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जीवन कथाएँ >> ऋतुराज

ऋतुराज

निर्मल कुमार

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :526
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4547
आईएसबीएन :8126312815

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उपन्यास ‘ऋतुराज’ भी एक ऐसा ही महाकाव्य है। प्रशस्त जीवन के मूल्य और लक्ष्य दोनों की मार्मिक अनुभूति करा देने वाला है इसका कथात्त्व।

Rituraj

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के यशस्वी लेखक और विचारक निर्मल कुमार की जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के जीवन और दर्शन पर केन्द्रित बृहत् औपन्यासिक कृति। वस्तुतः मानव-जीवन न केवल कथा है और न ही मात्र चिन्तन, बल्कि कथा और चिन्तन का समप्रवाह है। जहाँ इन दोनों तत्त्वों की सम्यक् समन्विति होती है, वहीं संगम तीर्थ बन जाता है। यही संगमतीर्थ मनुष्य को जीवन और मृत्यु से परे अनन्त जीवन (अमरता) की ओर ले जाने की सामर्थ्य रखता है। प्राचीन भारत की दो कालजयी कृतियों-रामायण और महाभारत का, तथा आधुनिक साहित्य जगत् की दो रचनाओं--‘युद्ध और शान्ति’ (टाल्स्टाय) और ‘कारामाजोव बन्धु’ (दोस्तोयवस्की) का समीक्षण करें तो हम उनमें कथा और चिन्तन का ऐसा ही समप्रवाह पाते हैं। पद्य में हों या गद्य में, सही अर्थ में ये महाकाव्य ही हैं-महाकाव्य जो सम्पूर्ण जीवन को अभिव्यक्त करता है।

उपन्यास ‘ऋतुराज’ भी एक ऐसा ही महाकाव्य है। प्रशस्त जीवन के मूल्य और लक्ष्य दोनों की मार्मिक अनुभूति करा देने वाला है इसका कथात्त्व। इसके कथाप्रवाह में कहीं जीवन की प्रधानता है तो कहीं चिन्तन की, और कहीं पर तो जीवन और चिन्तन का समन्वित रूप उद्भासित होता है।

निर्मल कुमार की प्रत्येक रचना में उनके अपने विचार भी अत्यन्त आलोकमय और सच्चे सत्त्व बनकर पाठक को गहराई तक छूते हैं। ऋतुराज के कथानक में भी जगह-जगह भरे पड़े हैं उनकी मौलिक दृष्टि के नमूने।
‘ऋतुराज’ यानि जीवन-संघर्षों और यातनाओं के बीच मनुष्य के अन्तस् में पल रहे विश्वास सत्य, सौन्दर्य और प्रेम की अटूट गाथा। एक असाधारण रचना।

भारत के दार्शनिक एवं वैचारिक जगत् में शंकराचार्य का स्थान अप्रतिम है। प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखते समय तथा अद्वैक की प्रतिष्ठापन करते समय उनकी मानसिकता क्या रही होगी इसका आकलन उनकी भूमिका पर आने वाला विचारक ही कर सकता है। और यही श्री निर्मल कुमार जी ने किया है। उनकी यह कृति जीवनी मात्र ही नहीं है, यह वैचारिक के द्वार का उद्घाटन है जिसके भीतर प्रवेश कर पाठक अपने प्रिय विचारक के अन्तस्तल में झाँक सकता है। उपन्यास में की गयी नवीन उद्भावनाएँ चार चाँद लगाकर इसे उच्च कोटि की कृतियों में प्रतिष्ठित करती हैं। इसका पारायण कर मैं कृतकृत्य हुआ। इसके प्रकाशित हो जाने पर निःसन्देह मेरे जैसे कितने ही पाठक लाभान्वित होंगे।

-सत्यव्रत शास्त्री

ऋतुराज को समर्पित


(जिसे नाम दिया था जन्म देने से पहले
जिसे मृत्यु ने चूम लिया जीने से पहले।)
वसन्त की वह सुबह तुम्हें पंखुडियों में लपेटकर ले गयी
मैंने देखा, उन गुलाब की पंखुड़ियाँ भूरी थीं
दो दिन के ऋतु ! तुमने तो रंग देखे नहीं थे
 मृत्यु को पहचान नहीं थी तुम्हारी
किन्तु मत्यु ने पहचान लिया था तुम्हें एक ही क्षण  में
जीवन नहीं पहचान पाया था तुम्हें दो दिन में
वसन्त तो वैसा ही रहा जैसे और वसन्त थे
रंगों, रूपों, गन्धों से खेलते वसन्त का विप्लवी उन्माद कटार की तरह चुभता रहा हृदय में

