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गीता की चमत्कारी शिक्षा

रामस्वरूप वशिष्ठ

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4630
आईएसबीएन :81-7043-582-X

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महाभारत की गीता के द्वारा किये गये चमत्कारों का सुन्दर वर्णन इस पुस्तक के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है

Gita Ki chamatkari shiksha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

गीता जीवन सम्बन्धी शास्त्र है। जीवन को चिन्ताओं और तनावों से मुक्त करके उसे आनन्द से परिपूर्ण कर देना गीता का मुख्य चमत्कार है। जीवन का दूसरा नाम है, क्रियाशीलता। सारा जीवन विविध प्रकार के कर्म करते हुए बीतता है। इन्हीं सामान्य कर्मों के द्वारा जीवन में सुख भरने के साथ-साथ ईश्वर से मिला देने का आश्चर्यजनक कार्य गीता ने कर दिखाया है, जीने की कला का नाम गीता है।

साधारण कर्म को ईश्वर से मिला देने का साधन अर्थात् योग बनने के उद्देश्य से गीता ने तीन चमत्कार किये हैं। (1) कर्म की शल्य-क्रिया की है, (2) मन को वश में करने के उपाय ढूँढ़ निकाले हैं, और (3) भगवान के साक्षात् दर्शन कराये हैं। कर्म के दो भाग करके उसके लिए परिश्रम वाला भाग हमें पकड़ा दिया है। ताकि हम श्रम की तल्लीनता में स्वर्गीय आनन्द लूटें। कर्म का फल भगवान को दे दिया ताकि हम फल के लिए दुखी-सुखी होना छोड़ दें। फल का ध्यान छोड़ते ही सारे तनाव और सारी चिन्ताएँ समाप्त हो जाती हैं। गीता ने हमें आनन्द दे दिया और दुखःसुख का भार भगवान पर डाल दिया, धन्य है गीता माता।

हमारा मन बहुत चंचल है। इसकी चंचलता दूर करने के चार महत्त्वपूर्ण उपाय गीता ने सुझाये हैं जिनमें समर्पण का तरीका सबसे अधिक सरल है। फिर भगवान के साक्षात दर्शन कराके हमारा जीवन सार्थक कर दिया है। भगवान के दर्शन असल में गीता का संक्षिप्त संस्करण है। गीता की चमत्कारी शिक्षा समझने के लिए यह अकेला अध्याय ही पर्याप्त है।

यद्यपि गीता भगवान के साथ मुख्यतः प्रेम सम्बन्ध जोड़ती है, परन्तु जो लोग ज्ञान-प्रधान हैं उनके लिए आत्मानात्म विवेक और त्रिगुणातीतता के दो उपाय बताए हैं जिनके द्वारा वे भगवान को प्राप्त कर सकते हैं। इसके बाद तीन परिशिष्टयाँ हैं। पहली परिशिष्ट हमारी कर्मभूमि का स्वरूप समझाती है, दूसरी धूर्त पिशाचों से सावधान करती है और तीसरी मनुष्य के दैनिक कर्मों पर प्रकाश डालती है। अन्तिम अध्याय में उपसंहार लिखकर गीता समाप्त कर दी है।
गीता ऐसी अमूल्य धरोहर है जो घर-घर में पढ़ी जानी चाहिए। इसी उद्देश्य से गीता की चमत्कारी शिक्षा को सरल भाषा में समझाने का प्रयत्न किया गया है। आशा है पुस्तक जनता-जनार्दन को पसन्द आएगी।


गीता की महिमा



गीता और रामायण दोनों ग्रन्थ हिन्दुओं के मन प्राणों में समाये हुए हैं। कहा जाता है कि गीता को सुगीता कर लेने पर किसी अन्य शास्त्र को पढ़ने की जरूरत नहीं रहती। गीता को इतना ज्यादा सम्मान क्यों मिला है ? तो आइए, गीता का महत्त्व बढ़ने के कारण समझ लें।

