लोगों की राय

कहानी संग्रह >> पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र श्रेष्ठ रचनाएँ-2

पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र श्रेष्ठ रचनाएँ-2

पाण्डेय बेचन शर्मा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :452
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4627
आईएसबीएन :81-7043-598-6

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

355 पाठक हैं

पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र के द्वारा लिखी गयी उनकी श्रेष्ठ कहानियों के संग्रह का खण्ड-2

Pandey Bechan Sharma Ugra Shreshth Rachnayn-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ हिन्दी की पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक और प्रमुखतम शैलीकार थे। आलोचकों का मत है, कथा कहने की विविध शैलियों और रूपों में अकेले उग्र ने जितनी विभिन्न और विवादास्पद, मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएँ दी हैं, वे साहित्य के इस अंग को सम्पूर्ण बनाने में समर्थ हैं।
समृद्ध भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आदरपूर्वक ‘उग्र-शैली’ कहा जाता है।
‘उग्र’ की कितनी ही रचनाएँ ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त की गई थीं।

‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिन्दी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए ‘उग्र’ की सारी कहानियों का एक साथ प्रकाशन अनिवार्य रूप से आवश्यक था। इसी उद्देश्य से ‘पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र : श्रेष्ठ रचनाएं’ खण्ड-1 व 2 प्रकाशित किया गया है।
जिसमें ‘उग्र’ की लगभग सभी कहानियां तथा कुछ श्रेष्ठ उपन्यास सम्मिलित हैं।

कला का पुरस्कार

‘उग्र’ की कहानी ‘संगीत-समाधि’ में कलाकार के सामाजिक दुर्भाग्य के प्रति जो गहन पीड़ा है, वही इस ‘कला का पुरस्कार’ में भी मुखरित हुई है। कलाकार को उसकी कला का इच्छित मूल्य नहीं मिलता है। मिलता है उसे अपमान, मिथ्या लांछना, दैन्य-दारिद्रय। मिलता है उसे प्राणदण्ड ! व्यक्ति अथवा समाज के स्नेह के लिए उसकी आत्मा छटपटाती ही रह जाती है। यह कहानी ‘उग्र’ की बहुप्रशंसित कहानियों में है, और एकांगी प्रेम के पराभाव को चित्रित करती है।

राजकुमारी चम्पा के पुष्प की तरह सुरंग, सुगन्धित और सुकुमार शरीर पर धानी रंग की रेशमी साड़ी थी जिसमें कोई आधा इंच चौड़ा सोने का किनारा था। वायु जब कभी उसके सुन्दर आँचल में लहरें पैदा करती तब भीतर से सफ़ेद रेशम की कुरती की झाँकी झलक जाती। उस पर भी सोने का काम था तथा उसकी गर्दन राजकुमारी के गले की प्राकृतिक हँसली तक ढीली थी। गर्दन के पास एक इंच चौड़ा लाल रेशम का कामदार फीता उसके सरल सौन्दर्य-समुद्र में तूफ़ान पैदा कर रहा था। उसके दोनों हाथों में कटक के सुगढ़े स्वर्ण-कंकण थे। जिनमें यत्र-तत्र बड़ी सुन्दरता से मोतियों के खिलखिलाते बच्चे बैठाए गए थे। उसके दोनों पैरों में हरे मखमल पर ज़री के काम के, सुन्दर और आकर्षक जोड़े थे। उनमें प्रत्येक के मस्तक पर, बड़ी जाति के, एक-एक मूल्यवान मोती, अंगूर की पत्ती के बीच में, जड़े हुए थे। सन्निकट देखने से राजकुमारी और सौन्दर्य-समूह की प्रतिमा-सी मालूम पड़ती थी।

उसका मुँह अंडाकार था, आँखें आसमानी, मीनाकृति, सजल और बड़ी-बड़ी थीं; ओष्ठाधार सुडौल और रसीली नारंगी की फाँकों-से थे; कपोल खिले हुए थे और उनकी छाती में से गुलाबी रंग फटकर बाहर निकलता-सा मालूम पड़ता था। उसके हाथों की सुकुमार अँगुलियाँ संसार के चित्रकारों को पागल बना देने वाली थीं; उसकी इकहरी, सुडौल और कुछ लम्बी देह मूर्तिकारों की कल्पना की सम्मत्ति थी। उस परिधान में, उस उद्यान में, दूर से देखने पर, वह इन्द्रधनुष की तरह दिखाई पड़ती थी।