फिर भी हमें जीना था वसन्त के काले सायों में

और जिन्दगी घिसटती रही
हम हँसे भी, रोय भी सिर्फ तुम्हारे लिए नहीं ऋतु
और घटनाएँ भी हो गयी थीं जीवन में जब तुम नहीं रहे वर्षों के रेत पर पैर चलते रहे
किन्तु प्रेम केवल स्मृति तो नहीं
और स्मृति समय तो नहीं
कि प्रेम और स्मृति चले जाते साथ वर्षों के  
आज पुराने कागजों के बीच
एक चित्र निकल आया तुम्हारा
और निकल आये आँसू जो ताज़े हैं उतने ही
जितने वसन्त की उस सुबह थे जब तुम नहीं रहे थे
जब शाम आयी थी खुशियाँ लेकर
और सुबह ले आयी थी अँधेरे
भूरे गुलाब की मुट्ठियों में


ऋतुराज



तब केवल ब्रह्म ही था। न काल था, न देश। अकेला ब्रह्म खेल रहा था एक और अनेक का खेल। एक से अनेक हो जाता और अनेक से एक। अनेक आत्माओं को प्रकट करता और फिर अपने में ही समेट लेता।
एक दिन आत्माओं ने कहा, ‘‘हम आपके खेल से ऊब गये हैं। हमें छोड़ दीजिए प्रभु !’’
ब्रह्म ने कहा, ‘‘नहीं तुम खो जाओगे !’’
आत्माएँ बोलीं, ‘‘नहीं हम आपकों ढूँढ लेंगे।’’   
ब्रह्म ने कहा, ‘‘यह कोई स्थान नहीं है। यहाँ काल है न देश।’’
‘‘आपकी याद हमें आप तक ले आएगी।’’
‘‘बच्चों ! तुम्हारे दूर जाते ही काल और देश हमारे बीच आ जाएँगे। उनकी भूलभुलैया में तुम खो जाओगे।’’
‘‘हम आपके सभी गुण है पिता परमेश्वर। काल-देश  की भूलभुलैया को भेदकर भी हम आपके पास आ जाएँगे।’’
ब्रह्म ने कहा, ‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा।’’

ब्रह्म से दूर होते ही आत्माओं में अलस्य और अभिमान प्रवेश कर गये, और वे ब्रह्म को भूल गयीं।
ब्रह्म और आत्माओं के बीच देश और काल भी आ गये। वे खाली थे। देश और काल दिन-रात विलाप करते, ‘‘हे ब्रह्म ! हममें आ जाइए। हमसे खालीपन सहा नहीं जाता।’’
ब्रह्म, ‘‘मुझे तुम धारण कर सकोंगे। धारण करोगे तो तुम तुम नहीं रह जाओगे।’’
‘‘हमें छू दीजिए !’’ काल-देश ने कहा, ‘‘आपके छूने से खालीपन चला जाएगा।’’
तब ब्रह्म ने सोलह कलाओं को रचा। उनमें मनुष्य को बनाया और काल-देश में डाल दिया। और कहा, ‘‘लो, यह मनुष्यत्व है। पृथ्वी पर इसी रूप में मेरे सभी गुण रहेंगे। जब जब मनुष्यत्व और आत्मा एक होंगे, तुम धन्य हो जाओगे।’’
कुछ समय बाद सभी आत्माओं को याद किया। उनके याद करने से आत्माएँ खिंची आयीं। उन्होंने पूछा, ‘‘मेरे पास क्यों नहीं आये बच्चों ?’’

