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मनुष्य जो देवता बन गए

व्यथित हृदय

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4598
आईएसबीएन :81-7043-656-7

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धर्म पर आधारित पुस्तक...

Alka

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक में कुछ ऐसे मनुष्यों के जीवन के चरित्र हैं, जो अपने चरित्रों से ही देवता के समान वन्दनीय बन गए हैं। इन चरित्रों के पठन-पाठन से भले ही कोई देवता न बने, पर उसके मन में चरित्र को ऊँचा उठाने की बात तो अवश्य पैदा होगी। लोग अपने चरित्र को ऊपर उठाएँ-इसी उद्देश्य से इस पुस्तक को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तक से तरुण समाज को प्रेरणा मिलेगी।

दो शब्द

मनुष्य के जीवन में वास्तविक सम्पदा क्या होती है ? क्या धन, क्या यश, क्या पद और क्या नाम ? नहीं, यह सब कुछ भी नहीं होता है। वास्तविक सम्पदा होती है, मनुष्य का चरित्र। चरित्र बड़ा व्यापक शब्द है, उसके भीतर अनेक गुणों का समावेश होता है, जैसे-दया, क्षमा, परोपकार, अहिंसा, समता, मातृ भावना और पर दुःख कातरता आदि। मनुष्य अपने इस गुणों से लोक से उठकर परलोक में भी पहुंच जाता है। लोग उसे देवता कहने लगते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में कुछ ऐसे मनुष्यों के जीवन के चरित्र हैं, जो अपने चरित्रों से ही देवता के समान वन्दनीय बन गए हैं। इन चरित्रों के पठन-पाठन से भले ही कोई देवता न बने, पर उसके मन में चरित्र को ऊँचा उठाने की बात तो अवश्य पैदा होगी। लोग अपने चरित्र को ऊपर उठाएँ-इसी उद्देश्य से इस पुस्तक को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तक से तरुण समाज को प्रेरणा मिलेगी।

श्री व्यथित हृदय

ज्ञान की खोज में
माघ का महीना था और पूर्णिमा का दिन। लुम्बनी कानन के एक उपवन में, कपिलवस्तु के नृपति-महाराज शुद्धोदन की राजमहिषी, महामाया दासियों के साथ शनैः-शनैः परिभ्रमण कर रही थीं; सहसा उन्हें प्रसव वेदना हुई और वे एक वृक्ष की छाया में उसी की डाल का आश्रय ग्रहण करके खड़ी हो गईं।
बस, कल्याण की घड़ी सन्निकट आ गई और वहीं एक शिशु धरती पर अवतीर्ण हुआ।
वह बालक ‘बालक’ नहीं था, संसार का कल्याण था-महामंगल था। जिस समय उसने पृथ्वी पर जन्म लिया, विस्मय नहीं, कि पृथ्वी प्रसन्नता से नृत्य कर उठी होगी, और विश्व के हृदय में आनन्द का उदधि उमड़ पड़ा होगा। जानते हो वह बालक कौन था ?
उसी बालक को तो आज दुनिया सम्पूर्ण विश्व गौतम बुद्ध के नाम से स्मरण करता है, और अपने हृदय की श्रद्धा उसके चरणों पर बिखेरता है।

महात्मा गौतम बुद्ध एक दैवी ज्योति थे। वे संसार में मनुष्य के कल्याण के लिए आविर्भूत हुए। उनके जन्म के पूर्व हमारे देश में ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में युद्ध, हिंसा, लूट और हत्या का बोल-बाला था। मनुष्य, मनुष्य से घृणा करता था। चातुर्दिक दुःख और अशान्ति का राज्य था। पर उन्होंने अपनी दया, अहिंसा, समता और सत्य से विश्व के स्वरूप को परिवर्ति कर दिया। उनके उपदेशों से हमारा देश ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व शताब्दियों के लिए स्वर्ग बन गया—परम पावन हो गया।
गौतम बुद्ध बाल्यवस्था में ही अधिक दयालु थे। दूसरों का दुःख देखकर बाल्यवस्था में ही उनकी आँखें करुणा की उज्ज्वल मुक्ताओं से परिपूर्ण हो उठती थीं। वे दया और करुणा की प्रतिमूर्ति से ज्ञात होते थे।
बाल्यवस्था की ही बात है, एक दिन वे अपने ममेरे बन्धु देवदत्त के साथ उपवन में बाल-क्रीड़ा कर रहे थे। देवदत्त ने आकाश की ओर देखा-हंसों का एक दल वायु की तरंगों में पंख मारता हुआ उड़ा जा रहा था। देवदत्त धनुष पर बाण चढ़ाकर चला दिया।