राजा, उसके पिता, उसके सामने जिज्ञासू-भाव से खड़े थे; और वह अपनी संकुचित, सुन्दर आँखों को पद-पीठ पर गड़ाए, रत्न-प्रतिमा-सी खड़ी थी।
‘‘बच्ची !’’ महाराज ने प्यार से पूछा, ‘‘अब देर किस बात की है ? सन्तोषपुर के राजा अपने पुत्र की शादी के लिए व्यग्र हो रहे हैं। तूने भी तो कुमार अनुरागदेव को अपनाने की अनुमति दे दी है। फिर, अब इस शुभ-विवाह-चर्चा को अभी स्थगित रखने की सलाह क्यों देती है ? तुझे और क्या चाहिए ?’’
‘‘पिताजी !’’ कुमारी की बड़ी-बड़ी आँखें ऊपर उठीं। ‘‘देर होने का कारण मैं नहीं हूँ—क्षमा कीजिएगा—बल्कि आप ही हैं।’’
‘‘क्यों ? कैसे ?’’
‘‘आज से दो वर्ष पूर्व आपने, मेरी शादी के पहले, मुझे जो-जो चीज़ें आशीर्वाद-स्वरूप देने की प्रतिज्ञा की थी उनमें से एक बहुत आवश्यक चीज़ तो आज तक आपने मुझे दी ही नहीं।’’
महाराज श्रवण-समीप के सित केशों में अँगुली डालकर विचारने लगे।

‘‘और क्या बाक़ी है, बेटी ? मैंने प्रतिज्ञा की थी कि तुझे पूर्ण पंडिता बनाकर, भारत-भ्रमण कराकर, तेरी इच्छा के अनुरूप वर ढूँढ़कर, उसके प्रेमी हाथों में सौंप दूँगा। और सौंप दूँगा इस कन्दर्पपुर राज्य की पाई-पाई उस बच्चे को। मैं स्वयं तपस्या और लोकोपकार के काम करने के लिए तीर्थों, वनों और पर्वतों के शान्तिप्रद-राज्य का प्रबन्धक बनूँगा। यह सभी तो मैं करने के लिए तैयार हूँ फिर तुझे और चाहिए क्या ?’’

‘‘और वह कलाकुंज ? भूल ही गए आप उसको !’’
‘‘ओहो !’’ राजकुमारी की पीठ पर प्रेम से हाथ फेरते-फेरते महाराज ने कहा, ‘‘बेशक ! मैं भूल गया था, ‘कलाकुंज’ को ! और, कितनी जरूरी चीज भूल गई थी। बेटी, यह सब बुढ़ापे का दोष है। चाहे देखने में मेरा शरीर मज़बूत भले ही मालूम पड़ता हो पर, अब अस्सी बरस से ऊपर की अवस्था हो चली। अब धीरे-धीरे सभी प्रकृति-प्रदत्त शक्तियाँ जिससे मिली थीं, उसी के पास लौटी चली जा रही हैं।’’

उसी समय महाराज ने, मन्त्री को बुलवाकर, आज्ञा दी कि देशभर से चुने-चुने शिल्पी और भवन-निर्माण कलापटु कारीगर बुलाए जाएँ। विवाह के पहले, राजपुत्री के रहने के लिए, एक परम सुन्दर महल और उद्यान बनवाया जाएगा।

कलाधर शब्द में—सभी जगह कोई-न-कोई सुन्दरता खोजने वालों को—चाहे सौन्दर्य की थोड़ी-बहुत झाँकी दिखाई भी पड़े, पर श्रीपुर के कलाधर लोहार में शारीरिक सौन्दर्य नाममात्र को भी नहीं था। वह लम्बा था, मगर इतना दुबला-पतला कि देखने वालों के मन में एक तरह की बेचैनी पैदा कर देता। उसकी नाक बन्दर की तरह चपटी और उसके होठ वनमानुष की तरह बीभत्स। उसके कपोल हड्डीले तथा पिचके और आँखें निस्तेज़ तथा बुरी तरह घुसी हुई थीं।