‘‘आपके पास आने की आवश्यकता नहीं पड़ी, प्रभु। इसमें से प्रत्येक में पूर्ण है। जो आप हैं वही हम हैं। आप अमर हैं, हम भी अमर हैं।’’
प्रभु के नेत्र छलछला आये, ‘‘यह कह दिया तुमने ? मुझसे दूर रहोगे ? किन्तु मैं तो तुमसे बहुत दूर रहूँगा। सदा प्रत्येक मानवहृदय में आत्मा के साथ रहूँगा। प्रेम पैदा करो हृदय में। प्रेम के बिना अमरता सूनी है। प्रेम करोगे तो तुम्हें ज्ञान होगा। करुणा और अकारण उल्लास तुममें प्रटक होंगे।’’
ब्रह्म के आँसू देख आत्माएँ सहम गयीं।
ब्रह्म का हृदय करुणा से भर आया। बोले, ‘‘डरो मत मेरे बच्चों ! मैंने मनुष्यत्व की रचना की है। तुम और मनुष्यत्व दोनों साथ-साथ मानवदेह में रहोगे। जो उसमें है वह तुममें नहीं, जो तुममें है वह उनमें नहीं। दोनों सच्चे मित्र होकर रहना।’’
आत्माओं ने पूछा, ‘‘मनुष्यत्व हमारे लिए क्या  करेगा ?’’
ब्रह्म ने कहा, ‘‘मनुष्यत्व में प्रेम है, करुणा भी, अकारण उल्लास भी। वे सब गुण तुममें भी आ जाएँगे। तुम उसे अपनी अमरता का सहारा देना। तुम सहारा नहीं दोगे तो मनुष्यत्व मर जाएगा। मनुष्यत्व के दुख को अपने दुख समझोगे तो तुम्हें ज्ञान होगा। तब मैं और तुम एक हो जाएँगे।’’

आत्माओं ने पूछा, ‘‘ज्ञान प्राप्त करने का कोई सरल उपाय नहीं है क्या परमपिता ?’’
ब्रह्म बोले प्रेम करना मनुष्यता की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझना, सबसे सरल उपाय है।’’
‘‘हमें एक दूसरे से ही प्रेम नहीं होता। हम मनुष्यत्व से क्या प्रेम करेंगे !’’ आत्माओं ने कहा।
ब्रह्म सोच में पड़ गये। उन्होंने मनुष्य-देह के दो टुकड़े कर दिये-स्त्री और पुरुष। स्त्री को देख आत्माएँ आकर्षित हुईं। ब्रह्म बोले, ‘‘कुछ आत्माएँ स्त्री देह में चली जाओ, कुछ पुरुष देह में। तुम प्रेम करने लगोगे। किन्तु वह प्रेम यौवन रहने तक होगा। तब मनुष्यत्व तुम्हारे काम आएगा। वह अमर प्रेम का मार्ग जानता है।’’
‘‘मनुष्यत्व को  बीच में क्यों लाते हैं प्रभु ?’’
‘‘इसलिए कि मनुष्यत्व और आत्मा एक हो गये तो नरनारायण हो जाएँगे।’’
‘‘नरनारायण से क्या होगा ?’’
‘‘नरनारायण हो जाओगे तो तुम भी ब्रह्म हो जाओगे। मैं और तुम एक हो जाएँगे। नरनारायण ही पृथ्वी पर शासन कर सकते हैं। आत्मा और मनुष्यत्व एक नहीं होंगे तो पृथ्वी पर राक्षसों का राज्य हो जाएगा।’’

एक छोटी झोपड़ी थी। एक आम की बगिया थी। मालाबार की पहाड़ियाँ थीं। उनके बीच में बसा था एक गाँव-कालड़ी। 28 अप्रैल 690 की रात थी। सन्नाटे को तोड़-तोड़कर गा रही थी एक कोयल।
एक शिशु जन्म ले रहा था। झोंपड़ी में। काल मचल उठा शिशु का पालना बन जाने को। आकाश ने उस नवजात के रोने की आवाज़ सुनी तो खिड़की से घुस आया उस दिशा को झबरा पहनाने। कोयल गाते- गाते सोच में पड़ गयी-बच्चे का यह क्रन्दन तो मधुर है मेरे गीत से भी।
वह ऋतुराज था- उन दिव्य ऋतुओं का राजा जो काल देश से परे रहती हैं। जहाँ अकारण उल्लास रहता है। लोगों ने समझा व राग जोगिया अच्छा गाता है। किन्तु वह उस राग को गाता रहा जो राग जोगिया और राग बसन्त-बहार दोनों में बसा है।
दार्शनिकों ने, धर्मज्ञों ने उसे शंकराचार्य कहा। उसके हृदय में मनुष्यता और आत्मा एक हो गये थे। कोयल इस रहस्य को जानती थी। मनुष्य जो बहुत जानते थे, इस रहस्य को नहीं जानते थे।


