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कहानी संग्रह >> पारदर्शी चेहरा

पारदर्शी चेहरा

ब्रज कुमार मित्तल

प्रकाशक : जय भारतीय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4846
आईएसबीएन :81-8595-7-17-7

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जीवन यात्रा के वे पड़ाव जिन पर चाहे अनचाहे सभी को रुकना पड़ता है इन कहानियों में रेखांकित किये गए हैं। डॉ.मित्तल की रचनाओं में शरत की भावुकता, अज्ञेय की सत्यता और गुलेरी की आँचलिकता मिलती है।

Pardarshi Chehra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ.ब्रजकुमार मित्तल की प्रत्येक रचना को हम दावे के साथ प्रकाशित करते हैं। इस दावे का प्रमाण है उनकी प्रसिद्ध नाट्य रचना ‘चाणक्य और चाणक्य’, जिसका हमें तुरन्त दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। यह सच है कि डॉक्टर मित्तल बहुत जोर देने पर अपनी रचनाएँ हमें प्रकाशन के लिए देते हैं पर यह भी सच है कि उनका यह कहानी संग्रह आपको देते हुए हमें गर्व हो रहा है। सारिका के विशेषांक में प्रकाशित कहानी ‘पारदर्शी चेहरा’ और मानवीय सम्बन्धों के नये धरातल पर उपजी ‘अनुबंध’,‘आपा’ और ‘सुप्रिया’ कहानियाँ एक दिन कहानी साहित्य का मापदण्ड बनेगीं।
जीवन यात्रा के वे पड़ाव जिन पर चाहे अनचाहे सभी को रुकना पड़ता है उन कहानियों में रेखांकित किये गए हैं। डॉ.मित्तल की रचनाओं में शरत की भावुकता, अज्ञेय की सत्यता और गुलेरी की आँचलिकता मिलती है।
प्रत्येक कहानी का अपना एक कथ्य, रंग और उद्देश्य है। इनमें आधुनिकता है पर व्यर्थता और मर्यादाहीनता का लेश भी नहीं।
पुनः एक विनम्र आग्रह है कि यदि आप आज की कहानी का उत्तम चेहरा देखना चाहते हैं तो इस संग्रह को अवश्य पढ़ें और फिर हमें लिखें।

मेरी कहानियाँ

जब मैं इस पुस्तक की भूमिका लिखने बैठा तो सोचने लगा कि क्या भूमिका कहानियों का विश्लेषण है ?
क्या यह कोई दावा है या फिर किसी आलोचना से बचाव है। वास्तव में मेरा यह वक्तव्य ऐसी किसी धारणा के तहत नहीं है, फिर भी मैं इन रचनाओं के विषय में कुछ तो कहना ही चाहूँगा। सबसे पहले तो यह बता दूँ कि यें मेरी, आपकी सबकी कहानियाँ हैं। इन में चरित्र मेरी दृष्टि में अहम हैं। मैं मानता हूँ कि घटनाएँ कैसी भी हों वे मानव के लिए ही होती हैं, घटनाओं से उपजे विचार और भाव, मनुष्य को प्रभावित करते हैं लेखक को रचनाकार बनाते हैं इन्ही से पाठक भी रचना को ग्रहण करता है। इन्ही से कथा दुखान्त, सुखान्त या प्रसादान्त बनती है। अपनी जीवन-यात्रा में मैं अनेक ऐसे पात्रों से मिला जो मेरी इन कहानियों में प्रस्तुत हैं। ये पात्र गाँव, कस्बे, शहर या जाति धर्म से बंधे न हो कर अपनी मानवीय पात्रता से जुड़े हैं, मैंने कभी अच्छे-बुरे के भेदभाव से किसी पात्र को नहीं देखा, जो जैसा है वह वैसा ही रचनाओं में है। हाँ पाठक को जो जैसा लगे यह उन पर छोड़ देता हूँ।