1.    गीता में वेद-शास्त्रों का निचोड़ भरा है

गीता ने वेदों, उपनिषदों और योगशास्त्र आदि महान् ग्रन्थों का सार-तत्त्व खींचा और उसमें नई कलम रोपी जिससे यह जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी पुस्तक बन गई।
वेदों में यज्ञ-कर्म धार्मिक कर्म थे, जिनमें पशुओं के बलिदान की प्रथा थी। गीता ने पशुओं को निकाल दिया और केवल बलिदान या त्याग-भावना को महत्त्व दिया। जिससे त्याग भावना से किए हुए कर्मों को धार्मिक कर्मों का रूप मिला। अब स्वयं भगवान यज्ञ बन गए। ‘अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतांवर’ अर्थात् देह धारियों की देह में मैं ही यज्ञ हूँ। जो भी त्याग भावना से कर्म करता है वह भागवान का नाम जपता है।
वेदों ने ईश्वर के अनेक नाम सुझाये थे। परन्तु उपनिषदों ने ईश्वर को अनाम और अरूप बताया। इस निराकार ब्रह्म की उपासना चिन्तन-मनन से अर्थात् ज्ञान से ही हो सकती थी। गीता ने निराकार स्वरूप को भी अपना लिया और रूप वाले अवतारों की उपासना को ज्यादा सरल बताया। अर्जुन ने पूछा कि भगवान ! सगुण और निर्गुण के भक्तों में कौन-सा-भक्त श्रेष्ठ है, तो भगवान उत्तर देते हैं।

 
भक्ति कठिन है निराकार की, इन्द्रिय-निग्रह कठिन महान।
ध्यान जमाना प्रभु अरूप में, कठिन तपस्या दुख की खान।। (गीता 12-5)

योगशास्त्र में ध्यान को मोक्ष का साधन बताया गया है। ध्यान में इच्छाओं को रोककर मन को वश में किया जाता है। गीता ने ध्यान योग को एक विशिष्ट साधन के रूप में अपना लिया। मन को वश में करने के अन्य कई तरह के उपाय गीता ने बताए हैं।

2.    मनुष्यों की चिन्ताओं को समूल नष्ट किया---

गीता का दूसरा महान् उपकार यह है कि लोगों को चिन्ताओं और तनावों से मुक्ति दिला दी। लोगों को चिन्ता क्यों सताती है ? वे तनाव में क्यों रहते हैं ? जीवन में सदा सर्वदा ही सफलता नहीं मिल सकती। आदमी कभी सफल हो जाता है और कभी असफलता हाथ लगती है। यह प्रकृति का नियम है। इन घटनाओं को जीवन का अभिन्न अंग समझना चाहिए।
परन्तु अधिसंख्य लोग अपनी भावनाओं का ठीक-ठीक विकास नहीं कर पाते। कोई काम बिगड़ गया तो उनके हाथ-पैर फूल जाते हैं। दिन-रात चिन्ता सताती रहती है। चिन्ता के कारण, शरीर की मांसपेशियों में खिंचाव पैदा होता है। तनाव की यह स्थिति स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।


चिन्ता ज्वाल शरीर में, बन दावा लगि जाए।
प्रगट धुआँ नहिं ऊपजे, मन अन्दर धुँधियाय।।


तब क्या करें ? चिन्ता और तनाव को कैसे दूर करें। गीता की बात मानें। कर्म करते रहें परन्तु उसके फल से चिपटना छोड़ दें। फल से चिपटते ही चिन्ता भी आपसे जरूर चिपटेगी। प्रायः बच्चे खेल-खेल में हार-जीत से चिपट जाते हैं और हारने पर लड़ने झगड़ने पर उतर आते हैं। जो खेल मनोरंजन के लिए खेला गया था, वह मनोव्यथा पैदा कर देता है। यह फल से चिपटने का स्वाभाविक परिणाम है। गीता कहती है कि फल से चिपटना छोड़ दो।

