बाहर किया। मुख्य आयुक्त के ट्रेजरी और वित्तीय सलाहकार के पद पर रहे अधिकारी अतुल चंद्र चटर्जी को उनके घर से निकाल दिया गया। अभागे और व्याकुल रूप में जब वह अपने लॉन से निकलने लगे तो जापानियों ने देखा कि भीड़ गेट के सामने जमा थी, उसे उनके द्वारा महत्वपूर्ण माने जाने वाले अधिकारी का भाग्य जानने की उत्सुकता थी। यह जापानी तलवार की शक्ति की झलक मानी जा सकती है।

गिरोह का सरदार चिल्लाया, ‘हॉल्ट !’ उसने अतुल बाबू की तरफ झपटने से पहले भीड़ की तरफ दांत पीसकर देखा। तब उसने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाली और जबड़े दबा लिए। अगले ही क्षण अतुल बाबू का सिर घास पर लुढ़क गया।
एक बार घर में आराम से रहने के बाद वे आनंद की तलाश करने लगे। उन लोगों ने पहले सजा पा चुके लोगों के गिरोह बनाए जिन्होंने गांवों पर हमले किए, महिलाओं को पकड़ा। एक वृद्ध प्रत्यक्षदर्शी ने याद किया, ‘ वे उसी तरह जापानियों के शिविरों में लाए गए जैसे पशुओं को कसाई घर में लाया जाता है।’
नए महाराजाओं के लिए दिन आराम से गुजरे। उन लोगों ने मुख्य आयुक्त के तौर पर नारायण राव को रखकर एक नागरिक सरकार का गठन किया। कुछ अच्छे विश्वास और कुछ अनपेक्षित तौर पर प्राप्त स्तर के तहत राव ने किसी भारतीय को मिली एकमात्र कार का खुलकर उपयोग किया।

लेकिन शायद वह खुद को मिली शुभकामनाओं का कुछ अधिक ही खुलकर इस्तेमाल करने लगे। रॉयल आर्मी फोर्स द्वारा जापानियों के जहाजों पर बम गिराए जाने से बहुत पहले की बात है। गठबंधनों और नारायण राव के बीच जासूसी संपर्क की सूचना भी इसका कारण हो सकता है क्योंकि रात में उन्हें अपनी गाड़ी चलाते देखा गया। एक शाम ‘मुख्य आयुक्त’ को बाजार में ही रोका गया, उन्हें बेइज्जती के साथ उनके पद से हटा दिया गया और सेलुलर जेल भेज दिया गया।
संदेह भय में बदल गया। सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार किया गया और उन्हें जेल में ठूंस दिया गया। हम रामकृष्ण को सुनें:
‘यंत्रणाओं के बीच जापानियों द्वारा पूछताछ जारी रही, मोटे डंडे से वे लगातार पीटते रहे। पिटाई के साथ लगातार पूछताछ से भी जब कोई अपेक्षित परिणाम नहीं निकला, नए कदम उठाए गए। शरीर के किसी हिस्से पर पेट्रोल छिड़कना और जब तक पूरी चमड़ी गहरे तक न जल जाए,तब तक आग लगाए रखना एक कदम था। रोज मानव शरीर के किसी हिस्से में घाव करना और उस पर नमक या मिर्च की बुकनी छिड़कना दूसरा कदम था।

‘जब ये सभी तरीके विफल रहे, पीड़ितों के घरों से पत्नियों और बच्चों को जेल लाया गया। टॉर्चर चैंबर में महिला की उसके पति के सामने पिटाई की गई और पति की पिटाई पत्नी के सामने की गई; या पत्नी को पति को पीटने और पति को पत्नी को पीटने को कहा गया। अभिभावकों के सामने बच्चों की पिटाई की गई।..कई बार बेटों से मां या बाप को पीटने को कहा गया। स्वीकारोक्ति..? लेकिन जब कुछ किया ही नहीं तो क्या स्वीकारोक्ति ? सात कैदियों की गोली मारकर हत्या कर दी गई। कई टॉर्चर चैंबर में मर गए और यह पता नहीं कि उनके शवों का क्या हुआ। पूरी आबादी आतंक में डूबी थी।’
उन लोगों को तुरंत मौत दी गई जो पूरी तरह दास साबित नहीं हुए। उनमें डा. दीवान सिंह थे।