इस संग्रह की एक उस कहानी का मैं जिक्र करना चाहूँगा जो इस संग्रह का शीर्षक भी है-‘पारदर्शी चेहरा’ मैं जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था तो एक साहित्यिक गोष्ठी में मैंने इसे पढ़ा, जिसमें देश के जानेमाने साहित्यकार कमलेश्वर जी भी थे। उन्होंने इसे वहीं मुझसे ले लिया, सारिका में प्रकाशित करने के लिए। तब मैंने यह समझा कि इतनी प्रसिद्ध (कहानी) पत्रिका में मेरी कहानी कहाँ छपेगी। पर मुझे आश्चर्य हुआ जब वह एक विशेषांक में प्रकाशित हुई। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कमलेश्वर जैसे ईमानदार लेखक जिस देश और भाषा में होंगे वहाँ अच्छे साहित्य का सृजन होगा। इसके विपरीत आज कुछ मठाधीश साहित्य को विभिन्न विज्ञापनों में सजा कर अपनी दुकान चलाते हैं दलित-साहित्य, नारी-साहित्य, जन-साहित्य आदि नाम सामने आ रहे हैं। मेरी समझ में यह नहीं आता कि संवेदना भी क्या खेमों या जातियों की चीज है ? साहित्य साहित्य है। जहाँ दर्द होगा वहीं साहित्य होगा। यदि ऐसा न होता तो भारतेन्दु, प्रसाद, प्रेमचन्द, भारती, कमलेश्वर जैसे साहित्यकार क्यों न साहित्य को बाट देते इन खेमों में ? मैं समझता हूँ चाहे वो राजनीति में हो, चाहे साहित्य में-जो कमजोर होगा वही हथकण्डे अपनाएगा।

मेरी कहानी कितनी ताकतवर हैं ? न तो मैं इसका दावा करता हूँ और न उन लोगों की परवाह करता जो जिन्दगी में एक भी रचना नहीं कर सके और आलोचक बन कर लगे फतवे इजाद करने। मैं समझता हूँ साहित्य की आलोचना मात्र इसलिए हो कि लोग उस रचना को समझ सकें, इसलिए नहीं कि रचना अच्छी है या बेकार है। यह निर्णय आलोचक न करें, यह सब साहित्य प्रेमियों, पाठकों पर छोड़ देना चाहिए। मैं जो लिखता हूँ वह पाठक के लिए लिखता हूँ आलोचक के लिए नहीं।
मेरी नौ कहानियाँ देवदासी प्रथा पर थीं उनमें से एक कहानी ‘सुप्रिया’ इसमें है शेष आठ कहीं खो गईं वे सभी नारी-शोषण पर थीं इसका मुझे बहुत दुख है।

लेखक की आयु का उसके लेखन से गहरा रिश्ता है उम्र के साथ वैचारिक परिवर्तन होता चलता है। यह सच मेरे साथ भी है पर इस संग्रह में मैंने कहानियों को इस दृष्टि से क्रम नहीं दिया।
भाषा को मैं रचना का महत्वपूर्ण तत्व मानता हूँ पर यह भी मानता हूँ कि भाषा सरल और स्पष्ट होनी चाहिए। दूसरे यह भी सच है कि यह लेखक की प्राकृतिक सम्पदा है, जो जितना स्वाध्याय करेगा और जितना सहृदय होगा उसकी भाषा भी उतनी प्रभावी होगी। इस क्षेत्र में लेखक की सीमा के बाहर उसकी शक्ति नहीं हो सकती। यदि भाषा में दम है तो रचना पाठक के मर्म को छुएगी और उसे हमेशा याद रहेगी, शायद यही कारण है कि शरत बंगाल के सबसे बड़े लेखक हैं रविन्द्र से भी बड़े।
मैं उन सभी पात्रों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे लेखक बनाया, उन साहित्यकारों का भी आभारी हूँ जिन्होंने मुझे प्रेरणा दी और उन परिवारजनों, मित्रों का भी जो मेरे इस कार्य में सहायक रहे।
अन्त में प्रकाशक श्री जुग्गीलाल गुप्त को धन्यवाद देता हूँ जो आग्रह करके मुझसे रचनाऐं ले लेते हैं और उन्हें पाठकों तक पहुँचा देते हैं ‘चाणक्य और चाणक्य’ तथा ‘यह सिंहासन है’ नाट्य रचनाओं के बाद मेरा यह कहानी संग्रह उन्हीं के आग्रह से आप के हाथों में है।
ब्रज कुमार मित्तल