3.    सर्वसाधारण के लिए मुक्ति का द्वार खोल दिया---

गीता का एक महान् उपकार यह है कि उसने साधारण-से-साधारण लोगों के लिए आत्मोद्धार करना या मोक्ष प्राप्त करना बहुत आसान बना दिया। खाना-पीना, सोना-जागना जैसे काम भी मोक्ष के द्वार बन गए। बस, एक छोटी-सी शर्त लगा दी जिसका पालन करना कोई कठिन बात नहीं। आप अपने सभी कार्यों को भगवान को सौंप दें। इतनी-सी बात से ही चमत्कार हो जाता है। जिस तरह कागज का छोटा-सा चुकड़ा सरकारी मोहर लगने मात्र से सौ रुपये का नोट बन जाता है, ठीक उसी तरह साधारण कर्म भी भगवान की मोहर लगने पर अमूल्य बन जाता है। गीता इस बात को प्रमाणित कर देती है।

जो करता है जो खाता है, जीवन के हैं जितने काम।
सारे कर्म सौंप दे मुझको, मिले समर्पण से हरि धाम।।(गीता 9-27)

गीता, भागवत और रामायण सभी महान् ग्रन्थ इस मार्ग की पुष्टि करते हैं। भागवत इस मार्ग को भागवत धर्म कहती है और रामायण ऐसे जीवन को रामगुलाम का जीवन कहती है। जीवन को इस तरह से बिताइए जैसे आप किसी बात के मालिक नहीं किन्तु भगवान के नौकर हैं, केवल मात्र भगवानदास हैं। बस आपका काम बन गया। भरत जी ने और कौन-सा विशेष कार्य किया था। खूब राज्य भोगा राजा के सभी कार्य किए। किन्तु मालिक नहीं बने। रामजी की खड़ाऊँ गद्दी पर रख दीं और उन्हीं को राजा मानकर राज्य सुख भोगते रहे। आप भी इस तरह जीवन-सुख भोगिए।

4.    मन को वस करने के लिए सरल उपाय बताए---

मन बहुत चंचल है। कहीं पर ज्यादा देर टिकता ही नहीं। हर समय इधर से उधर भागता-फिरता है। इसकी चाल में गजब की तेजी है। क्षण-भर में ही कहाँ जा पहुँचेगा, इसका अनुमान लगाना असम्भव है। अभी यहाँ है और पलक झपकते ही कभी न्यूयार्क में होगा तो कभी सूर्य की परिक्रमा कर रहा होगा। इतनी तेजी से संसार में कोई नहीं चल सकता।

मन की चंचलता पर काबू पाना महा कठिन काम है। स्वयं भगवान ने इसको जीतना कठिन बताया है। मनो दुर्निग्रहं चलम् (गीता 6/35)। परन्तु यह भी बता दिया है कि मन को वश में किए बिना जीवन में सफलता पाना कठिन है। अध्यात्म मार्ग में भी मन को जीतना आवश्यक है। असंयतात्मना योगो दुष्प्राप्य (गीता 6/36) अर्थात् मन के घोड़े को बेलगाम दौड़ते देने वालों को योग की प्राप्ति नहीं होती।
शास्त्रों में मन को वश में करने के जो उपाय बताए हैं वे सामान्य लोगों के बूते से बाहर हैं। परन्तु गीता ने ऐसे सरल उपाय सुझाये हैं कि जिन्हें लोग अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार चुनकर अपना सकते हैं। इन उपायों को दो भागों में बाँटा जा सकता है।
(1) भावना-प्रधान लोगों के लिए रागात्मक उपाय, और
(2) ज्ञान-प्रधान लोगों के लिए चिन्तनात्मक उपाय।

