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वैदिक नित्यकर्म विधि

स्वामी रामदेवजी

प्रकाशक : दिव्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4820
आईएसबीएन :00-0000-00

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पूज्य स्वामी रामदेवजी महाराज के अमृत उपदेशों एवं भजनों सहित...

Vadik Nitykaram Vidhi-A Hindi Book Achary Balkrishna Ji Maharaj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते।

महर्षि मनु

महर्षि मनु महाराज का कथन है कि मनुष्य शूद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज बनता है। संस्कार हमारे चित्त पर पड़ी वे शुभ व दिव्य हैं, जो हमें अशुभ की ओर जाने से रोकती है तथा और अधिक शुभ व दिव्य की ओर जाने के लिए प्रेरित करती है। ऋषियों ने हमारे अन्तःकरण को हर क्षण शुभ संस्कारों से आप्लवित किये रखने के लिए कुछ नित्यकर्मों का विधान किया है, जिनमें प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यन्त हमारी सारी दिनचर्या आ जाती है। यदि हम इन नित्यकर्मों को अपने दैनिक जीवनचर्या का अंग बना लेते हैं तो हमारा जीवन साधारण मनुष्य की चेतना से ऊपर उठकर देवताओं की दिव्य चेतनाओं की ओर अग्रसर होने लगता है। यह ही हमारे ‘‘दिव्य योग मन्दिर (ट्रस्ट)’’ का लक्ष्य है कि मनुष्य अपने व्यक्तित्व के प्रत्येक भाग को दिव्य बनाए, चाहे वह उसका शरीर हो या उसकी वाणी हो या उसका मन हो। इसी लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत ‘‘वैदिक नित्यकर्म विधि’’ में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ आदि नित्यकर्मों के मन्त्रों को सरलार्थ सहित प्रस्तुत किया गया है ताकि हम मन्त्र के अन्तर्गत दिये जाने वाले सन्देश, आदेश या शिक्षा को जान सकें और उसे अपने जीवन का अंग बनाकर जीवन को सार्थक कर सकें।  

उषाकालीन दैनिक कर्त्तव्य

‘‘स्त्री-पुरुष सदा 10 बजे शयन और रात्रि के अन्तिम प्रहर अर्थात् 4 बजे उठकर सर्वप्रथम हृदय में परमेश्वर का चिन्तन करके, धर्म और अर्थ का विचार किया करें। धर्म और अर्थ के लिए अनुष्ठान वा उद्योग करने में यदि कभी भी पीड़ा हो तो भी धर्मयुक्त पुरुषार्थ को कभी न छोड़े। सदा शरीर और आत्मा की रक्षा के लिये युक्त आहार-विहार, औषधसेवन, सुपथ्य आदि से निरन्तर उद्योग करके व्यावहारिक और पारमार्थिक कर्त्तव्य कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना भी किया करें ताकि उस परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहाय से महाकठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध हो सकें। इसके लिए निम्नांकित वैदिक मंत्र हैं-

* उषाकालीन जागरण तन्त्र *


ओउम्-प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम।।1।।


अर्थ- हे स्त्री पुरुषों ! जैसे हम विद्वान उपदेशक लोग (प्रात:) प्रभात वेला में (अग्निम्) स्वप्रकाशस्वरूप (प्रात:) (इन्द्रम्) परमैश्वर्य के दाता और परमैश्वर्ययुक्त (प्रात:) (मित्रावरुणा) प्राण, उदान के समान प्रिय और सर्वशक्तिमान् (प्रात:) (अश्विना) सूर्य, चन्द्र को जिसने उत्पन्न किया है, उस परमात्मा की (हवामहे) स्तुति करते हैं; और (प्रातः) (भगम्) भजनीय सेवनीय, ऐश्वर्ययुक्त (पूषणम्) पुष्टिकर्त्ता (ब्रह्यणस्पतिम्) अपने उपासक, वेद और ब्रह्याण्ड के पालन करने हारे, (प्रातः) (सोमम्) अन्तर्यामी, प्रेरक (उत) और (रुद्रं) पापियों को रुलाने हारे और सर्वरोगनाशक जगदीश्वर की (हुवेम) स्तुति, प्रार्थना करते हैं, वैसे प्रात: समय में तुम लोग भी किया करो।।1।।