पारदर्शी-चेहरा

जोरों से बारिश हो रही है जैसे सारा आकाश ही धरती पर टूट पड़ेगा, बाहर-भीतर सब भीगा-भीगा-सा लगता है। कार की पिछली सीट पर भाभी लेटी है, चुपचाप। ओबरा से मिर्जापुर जाना है, जाना ही है, रुक नहीं सकते, भाभी के लिए। भैया चुपचाप ड्राइव कर रहे हैं, खामोश हैं कहने को है भी क्या ? इस तूफानी बारिश में एक प्रश्न मन में उठता है और चुप हो जाता है...यह भयंकर तूफानी बारिश, क्या होगा ? सच, क्या होगा ? इस प्रश्न का उत्तर अभी तक कोई नहीं दे सका, इसीलिए लोग अक्सर इससे कतरा कर निकल जाते हैं, भाई साहब ने पूछा, ‘‘अखिल ! सर्दी तो नहीं लग रही है ?’’
मैंने पीछे लेटी भाभी की ओर मुड़कर पूछा, ‘‘भाभी...?’’ ‘‘नहीं।’’ बुझी-सी आवाज में भाभी ने कहा। वाइपर सामने के शीशे पर गिरे पानी को बराबर पोंछ रहा है ताकि उस पार साफ देखा जा सके।
भैया ने सिगरेट जलाते हुए कहा, ‘‘ड्राइव करोगे ?’’ मैंने उतरे मन से उनकी ओर देखा।
‘‘अच्छा ठीक है।’’ कहकर भैया चुप हो गए जैसे किसी गहराई में डूब गए हों।
एक ठोस नीरवता को तोड़ती हुई भाभी की बुझी-बुझी खाँसी-मैं एक बार भाभी को ध्यान से देखना चाहता हूँ पर न जाने क्यूँ डरकर अपनी जगह बैठा रह जाता हूँ।
‘‘जरा देखो पेपर्स में क्या है ?’’ अपनी जेब की ओर इशारा करते हुए भैया ने कहा।
मैं रिपोर्ट निकाल लेता हूँ, एक प्रश्न मेरे मन में उठता है-यह सब चुपचाप हो गया, भैया ने यह सब मुझे पहले क्यों नहीं बताया ? ये पेपर्स घर पर क्यों नहीं दिखाए ? यें प्रश्न मेरे अन्दर उगते हैं और चुपचाप मर जाते हैं।

केस इज सीरियस, इम्मीजिएट केयर मैंने शीशे के पार आँखें गड़ा दीं-मुझे लगा जैसे आकाश कई टुकड़ों में बिखर गया है, उसकी मोटी-मोटी दरारों से धरती पर पानी गिर रहा है, गिरता रहेगा, कब तक ? जब तक सारी दुनियाँ पानी की परतों से ढक न जाएगी, जब तक सब कुछ बदल न जाएगा। भैया गम्भीर हैं, उनका चेहरा उदार है, वे पत्थर की तरह जड़ हैं, चुपचाप ड्राइव कर रहे हैं जैसे बोलने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं बचा। अब क्या होगा ? मैं अर्थ पर अर्थ बुनने लगता हूँ आगे पीछे का बहुत कुछ सोच जाता हूँ-हज़रत गंज की एक शाम-एक तो अवध की शाम और दूसरे साथ में नई भाभी।
अचानक पूँछ बैठता हूँ-एक फास्ट कलर की साड़ी खरीदोगी ना ?
‘‘हाँ तुम्हारी पसंद की।’’
‘‘मैं अपनी खुशियों में डूब जाता हूँ, ‘‘एक बात कहूँ भाभी ?’’
‘‘हूँ।’’
‘‘बुरा तो न मानोगी।’’
‘‘अरे बुरा क्यों ?’’ हँसते हुए भाभी ने कहा।
‘‘आपका साड़ी पहनना तो अच्छा नहीं लगता।’’
‘‘तब।’’
तब ? इसी शब्द के साथ मुझे याद आता है-यूनिवर्सिटी के इंग्लिश एसोसियेशन का क्लोजिंग फंक्शन मिस दुआ को पहली बार साड़ी पहने देखकर मैं अपने आपको रोक नहीं सका था-‘‘एक्स क्यूज मी, तुम्हारा साड़ी पहनना कुछ अच्छा नहीं लगा।
‘‘तब ?‘‘ उसने भी यही कहा था, ठीक यही शब्द।