(क) रागात्मक उपाय—

मनुष्य भावात्मक प्राणी है। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि संसार के अधिसंख्य लोगों में भावना अधिक प्रबल होती है और वे भावुकता में बहकर कामों में जुटते हैं। अतः गीता ने भावना-प्रधान लोगों के लिए चार प्रकार के उपाय सुझाए हैं। पहला उपाय ध्यान योग है। जिसमें मन की बिखरी हुई शक्तियों को एकत्र किया जाता है। दूसरा, ईश्वर की शरण लेने का सीधा-सादा तरीका है। तीसरा उपाय एक ही तरह के संस्कार का अभ्यास लगातार डालने वाला सातत्य योग है। चौथा, साधारण-से साधारण व्यक्ति को अत्यन्त सरल समर्पण योग है।
इन चारों उपायों में से चुनकर आप अभ्यास करेंगे तो आपको सफलता अवश्य मिलेगी। चुनाव करना प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता और रुचि पर निर्भर होगा।

(ख) चिन्तन प्रधान उपाय

समाज में कुछ लोग चिन्तनशील होते हैं। वे हर बात को तर्क की कसौटी पर कसते हैं। और तदनुसार आचरण भी करते हैं। ऐसे लोगों के लिए गीता ने चिन्तन प्रधान उपाय प्रस्तुत कर दिए हैं। ये दो प्रकार के हैं—आत्मानात्म विवेक और गुणातीत विवेक।
आत्मानात्म विवेक में सारग्रहण करके सारहीन वस्तु को अलग करने का उपाय बताया गया है। गुणातीत विवेक विधि से प्रकृतिजन्य गुणों की अलग-अलग पहचान करके उनसे पिण्ड छुड़ाने का मार्ग सुझाया गया है।

5.    भगवान के भव्य दर्शन कराए

गीता का एक अद्भुत और चमत्कारी काम सर्वधारण को हरिदर्शन कराना है। पहले लीलाधाम भगवान की लीला का रहस्य समझाया है, और इसके बाद श्रीभगवान के साक्षात् दर्शन करा दिए हैं। इस प्रकार के भव्य दर्शन शायद ही किसी शास्त्र ने कराये हैं। दर्शन पाकर आप धन्य हो जाएँगे। भगवान के विराट दर्शन का लाभ अर्जुन ने उठाया था। गीता ने वह दर्शन हमें भी करा दिए। इस दर्शन को देखने का लाभ जो नहीं उठाएगा, उसे भाग्यहीन ही कहना पड़ेगा। जब-जब आपका मन भटके, तब गीता माता के ग्यारहवें अध्याय में प्रभु दर्शन कर लें। आपका मन पवित्र हो जाएगा और आप धन्य हो जाएँगे।
गीता चमत्कारी ग्रन्थ है। परन्तु प्राचीन शैली में प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तिका में गीता का रहस्य उजागर किया गया है। यदि प्रतिदिन इसका पारायण करते रहे, तो निश्चय ही सिद्धि प्राप्त होगी। गीता सुगीता बन जाएगी।


1.    अर्जुन का विषाद


अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।


जिनके मन में संशय, अनिश्चय है वह नष्ट हो जाता है क्योंकि संशय एक संकट है। कहते हैं ‘दुविधा में दोऊ गए माया मिली न राम।’ संशय किसको होता है ? अज्ञ को अर्थात् जो मिथ्या ज्ञानी है और जिसके नाम में श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं है, ऐसे व्यक्ति को ही दुविधा रहती है कि यह करूँ या न करूँ।

