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नाटक-एकाँकी >> संग्राम

संग्राम

प्रेमचंद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4816
आईएसबीएन :81-284-0020-7

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संग्राम पुस्तक का कागजी संस्करण...

Sangram

कागजी संस्करण

अमरकथा शिल्पी मुंशी प्रेमचंद ने इस नाटक में किसानों के संघर्ष का बहुत ही सजीव चित्रण किया है। इस नाटक में लेखक ने पाठकों का ध्यान किसान की उन कुरीतियों और फिजूल-खर्चियों की ओर भी दिलाने की कोशिश की है जिसके कारण वह सदा कर्जे के बोझ से दबा रहता है। और जमींदार और साहूकार से लिए गए कर्जे का सूद चुकाने के लिए उसे अपनी फसल मजबूर होकर औने-पौने बेचनी पड़ती है।
मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट !

भूमिका


आजकल नाटक लिखने के लिए संगीत का जानना जरूरी है। कुछ कवित्व-शक्ति भी होनी चाहिए। मैं इन दोनों गुणों से असाधारणत: वंचित हूँ। पर इस कथा का ढंग ही कुछ ऐसा था कि मैं उसे उपन्यास का रूप न दे सकता था। यही इस अनधिकार चेष्टा का मुख्य कारण है। आशा है सहृदय पाठक मुझे क्षमा प्रदान करेंगे। मुझसे कदाचित् फिर ऐसी भूल न होगी। साहित्य के इस क्षेत्र में मेरा पहला और अंतिम दुस्साहसपूर्ण पदाक्षेप है।

मुझे विश्वास है यह नाटक रंगभूमि पर खेला जा सकता है। हां, रसज्ञ ‘स्टेज मैनेजर’ को कहीं-कहीं काट-छांट करनी पड़ेगी। मेरे लिए नाटक लिखना ही कम दुस्साहस का काम न था। उसे स्टेज के योग्य बनाने की घृष्टता अक्षम्य होती।
मगर मेरी खताओं का अन्त अभी नहीं हुआ। मैंने एक तीसरी खता भी की है। संगीत से सर्वथा से अनभिज्ञ होते हुए भी मैंने जहां कहीं जी में आया है गाने दे दिये हैं। दो खताएं माफ़ करने की प्रार्थना तो मैंने की; पर तीसरी खता किस मुंह से माफ कराऊं। इसके लिए पाठक वृन्द और समालोचक महोदय जो दंड दें, शिरोधार्य है।

विनीत
प्रेमचंद

नाटक के पात्र


हलधर: मधुवन का किसान-नायक
फत्तू: मधुवन का किसान-नायक
मँगरू: मधुवन का किसान-नायक
हरदास: मधुवन का किसान-नायक
सबलसिंह: मधुवन का जमींदार
कंचनसिंह: सबलसिंह का भाई
अचलसिंह: सबलसिंह का पुत्र

चेतनदास: एक संन्यासी
भृगुनाथ: गुलाबी का पुत्र
राजेश्वरी: हलधर की पत्नी
सलोनी: मधुवन की एक वृद्धा
ज्ञानी: सबलसिंह की पत्नी
गुलाबी: सबलसिंह की महाराजिन
चम्पा: भृगुनाथ की पत्नी
इंस्पेक्टर, थानेदार, सिपाही, डाकू आदि

पहला अंक


{प्रभात का समय, सूर्य की सुनहरी किरणें खेतों और वृक्षों पर पड़ रही है। वृक्ष पुंजों में पक्षियों का कलरव हो रहा है। बसंत ऋतु है। नयी-नयी कोपलें निकल रही है। खेतों में हरियाली छायी हुई है। कहीं-कहीं सरसों भी फूल रही है। शीत-बिन्दु पौधों पर चमक रहे हैं।}
हलधर-अब और कोई बाधा न पड़े तो अब की उपज अच्छी होगी। कैसी मोटी-मोटी बालें निकल रही हैं।
राजेश्वरी-यह तुम्हारी कठिन तपस्या का फल है।
हलधर-मेरी तपस्या कभी इतनी सफल न हुई थी। यह सब तुम्हारे पौरे की बरकत है।