मैंने यूँ ही कही थी मन की एक बात, उससे आगे बढ़ने की गुंजाइश नहीं लगी थी। मैंने भाभी की ओर देखा वे हँस रही थीं, मेरे सिर से एक बोझ-सा उतर गया, मुझे कुछ हलकापन महसूस हुआ। भैया न जाने किस मूड में थे, बोले, ‘‘ठीक ही तो कह रहा है, तुम तो अभी स्टूडैन्ट लगती हो, जाओ अखिल के साथ रिसर्च कर लेना, इलाहाबाद में।
सच भाभी को अगर इलाहाबाद ले आता तो शायद यह न होता। ओबरा के पानी से यह सब हो गया, दो वर्षों में ही इतना परिवर्तन ? इतना सब कुछ ?
पानी वैसे ही बरस रहा है, वायपर वैसे ही चल रहा है, कार वैसे ही दौड़ रही है, भैया वैसे ही चुप हैं। मैं भाभी के साँसों की आहट लेने का प्रयास करता हूँ, शीशे के बाहर अनवरत बूँदों का अँधेरा भरा हुआ है। राबर्टगंज पीछे छूट गया है माढियान आने वाला है-सड़क के किनारे का एक छोटा-सा कस्बा, यहाँ के रसगुल्ले बहुत ही अच्छे होते हैं, मन में आया भाभी को बता दूँ कि कितना शौकीन हूँ मैं रसगुल्लों का ! वें कहेगीं, घर चलकर बना दूँगी, जी भरकर खाना। तभी भैया बोले, ‘‘अखिल ! इन्हें कोई बीमारी नहीं थी।’’
‘‘कोई बीमारी नहीं थी ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘इन्होंने खुद यह...यें हर वक्त उदास रहती थी, खोई-खोई सी, पता नहीं क्यूँ ?’’

मैंने शीशे के बाहर देखा-एक ठूँठ सड़क के दाई ओर उस बारिश में चुपचाप खड़ा है, उदास-उदास, बुझा-बुझा सा। हर वक्त क्या सोचा जा सकता है ? भाभी हर वक्त क्या..., जो हर वक्त उदास रहेगा उसका क्या हाल होगा ? वह कैसे जिएगा ? भाभी हर वक्त क्या सोचती थी ? भाभी का चेहरा, उस पर ठहरी सहमी सी दो आँखें, लगातार बंद रहने वाले दो सूखे होंठ-जब भी खुलते तो, बंद होने के प्रयास में लग जाते और अन्दर आती-जाती थकी हुयी साँस-यही शेष रह गया था भाभी के पास इन दो वर्षों में। हजरत गंज में मेरे साथ चलने वाली खिली हुई भाभी आज पीछे की सीट पर लेटी है चुपचाप, खाली-खाली, अस्तित्वहीन। यें ठीक हो जाएगीं ? हो जाएगीं ? वैसी ही ? मन के कोने में एक नुकीला तीर-सा चुभ कर जाता है।
इलाहाबाद से जाकर जब मैंने भाभी को इतनी कमजोर देखा तो पूछा था-‘भाभी यह क्या हो गया आपको ? इतनी कमजोर क्यों हो गईं आप ?
कुछ नहीं थोड़ी तबियत खराब हो गई थी हलकी हँसी में ढ़क कर भारी उदासी दे दी थी भाभी ने मुझे। वह अन्दर ही अन्दर छिपकर रह गई थीं।
इसी तरह जब भी मैंने भाभी से उनकी हैल्थ की बात उठाई तो वह हर बार सच्चाई से कतराती नज़र आईं।
भाई साहब ने एक दिन मुझे पास बैठाते हुए कहा था-हर वक्त सोचती रहती हैं न जाने क्या ? बस घुल रही है यूँ ही। वैसे बीमार नहीं हैं।
‘‘लेकिन अब तो बीमार ही हैं।’’