संशय कैसे दूर होगा ? सही ज्ञान से। शुद्ध ज्ञान से विश्वास और श्रद्धा पैदा होंगे जो हमें ऐसी दृष्टि देगा जिससे हम सत्य को पहचान सकेंगे और चिन्तामुक्त, तनाव मुक्त और आनन्दपूर्ण जीवन जी सकेंगे। परन्तु यह गीता का वर्ण्य विषय है। यह अध्यात्म उस ज्ञान की पृष्टभूमि है जो मनुष्य के संशय को, उसके संकटों के कारण को स्पष्ट दिखा रहा है।
अर्जुन पांडव सेना का प्रमुख लड़ाका है। वह कौरवों से लड़ने के लिए तैयार होकर आया है। आते ही एक नजर शत्रुओं पर डालता है। यह निर्णय लेता है कि किस बड़े योद्धा से पहले लोहा लेना है। फिर अपनी सेना पर दृष्टि डालता है। वहां अपने पुत्रों, भतीजों, भाइयों और रिश्तेदारों को खड़ा देखता है। तभी उसके मन में यह शंका पैदा होती है कि ये सब मर गए तो मैं किसके लिए जीवित रहूँगा। तुरन्त संशय उसे घेर लेता है। आत्मा कहती है कि ‘‘अर्जुन, तू फौजी है। फौजी का कर्तव्य युद्ध में डटकर मुकाबिला करना है। परन्तु मन परिवार प्रेम में पागल है। वह कहता है, ‘‘लड़ाई में तेरे बेटे, भतीजे और रिश्तेदार मारे जाएँगे। तू लड़ाई के चक्कर में मत पड़। भाग कर संन्यास ले ले।’’ इस संशय में वह दुखी हो जाता है। वह अपने मन की व्यथा अपने सारथी, भगवान कृष्ण को सुनाता है।

‘‘कृष्ण, अपने रिश्तेदारों को लड़ाई के लिए तैयार देखकर मेरे शरीर के अंग टूट रहे हैं, मुँह सूख रहा है, कँपकँपी से मैं काँप रहा हूँ, गाण्डीव हाथ से छूट रहा है, मुझसे खड़ा भी नहीं हुआ जाता और मेरा दिमाग चकरा रहा है।’’
अर्जुन की मानसिक पीड़ा ने उसके शरीर को जर्जर कर दिया।

चिंता ज्वाल शरीर में बन दावा लगि जाइ।
प्रगट धुआं नहि ऊपजे, मन अंदर धुंधियाइ।।


अर्जुन एक अकेला आदमी नहीं है। वह हमारा प्रतिनिधि है, प्रायः अधिसंख्य लोग संशय के जाल में, दुविधा के फेर में, फँस जाते हैं और फिर तड़पड़ाते हैं। अर्जुन के बहाने गीता सभी लोगों की मनोदशा का चित्रण कर रही है। संशय में यही स्थिति होती है। संशय का कारण ? शुद्ध ज्ञान न होना।
शुद्ध ज्ञान पवित्र होता है। गीता बताती है ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह वर्तते’ अर्थात् ज्ञान समान पवित्र कोई दूसरी चीज नहीं है। परन्तु अर्जुन का ज्ञान अपवित्र है, मिथ्या ज्ञान है।

मिथ्या ज्ञान का कारण है मन में अँधेरा होना। हाथ में दीपक होगा तो साफ दिखाई देगा। अन्यथा रस्सी को साँप समझ लेंगे। रेलगाड़ी चल रही है किन्तु उसके भीतर बैठे हुए हम सूर्य को चलता हुआ पाते हैं, ये सब भ्रम है।
अर्जुन के मन में अँधेरा है। वह अपने पुत्रों, भतीजों और रिश्तेदारों को ही अपना समझ बैठा है। इसे ममत्व या आसक्ति कहते हैं। इसीलिए वह दुखी है, वह रिश्तेदारों के मरने की सम्भावना से दुखी है। उसे यह भी पता नहीं कि जिन्दगी और मौत भगवान के हाथ में है, लड़ाई में गोले बरसते हैं। परन्तु बरसते गोले भी उस आदमी को नहीं मार सकते जिसको ईश्वर बचाता है। इसके विपरीत घर के सुरक्षित कोने में बैठा हुआ आदमी भी मौत का शिकार बन जाता है। महाभारत के घनघोर युद्ध में भी टिटहरी चिड़िया के अण्डे बच निकले। उनके ऊपर एक हाथी का घण्टा आ गिरा था।