कलाधर को वह शिक्षा नहीं मिली थी जिसका आजकल मनुष्यता की छाती पर बड़ा दबदबा है। बल्कि, उस अद्भुत ने तो अपनी पैतृक-विद्या का भी अभ्यास नहीं किया था। उसका बाप अपने लोहारखाने में बैठकर उसे काम सिखाने या धौंकनी चलाने के लिए बुलाता, तो वह किसी-न-किसी बहाने घर के बाहर भाग जाता, गाँव की उदार रक्षिका रामा नदी के तट पर चला जाता और कुछ छोटे फक्कड़ दोस्तों की सहायता से बालू और मिट्टी के भवन बनाता। यही उसका नित्य का और प्राण-प्यारा व्यापार था। माँ से एक मुट्ठी चना और ज़रा-सा गुड़ माँगकर वह प्रातः आठ बजे नदी-तट पर दोस्तों के साथ पहुँच जाता। चने और गुड़ की मज़दूरी देकर उनसे मिट्टी और सूखा-गीला बालू मँगवाता और भिन्न-भिन्न प्रकार के महल, बँगले और भवन बनाता। लड़के उसकी निर्माण बुद्धि को देखकर दंग रह जाते।

भवनों की सजावट के सिलसिले में बनाई हुई उसकी मिट्टी की परियों और देव देखकर गाँव के बड़े-बूढ़े भी, अपनी सारी बुजुर्गी के बावजूद, छके-से रह जाते। मगर, उसके परिवारी और दुनियादारी बाप को उसके बालू के महल ज़रा भी न रुचे, मिट्टी की मूर्तियाँ ज़रा भी न जँची। जब, उसे बहुत तोल-जोख कर लेने पर, यह पता चल गया कि कलाधर सिवा आवारा और नालायक के कुछ भी नहीं है, तब तुरन्त ही एक दिन उसने उसको घर के बाहर निकाल दिया।
‘‘निकल मेरे घर से !’’ पिता ने उसे खदेड़ते हुए आशीर्वाद दिया, ‘‘मेरे पास इतना धन नहीं कि मैं तुझे धोबी के कुत्ते की तरह पोसूँ। जा, दुनिया में बालू की दीवारें उठा और कमा अपनी रोटी !’’
कलाधर की करुणामयी माँ कलपकर रह गई, मगर कठोर पिता पर उसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा। उसने उस नालायक को निकालकर ही दम लिया।

इसके बाद, दस बरसों तक, कलाधर के दुख-सुख का किसी को पता न रहा। दुनिया की दृष्टि में जो नालायक हो, भला उसे पूछता कौन है ! उसके निकाले जाने के दो-तीन बरसों के भीतर ही उसकी याद भी लोगों की स्मृति-पट से पुँछ गई। मगर, उसकी वह माँ उस नालायक को न भूल सकी। वह बराबर उसकी याद में कलपती और आँसू बहाती रही। वह पति की चोरी से, उसके लिए व्रत और पूजा भी करती, देवता से वरदान भी माँगती कि मेरे कलाधर को एक बार फिर लौटा दो। वह नालायक ही सही, पर मैं उसको प्यार करती हूँ।

आखिर, दस वर्षों बाद, गाँव में एक दिन सनसनी-सी फैल गई, इस समाचार से कि कलाधर तो जीवित है ! जीवित ही नहीं, अब तो बड़ा भारी शिल्पी भी हो गया है। पिछले दस वर्षों में, भारत के अनेक भागों में घूमकर, उसने भवन-निर्माण-कला का खूब अध्ययन और अभ्यास किया है। उनकी अन्तिम परीक्षा जयपुर राज्य में हुई है, जहाँ से वह कल लौटा है। राजा की ओर से उसे प्रचुर पुरस्कार और प्रशंसा-पत्र मिले हैं। आज उसकी माता निहाल हुई बैठी है। आज उसका दरिद्र और बूढ़ा बाप मालामाल होकर बैठा है। ओहो ! धन्य है कलाधर ! ईश्वर सात शत्रुओं को भी ऐसे पुत्र दे !
दस वर्ष पूर्व का नालायक कलाधर आज, रकम और नाम पैदा करते ही धन्य हो गया। अब लोगों की समझ में यह बात आई कि समय आने पर, बालू की दीवार खड़ी करने वाला प्राणी सोने की दीवार भी खड़ी कर सकता है।

