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जीवनी/आत्मकथा >> विवेकानन्द

विवेकानन्द

आशा गुप्त

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4632
आईएसबीएन :81-7043-362-2

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विवेकानन्द के द्वारा लिखी गयी अपनी जीवन गाथा....

Vivekanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 ‘‘Swami Vivekananda saved Hinduism and saved India. But for him, we would have lost our religion and would not have gained our freedom.

C. Raj gopalachari.

‘‘From this far away city in land, old yet young, ruled by a people who are a part of the ancient Aryan race, the mother of nations, we send to you in your native country-India, the conservator of the wisdom of the ages-our warmest love and sincerest appreciation of the message you brought to us. We Western Aryans-have been so long separated from our Eastern brothers that we have almost forgotten our identity of origin, until you came and with beautiful presence and matchless eloquence rekindled within our hearts  the knowledge that we of America and you of India are one.
May God be with you ! May blessing attend you ! May All-love and All-wisdom guide you !’’



Om Tat Sat Om.

Signed by
Forty-two of this especial friends at Detroit.

‘‘जो राष्ट्र अपना जातीय प्राण-तत्त्व छोड़ने का उपक्रम करता है, दिग्भ्रान्त हो जाता है, नष्ट हो जाता है। देश का प्राण है राजनीतिक स्वत्व......अपने अन्तर की शक्ति को पहचानो, आत्मा की आखंड अभिन्नता इस चिर सत्य को जन्म देती है कि तुम और मैं भाई है।......हमारी चिर दीनता ने हमें धुनी हुई कपास की तरह निरीह कर डाला है। देश हमसे लोहे की पेशियाँ और इस्पात के स्नायु माँगता है....मैं चाहता हूँ अदम्य मनोबल जो किसी के तोड़ने से न टूटे। अपने में आस्था रखो। आत्मबल के सहारे खड़े होओ.......’’


-विवेकानन्द

अपनी बात


1857 ई. का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (म्यूटिनी) ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक नाटकीय घटना थी। यह संग्राम आकस्मिक नहीं बल्कि पूरी शताब्दी के भारतीय असंतोष का परिणाम था।

ब्रायन हाफ्टन हाँजसन, रेज़िडेंट नेपाल, ने हिमालय में कॉलोनाइज़ेशन की तज़बीज़ पेश की थी कि आयर्लैंड और स्कॉटलैंड के किसानों को भारत में बसने के लिए मुफ्त ज़मीन देकर प्रोत्साहित किया जाय। ब्रिटिश सत्ता ने भी अपने देशवासियों को, विशेषकर पूँजीपतियों को, इस संबंध में प्रोत्साहित किया। उनकी स्थिति को मज़बूत करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय मजदूरों के लिए ऐसा कानून पास किया जिससे हज़ारों की संख्या में वे कानूनी तौर पर गुलाम हो गए।

ग़दर के बाद ब्रिटिश नीतिज्ञों की बड़ी तकरार हुई। मार्च, 1858 ई. के ‘कलकत्ता रिव्यू’ में इसका उल्लेख मिलता है। तदनुसार ‘‘चारों तरफ से हमें इस तरह की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं जिससे परामर्श मिलते हैं कि भारतीयों को अवश्य ईसाई बना लेना चाहिए, हिन्दुस्तानी ज़बान को खत्म कर देना चाहिए और उसकी जगह अपनी मातृभाषा अंग्रेजी प्रचलित कर देनी चाहिए।’’
रेलें जारी करने के पीछे भी धन खींचकर इंगलैण्ड ले जाने की इच्छा थी। स्विफ़ मैक्लीन ने 14 अगस्त, 1890 ई. को स्वीकार किया कि भारत में रेलों पर जितना खर्च किया जाता है उसमें हर शिलिंग के पीछे आठ पैसे (यानी दो तिहाई) इंगलैंड जाता है। नील, रूई की काश्त, ब्रिटिश पूँजीपतियाँ को सुविधाएँ, नौकरियाँ, शासन प्रबन्ध से भारतीयों को बेदखल रखना, सेना पर स्वायत्तता, भेद-नीति आदि अनेक कुरीतियों तथा दमन-प्रणाली से भारत निरन्तर अवनति के गर्त में धकेला जा रहा था।