ओउम्-प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह।।2।।

अर्थ- (प्रात:) पाँच घड़ी रात्रि रहे (जितम्) जयशील् (भगम्) ऐश्वर्य के दाता (उग्रम्) तेजस्वी (अदिते:)  अन्तरिक्ष के (पुत्रम्) पुत्ररूप सूर्य की उत्पत्ति करने हारे और (य:) जो कि सूर्यादि लोकों का (विधर्त्ता) विशेष करके धारण करने हारा (आध्र:) सब ओर से धारणकर्त्ता (यं चित्त्) जिस किसी का भी (मन्यमान:) जानने हारा (तुरश्चित्) दुष्टों का भी दण्ड-दाता; और (राजा) सबका प्रकाशक है (यम्) जिस (भगम्) भजनीयस्वरूप को (चित्) भी (भक्षीति) इस प्रकार सेवन करता हूँ और इसी प्रकार भगवान् परमेश्वर सबको (आह) उपदेश करता है कि तुम जो मैं सूर्यादि जगत् का बनाने और धारण करने हारा हूँ; उस मेरी उपासना को किया करो और मेरी आज्ञा में चला करो, इससे (वयम्) हम लोग उसकी (हुवेम) स्तुति करते हैं।।2।।

ओउम्-भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्न:।
भग प्रणो जनय गोभिरश्वैर्भग प्रनृभिर्नृवन्त: स्याम।।3।।

अर्थ- हे (भग) भजनीयस्वरूप (प्रणेत:) सबके उत्पादक, सत्याचार में प्रेरक (भग) ऐश्वर्यप्रद (सत्यराध:) सत्य धन को देने हारे (भग) सत्याचरण करने हारो को ऐश्वर्य देने वाले आप परमेश्वर ! (न:) हमको (इमाम्) इस (धियम्) प्रज्ञा को (ददत्) दीजिये और उसके दान से हमारी (उदवा) रक्षा कीजिये। हे (भग) आप (गोभि:) गाय आदि और (अश्वै) घोड़े आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्यश्री को (न:) हमारे लिये (प्रजनय) प्रगट कीजिये। हे (भग) हे भजनीय स्वरूप परमात्मा ! आपकी कृपा से हम लोग (नृभि:) उत्तम मनुष्यों से (नृवन्त: बहुत वीर मनुष्य वाले (प्रस्याम) अच्छे प्रकार होवें।।3।।


ओउम्-उतेदानीं भगवन्त: स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम्।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम।।4।।


अर्थ- हे भगवान् ! आप की कृपा (उत्) और अपने पुरुषार्थ से हम लोग (इदानीम्) इस समय (प्र पित्वे) प्रकर्षता-उत्तमता की प्राप्ति में (उत) और (अह्नाम्) इन दिनों के (मध्ये) मध्य में (भगवन्त:) ऐश्वर्ययुक्त और शक्तिमान् (स्याम्) होवें (उत) और हे (मघवन्) परम पूजित असंख्य धन देने हारे ! (सूर्यस्त) सूर्यलोक के (उदिता) उदय में (देवानाम्) पूर्ण विद्वान धार्मिक आप्त लोगों की (सुमतौ) अच्छी उत्तम प्रज्ञा (उत) और सुमति में (वयम्) हम लोग (स्याम) सदा प्रवृत्त रहें।।4।।

ओउम्-भग एवं भगवाँ अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्त: स्याम।
तं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह।।5।।

अर्थ- हे (भग) सकलैश्वर्यसम्पन्न जगदीश्वर ! जिससे (तम्) उस (त्वा) आपकी (सर्व:) सब सज्जन (इज्जोहवीति) निश्चय करके प्रशंसा करते हैं (स:) सो आप, हे (भग) ऐश्वर्यप्रद ! (इह) इस संसार और (न:) हमारे गृहाश्रम में (पुर एता) अग्रगामी और आगे सत्कर्मों में बढ़ाने हारे (भव) हूजिये और (भग एव) सम्पूर्ण ऐश्वर्य युक्त और समस्त ऐश्वर्य के दाता होने के आप ही हमारे (भगवान्) पूजनीय देव (अस्तु) हूजिये। (तेन) उसी हेतु से (देवा: वयम्) हम विद्वान लोग (भगवन्त:) सकलैश्वर्य सम्पन्न होके सब संसार के उपकार में तन, मन, धन से प्रवृत्त (स्याम) होवें।।5।।
इस प्रकार परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। तत्पश्चात् शौच, दन्तधावन, मालिश व्यायाम आदि स्नान करके स्नान करें। पश्चात् एक कोश या डेढ़ कोश एकान्त जंगल में जाके योगाभ्यास की रीति से परमेश्वर की उपासना कर, सूर्योदय पर्यन्त अथवा घड़ी आध घड़ी दिन चढ़े तक घर पर आकर सन्ध्योपासनादि नित्यकर्म यथाविधि उचित समय में किया करें।


सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ)


सन्ध्या करने के लिए तैयार होकर किसी एकान्त स्थान पर स्वच्छ आसन पर सूर्याभिमुख होकर बैठें। तत्पश्चात्-

* आचमन मन्त्र *


ओउम्-शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये।
शंयोरभिस्रवन्तु न:।।

(यजु0-32/12)

इस मन्त्र का उच्चारण करके दायें हाथ से तीन आचमन करें।



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