इसके बाद देश के कोने-कोने से कलाधर की माँग आने लगी। जयपुर में उसने जो अपनी प्रतिभा प्रदर्शित की, उससे देश के सभी शिल्पकारों और कला-प्रेमियों पर, उसकी एक सात्त्विक धाक-सी बैठ गई। कारीगर स्वयं ही पूँजीपतियों को सुझाते कि यदि कलाधर भी बुलाया जाए, तो महल या मकान में जान आ जाए। मगर, जयपुर के बाद, कलाधर फिर कहीं गया नहीं। उसने एक बार पुनः कुछ निठल्लों को ढूँढ़ लिया और एक बार पुनः रामा के तट पर बालू के महल बनाने और बिगाड़ने लगा। यदि कभी कोई उससे पूछता कि ‘क्यों कलाधर, किसी राजा के यहाँ जाकर यही काम आदर और उपहारों में क्यों नहीं करते ?’ तो, उसके भयानक मुँह पर एक विचित्र घृणापूर्ण हँसी चमककर मूर्च्छित हो जाती। वह कहता, ‘‘ये अमीर क्या जानें कि कला क्या होती है ? ये कलाकार के गुणों से अधिक महत्त्व अपने पैसों को देते हैं। और, मेरे लिए, जब तक सूखी लिट्टियाँ और बहन रामा का स्वादिष्ट जल है

तब तक पैसों की कोई ज़रूरत नहीं। भवन रचता हूँ, कलेजे का खून होता है मेरे, और नाम होता है पैसेवाले का। बाज आया मैं कला के ऐसे वेश्याचार से। मेरे लिए ये बालू के महल ही बहुत हैं। इन्हीं को, अपनी प्रसन्नता के लिए, सँवार और बिगाड़कर मैं अपने जीवन को धन्य समझता हूँ।’’
लोग अनुमान कर लेते हैं कि यह अपढ़ कलाधर हमेशा का मूर्ख और पागल है, आती हुई विभूति को लात मारता है और मिट्टी-बालू को सिर-आखों पर चढ़ाता है।

प्रातः सन्ध्या समाप्त कर ज्यों ही महराज उठे त्योंही नित्य नियमानुसार, रत्न-जड़ित दो थालियों में जलपान की स्वच्छ सामग्री लिये, राजकुमारी उनके सामने उपस्थित हुई। महाराज राजकुमारी के हाथों जलपान करते थे और प्रेम और वात्सल्स्य के उसी के सुधासक्त करों का परोसा भोजन भी करते। रत्न-खचित स्वर्ण-चौकी पर बैठकर प्रसन्न-वदन महाराज जलपान करने लगे।

‘‘कोई है ?’’ जलपान करते-करते उन्होंने पुकारा, तुरन्त ही दो सुन्दरी सेविकाएँ हाथ जोड़कर, सामने आ खड़ी हुईं। महाराज ने आज्ञा दी, ‘‘मन्त्रिवर को बुलाओ !’’

मन्त्री ने आकर, सजग रूप से, यथानियम अपने धर्मावतार को प्रणाम किया।
‘‘क्या समाचार है ?’’ महाराज ने अपनी बड़ी-बड़ी धवल आँखें मन्त्री की झुकी हुई आखों पर रखते हुए, गम्भीर भाव से पूछा, ‘‘शिल्पी आए ? अब तो विलम्ब बुरा मालूम पड़ता है। कलाकुंज के निर्माण में तुरन्त हाथ लगना चाहिए।’’
महाराज की बातों से कुमारी की मोहिनी आँखें चमक उठीं। उन दोनों बेजोड़ नील-मणियों की वे दोनों बे-मोल श्यामोज्जवल पुतलियाँ इस तरह नाच उठीं, जैसे नील-समुद्र में ‘फास्फ़रसी’ मछलियाँ। उन स्वादिष्ट आँखों की उस सुधा-ज्योति को, वात्सल्यपूरित-मन महाराज ने भी देखा। उनका जलपान मधुरतम हो गया।
‘‘देशभर के चुनिन्दे वास्तुविद्या विशारद, प्रसिद्ध मूर्तिकार और सुचतुर कलाकार एक सप्ताह से श्रीमान् की राजधानी आकर ठहरे हैं।’’ विनम्र मन्त्री ने कहा, ‘‘मगर...श्रीमान...महाराज...!’’

