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भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास

मन्मथनाथ गुप्त

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :452
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4633
आईएसबीएन :81-7043-54-2

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भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के समय हुई गौरवपूर्ण उपलब्धियों का वर्णन इस पुस्तक में दिया गया है

Bhartiya Krantikari Aandolan Ka Itihas a hindi book by Manmathnath Gupta -भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास - मन्मथनाथ गुप्त

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1939 में इस पुस्तक का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ। उस समय एक तरफ स्वतंत्रता-संग्राम और दूसरी तरफ सरकारी दमन-चक्र तेजी पर था और पुस्तक को फौरन जब्त कर लिया गया। जब्त होने पर भी पुस्तक का बहुत प्रचार हुआ और एक-एक प्रति को सैकड़ों व्यक्तियों ने पढ़ा।

तत्पश्चात उसी पुस्तक का सातवाँ परिवर्द्धित और संशोधित संस्करण प्रकाशित हुआ जोकि आज तक चल रहा है और भविष्य में भी इसी प्रकार क्रान्तिकारी आंदोलन का इतिहास जानने के लिए चलता रहेगा क्योंकि मन्मथनाथ गुप्ता स्वयं एक सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रहे हैं। उन्होंने स्वयं क्रान्तिकारी आंदोलन में सक्रिय भाग ही नहीं लिया, उनका सभी क्रान्तिकारियों से निकट सम्पर्क भी रहा है। अतः उनसे बढ़कर इस विषय का अधिकारी लेखक और कौन हो सकता है ? और यही हमारे लिए गौरव का विषय है कि हम अनेक दुर्लभ चित्रों-सहित क्रांतिकारी आंदोलन पर एक मात्र प्रामाणिक ग्रंथ प्रकाशित करते आ रहे हैं।

 

प्रकाशकीय

‘अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा’, ‘यश की धरोहर’ ‘गदर पार्टी का इतिहास’, ‘बन्दी जीवन’ और ‘गणेशशंकर विद्यार्थी’-शहीद ग्रन्थ माला के ये पाँच पुष्प हम पाठकों को भेंट कर चुके हैं। पाठकों और पत्र-पत्रिकाओं ने जिस उत्साह और सहृदयता के साथ इनका स्वागत किया उससे स्पष्ट है कि सर्वसाधारण अपने देश के शहीदों के सम्बन्ध में जानने-पढ़ने को उत्सुक हैं। अब शहीद ग्रन्थ माला के छठे पुष्प "भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास" का नया संस्करण हम गौरव के साथ पाठकों को भेंट कर रहे हैं।

यह पुस्तक आज से बीस साल पहले प्रकाशित हुई थी और छपते ही सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। उसी पुस्तक का अब यह नवीन परिवर्द्धित और परिशोधित छठा संस्करण है। श्री मन्मथनाथ गुप्त एक सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी रहे हैं। उन्होंने स्वयं क्रान्तिकारी आन्दोलन में सक्रिय भाग ही नहीं लिया, उनका सभी क्रान्तिकारियों से निकट सम्पर्क भी रहा है। अतः उनसे बढ़कर इस विषय का अधिकारी लेखक और कौन हो सकता है ? और यही हमारे लिए गौरव का विषय है कि हम क्रान्तिकारी आन्दोलन का एकमात्र प्रामाणिक इतिहास प्रकाशित कर रहे हैं।

इस ग्रंथ माला के अवैतनिक सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी के प्रतिधन्यवाद प्रकट करना भी हम अपना परम कर्तव्य समझते हैं क्योंकि उन्होंने ही इस माला के प्रकाशन की योजना हमारे सम्मुख रखी। सामग्री संकलन और सम्पादन में भी उनका पूर्ण सहयोग हमें मिलता रहता है।
हमारा विश्वास है कि इस माला की पुस्तकें घर-घर पढ़ी जाएँगी; प्रत्येक संस्था, विद्यालय और पुस्तकालय अपने यहाँ कम-से-कम एक-एक प्रति अवश्य रखेगा। चीन और पाकिस्तान के आक्रमण के बाद इन पुस्तकों का महत्त्व स्वयं बढ़ गया है क्योंकि अब हमारे होनहारों को हिंसा-अहिंसा के कुतर्क में पड़कर नहीं भटकना है। हमें हर हमलावर को मुँहतोड़ और जबड़ातोड़ उत्तर देना है।

 

रामलाल पुरी


सम्पादकीय

 


भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास स्वयं एक इतना विस्तृत तथा महत्त्वपूर्ण विषय है कि उस पर किसी ग्रंथ की रचना एक आदमी की शक्ति के बाहर है, पर चूँकि अपने देश में सामूहिक साहित्यिक यज्ञ की प्रथा अभी अच्छी तरह पनपी नहीं, इसलिए जिनमें धुन और लगन होती है, वे अकेले ही उसमें जुट जाते हैं और यथाशक्ति उसे पूरा करने का प्रयत्न भी करते हैं। हाँ, कभी-कभी अनधिकारी व्यक्ति भी ऐसे कामों को हाथ में ले लेते हैं और इन विषयों के प्रति अन्याय भी कर डालते हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि इस ग्रंथ के लेखक अपने विषय के पूर्ण अधिकारी हैं। वह खून लगाकर शहीद बनने वालों में नहीं, बल्कि उन्होंने अपने जीवन के पूरे बीस वर्ष जेल में बिताए हैं। युवावस्था में ही उन्होंने काकोरी षड्यन्त्र में भाग लेकर क्रान्ति के प्रति अपनी सच्ची लगन सिद्ध कर दी थी।