बचपन



बालक शंकर पाठशाला जाना पसन्द नहीं करता था। गाँव कालड़ी में एक पाठशाला थी। एक शिक्षक थे। उनका नाम केशव था।
शंकर को पढ़ने का शौक था। किन्तु पाठशाला से डर लगता था। गाँव के विद्वानों से पुस्तकें माँग लाता और घर बैठा पढ़ता रहता। देर रात तक पढ़ता। थोड़ा सोकर फिर उठ बैठता और पढ़ने लगता। माँ रोकती तो चादर टाँग लेता अपने और माँ के बीच, जिससे माँ की आँखों को रोशनी न लगे, और उसे पता भी न चले।
शंकर की देह में दोनों रहते थे आत्मा और मनुष्यत्व। और आत्मा में एक तीसरा और भी रहता था-ब्रह्म। आत्मा ही पाठशाला से डरता था। उसे डर था कि वह प्रकाश, जो काल की सीमा को चीरकर वह लाया है, संसारी शिक्षा के झूठ-सच में कहीं खो  न जाए।
ब्रह्म के साथ रहने से शंकर की आत्मा भूल न पायी सपनों की उस दुनिया को, जो काल-देश के पार सचमुच की होकर साँस लेती है। किन्तु धरती पर आते ही खो जाती है।

सात वर्ष का होते-होते शंकर को वेद और उपनिषद कंठस्थ हो गये। वह उनकी व्याख्या भी स्पष्ट शब्दों में कर लेता। कभी-कभी दिव्य प्रेरणा से वह शास्त्रों की ऐसी व्याख्या करता जो पंडितों ने सुनी थी न जानी। पंडितों का गाँव-कालड़ी ! एक धुरन्धर पंडित रहते थे। बालक शंकर का भाष्य सुन उन पंडितों की आँखें श्रद्धा से भर आतीं।
शंकर गाँव के लड़के-लड़कियों के साथ खेलता भी खूब था। सन्ध्या को माँ आवाज़ दे-देकर थक जाती मगर वह खेल में मस्त रहता। माँ उसे घर में माधव कहती थी। शंकर कभी भी खुलकर नहीं हँसता था। माँ को कभी-कभी चिन्ता होती। गाँव के विद्वान मिल जाते, कभी घाट पर, कभी मन्दिर में, कभी हाट में। माँ उनसे शंकर की सब कच्ची-पक्की बातें बतातीं, कि कोई तो कुछ उपाए बताएगा शंकर को खिलखिलाकर हँसाने का। किन्तु वह स्नेह भरी आँखें लिए उसकी शिकायतें सुनते। उपाय कोई न बताता। सब धैर्य रखने को कहते और मुस्कराते हुए चले जाते।

फिर भी विशिष्ट देवी का हृदय विद्वानों पर आने का प्रभाव देख उल्लास से भरा रहता। क्रोध आता तो शंकर के पाठशाला न जाने पर। उनकी समझ में न आता कि स्कूल से डरता क्यों है। वह चाहती थी कि वह गुरु से शिक्षा प्राप्त कर प्रकांड विद्वान बने। वे शंकर को तरह-तरह से समझातीं, किन्तु उनकी समझ में न आता। वे उसे डाँटतीं, छड़ी से भी मारतीं। कोठरी में बन्द कर देतीं। खाना बन्द कर देतीं। मगर सारे प्रयत्न व्यर्थ जा रहे थे।
एक दिन अनायास ही समस्या हल हो गयी। शंकर ने स्वयं ही कह दिया कि पाठशाला जाएगा। गाँव में एक लड़की थी उमा। जिसके साथ वह खेलता था उन  बच्चों में वह उसे सबसे ज्यादा पसन्द थी। अक्सर उमा को लेकर उसका झगड़ा लड़को से हो जाता। उसे अच्छा नहीं लगता कि कोई भी उमा को चिढ़ाए।

एक दोपहर घनघोर बादल थे। खूब वर्षा हो रही थी। स्कूल से लौटते उमा सीधे शंकर के पास आयी, और रो-रोकर उसने उसे अपनी बाँहों और टाँगों में लगी खरोंचे दिखायीं। पाठशाला में वेंकटरमण ने उससे क़लम माँगी। उसने नहीं दी क्योंकि वह उससे लड़ता था। लौटते समय उसने उसे धक्का देकर काँटोंवाली झाड़ी में गिरा दिया। शंकर ने उमा को चुप किया। उसके आँसू पोंछे और कहा, ‘‘कल तेरे साथ पाठशाला चलूँगा। उसे ठीक न कर दिया तो फिर शंकर न कहना।’’
अलगे दिन शंकर सीधा शिक्षक केशव के पास गया और प्रणाम करके उसने वेंकटरमण को ठीक करने के लिए कहा। चलते हुए बोला, ‘‘आप ने ठीक न किया गुरुजी तो मैं ठीक कर दूँगा।’’
गुरु केशव उसके विनम्र किन्तु दृढ़ लहजे से, और शुद्ध संस्कृति से, प्रवाहित होकर बोले, ‘‘किस पाठशाला में पढ़ते हो ?
शंकर ने कहा किसी में नहीं ।’’