जब मैं सेलुलर जेल के कोर्ट यार्ड (बाहर से सहन) से गुजर रहा था, यह अपेक्षाकृत सुनसान दोपहर बाद का समय था। हालांकि यह अप्रैल की शुरुआत थी, गर्मी असह्य थी, खासतौर से मेरी बगल से गुजरने वाले तीन यूरोपियनों के समूह के लिए। वे अपने चेहरे बार-बार पोंछ रहे थे और अपने गाइड की इस कमेंटरी पर बमुश्किल ध्यान देते हुए मौसम को शाप दे रहे थे: ‘यह प्रसिद्ध सेलुलर जेल है, भारत का बेस्टाइल...’
‘भारत का सबसे बढ़िया जेल ?’
गाइड ने झुकी हुई बूढ़ी औरत की बात को दुरुस्त किया, ‘नहीं मैडम, बेस्टाइल।’
‘क्या ?’
‘बेस्टाइल, आप देखें...’
महिला ने अपने कंधे उचका दिए। हर यूरोपियन के लिए बेस्टाइल के महत्व को जानना जरूरी नहीं है। उसकी आंखें मुझ पर आकर टिकीं। कोई कारण नहीं था कि मैं मदद नहीं कर सकता था।
‘बेस्टाइल वह किला था जिसका जेल के रूप में उपयोग किया जा रहा था जिसे विद्रोहियों ने फ्रांसीसी क्रांति की शुरुआत के तौर पर तहस-नहस कर डाला था।’
‘ओह...हो...हो..फ्रांसीसी क्रांति ! धन्यवाद !’
उसे अपने साथियों को पकड़ने की जल्दी थी। गाइड ने मुझे संदेह की नजर से देखा।
मैंने उसे हिंदी में कहा, ‘देखो, मेरे दोस्त ! तुम्हारी तुलना न तो बेस्टाइल और न सेलुलर जेल करती है। बेस्टाइल को फ्रांसीसियों ने खुद ही तहस-नहस किया, विदेशी घुटपैठियों ने नहीं। यही बेस्टाइल का गौरव है। सेलुलर जेल का बेस्टाइल से कहीं अधिक गौरवपूर्ण इतिहास है और कहीं अधिक दुखांत भी...।
वह प्रशंसा करता नहीं लगा।

याद रखने वाली एक रात

हम जिस खास आदमी को खोज रहे थे, तीन दिनों तक बार-बार वह छली साबित हो रहा था। हमें कहा जाता, ‘मैंने उसे यहां इस मोड़ पर देखा था !’ लेकिन वह वहां नहीं होता था।
हम जब सौदागर की झोपड़ी पर पहुंचे तो उसके एक गर्वीले पड़ोसी ने कहा, ‘उसे पाना आसान नहीं है।’ यही नहीं, पड़ोसी ने उसे पाने का कोई रास्ता भी नहीं सुझाया।
पिछली शताब्दी के नौवें दशक में जिस पत्रिका द हेरिटेज का मैं संपादक था, उसके प्रकाशक, विस्वम और मैं अंतत: उसके निकट पहुंच गए। एक खास दिन वह नमाज अदा करने के लिए एक मस्जिद में जाता था। उसके दोनों दरवाजों पर हम खड़े हो गए। हमारे पीछे वे स्थानीय लोग खड़े हो गए जो उसे पहचानते थे।
केंद्रशासित प्रदेश के जनसंपर्क निदेशक ने हमें सौदागर के बारे में बताया था। पोर्ट ब्लेयर के आकाशवाणी से हमने काफी पहले प्रसारित उस फीचर की स्क्रिप्ट हासिल कर ली थी जिसका झक्की शीर्षक था, ‘‘वह आदमी जो मानव मांस पर जिंदा बच गया।’’

हत्या के मामले में सजा पाए सौदागर को सन् 1935 में अंडमान लाया गया था। उसने अपनी युवावस्था में जो कुछ किया था, वह उसकी याददाश्त पूरी तरह खो चुका था। उसे उसके उस अनुभव ने विलक्षण बना दिया था जो उसने जापानियों के हाथों पाया था।
वह छंट रही भीड़ से जैसे ही निकलने लगा, हम लोगों ने एक तरह से उसे अपनी कार में जबरन ठूंस लिया।
उसने मुंह बंद कर हंसते हुए पूछा, ‘क्या आप मेरा अपहरण करना चाहते हैं ?’ लेकिन थोड़ा फुसलाने-बहलाने पर उसने अपने पैर पटकना बंद कर दिया; जैसे-जैसे मेरा टेपरिकॉर्डर चलने लगा, वह तेजी से बताने भी लगा।

और उसकी कहानी कुछ तरह थी:

सन् 1945 के मध्य आते-आते द्वीप वालों के पास खाने-पीने का कोई सामान नहीं बच गया। सहयोगी सेनाओं की बमबारी से खाद्य सामग्री ढोने वाले किसी जहाज के लिए बंदरगाह पहुंचना असंभव हो गया। भूखों रहने के कारण लोग डाके डालने लगे और चारों ओर अराजकता फैल गई-जापानियों ने खुद भी इस संस्कृति को बढ़ावा दिया।
लेकिन जापानियों के पास भी समस्या का ‘अंतिम समाधान’ था।
पांच सौ गांव वालों को एक द्वीप पर ले जाया गया और उन्हें मशीनगनों से भून दिया गया। इसमें कोई नहीं बचा। जब जापानी कब्जा समाप्त हुआ और इस आतंक के बारे में दूर से देखने वालों ने बताया, तब जाकर जांच अधिकारियों ने वहां हड्डियों के ढेर पाए।