जब मैंने भाभी को ध्यान से देखा तो ऐसा लगा जैसे उनका कुछ पीछे छूट गया है, वह पत्थर की एक शिला की तरह इस घर में है। बस हर वक्त काम-धाम और एक घोर चुप्पी, न हँसना, न बोलना। जब मुझसे न रहा गया तो मैंने बात साफ करनी चाही। भाभी को बैठा कर कसम दिलाई कि आख़िर बात क्या है ? इतनी उदासी का कारण क्या है ? वह सच्चाई से भागने का प्रयास करती रही।
भैया ने बताया, ‘‘इनकी शादी कहीं और पक्की हो गई थी, लेकिन हुई मेरे साथ।’’
यकायक भैया चुप हो गए उनकी आँखें फैलकर कहीं स्थिर हो गईं जैसे दूर उन्होंने कुछ पकड़ लिया हो जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे।
मैंने कहा, ‘‘यह तो कोई घटना नहीं है। स्वाभाविक तौर पर एक लड़की की शादी कई जगह तय होती है, पर होती तो एक जगह ही है।’’
‘‘नहीं, अखिल !...वह अब भी उसके बारे में सोचती है, यहाँ तो वह पत्थर की तरह है और मेरा उस पत्थर से क्या सम्बन्ध है यह तुम जानते हो।’’
भैया कुछ भावुक हो चले थे, उनकी आँखों में गहरी खामोशी थी।

मैं सब कुछ समझ गया, भैया को मैं अच्छी तरह जानता हूँ, उनकी आदत है कि जिस बात को पकड़ते हैं फिर यूँ ही नहीं छोड़ते। छोटी से छोटी बात को भी खूब चीर-फाड़ कर देखते हैं। संदेह उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है-भाभी कॉलेज में पढ़ती थी, वहाँ के एक अध्यापक या लड़के से उनका प्रेम-सम्बन्ध रहा होगा, या फिर ऐसा ही कुछ, यह सब शादी के पहले की बातें हैं। शादी के पहले हर किसी की जिन्दगी होती है जिसे कई ढंग से जिया जाता है या कहिए जीना पड़ता है। उसके लिए इतना आग्रह क्यों, इतने प्रश्न कैसे ? पर कुछ लोग बीती बातों को इतना कसकर पकड़ते हैं कि उनका वर्तमान भी निष्प्राण हो जाता है।
भाई साहब ने दु:खी होते हुए कहा था, ‘‘अखिल ! वह इस घर में कभी पूर्णता नहीं भर सकती क्योंकि वह खुद अधूरी है।’’
मैं जानता हूँ भैया का संदेह भाभी को कभी सम्पूर्ण नहीं होने देगा, इसलिए वह तिलतिल कर कटती गई और आज एक अस्तित्वहीन संदर्भ की तरह रह गई हैं।

एक बार मैं जब ओबरा आया था तो डायनिंग टेबुल पर खाते वक्त मैं भाभी को छेड़ बैठा-‘‘भैया की हैल्थ का राज क्या है ? आपका बनाया हुआ ऐसा खाना ?’ ऐसा कहने पर भाभी अपने ही अन्दर छुप गई थी, एक बार मुझे देखकर जैसे दूर जा खड़ी हुई थी और भाई साहब ? वें तो जैसे उठकर भाग जाना चाहते हों, मेरे इस मजेदार कथन ने इन दोनों के बीच की दरार को उजागर कर दिया था। बात टालने के लिए भाभी ने कहा था, ‘‘अखिल ! अज्ञेय की शेखर: एक जीवन ले आ सकोगे।’’ आखिर वह सब क्या था ? मैं ढो रही हूँ ? क्या भाभी अपने आपको भैया से नहीं जोड़ पाईं ? मुझे लगा कि इन दोनों के बीच एक दीवार बन चुकी है और यें दोनों इसके आर-पार जी रहे हैं। दीवार किसने बनाई ? मैं इसे जानता हूँ। भाभी की पग-पग पर समीक्षा ली गई होगी, उनके एक-एक साँस पर संदेह किया गया होगा और वें इस परीक्षा में धुलकर रह गई।
मैंने पीछे मुड़कर देखा भाभी की आँखें बन्द हैं और होठों पर एक मृत हास स्थिर है।
‘‘भाई साहब।’’
‘‘हाँ।’’
‘‘यह सब क्यों हो गया।’’
‘‘क्या बताऊँ।’’
‘‘तो क्या यह सब यूँ ही हो गया, खेल-खेल में ? औपचारिकता में ? मैं बहुत भरा हुआ था, मन था बहुत कुछ कह डालू- आपके भाभी के बीच संदेह की जो दीवार आपने बनाई है वह आज भी है, भाभी उसी की छाया में अपने आपको दुबकाकर जीने का प्रयास करती रहीं, इसलिए आज यें केवल एक छाया रह गयी हैं जिसे सिर्फ देखा जा सकता, स्पर्श नहीं किया जा सकता। आपने जिन आँखों से भाभी को देखा उनमें एक प्रश्न सदैव तैरता रहा और दृष्टि के इसी प्रश्न-चिन्ह ने भाभी को तोड़ दिया, पूरी तरह। प्यार एक भावना है जो विश्वास की नींव पर खड़ा रेत का महल है जरा से संदेह से वह धूल में बिखर सकता है।
भाई साहब चुपचाप सुन रहे थे, लगता था वें अपनी सच्चाई को झेल रहे थे।