श्री मन्मथनाथ जी कठमुल्ले नहीं हैं और उनका दृष्टिकोण पूर्णतया व्यापक तथा सर्वथा वैज्ञानिक है। यह अक्सर देखा गया है कि हिंसात्मक क्रान्ति में विश्वास रखनेवाले अहिंसात्मक आन्दोलनों की खिल्ली उड़ाते हैं और अहिंसात्मक दृष्टिकोण रखनेवाले हिंसा वालों को हेय दृष्टि से देखते हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन पर समग्र दृष्टि से विचार करने वाले ग्रंथों की रचना अपने यहाँ अभी तक नहीं हुई। सम्भवत: श्री मन्मथनाथ गुप्त का यह प्रयत्न अपनी तरह का पहला ही है। पारस्परिक अविश्वास की चट्टानों के बीच से उन्होंने अपनी नौका का संचालन बड़ी खूबी के साथ किया है। भले ही कोई उनके निकाले हुए परिणामों से सहमत न हो, पर उन्होंने अपनी अन्तरात्मा के प्रति वफादारी बरती है। उन्होंने जो कुछ लिखा है, दृढ़ विश्वास के साथ लिखा है और यदि काकोरी षड्यन्त्र के समय उनकी उम्र कुछ और अधिक होती तो उनकी भी गणना बिस्मिल और अशफाक की तरह अमर शहीदों में हो गई होती। क्रान्ति आन्दोलन में उनका सबसे बड़ा कार्य शायद यही माना जाएगा कि उन्होंने चन्द्रशेखर आज़ाद को प्रभावित कर अपनी पार्टी में शामिल किया।
यद्यपि क्रान्ति से सम्बन्ध रखने वाला मसाला दिनोंदिन नष्ट होता जा रहा है, फिर भी वह इस समय इतनी मात्रा में विद्यमान है कि उसके आधार पर इस ग्रंथ के आकार की पाँच जिल्दें तैयार हो सकती थीं, पर इस प्रकार के व्ययसाध्य ग्रंथ को छपाना आसान नहीं था और छपाने पर उसकी बिक्री भी कठिन होती। इसलिए लेखक को मजबूरन अपनी बात बहुत संक्षेप में कहानी पड़ी है।

यद्यपि हमारे वर्तमान शासक इस विषय में उतने सजग नहीं है, जितना कि उनका कर्तव्य था, तथापि जनता की पूरी-पूरी सहानुभूति इस समय भी क्रान्तिकारियों के साथ है और वह उनकी गाथा सुनने के लिए अधिकाधिक उत्सुक है यहाँ तक कि जनसाधारण उनके बारे में कपोलकल्पित रचनाओं का भी स्वागत करते हैं। यह एक बड़ा खतरा है और इसलिए तथ्यपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन और भी अधिक आवश्यक हो गया है। हम लोग श्री रामलाल पुरी के अत्यन्त कृतज्ञ हैं कि उन्होंने आगे बढ़कर इस यज्ञ में हाथ बँटाया है और अपने को सच्चे अर्थों में यजमान सिद्ध कर दिया है।
वह युग शीघ्र ही आने वाला है जबकि इस प्रकार के ग्रंथ पाठ्य-पुस्तकों में रखे जाएँगे, पर इतनी आशा तो हम अब भी करते हैं कि भिन्न-भिन्न राज्यों की सरकारें शहीद ग्रंथ माला के पुष्पों से अपने विद्यालयों के पुस्तकालयों को सुशोभित करेंगी।
हमें दृढ़ विश्वास है कि हिन्दी पाठकों द्वारा इन ग्रंथों का हार्दिक स्वागत होगा।


बनारसीदास चतुर्वेदी


सातवें संस्करण की भूमिका

 


दीर्घजीवी पुस्तकों का एक इतिहास बन जाता है। विशेषकर उन पुस्तकों का जो सरकार की कोपभाजन बन जाती हैं, अपना एक न्यारा जीवन होता है। राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित लेखा-जोखा के अनुसार सारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लगभग साढ़े चार सौ हिन्दी पुस्तकें जब्त कर ली गई थीं। इनमें से दो पुस्तकों के लेखक होने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। उन दो पुस्तकों के नाम हैं-
(1) भारतीय क्रान्तिचेष्टा का रोमांचकारी इतिहास
(2) क्रान्तिकारी आन्दोलन और राष्ट्रीय विकास