बाण एक हंस की पीठ में लगा और वह पृथ्वी पर गिरकर यन्त्रणा से तड़पने लगा।
गौतम बुद्ध ने, जिनका बाल्यावस्था में सिद्धार्थ नाम था, दौड़ कर आहत हंस को अपने अंक में उठा लिया। बाण निकाल कर फेंक दिया, और वे इस प्रकार करुणा से कातर हो उठे, मानो वह बाण उन्हीं की पीठ में प्रविष्ठ हुआ हो।
इतना ही नहीं, वे उस हंस को घर ले गए, और अपने स्वजन की भाँति ही उसकी चिकित्सा कराई। इसी प्रकार की अनेक कहानियाँ उनकी दयालुता के सम्बन्ध में प्रसिद्ध हैं। वे वस्तुतः दया के अवतार थे। अपने साथ दया और करुणा लेकर वे पृथ्वी पर आए थे, और दया तथा करुणा से मनुष्य के हृदय को अभिसिंचित कर पुनः पृथ्वी से चले गए।
गौतम बुद्ध जब उत्पन्न हुए थे, एक ज्योतिषी ने उनके हाथ की रेखाओं को देखकर कहा था, ‘‘यह बालक बड़ा होने पर या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या संन्यासी बनकर सम्पूर्ण विश्व को मुक्ति का मार्ग बताएगा।’’

गौतम बुद्ध जब बड़े हुए तब वे प्रायः एकान्त में निवास करने लगे। एकान्त में बैठ कर वे प्रायः जगत के प्राणियों के दुःख पर विचार किया करते थे। आत्मा क्या है ? परमात्मा क्या है ? विश्व में प्राणियों को क्यों इतना दुःख मिलता है ? प्राणियों को विश्व के दुखों से कैसे मुक्ति मिल सकती है ? –इत्यादि प्रश्नों में ही उसका मन अनवरत उलझता रहता था। इन प्रश्नों के समक्ष उन्हें राजसी ठाठ-बाट, संगीत वाद्य और यन्त्र और नृत्य-रंग कुछ भी अच्छा न लगता था।
गौतम बुद्ध के मन की स्थिति को देखकर महाराज शुद्धोदन को बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने यशोधरा से उनका पाणिग्रहण कर दिया; और उनके निवास के लिए नवीन तथा सुनदर भवन बनवा दिया, जिसमें अमोद-प्रमोद की सभी वस्तुएँ एकत्र थीं।
पर गौतम बुद्ध का मन उन वस्तुओं में रंचमात्र न रमा। विवाह होने पर भी वे प्रायः-संसार के दुःखों पर ही विचार किया करते थे। एक दिन वे रथारूढ़ होकर नगर में पर्यटन के लिए निकले। मार्ग में उन्हें एक वृद्ध दृष्टिगोचर हुआ उसकी पीठ झुक गई थी, और वह लकड़ी का आश्रय लेकर चल रहा था। गौतम ने अपने साथी से पूछा, ‘‘यह कौन है ? इसकी पीठ क्यों झुक गई है ?’’