दुविधा में फँसा हुआ आदमी अपने मन की बात मानना चाहता है। इसलिए उसे सही सिद्ध करने के लिए बहाने तलाश करता है। जिसको मनोविज्ञान की भाषा में स्पष्टीकरण कहते हैं। अर्जुन ने भी बहाना ढूँढ़ लिया। वह लड़ाई से होने वाली हानियाँ गिनाने लगा। युद्ध में लाखों लोग मारे जाएँगे, उनकी बीवियाँ विधवा हो जाएँगी, उनके बच्चे अनाथ हो जाएँगे, वर्णशंकरों की संख्या बढ़ जाएगी आदि बातें सुनाने लगे। इन बुराइयों के बाद उसने नतीजा निकाला कि युद्ध करना महान पाप है। भले लोगों को इस पाप में नहीं पड़ना चाहिए।

अन्त में उसने घोषित कर दिया कि मैं हथियार नहीं उठाऊँगा और मेरे ऊपर हमला करने वाले योद्धा से भी नहीं लड़ूँगा। फिर भी कोई मुझे मार डालेगा तो यह मेरे लिए अच्छा ही होगा।’
एक महान योद्धा के मुँह से निकले हुए ये शब्द बता रहे हैं कि कायरता आदमी को कितना नीचे गिरा सकती है। क्या इस तरह से गिड़गिड़ाना मौत से अधिक दुखदाई नहीं है ? इसीलिए, लोग कहते हैं कि कायर लोग मृत्यु से पहले ही कई बार मरते हैं।

पहले अध्याय का सारांश—1. अर्जुन संशयात्मा है। वह घोर दुविधा में फँसा है। आत्मा कहती है कि युद्ध तेरा कर्तव्य है। अपने कर्तव्य का पालन कर परन्तु मन रिश्तेदारों के ममत्व में उलझा हुआ है। वह कहता है कि तू युद्ध करेगा तो तेरे बेटे-भतीजे मारे जाएँगे। युद्ध से बच। यह दुविधा चिंताएँ, तनाव और दुख के पहाड़ खड़े कर देती है।

2.    ममत्व का कारण मन का मिथ्या ज्ञान है। अर्जुन के पास बुझा हुआ दीपक है। वह उसे सही चीज नहीं देखने देता। अँधेरे में कुछ-का-कुछ समझ लेता है। हममें से अधिक लोगों के पास बुझे हुए चिराग हैं। हम हाथी को देखने वाले छः अंधों की तरह अपनी बात सही समझते हैं और आपस में झगड़ा करते हैं। बुझे हुए चिराग ही चिंताओं, तनावों और दुखों को जन्म देता है।


2.     बुद्धियोग या समृद्ध सक्रियता




परिचय—संशय-छेदन के लिए, दुविधा से उपजे उद्वेग को शान्त करने के लिए, हमें इससे पहले जलता हुआ दीपक चाहिए जिसकी रोशनी में शुद्ध ज्ञान हो। इसके बाद उस ज्ञान को जीवन में उतारने की कोई कला हो, तभी जीवन सफल होगा।
वैदिक काल के ऋषियों ने हमें जलता हुआ दीपक पकड़ाया था। उस दीपक का नाम है परमेश्वर। परन्तु हमने उस दीपक को अन्तरतम में नहीं घुसने दिया। ऋषि कहते रहे कि ईश्वर घट-घट-वासी है। परन्तु हमने उसे मन्दिर में कैद कर दिया या आसमान में टाँग दिया। ऋषि कहते रहे कि ईश्वर सत्यशक्ति बुद्धिमत्ता और प्रेम का सर्वव्यापी भण्डार है, परन्तु हमने उसकी मूर्तियाँ गढ़ लीं। ऋषि कहते रहे कि संसार में ईश्वर के सिवाय कोई दूसरी चीज है ही नहीं, परन्तु हमने अपना पराया और मैं मेरा अपना लिया।