विवेकानन्द के सामने भारत का रूप इस प्रकार था, ‘‘अब भारत राजनीतिक शक्ति नहीं रहा। वह दासता में बँधी हुई जाति है। अपने ही प्रशासन में भारतीयों की कोई आवाज़ नहीं, उनका कोई स्थान नहीं। वे हैं केवल तीस करोड़ गुलाम और कुछ नहीं। भारतवासी की औसत आय डेढ़ रुपया प्रतिमास है। अधिकांश जन-समुदाय की जीवनचर्या उपवासों की कहानी है। ज़रा-सी आय कम होने पर लाखों काल-कवलित हो जाते हैं। छोटे-से अकाल का अर्थ है मृत्यु ! जब मेरी दृष्टि उस ओर जाती है तो मुझे दिखाई पड़ता है, ‘नाश- असाध्य नाश।’’

1857 में वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट लागू हुआ जिसकी लपेट में सैकड़ों देशी पत्र-पत्रिकाएँ ज़प्त कर ली गयीं। प्रेसों में ताले डाल दिए गए। स्वदेशवासियों में राष्ट्रीय चेतना जागरित करने के लिए साहित्यकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (1838-1894) ‘आनन्द मठ’ का वन्देमातरम् लेकर आए जो ब्रिटिश शासकों के कोप का कारण बना। मुसलमानों को उकसाकर ‘आनन्दमठ’ की ढेरों प्रतियाँ जला दी गईं (एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका : रमेशचन्द्र दत्त)। यह अत्याचार एक लम्बी कहानी की कड़ी है।

1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना हुई। सामने आया बालगंगाधर तिलक (1856-1920) का नारा ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’। वह मंत्र ग्रहण किया गुजरात काठियावाड़ के मोहनदास कर्मचंद गांधी (राष्टपिता) तो देश में चुपचाप निकल गए, ‘आजाद हिन्द फौज’ गठित करके बाहर से आजादी के लिए प्रयत्नशील हुए।

धार्मिक, सामाजिक युगान्तर लाने वाले आ ही चुके थे। राममोहन राय (1772-1833) ने बैक टु उपनिषद्स’ सती-दाह-प्रथा उन्मूलन, आत्मीय की स्थापना द्वारा जनता में चेतना भरी। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर (1820-1891) ने विधवा-विवाह को वैध करवाया। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के दयानंद सरस्वती (1824-1883) और लाला लाजपतराय (1865-1928) भी धार्मिक, सामाजिक पुनरुत्थान में शामिल हो गए। विवेकानन्द ने राममोहन राय के स्वर को दोहराया। उपनिषदों का महत्त्व ज्ञापित किया और वेदान्त की सर्वोपरिता स्थापित की। भारत का अल्पसंख्यक शिक्षित-वर्ग पश्चिम की हर बात को आकाट्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार करने लगा था। इसीलिए हिन्दू धर्म की महत्ता विदेश से होकर आयी। देश की विवशता दूर करने के लिए विवेकानन्द ने धनवान विदेशों के आगे झोली फैला दी। उनका सम्पूर्ण जीवन इसी परिश्रम और संघर्ष का लेखा है जो अब पाठक-वर्ग के समक्ष प्रस्तुत है।

एक नज़र ग्रंथ पर ! इसके दो खण्ड हैं : 1.जीवनधारा 2. विचारधारा। विवेकानन्द का जीवन-वृत्त देश-विदेश के पर्टयन की एक लम्बी कहानी है। इसमें उनकी विचारधारा विकीर्णित है। उन्हें सँजोकर क्रमबद्ध रूप में अलग से प्रस्तुत करना श्रेयस्कर लगा। अत: विचारधारा का पृथक खण्ड है। अपने अंग-प्रत्यंगों सहित समाज भी अनायास आ जाता है। अत: विचाधारा में सारे पहलू समाविष्ट हैं। देश-विदेश में अनेकों ने शिष्यत्व ग्रहण किया था। विवेकानन्द ने सबको आश्रमिक नाम दिए थे। उनका अलग से परिचय देते हुए उनकी सहायता का पहलू भी नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता था। अत: वह बिन्दु अलग करके दिया है।

