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धरती मेरा घर

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4566
आईएसबीएन :9788170288436

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बहुमुखी प्रतिभा के धनी रांगेय राघव का यह उपन्यास राजस्थान के जनजीवन की कलात्मक झलक प्रस्तुत करता है।

Dharti Mera Ghar - Rangey Raghav

स्वयं को महाराणा प्रताप का वंशज मानने वाले गाड़िये-लुहारों के जीवन-चरित पर आधारित है रांगेय राघव का यह उपन्यास। आज के प्रगतिशील युग में भी गाड़िये-लुहार आधुनिकता से कोसों दूर अपने ही सिद्धान्तों, आगर्शों और जीवन मूल्यों पर चलते हैं।

कभी घर बनाकर न रहने वाले, खानाबदोशों की तरह जीवन यापन करने वाले और समाज से अलग रहने वाले इन गाड़िये-लुहारों के जीवन के अनछुए और अनदेखे पहलुओं का जैसा सजीव वर्णन इस उपन्यास में हुआ है, वह रांगेय राघव जैसा मानव मनोभावों का चितेरा लेखक ही कर सकता है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी रांगेय राघव का यह उपन्यास राजस्थान के जनजीवन की कलात्मक झलक प्रस्तुत करता है। राजस्थान की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर उनके संवेदनशील मस्तिष्क ने अनेक कलात्मक कथानकों का सृजन किया है। कथानकों की नवीनता और रोचकता रांगेय राघव का विशेष गुण है और यही कारण है कि पाठक उनकी रचनाओं को बड़े आग्रह से पढ़ते हैं। इस उपन्यास की कथा पाठक का मनोरंजन करने के साथ-साथ उसके अंतःकरण को झकझोरती भी है।
छुईमुई सपना देख रही है।
जीवन में सब सपने देखते हैं, क्या छुईमुई नहीं देख सकती ?
कैसा प्यारा नाम है !
छुईमुई औप मुई !!
लेकिन कितने लोग जानते हैं कि...

रांगेय राघव का जीवन परिचय

(1923-1962)

जन्म – आगरा (उत्तर प्रदेश) अधिकांश जीवन, आगरा, वैर और जयपुर में व्यतीत।
शिक्षा – सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा से 1944 में स्नातकोत्तर और 1948 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरु गोरखनाथ पर पी-एच.डी.।
कृतियाँ – उपन्यास – कब तक पुकारूँ, घरौंदा, धरती मेरा घर, प्रोफेसर, पथ का पाप, आखिरी आवाज़।
(जीवनीपरक उपन्यास) रत्ना की बात, लखिमा की आंखें, मेरी भव बाधा हरो, यशोधरा जीत गई, देवकी का बेटा, भारती का सपूत, लोई का ताना।
नाटक – शेक्सपियर के लोकप्रिय नाटकों – ओथेलो, जूलियस सीज़र, मैकबेथ, तूफ़ान, वेनिस का सौदागर, हैमलेट, बारहवीं रात, भूल-भुलैया, निष्फल प्रेम, जैसा तुम चाहो, तिल का ताड़, परिवर्तन, रोमियो जूलियट का सरल हिन्दी अनुवाद-रूपांतर।
पुरस्कार – हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1951), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957 व 1959), रास्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961), तथा मरणोपरांत (1966) महात्मा गाँधी पुरस्कार।

1


सन् 1935 ई.।
‘‘चाय यहां नहीं मिलती ?’’
‘‘नहीं हुजूर ! यह गांव ठहरा।’’
‘‘गांव में लोग चाय नहीं पीते ?’’
‘‘कभी जूड़ी-ताप चढ़े तो पीते हैं हुजूर !’’
‘‘इस कड़कड़ाते जाड़े में भी ?’’
‘‘कोई नहीं हुजूर ! यह शहर थोड़े ही है !’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘तो बाज़ार में कोई नहीं रखता।’’
‘‘क्या करेंगे रखकर हुजूर ! जो चीज़ बिके नहीं उसे रखकर भी क्या करेंगे ? जिसका गाहक ही नहीं, वह यहां कौन रखे !’’
‘‘अच्छा तो कोई स्टेशन के बाज़ार से ले आएगा ?’’
‘‘हुजूर, भंगी के सिवाय डाकबंगले पे और कोई नहीं। मैं चला जाऊं, हुक्म हैं तो ! बारह मील पड़ेगा यहां से !’’
‘‘फिर खाना कौन बनाएगा शाम को ?’’ मैंने बात टाली।
‘‘हां हुजूर ! खैर ! देखिए ! मैं करता हूं कोसिस।’’ कहकर रेवत चला गया। मैं सोचने लगा : अजीब मुल्क है यह भी ! मेरे आगरा से इतना पास है यह रियासत भरतपुर का गांव ! बयाने से सिर्फ थोड़ी दूर। थोड़ी दूर ! भगवान बचाए ! ग्यारह मील जब तांगे में पार किए तो खराब सड़क पर दो घंटे लग गए। लेकिन फिर भी क्या है। जिस काम से मैं आया हूं वह काम मामूली है ! सुना था कि वैर में कुछ पुरानी हस्तलिखित पैथियां थीं मेरा पुराना शौक ठहरा। चल पड़ा आगरा से। बयाने के नाजिम साहब पढ़े थे मेरे साथ आगरा कॉलेज में। उन्होंने बुलाया अफसर बनने के बाद। उनके यहां रियासती ठाठ देखे और चर्चा चली तो बोले, ‘‘भाई शर्मा, क्यों न वैर जाकर डाकबंगले में कुछ दिन रहो।’’


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