ये पुस्तकें 1939 में जब्त हुई थीं। मैं इसे अपने जीवन का सबसे बड़ा साहित्यिक सम्मान मानता हूँ।
स्वराज्य के बाद इन दो पुस्तकों को मिलाकर (असल में प्रथम पुस्तक क्रान्तिकारी आन्दोलन का घटनात्मक इतिहास थी और दूसरी थी उसकी सिद्धान्तात्मक व्याख्या) एक पुस्तक बन गई। स्वाभाविक रूप से पुस्तक को स्वराज्य प्राप्ति तक लाकर पूर्णांग बना दिया गया। साथ ही इसमें से वे सारी बातें निकाल दी गईं जिनका उद्देश्य जोश पैदा कर स्वतन्त्र संग्राम में ईंधन डाल उसे प्रज्वलित करना और रखना था। अवश्य इसका मतलब यह नहीं था कि स्वराज्य प्राप्ति के बाद क्रान्तिकारी संग्राम समाप्त हो गया। नहीं जैसा कि मादोम कामा (जो 1907 में स्टुटगार्ट में होने वाला अन्तर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में मौजूद थीं महान क्रान्तिकारी लेनिन के साथ), भगतसिंह और नेताजी सुभाष की उक्तियों से स्पष्ट है, वह संग्राम जारी है, पर इधर साम्यवादी दल के जो अनर्थक निरर्थक कमोबेश व्यक्तिपरक टुकड़े हो गए, उससे क्रान्तिकारी चिन्तन को बहुत ठेस पहुँची है। इससे भी अधिक हानि उन लोगों से पहुँची है जो अपनों को मार्क्सवादी लेनिनवाद के ठेकेदार बताते हुए भी डालर की गुलगुली गोद में लुढ़ककर सारे वातावरण को विषाक्त और रणक्षेत्र को धूमिल बना रहे हैं।

नतीजा यह है कि मार्क्सवाद, जिसका वैज्ञानिक लोहा लास्की ऐसे लोग मानने की विवश हुए थे, अब धर्म की तरह एकवाद हो गया, जिससे अलग-अलग लोग परस्पर विरुद्ध स्थापनाएँ सिद्ध करते देखते जा रहे हैं। रूस और चीन आपसी रक्तपात भी कर चुके हैं। चीन इस सिद्धान्त का गीत गाते हुए अमेरिका का दोस्त बन गया। पोलैंड में सालिडारिटी ऐसी निश्चित रूप से मजदूर-संस्था किस प्रकार नेताओं की मूर्खता से डालर चुड़ैल के मायाजाल में फँस जाने से एक तरह से मार्क्सवाद का यह पेंदा ही उड़ गया। मजदूर वर्ग स्वभाव से क्रान्तिकारी है। पोलैंड में दूसरे लोग ही विशेषकर समाजवादी विधायक और सेना समाजवादी की रक्षा कर रहे हैं।
संसार के उन मार्क्सवादियों ने तथा दलों ने जो पूँजीवादी देशों में हैं अपनों को संसदवाद का बन्दी बना रखा है, इस प्रकार वे अपनी गरमागरम नारेबाजी के बावजूद दूसरे संसदवादियों की श्रेणी में आकर मार्क्स लेनिन को नपुंसक बना चुके हैं।

पर इन सारे घटकों के बावजूद क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास का महत्त्व और बढ़ गया है। साम्यवादियों में संसदवाद के प्रकोप के कारण कई तरह की विकृतियाँ पैदा हो गई हैं। वोटदेवी के गेसुओं में फँसकर वे ‘धर्म जनता के लिए अफीम है’ इस सूत्र को भुलाकर अन्य संसदवादियों की तरह अल्पसंख्यकों के नाम पर पैनइस्लामवाद तथा खालिस्तानवाद के अंडकोषों में तेल की मालिश कर रहे हैं। यों वे निजी जीवन में पंडा, पुजारी मुल्ला के गुलाम हैं ही।
इन सारी बातों पर ब्यौरे में जाकर अपनी ताजी अंग्रेजी पुस्तकों Gandhi and His Times विशेषकर Chandrashekhar Azad की भूमिका में विवेचन किया है। यह स्मरण रहे कि रूस में जिस तरह समाजवाद की विजय हुई, चीन में या क्यूबा में उस तरह से नहीं हुई। पोलैंड की घटनाओं समाजवाद के शत्रुओं पर अच्छी रोशनी पड़ी है।

पुस्तक का सप्तम संस्करण पेश करते हुए हमें खुशी है। यह एक स्रोतग्रन्थ है, जो कभी पुराना नहीं पड़ेगा और जिससे न केवल अतीत को समझने में सहायता मिलेगी, बल्कि भविष्य का स्वस्थ आकलन हो सकेगा। शहीद ग्रंथमाला के प्रकाशक स्वनामधन्य रामलाल पुरी चले गए, एवं सम्पादक बनारसीदास चतुर्वेदी भी अब नहीं रहे। लेखकों में डॉ. भगवानदास माहौर भी उठ गए पर संग्राम जारी है, जारी रहेगा।


मन्मथनाथ गुप्त



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