विवेकानन्द वेदान्तवादी या हिन्दू धर्म-प्रचारक के रूप में अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्ध हैं। उनकी साहित्यिक प्रतिभा का सतही उल्लेख मिलता है। ग्रन्थ में उस पर भी प्रकाश डालना समीचीन लगा। जैसा कि संकेत दिया गया है वे आशु कवि थे। अपने हृदयावेद को हल्का करने के लिए रात भर में उसे छन्द-बद्ध कर देते थे। अत: प्रत्येक कविता के साथ उनकी तत्कालीन मानसिक स्थिति का भी परिचय दिया है।

पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में 1. शिकागों में उनके प्रथम ऐतिहासिक भाषण का मूल पाठ 2. कुछेक अंग्रेजी कविताएँ 3. बांग्ला भाषा में कविताएँ 4.कथोपकथन, भाषण, निबन्ध आदि की सूची उपयोगिता की दृष्टि से दी गयी है। मूल तक पहुँचने में पाठक को सुविधा होगी।
जैसा कहा भी जा चुका है, विवेकानन्द संबंधी सारी सामग्री रामकृष्ण मिशन से प्रकाशित है और उपलब्ध भी। अत: केवल सहायक-ग्रन्थ-सूची दी गयी है। नामानुक्रम स्थानवाचक नाम आदि छोड़ दिए हैं। अनावश्यक विस्तार का भय था।

नामों के साथ ‘स्वामी’ शब्द जानबूझकर नहीं जोड़ा गया है। संन्यासियों को उसका लोभ नहीं होता। शिष्यों के आश्रमिक नामों के साथ भी इसका अनुपालन हुआ है।
विवेकानन्द का चित्र रामकृष्ण मिशन, जयपुर से प्राप्त किया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार करना मेरे लिए एक यज्ञ से कम नहीं था। मैं आजीवन हिन्दी साहित्य के पठन-पाठन से जुड़ी रही। धर्म अथवा अध्यात्म-चेता महापुरुषों  के जीवन का सतही-सा ज्ञान था। संदर्भवश ही धर्म जैसे जटिल विषय में उलझी हूँ। रामकृष्ण मठ मिशन से प्रकाशित सामग्री देखकर ही हौसला पस्त हो गया था। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी और बँगला भाषा में प्राय: दस-दस खण्डों में विवेकानन्द का जीवन समाकलित है। बांगला भाषा का सम्यक् ज्ञान तो है किन्तु लिपित वर्तनी में मूल शब्द, विशेषकर विदेशी शब्द, पल्ले नहीं पड़ते चाहे वे स्थानवाचक, देशवाचक हों या व्यक्तिवाचक। ‘पारि’ शब्द ही लीजिए। फ्रेंच में पेरिस को ‘पारि’ भी लिखा जाता है, बांग्ला वर्तनी में मिला ‘प्यारी’। बड़ी अटकले लगाकर मूल तक पहुँच पायी। कुछ शब्द तो छोड़ने ही पडे़ हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय की सैंट्रल लायब्रेरी के अतिरिक्त अपने प्रतिवेशी मुकर्जी दम्पत्ति (देबप्रसाद-आरती मुकर्जी) के उल्लेख बिना अँधूरी रह जाएगी। उन्होंने इस वृहद् अनुष्ठान में मेरी बड़ी सहायता की है। समय-समय पर वे बांग्ला भाषा की गुत्थियाँ ही नहीं सुलझाते रहे, अपने अमूल्य व्यक्तित्व संग्रह से ‘वाणी ओ रचना’ तथा ‘उद्बोधन’ पत्रिका के खण्ड भी दिए। विदेशी नामों को लेकर दुर्बोधता का सामना करना पड़ता तो सहायता के लिए अग्रसर होते। इस नि:स्वार्थ सहायता के लिए मैं उनकी अत्यन्त आभारी हूँ।

अध्ययन के दौरान उल्लेख मिला था कि विवेकानन्द को जितना सम्मान एवं आदर अमरीका और इंगलैंड में मिला, भारत, विशेषकर उनकी जन्मभूमि बंगाल ने नहीं दिया। मेरे बहनोई श्री बी.एस. केशवन के सौजन्य से ‘विवेकनन्द इन इंडियन न्यूज पेपर्स’ (1893-1902) शीर्षक एक वृहदकाय ग्रंथ हस्तगत हुआ। इससे मुझे बहुत-सी अमूल्य सामाग्री मिली है। केशवन मेरे अपने हैं, उनकों धन्यवाद देना छोटे मुँह बड़ी बात होगी।
संख्यातीत पन्नों में बिखरी सामग्री का संक्षेपण करके उसे पाठक तक पहुँचाने में कहाँ तक सफल हुई हूँ, इसका निर्णय पाठक-वर्ग पर छोड़ती हूं।
 अन्त में आत्माराम एंड संस प्रकाशन के संचालक पुरी-बन्धुओं को मेरा हार्दिक धन्यवाद है जिन्होंने इस कार्य में मुझे प्रवृत्त ही नहीं किया बल्कि प्रकाशन भार भी हाथ में लिया है।
इस संदर्भ में प्रतिभा प्रिंटर्स, शाहदरा के संचालक श्री राजवीर शर्मा का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा जिन्होंने बड़े मनोयोगपूर्वक, धैर्य-सहित इसका मुद्रण किया है। मैं उनकी आभारी हूँ।