राजेश्वरी-अबकी से तुम एक मजूर रख लेना। अकेले हैरान हो जाते हो।
हलधर-खेत ही नहीं है। मिलें तो अकेले इसके दुगने जोत सकता हूं।
राजेश्वरी-मैं तो गाय जरूर लूंगी। गऊ बिना सूना मालूम होता है।
हलधर-मैं पहले तुम्हारे लिए कंगना बनवा कर तब दूसरी बात करूंगा। महाजन से रुपये ले लूंगा। अनाज तौल दूंगा।
राजेश्वरी-कंगन की इतनी क्या जल्दी है कि महाजन से उधार लो। कुछ अभी पहले का भी तो देना है।
हलधर-जल्दी क्यों नहीं है। तुम्हारे मैके से बुलावा आयेगा ही। किसी नये गहने बिना जाओगी तो तुम्हारे गांव-घर के लोग मुझे हंसेगे कि नहीं ?

राजेश्वरी-तो तुम बुलावा फेर देना। मैं करज लेकर कंगन न बनवाऊंगी। हां, गाय पालना जरूरी है। किसान के घर गोरस न हो तो किसान कैसा ! तुम्हारे लिए दूध-रोटी कलेवा लाया करूंगी। बड़ी गाय लेना, चाहे दाम बेशी देना पड़ जाये।
हलधर-तुम्हें और हलकान न होना पड़ेगा। अभी कुछ दिन आराम कर लो, फिर तो यह चक्की पीसनी ही है।
राजेश्वरी-खेलना-खाना भाग्य में लिखा होता हो तो सास-ससुर क्यों सिधार जाते ? मैं अभागिन हूं। आते-ही-आते उन्हें चट कर गयी। नायायण दें तो उनकी बरसी घूम से करना।
हलधर-हां, यह तो पहले ही सोच चुका हूं, पर तुम्हारा कंगन बनना तो जरूरी है। चार आदमी ताने देने लगेंगे तो क्या करोगी ?

राजेश्वरी-इसकी चिंता मत करो, मैं उनका जवाब दे लूंगी, लेकिन मेरी तो जाने की इच्छा ही नहीं है। जाने और बहुएं कैसे मैके जाने को व्याकुल होती हैं, मेरा तो अब वहां एक दिन भी जी नहीं लगेगा। अपना घर सबसे अच्छा लगता है। उसकी तुलसी का चबूतरा जरूर बनवा देना, उसके आस-पास बेला, चमेली, गेंदा और गुलाब के फूल लगा दूंगी तो आंगन की शोभा बढ़ जायेगी !
हलधर-वह देखो, तोतों का झुंड मटर पर फूट पड़ा।
राजेश्वरी-मेरा भी जी एक तोता पालने का चाहता है। उसे पढ़ाया करूंगी।

[हलधर गुलेल उठा कर तोतो की ओर चलाता है।]

राजेश्वरी-छोड़ना मत, बस दिखाकर उड़ा दो।
हलधर-वह मारा ! एक गिर गया।
राजेश्वरी-राम-राम, यह तुमने क्या किया ? चार दानों के पीछे उसकी जान ही ले ली। यह कौन-सी भलमनसी है ?
हलधर-(लज्जित हो कर) मैंने जान कर नहीं मारा।
राजेश्वरी-अच्छा तो इसी दम गुलेल तोड़ फेंक दो। मुझसे यह देखा नहीं जाता। किसी पशु-पक्षी को तड़पते देखकर मेरे रोयें खड़े हो जाते हैं। मैंने तो दादा को एक बार बैल की पूंछ मरोड़ते देखा था। रोने लगी। जब दादा ने वचन दिया कि अब भी बैलों को न मारूंगा तब जाके चुप हुई। मेरे गाँव में सब लोग औंगी से बैलों को हांकते हैं। मेरे घर कोई मजूर भी औंगी नहीं चला सकता।
हलधर-आज से परन करता हूं कि कभी किसी जानवर को न मारूंगा।

(फत्तू मियां का प्रवेश)