पीछे की सीट पर भाभी एक पतली रेखा की तरह अचेत पड़ी हैं-मुख पर वही झूठी मुस्कान, उलझे बाल, पारदर्शी चेहरा- जिसके आर-पार सब कुछ स्पष्ट दीख पड़ता है। कोई भी उस चेहरे से भाभी को पूरी तरह पढ़ सकता है, मुझे लगा जैसे वें कह रही हैं-मुझ पर शक किया जा रहा है जो मुझे कहीं भी जुड़ने नहीं देता।
बाहर वही धुँआधार बारिश और पारदर्शी शीशे को धुँधलाती पानी की बूँदें, वही शीशे पर तेजी से रेंगता वायपर। मेरे अन्दर विचारों का दबाव बढ़ रहा था-मैं दर्द की परतों में दबा जा रहा था-‘‘आपने मुझे कुछ नहीं लिखा ? मैं भाभी को इलाहाबाद बुला कर जिया लेता, यह हालत तो न होती।’’
‘‘क्या लिखता, कोई बीमारी भी तो हो।’’ मैंने सोचा यह है सच, संदेह कोई बीमारी तो नहीं, जिसका कोई ईलाज ही न हो वह भी क्या बीमारी।
कार तेजी से सड़क पर दौड़ रही थी सड़क के पानी से एक अजीब सी आवाज कभी होती थी। भाभी डाक्टर तक पहुँच जाए तो मैं सब ठीक कर लूँगा, सब लौटा लूँगा, सब लौट आएगा, वैसा ही ? भाभी के साथ मैं फिर वह अखिल, वही भैया, नहीं यह शायद कभी न होगा। क्या सब कुछ बदल जाएगा ? क्या भाभी-भैया की नजरों में पीछे के जीवन से कटी एक नई पत्नी हो सकेगी ? क्या दीवार टूट जाएगी ?