12, साक्षर अपार्टमैंट्स पश्चिम बिहार
नयी दिल्ली-110063

-आशा गुप्त


जीवन-वृत्त


वंश-परिचय


राममोहन दत्त कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट के नामी-गिरामी वकील थे। उत्तरवर्ती कलकत्ता के सिमूलिया गाँव में उनका महलनुमा मकान था। दास-दासियों, आत्मीय स्वजनों-परिजनों से घर भरा रहता। उन दिनों दत्त् परिवार के ऐश्वर्य एवं वैभव की बड़ी ख्याति थी। उनके पुत्र दुर्गाचरण ने भी छोटी अवस्था में वकालत पढ़नी शुरू कर दी थी। किन्तु पिता की तरह उनमें धन-लिप्सा न थी, बल्कि हृदय में धर्म के प्रति अनुराग था। परिणामतः पच्चीस वर्ष की युवावस्था में वे गृह त्यागकर संन्यासी हो गये थे। धन, दौलत, वैभव, युवती, पत्नी, शिशु-पुत्र में से कोई भी उनको बाँध न सका था। पत्नी, बहुत दिन बाद, केवल एक बार काशी में संन्यासी स्वामी के दर्शन पा सकी थीं। गृह-त्याग के बारह वर्ष बाद संन्यासी दुर्गाचरण एक बार जन्मभूमि आये थे। उनकी पत्नी का देहान्त हो चुका था। पुत्र विश्वानाथ को आशीर्वाद देकर वे सिमूलिया से चले गए। उसके बाद किसी ने उन्हें नहीं देखा।

वंश की धारा के अनुसार विश्वनाथ ने भी वकालत का पेशा अपनाया। संस्कृत, फ़ारसी और अंग्रेजी भाषा में दक्षता प्राप्त की। वकालत की ख्याति उन्हें प्रायः इलाहाबाद, दिल्ली लाहौर आदि नगरों तक ले जाती। मुसलमानों और ईसाई जाति से उनका सम्पर्क बढ़ता गया। वे कुरान और बाइबिल का अध्ययन करने लगे। ईसाई धर्म के प्रति झुकाव बढ़ चला। इस्लाम और ईसाई धर्म की जानकारी के कारण विश्वानाथ उदारपंथी हो गए। उधर उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी पुरातन पंथी हिन्दूगृहिणी थीं। देवी-देवताओं, ब्राह्मणों आदि में उनका अखंड विश्वास था। वे नियमित रूप से मन्दिर जातीं, धर्म-ग्रंथों का पाठ करतीं और शिव-पूजा में कभी व्यवधान न आने देतीं। किन्तु भुवनेश्वरी देवी को क्षोभ यह था कि उनके कोई पुत्र नहीं था।

कहते हैं एक दिन प्रातः काल से संध्यावेला तक शिव की आराधना करती रहीं। श्रम से क्लांत हो वे भूमि पर लेट गयीं। तन्द्रावस्था में शिव के दर्शन हुए। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि स्वयं शिव उनके गर्भ में प्रविष्ट हो गए हैं।

12 जनवरी, 1863 ई. को उनको पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ जिसकी मुखाकृति संन्यासी पितामह से मिलती-जुलती थी। भुवनेश्वरी तो उस स्वप्न को कभी विस्मतृ ही न कर पायीं। अतः पुत्र का नाम रखा ‘वीरेश्वर’। अन्न-प्राशन के समय नाम दिया गया ‘नरेन्द्रनाथ’। वीरेश्वर नाम को संक्षिप्त करके सब पुकारते ‘विले’।

   
 

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