फत्तू-हलधर ! नजर नहीं लगाता, पर अब की तुम्हारी खेती गांव-भर से ऊपर है। तुमने जो आम लगाये हैं वे भी खूब बौरे हैं।
हलधर-दादा, यह सब तुम्हारा आशीर्वाद है। खेती न लगती तो काका की बरसी कैसे होती ?
फत्तू-हा, बेटा, भैया का काम दिल खोल कर करना।
हलधर-तुम्हें मालूम है दादा, चांदी का क्या भाव है ? एक कंगन बनवाया था।
फत्तू-सुनता हूं अब रुपये की रुपये-भर हो गयी है। कितने की चाँदी लोगे ?
हलधर-यही कोई 40-45 रुपये की।
फत्तू-जब कहना चल कर ले दूंगा। हां, मेरा कटरे जाने का है। तुम भी तो चलो तो अच्छा है। एक अच्छी भैस लाना। गुड़ के रुपये तो अभी रखे होंगे न ?

हलधर-कहां दादा, वह सब तो कंचनसिंह को दे दिये। बीघे-भर भी तो न थी, कमाई भी अच्छी न हुई थी, नहीं तो क्या इतनी जल्दी पेल-पाल कर छुट्टी पा जाता ?
फत्तू-महाजन से तो कभी गला ही नहीं छूटता।
हलधर-दो साल भी तो लगातार खेती नहीं जमती, गला कैसे छूटे !
फत्तू-वह घोड़े पर कौन आ रहा है ? कोई अफसर है क्या ?
हलधर-नहीं, ठाकुर साहब तो हैं। घोड़ा नहीं पहचानते ? ऐसे सच्चे पानी का घोड़ा दस-पांच कोस तक नहीं है।
फत्तू-सुना एक हजार दाम लगते थे पर नहीं दिया।
हलधर-अच्छा जानवर बड़े भागों से मिलता है। कोई कहता था अबकी घुड़दौड़ में बाजी जीत गया। बड़ी-बड़ी दूर से घोड़े आये थे, पर कोई इसके सामने न ठहरा। कैसा शेर की तरह गरदन उठाकर चलता है।
फत्तू-ऐसे सरदार को ऐसा ही घोड़ा चाहिए। आदमी हो तो ऐसा हो। अल्लाह ने इतना कुछ दिया है, पर घमंड छू तक नहीं गया। एक बच्चा भी जाये तो उससे प्यार से बातें करते हैं। अबकी ताऊन के दिनों में इन्होंने दौड़ धूप न की होती सैकड़ों जानें जाती।

हलधर-अपनी जान को तो डरते ही नहीं। इधर ही आ रहे हैं। सवेरे-सवेरे भले आदमी के दर्शन हुए।
फत्तू-उस जन्म के कोई महात्मा हैं, नहीं तो देखता हूँ जिसके पास चार पैसे हो गये वह यही सोचने लगता है कि किसे पीस के पी जाऊं। एक बेगार भी नहीं लगती, नहीं तो पहले बेगार देते-देते धुर्रे उड़ा जाते थे। इसी गरीबपरवरी की बरकत है कि गांवों में न कोई कारिंदा है, न चपरासी, पर लगान नहीं रूकता। लोग मियाद के पहले ही दे आते हैं। बहुत गांव देखे पर ऐसा ठाकुर नहीं देखा।

[सबलसिंह घोड़े पर आकर खड़ा हो जाता है। दोनों आदमी झुक-झुककर सलाम करते हैं। राजेश्वरी घूंघट निकाल देती है।]

सबल-कहो बड़े मियां, गांव में सब खैरियत है न ?
फत्तू-हजूर के अकबाल से खैरियत है।
सबल-फिर वही बात। मेरे अकबाल को क्यों सराहते हो। यह क्यों नहीं कहते कि ईश्वर की दया से या अल्लाह के फज़्ल से खैरियत है। अबकी खेती तो अच्छी दिखाई देती है ?
फत्तू-हां सरकार, अभी तक खुदा का फज़्ल है।
सबल-बस इसी तरह बातें किया करो। किसी आदमी को खुशामत मत करो, चाहे वह जिले का हाकिम ही क्यों न हो। हां, अभी किसी अफ़सर का दौरा तो नहीं हुआ ?
फत्तू-नहीं सरकार, अभी तक तो कोई नहीं आया।


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