मिर्जापुर रेलवे फाटक बंद था, रिक्शाओं, तांगों, बसों, ट्रकों की बेतरतीब कतारें खड़ी थीं, ट्रक से उतर कर एक सरदार कह रहा था, ‘‘ओ मुंडिया, तू की कर दा पिया ए ? ना सानू चा ते ना पाणी, ओए ! तू किना बेदर्दी ए...बेदर्दी ! निष्ठुर !! पत्थर !!! कौन ? मैंने अपने आप को पकड़कर कहा-अखिल ! भैया का संशय भी ठीक हो सकता है, क्या जाने भाभी ही अपने आपको...पर इतनी सच्चाई से जीने वाली भाभी मर सकती है कुछ छिपा नहीं सकती।
अस्तपताल में अचेत भाभी को अन्दर ले जाया गया। भैया के दोस्त डाक्टर गोपाल ने यह सब देख कर भैया के कंधे पर हाथ रखा, ‘‘अच्छा यह बताओ इन्जिनियर ! तुम तो बड़ा फूँक-फूँक कर कदम रखने वालों में हो, फिर यह लापरवाही कैसे हो गई तुमसे ? शादी ने बदल दिया है शायद !’’ भैया मेरी तरफ देखते हैं और मैं भाभी के कमरे की तरफ।
कई दिनों से मैं भाभी के पास हूँ उनकी हालत में कुछ सुधार हो रहा है, चेहरे पर फिर से ताजगी आने लगी है ! भैया भी यहीं रहते हैं कभी-कभी ओबरा हो आते हैं।
मैं भाभी के पास बैठा हूँ, ‘‘भाभी ! सच बताओगी ?’’
‘‘नहीं आज तो मैं झूठ बोलूँगी, कहो क्या बोलूँ ?’’
‘‘मेरे साथ रह सकोगी, एक आध-साल ?’’
‘‘बस एक आध-साल ही रखोगे ?’’
बहुत दिनों बाद भाभी में इस तरह की ताजगी देखता हूँ, ‘‘रह सकोगी आप भैया से अलग ?’’ लगा जैसे यह पूँछ कर मैंने कोई अपराध कर डाला हो फिर भी भाभी ने अजीब उत्तर दिया-
‘‘ना बाबा...ना।’’ कहकर भाभी ने निगाहें नीचे कर लीं।
‘‘तो फिर पूछना ही बेकार है।’’ मैंने कुछ नाराज होते हुए कहा।

‘‘अरे ! नाराज हो गए, मुझसे भी नाराज ? एक ही तो भाभी हूँ मैं तुम्हारी, सिर्फ एक।’’ अधिकार के स्वर में भाभी ने कहा।
मुझे लगा जैसे नये ढंग से रहने के लिए नई भाभी तैयार हो रही हैं।
भाई साहब कहकर गए हैं कि वो आज नहीं आएंगे, कोई बात नहीं। अब भाभी ठीक हैं, मैं जी भर कर उनसे बातें करता हूँ। मन की सारी उदासी छँट जाती है।
मैं बाजार से लौटकर आया तो पता चला कि भाभी की तबियत आचानक खराब हो गई, मैं उनके कमरे की ओर दौड़ पड़ता हूँ। भाभी छाती पर हाथ रखकर चीख रही है, लोगों की भीड़ लगी है नर्स उन्हें सम्भालने में लगी है, दिल पर मालिश कर रही है, दूसरी नर्स दवा तैयार कर रही है, उन्हें एक इन्जेक्शन दिया जाता है, मैं सिर उठाकर भाभी को दवा पिलाता हूँ। लगभग पूरी दवा मुँह से बाहर बह जाती है। पूरे अस्तपताल में हलचल हो जाती है। डा. गोपाल आते हैं पर नब्ज देखकर हतप्रभ रह जाते हैं। भाभी एक बार भीगीं आँखों से मुझे देखती हैं और फिर पलकें मूँद लेती हैं।

मिर्जापुर से ओबरा लौटना है, एक खौफनाक वीरानगी है, सब कुछ उदास लगता है। मैं स्टेयरिंग पर बैठा हूँ भैया बगल में बैठे हैं, डॉ. गोपाल भैया के कंधे पर हाथ रखते हैं मैं कार आगे बढ़ाता हूँ। वही रास्ता, पर बेहद पराया-सा लगता है, वहीं सड़क-पिघली-पिघली लगती है। मैं संभलकर ड्राइव कर रहा हूँ। पर लगता है कार एक गहरी खाई में जा गिरेगी। आसमान साफ है, धूप जैसे उफनकर बाहर आ गई है।
मन करता है कि कार को लेकर समुद्र की ऐसी गहराई में उत्तर जाऊँ जहाँ देखने-समझने को कुछ न हो, बस एक सपाट अंधकार हो और न टूटने वाला सन्नाटा जहाँ हजारों आँखें पत्थर की हों, जहाँ सिर्फ ज़हर ही ज़हर भरा हो।
मैं अचानक भैया को देखता हूँ, उनकी उदासी मुझे खल जाती है। मुझे लगता है कि वें अभी ठहाका मार कर हँसेगें, पर ऐसा नहीं होता, कुछ भी नहीं होता।
कार की स्पीड बढ़ाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि आज पीछे की सीट पर बीमार भाभी नहीं है।

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