(क)    ईश्वर को दीपक बनाने का अर्थ—

ईश्वर में सत्य की शक्ति है जो हमें ईमानदार, साहसी और तेजस्वी होने का प्रमाण देती है। बुद्दिमत्ता हमें उदार होने की शिक्षा देती है, ताकि हम दूसरों की जरूरतों और भावनाओं को समझें। प्रेम हमें त्याग सिखाता है और अहिंसक बनाता है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर सद्गुणों का भण्डार है। इसलिए हम सद्गुणों को अपने चरित्र में उतार लेंगे तो हमें जलता हुआ दीपक प्राप्त हो जाएगा।


(ख)    ईश्वर को अन्तरतम में उतारो—

हमारे दिमाग के तीन भाग है : (1) ज्ञात दिमाग जिसकी बातें हमें मालूम रहती हैं लेकिन दूसरा कोई नहीं जान पाता। यह हमारा अन्तर है। (2) अर्द्ध ज्ञात दिमाग-साधारणतया इसकी बातें हमें मालूम नहीं होतीं किन्तु कोशिश करके मालूम कर सकते हैं। हमारी मनोवृत्तियाँ (attitudes) का घर यहीं पर है। (3) अज्ञात दिमाग—यह ज्ञात दिमाग से नौगुना बड़ा है। यह अन्तरतम कहलाता है। क्योंकि इसके भीतर क्या है, यह हमें मालूम नहीं होता। यह हमारे स्वाभाव का घर है। हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों के फल यहाँ संचित हैं।

ईश्वर को अन्तरतम में उतारने का अर्थ है, ईमानदारी, साहस, धैर्य, उदारता, अहिंसा, त्याग, सेवा आदि सद्गुणों को अपने चरित्र में ढालना। इससे हृदय का दीपक जल उठेगा। आपके भीतर अपूर्व आत्मविश्वास पैदा होगा। ईश्वर महान शक्तियों का स्रोत है। आपमें वे सारी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। परन्तु वे संभावनाओं के रूप में मौजूद हैं। उन्हें जागृत करने के लिए कोशिश करनी पड़ती है और आपकी चाल और रफ्तार धीमी है। इसलिए, एक ही अद्वितीय ईश्वरीय कला जल्दी प्रगट हो सकती है। उसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर जाग्रत करो। याद रखिए कि केवल सक्रियता ही वह जादू है जो आपको आसमान में उठा सकती है।


(ग)    बुझा दीपक क्या चीज है


हमारी परिस्थितियाँ और तथ्य हमारी मान्यताओं को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। हमारे चरित्र पर प्रभाव डालने वाली परिस्थितियों में सबसे महत्त्वपूर्ण हमारा घर है। हमारा स्कूल, कार्य क्षेत्र, साथी सहयोगी और हमारे समाज की मान्यताएँ हमारे ऊपर प्रभावी होती हैं। इनके प्रभाव से हमारे अन्तरतम  में आवांछित तत्व घुस सकते हैं जिससे हमारी आँख पर गलत चश्मा चढ़ जाता है। कोई धन के पीछे पागल है तो कोई धार्मिक कट्टरता का शिकार। ये सब बुझे हुए दीपक हैं।


(घ)    अर्जुन का भगवान से परामर्श माँगना—

भगवान ने अर्जुन को समझाया कि युद्ध छोड़कर भागना कायरता है। जीवन-भर बदनामी सहोगे और मरने पर नरक में गिरोगे। तब अर्जुन ने स्वीकार किया कि वह दुविधा में है। वह भगवान से कहने लगा—‘‘मुझ पर कायरता हावी हो गई है। मैं धर्म-संकट में पड़ा हूँ। इसलिए मैं आपसे पूछता हूँ। मेरे लिए जो अच्छा हो वह मुझे बताइए। मैं आपका शिष्य हूँ। मैं आपकी शरण में आया हूँ।




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