‘‘हाँ, कहो-कहो ! जब सभी आ गए हैं तब और कौन-सी बाधा है ? वह भी सुनूँ।’’ महाराज ने जिज्ञासा की।
‘‘अब विलम्ब का कोई दूसरा कारण नहीं है, महाराज ! लेकिन कारीगरों का यह कहना है कि अगर श्रीपुर का प्रसिद्ध भवन-निर्माणक तथा मूर्तिकार कलाधर भी बुला लिया जाए तो कलाकुंज सचमुच कला-कुंज की तरह तैयार हो। इस समय वही देशभर के कलाकारों का मौलि-मुकुट है। मगर, धर्मावतार !!’’ मन्त्री हिचका।
‘‘ओहो !’’ राजकुमारी ने कहा, ‘‘श्रीपुर का कलाधर आजकल का सबसे बड़ा कलाकार है और उसी को तुमने नहीं बुलाया है ! किधर है श्रीपुर ? क्यों नहीं बुलाया उसको ?’’

‘‘धर्मावतार !’’ मन्त्री ने महाराज से निवेदन किया, ‘‘कलाधर बड़ा मनस्वी है। उसे तो चारों ओर के राजदरबारों से भवन या मूर्ति-निर्माण के लिए निमन्त्रण मिलते हैं, मगर वह श्रीपुर के बाहर जाता ही नहीं ऐसा गुणी होकर भी भिखारियों-सा रहता है, और अपने उसी हाल में मस्त हो, सरिता रामा के तट पर, बालू के महल और मिट्टी की पुतलियाँ बनाया और बिगाड़ा करता है। दीनबन्धु !  वह राजदरबारों के नाम पर भी नाक सिकोड़ता है।’’

‘‘वह ऐसा क्यों करता है, अमात्य ?’’ सरल गम्भीरता से महाराज ने पूछा, ‘‘कुछ इस बात का भी पता भी चला ?’’
हाँ, महाराज ! जो कुछ मुझे मालूम हुआ है उससे तो यही पता चलता है कि वह कला पर धन की प्रभुता नहीं स्वीकार करना चाहता। कला के सामने धन को वह गुलाम समझता है। मगर, धनिक तो ऐसा नहीं समझते। इसी से बड़े आदमियों से उसकी पटती नहीं। यदि वह स्वनिर्मित किसी मूर्ति की आँखें अधखुली रखना चाहे और उसे मूर्ति का खरीदार यह इच्छा करे कि नहीं, आँखें तो खुली ही अच्छी होती हैं, अस्तु वैसी ही बनें—तो, कलाधर अपना काम वहीं रोक देगा। वह कहेगा—‘‘नहीं श्रीमान् ! यह आपका विषय नहीं। इसे मेरी ही इच्छा से तैयार होने दीजिए।

 मैं खूब जानता हूँ कि इस मूर्ति के चेहरे पर अधखुली आँखें ही अधिक आकर्षक मालूम होंगी।’’ उसकी ऐसी ही बातों से उसमें और उसके ग्राहकों में पटती नहीं। इसी से वह स्वयं कला के इस ‘क्रय-विक्रय’ से अलग रहता है। केवल ‘स्वान्तःसुखाय’ मिट्टा का सात्त्विक संसार, सरिता रामा के तट पर, बनाया और बिगाड़ा करता है।’’
‘‘तब तो विचित्र मालूम पड़ता है कलाधर,’’ राजपुत्री ने आश्चर्य से कहा, ‘‘जरूर बुलवाओ, मन्त्री महोदय ! हमारे महाराज उसे, कलाकुंज के निर्माण में पूरी स्वतन्त्रता देंगे।’’
जब कलाधर को राजदूतों से यह पता चला कि कन्दर्पपुर के प्रतापी महाराज, अपनी पुत्री के लिए, ‘कलाकुंज’ बनवाना चाहते हैं, और उसके निर्माण का नेतृत्व उसी की शर्तों पर देना चाहते हैं, तब उसे कुछ लोभ हुआ। लोभ इसका नहीं हुआ कि सफल होन पर उसे राज-सम्मान मिलेगा। राज-सम्मान को वह क्या समझता है। धन की आशा भी उसके उस लोभ के हृदय में नहीं थी।