सारथी ने उत्तर दिया—‘‘यह एक वृद्ध है। वृद्धावस्था के कारण इसकी पीठ झुक गई है।’’
‘‘क्या वृद्धावस्था सबके शरीर में आती है ?’’ –गौतम ने प्रश्न किया।
‘‘हाँ कुमार !’’ –सारथी ने उत्तर दिया-‘शरीर परिवर्तनों में बंधा हुआ है। उसके परिणामस्वरूप एक दिन वृद्धावस्था सबके शरीर में आती है, और सबकी पीठ इसी प्रकार झुक जाया करती है।’’
गौतम के हृदय में इस बात का अत्यधिक प्रभाव पड़ा और वे शरीर की परिवर्तनशीलता तथा उसकी क्षणभंगुरता पर सोच-विचार करने लगे। इसी प्रकार एक दिन उनकी आँखों के समक्ष एक ऐसा मनुष्य आया, जिसका शरीर कष्ट से विगलित हो गया था। इसी प्रकार एक दिन उन्होंने एक ऐसे भी मनुष्य को देखा, जो मर गया था, और जिसका शव लेकर लोग अन्तिम संस्कार के लिए श्मशान ले जा रहे थे। एक दिन उन्होंने एक संन्यासी को भी देखा, जो गैरिक वस्त्र धारण किए हुआ था; और संसार से विरक्त होकर मुक्ति की खोज में तन्मय था।
इन घटना-चित्रों से गौतम के मन में संसार के प्रति विरक्ति जागृत हो उठी, उन्होंने दृढ़ निश्चिय कर लिया, कि वे गृहस्थ जीवन का परित्यग कर देंगे—संसार से विरक्त हो जाएँगे।

रात्रि का समय था, चारों ओर सघन अन्धकार छाया हुआ था। कुमार सिद्धार्थ की आँखों में नींद नहीं। वे चुपचाप उस गृह में गए, जहाँ यशोधरा अपने नवजात शिशु को अंक में लिये हुए निद्रा में निमग्न थी। सिद्धार्थ ने यशोधरा को देखा, और उस शिशु को, जो अभी नवजात था; पर सिद्धार्थ के चरणों को न तो यशोधरा बांध सकी और न वह नवजात शिशु ही; सिद्धार्थ सबके मोह-रज्जुओं को तोड़कर घर से दबे पाँव निकल गए।

सिद्धार्थ ने घर से बाहर निकल कर अपने सारथी को, जिसका नाम छन्दक था, जगाया, और उसे अश्व लाने की आज्ञा दी। सारथी ने सिद्धार्थ के आशय को समझ कर उन्हें समझाने का प्रयत्न किया, किन्तु सिद्धार्थ का निश्चय अटल था-दृढ़ था।
सिद्धार्थ अश्वारूढ़ होकर, उस अन्धकारमयी रजनी में नगर से बाहर की ओर चल पड़े। उनके पीछे-पीछे उनका सारथी छन्दक भी चल रहा था। जब बहुत दूर निकल गए, तब एक पर्वतीय सरिता के तट पर अश्व से नीचे उतर पड़े। उन्होंने अपने सम्पूर्ण आभूषण उतारकर छन्दक को दे दिए और उसे यह आज्ञा दी, कि अश्व लेकर नगर को लौट जाय। सिद्धार्थ की उस आज्ञा से छन्दक के दुःख की सीमा न रही। किन्तु उपाय ही क्या था ? वह सिद्धार्थ की आज्ञानुसार लौट गया।
छन्दक के लौट जाने पर सिद्धार्थ ने तलवार से अपने बड़े-बड़े केश काट डाले; और राजसी वस्त्रों के स्थान पर फटे वस्त्रों को धारण कर लिया। अब वे राजकुमार से संन्यासी बन गए-बीतरागी।

गौतम संन्यासी का वेश धारण करके कई स्थानों पर गए, और उन्होंने वहाँ ज्ञान प्राप्त किया। अन्त में वे गया पहुँचे और तपस्या में संलग्न हो गए; उन्होंने घोर तपस्या की। शरीर सूख कर काँटा हो गया, केवल अस्थियाँ शरीर में रह गईं, पर कुछ प्राप्त न हुआ। उन्हें इससे निराशा हुई। एक दिन वे बड़े कठिनाई से खिसक-खिसक कर सरिता के तट पर पहुँचे और उन्होंने एक शव के कफन से अपने शरीर को ढका। तत्पश्चात् सरिता में स्नान करके गाँव में सुजाता नामक एक कन्या ने उसकी बड़ा आवभगत की, और उनकी सेवा-सुश्रुवा कर उन्हें स्वस्थ बनाया।


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