‘‘मेरी पाठशाला में पढ़ोगे ?’’
कोई बात थी गुरु केशव में जो शंकर को भा गयी। उसने हाँ कर दी।
घर आकर माँ से कहा, ‘‘पाठशाला जाऊँगा माँ।’’ माँ को विश्वास नहीं हुआ। समझीं कि मन रखने को कह रहा है।
अलगे दिन भोर से ही मूसलाधार वर्षा होने लगी। उसकी आशा टूट गयी किन्तु शंकर ने उसे चकित कर दिया। वह सचमुच पाठशाला जा रहा था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था विस्मित-सी वह भी चल दी। शंकर न रोका तो बोलीं, ‘‘सच, कहूँ, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है माधव ! ऐसी कायापलट ? यह कोई सपने में भी सोच सकता है क्या ?’’
केले के पत्तों से बना छाता माँ ने लिया। अब एक हाथ में छाता थामें दूसरे से शंकर को पकड़े पाठशाला चल दी। केरल का मानसून भरपूर यौवन में बिफर गया था। उमड़-उमड़ कर मेघ जल-थल एक किये दे रहे थे। तिरछी बौछारें आ आकर माँ-बेटे को छाते के नीचे भी तरबतर कर रही थीं। अपनी धुन में निमग्न माँ शंकर को खींचे जा रही थीं।
सारा दिन वह पाठशाला के बाहर, एक घने आम के पेड़ के नीचे बैठी रहीं। उन्हें अब भी डर था- कहीं शंकर को स्कूल न भाया और घर भाग आया !

दो महीने हो गये थे शंकर को पाठशाला जाते। एक भी दिन नागा नहीं हुआ। माँ को विश्वास हो गया कि अब पाठशाला जाता रहेगा।
पतझड़ आ गया था। एक दिन गुरु केशव ने विद्यार्थियों को केरल वासियों पर निबन्ध लिखने को कहा। केरल में उन दिनों कुछ यूरोपवाले और अरबवासी भी रहा करते थे। जनजातियों के लोग भी रहते थे, जिन्होंने भारत की संस्कृति को एक ऐसी समृद्धि प्रदान की थी जो अन्यत्र नहीं थी। केरल विश्व की संस्कृतियों का संगम था। एक बगिया की तरह, जिसमें रंगबिरंगें फूल खिले थे। विभिन्न गीतों से भरी केरलवालों की जिन्दगी एक निर्भीक युवती की तरह गुनगुनाती चल रही थी। गुरु बस इतना चाहते थे कि उनके शिष्य अपने प्रान्तवासियों को उनके रंगरूप और जीवनशैलियों के आधार पर अलग-अलग पहचान लें।

शंकर का निबन्ध पढ़कर गुरु अवाक् रह गये। केरलवासियों की विभिन्नता का चित्रण शंकर ने उनके रंगरूप से नहीं, उनके आन्तरिक गुणों के आधार पर किया था। शंकर ने लिखा थाः ‘‘भारतीयों की विशेषता है कि वे विदेशियों को अतिथिदेव मानकर पूजते हैं, किन्तु स्वयं को ऊँचनीच जातियों में बाँटे रहते हैं। इससे विदेशी भारतियों का शोषण करना सीख गये हैं। वे निम्नवर्ण के भारतीयों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं उन्हें रोकने के बजाय उच्चवर्ण के भारतीय भी निम्नवर्णवालों के साथ अशोभनीय व्यवहार करते हैं। वे नहीं जानते कि विदेशी एक दिन उच्चवरण वालों के साथ दुर्व्यवहार करने लगेंगे। वर्ण-व्यवस्था का उद्देश्य था, प्रत्येक वर्ण अलग-अलग गुणों की प्राप्ति करे, और समाज इस तरह शक्तिशाली बने। स्वार्थ ने उस व्यवस्था को नष्ट कर दिया। अब भारतीयों को चाहिए कि वर्ण –व्यवस्था पर आत्मबलि दे और उससे पुनर्जन्म माँगे। वर्ण व्यवस्था सभ्यता का अंग है, संस्कृति का नहीं। अपनी संस्कृति को जीवन में अभिव्यक्त करने के लिए हमारे पूर्वजों वे वर्ण-व्यवस्था को चुना था, किन्तु वह धोखा दे गयी। भारतीयों को अब वर्ण-व्यवस्था का त्याग देनी चाहिए।