वह इधर कुछ दिनों से यह विचार कर रहा था कि अगर कोई धनी मेरी शर्तों पर मुझसे कुछ अपूर्व-निर्माण करने को कहे तो एक बार इसी बहाने, दुनिया को युगों तक स्तब्ध रखने के लिए, कुछ ठोस सौन्दर्य की सृष्टि भी करा दूँ। जिस तरह प्राचीन भारतीय कलाकारों ने दक्षिण के देव-मन्दिरों, अजन्ता और एलोरा की गुहाओं, ताजमहल और मोती और जामा मस्जिदों तथा अनेक मकबरों के रूप में, आने वाली पीढ़ियों के लिए, अपने यश के महाकाव्य बना छोड़े हैं, वैसे ही एक बार मैं भी क्यों न करूँ। अभी दुनिया, केवल जयपुर का चमत्कार देखकर, मुझे अच्छी तरह नहीं समझ सकी है।
यही कलाधर के मन का वह लोभ था जिसका हाथ पकड़कर वह रामा-तट और श्रीपुर छोड़ कन्दर्पपुर जाने को तैयार हुआ।
उसके वहाँ पहुँचते ही दूसरे वास्तु-विद्या-विशारदों ने उसका हार्दिक स्वागत किया, ‘‘ओहो ! धन्यभाग कन्दर्प नगर के कि आपका आसन हिला ! स्वागतम् !’’
महाराज उसे देखकर आश्चर्य में आ गए। यही कलाधर है ! अरे, यह शनीचर के पुत्र-सा काला, अ-सुन्दर, मुट्ठीभर का प्राणी, इस समय देश के कलाकारों का सिरमौर है ! विधाता की ऐसी ही लीलाएँ विचित्र कही जाती हैं !

‘‘कलाधर !’’ महाराज ने कहा, ‘‘मुझे अपनी कुमारी के लिए ‘कलाकुंज’ की जरूरत है। पचास करोड़ तक रुपये मैं उसके लिए व्यय करने को तैयार हूँ। देश के और सभी कलाकार आ गए हैं। वे तुम्हारे नेतृत्व में काम करने को तैयार भी हैं। मैं भी वचन देता हूँ कि तुम्हारे निर्माण में दखल न दूँगा। तुम स्वयं स्थान चुनो, तुम स्वयं नक्शा तैयार करो, तुम स्वयं आवश्यक चीज़ों की फर्मायश करो और कलाकुंज को तैयार करो, मेरा कहना केवल इतना है कि कलाकुंज अद्भुत हो, अभूतपूर्व हो और शीघ्र-से-शीघ्र तैयार हो। पानी की तरह धन बहे तो भी कोई चिन्ता नहीं। हज़ारों आदमी नौकर रख लिये जाएँ, कोई हर्ज़ नहीं। मगर, कुंज कम-से-कम समय में तैयार हो। बस, कलाधर ! इस काम से तुम प्रसन्न-भर कर दो मुझे, फिर देखो, तुम्हें निहाल कर देता हूँ कि नहीं।’’

महाराज के यहाँ लौटने के पूर्व कलाधर ने अपनी धँसी और भद्दी आँखों से एक बार राजा के मुख की ओर देखना चाहा, मगर हाय ! उसकी आंखें किसी दूसरे पर पड़ीं। महाराज की दाहिनी ओर, रेशम के रुमाल से अपना मुख छिपाए, वह किसकी तेजोमयी मूर्ति बैठी थी ? राजकुमारी की ?
क्या सचमुच वही—वही कन्दर्पपुर की राजकुमारी !! सचमुच !
कलाधर कुछ चकराया।