एक दिन घोषणा की गई कि टापुओं के नए मालिकान कुछ वैसे द्वीपों की जमीन पर बड़े पैमाने पर फसल लगाएंगे जहां अभी पैदावार नहीं की जाती और जो चाहें, इसका लाभ उठा सकते हैं। जो काम चाहते थे, उन्हें सेलुलर जेल के सामने जमा होने को कहा गया। कहा गया कि उन्हें खाना-पीना, रहने की जगह और अच्छी रकम दी जाएगी।
छह-सात सौ लोग आए। उन्हें पूरा दिन वहां रखा गया। इन भूखे लोगों को कहा गया, ‘कुछ ही घंटे बाद खुशियां कदम चूमेंगी।’ उन्हें अलकतरे पुते हुए ट्रकों में भरकर अबरदीन घाट ले जाया गया और एक जहाज में भर दिया गया।
यहां अंधेरा था, बारिश हो रही थी और दुर्बल-कृशकाय लोग दांत कटकटाती सर्दी झेल रहे थे। जहाज हैवलॉक द्वीप के पास पहुंच रहा था।
उस मार डालने वाली ठंड में ही कमांडर ने चिल्लाकर कहा, ‘कूदो, मूर्खों, हमारे जहाज को खाली कर दो !’
क्या कोई मजाक कर रहा था ?

ना, उन लहरों को छोड़कर कोई भी नहीं बता सकता था। ना, वह भयानक आवाज मतिभ्रम ही होगा ! लेकिन जबरन सोची गई इस तरह की आशा बहुत देर तक नहीं पह पाई। यात्रियों को संगीनें भोंकी जाने लगीं और कई के तो सिर कलम कर दिए गए। कड़कती बिजली में एक ओर दर्जनों तलवारें दिखीं। कुछ ही मिनट में जहाज खाली हो गया।
अब, सौदागर के बारे में सुनें जो नई जीवन आशा में खुद भी जहाज पर था।
‘जब नरसंहार शुरू हुआ, मैं जहाज पर एड़ी के बल खड़ा था- अंतिम समय तक चुपचाप रहा। उसके बाद मैंने छलांग लगा दी। मैं कीचड़ में था और खारा पानी मेरे मुंह में भर गया। मुझे लगा, मेरा अंत समय आ गया है।
‘मैंने तैरना शुरू कर दिया-एक तरह से मैं छटपटा रहा था और उस काली तूफानी रात में महासागर मुझे जिस ओर धकेल रहा था, मैं जाने लगा। तब मेरे पैरों ने बालू को छुआ। मैंने अपने साथ दिखाई न दे रहे लोगों को चिल्लाकर कहा, ‘‘इस तरफ आओ, किनारा इस ओर है।’’

सौदागर हैवलॉक द्वीप के तट पर पहुंच गया-हांफते और लगभग मरते हुए। जब लालिमा आने लगी, उसने देखा, लोगों के शव तैर रहे हैं, कुछ के पेट फाड़े हुए हैं तो कुछ के शरीर को समुद्री जीवों ने आधा खा लिया है। उसने 150 तक की गिनती की और अंतत: गिनना छोड़ दिया। तब वह धीरे-धीरे चलने लगा और कुछ आतंकित लोगों से उसकी मुलाकात हुई जो अपने को बचा पाए थे। उन लोगों ने आपस में बातचीत की और उनके बीच एक तरह का भाईचारा बन गया।
‘हम लोगों ने पहला काम यह किया कि बांस को रगड़कर आग जलाई। हमने आग जलाए रखी। एक दिन में तट के सारे छोटे कीड़े खा डाले गए। अब खाने को कुछ नहीं बचा था। बारिश का पानी एकमात्र जरिया था जिससे प्यास बुझाई जा सकती थी।’

भूख वाले हफ्ते में वे समूहों में बैठ जाते और अपने को जिंदा रखने और सुरक्षा के खयाल से भाग निकलने की योजना बनाते। लेकिन दस दिन बाद :
‘मैंने यहां-वहां बैठे हुए प्रेतात्माओं के छोटे समूहों को देखा। वे प्रतीक्षा कर रहे थे-मौत की ! उनकी हड्डियां द्वीप पर बिखरी पड़ी थीं। क्या आप कभी वहां गए हैं ?’
जल्द ही उसने हवा में कुछ देखा जिसे बताया नहीं जा सकता। जो लोग बमुश्किल जीवन बचाए हुए थे, समूह बनाने लगे और चलने लगे। कुछ था जो चोरी-छुपे हो रहा था, उनकी गतिविधियों में कुछ रहस्यात्मक और अपशकुन था। सौदागर अकेला था। कभी-कभी उसके पास जलते मांस की गंध उड़ती हुई धीरे-धीरे पहुंचती। वह व्याकुल था। तब ही एक दिन......

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