 ‘‘यूरोपवाले तर्क को ज्ञान समझते हैं। अरब वाले अन्धविश्वास को, और जनजाति वाले चालाकी को। तर्क वासना का दास है। तर्क बुद्धि को भी वासना की दासी बना देता है। यदि मुझमें थोड़ी-सी अरबों जैसी तर्कनिष्ठा हो, थोड़ा-सा जनजातियों जैसा भोलापन हो, और वह प्रज्ञा हो जो ईश्वर ने मुझे दे रखी है तो मैं तो जीवन में कुछ कर सकूँगा।
‘‘जनजाति के लोग सीधे-सादे और भोले हैं। ऐसा लगता है कि ईश्वर के अन्नत उल्लास की एक किरण उनमें मनुष्य बन गयी है। किन्तु वे ईश्वर के इस अमुपम उपहार का मूल्य नहीं जानते। वे अपनी सरलता को पिछड़ापन समझते हैं। उनका विचार है कि कुटिल लोग भी प्रगति कर सकते हैं। उनका मामना है कि ईश्वर ने दूसरों को कुटिलता दी इसलिए वे आगे निकल गये। जनजातियां अनेक लोगों की नकल करने को ही प्रगति समझ बैठी हैं। वे नहीं जानतीं कि ईश्वर ने उन पर विशेष कृपा की है। उन्हें एक विशेष गुण दिया है- जो प्रकृति दे, उसी में सन्तुष्ट रहो। वे नहीं जानतीं कि इस गुण को प्राप्त करने के लिए मुनियों को कितना उग्र होगा पड़ता है। वे अपनी लोभहीनता का उपयोग एक सुन्दर –सौम्य जीवन का निर्माण करने में नहीं करतीं। वे नहीं जानतीं कि लोभ ऐसा मैल है जिसे हज़ारों गुण मिलकर भी नहीं धो पाते। दुर्भाग्यवश जनजातियाँ स्वावलम्बन को गरीबी कहती हैं।

‘‘अरबवासी स्वयं पर क्रूर परीक्षण करके यह जान गये हैं कि इन्हें कौन से अपराध सर्वाधिक दुख देते हैं। वे ही अपराध ये अन्य लोगों के प्रति करते हैं। अन्य लोग कहते हैं।-‘‘दूरसों के साथ वह मत करो जो तुम नहीं चाहते कि कोई तुम्हारे साथ करे।’’ अरब कहते हैं- ‘‘दूसरों के साथ वह करो जो तुम चाहते हो तुम्हारे साथ हो।’’ ये अपने काले जादू से भोले-भाले लोगों को डरा देते हैं। काले जादू से लगाए रोगों का उपचार इनके पास नहीं है। अपने काले जादू से ये स्वयं भी परेशान रहते हैं। किन्तु इनमें विलक्षण प्रतिभा है उपचार की झूठी आशा बँधाए रखने की।’’
गुरु केशव चकित रह गये एक सात साल के बालक   के इन विचारों को पढ़कर। उन्होंने पूछा, ‘‘तुम्हें ये बातें किसने सिखायीं ?

‘‘किसी ने नहीं। ’’
केशव ने उसे कुरेदा। बहुत से प्रश्न किये। शंकर ने उत्तर दिया, ‘‘मैंने घर रहकर ही वेद और उपनिषद पढ़े हैं। मुझे लोगों से प्रेम है। प्रेम ने मुझे उनका चरित्र दिखा दिया।’’ यह कहते-कहते शंकर रोने लगा, ‘‘और गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला गुरुदेव मेरे अन्तश्चक्षु बन्द कर दीजिए। ये असमय ही खुल गये हैं। इन्होंने मुझे अभी से ही वृद्ध बना दिया है। मेरा बचपन छीन लिया है। मैं दूसरे बच्चों की तरह खुलकर हँस नहीं पाता लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।’’

 

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