कलाकुंज के तैयार होने में एक बरस और कई महीने लगे। किन्तु आज यदि कोई उसे जाकर देखे, तो कहे बिना न रह सकेगा कि उसके निर्माण में दस-पन्द्रह बरसों से कम समय न लगा होगा। उसको इतनी जल्दी तैयार कर देने के लिए, कन्दर्पपुर राज्य को उक्त समय तक, दस हज़ार आदमी नियुक्त करने पड़े। भारतभर के प्रसिद्ध कलाकारों की बुद्धि और सहयोग से, कलाधर के नेतृत्व में, जब वह अद्वितीय उपवन और प्रासाद बनकर तैयार हो गया, तब उसे देखकर लोग दंग रह गए। उद्यान के लिए देश-विदेश के पुष्प मँगाए गए थे, विविध लताएँ उसमें सजाई गई थीं, कुंज बनाए गए थे और उन लताओं और कुंजों और पुष्पों के बीच बड़ी सुन्दरता से फव्वारे और विचित्र भाव-भंगी की पुतलियाँ सजाई गई थीं। महल भी नीचे-ऊपर, चारों ओर, विविध प्रकार की मूर्तियों से सज्जित किया गया था। उन मूर्तियों में कहीं रामायण की किसी घटना का चित्रण था और कहीं महाभारत और बुद्ध-चरित्र की सुन्दर कथाओं का।

कलाकुंज के लिए कलाधर ने स्थान भी कैसा अद्भुत चुना था। कन्दर्पपुर से दस कोस उत्तर एक नदी बहती है, जिसका नाम ‘मदिरा’ है। उसका रंग गाढ़ा काला है। वह गहरी भी काफ़ी है। उसके तट पर कोई पचास बीघे जमीन घेरकर, कलाकुंज बनाया गया और कुंज का मुख्य द्वार रखा गया उस ओर, जिधर नदी, उसके चरण पखारती थी। संगमरमर की सीढ़ियों वाला पक्का घाट बनाया गया, सुन्दर-सुन्दर काले पत्थरों की बुर्जियाँ बनाई गईं और कलाकुंज फाटक से नदी के लहराते आँचल तक थोड़े-थोड़े अन्तर पर—अजन्ता के ढंग की मूर्तियाँ, अपने हाथों या माथों पर प्रकाश लिये, विविध भावों में खड़ी की गईं।

 कलाकुंज का फाटक लाल पत्थर का बनाया गया और शेष भवन सफेद संगमरमर का। मदिरा के तट से कलाकुंज का प्रवेश-द्वार कितना मोहक, कैसा अद्भुत दिखाई पड़ता है, यह वर्णन करने की बात नहीं, अनुभव करने की बात है। कहा जाता है कि कुंज के तैयार होने पर जब मन्त्री ने खर्च का हिसाब किया तब मालूम हुआ कि कुल बयालीस करोड़ रुपए खर्च हुए हैं।

मगर, उक्त रक़म में से कलाधर को सिवा साधारण भोजन-सामग्री के और कुछ भी नहीं मिला था। शायद उसने कुछ माँगा ही नहीं और दिए जाने पर भी कुछ लिया नहीं। जब-जब भी महाराज या मन्त्री उससे कुछ लेने का आग्रह करते, तब-तब वह यही कहता कि अभी तो काम हो ही रहा है, पहले इसे समाप्त हो लेने दीजिए, फिर एक साथ ही, एक ही दिन, जो कुछ देना होगा, कृपा कर दे दीजिएगा।

कलाधर की उक्त विशेषताओं पर राजकुमारी का भोलापन मुग्ध हो गया। वह प्रायः रोज ही एक बार कलाकुंज की निर्माण-गति का परीक्षण करने के लिए मदिरा के तट पर जाती। और वहाँ उस कुरूप कलाकार की बुद्धि का एक-एक चमत्कार देखकर ठगी-सी रह जाती। वहाँ जो कोई भी सुन्दर काम उसे दिखाई पड़ता, उसके बारे में पूछे जाने पर यही पता चलता है कि वह कलाधर की बुद्धि की उपज है।

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book