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हरा भरा अकाल

केशुभाई देसाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4546
आईएसबीएन :81-263-1291-2

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गुजराती उपन्यास लीलो दुकाल का हिन्दी रूपान्तरण

Hara Bhara Akal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मानवीय संवेदना के बेजोड़ शिल्पी गुजराती कथाकार केशुभाई देसाई की एक अद्भुत संरचना है यह उपन्यास-‘हरा भरा अकाल’। इसमें एड्स जैसी विभीषिका के परिप्रेक्ष्य में मानव-मन की गुत्थियों का मार्मिक विश्लेषण एवं प्रेम तत्त्व की प्रबल शक्ति का कलात्मक चित्रण है। दूसरे शब्दों में, अनुभूति की सच्चाई और मानव-मन की गहराइयों को टटोलने की चिकित्सा-दृष्टि देसाई की इस कृति को एक विशिष्ट ऊँचाई पर पहुँचाती है।

कथानक एस.पी. आशुतोश यादव की डायरी के रूप में प्रस्तुत इस उपन्यास के हर पन्ने पर उसका पात्र अपने ‘स्व’ को टटोलता नजर आएगा। यहाँ मनुष्य के भीतर छुपा हुआ असली मनुष्य स्वयं अपना एनेलिसिस करता है, जहाँ दम्भ या बनावट की कुछ भी गुंजाइश नहीं रहती। मनुष्य आत्मवंचना कर सकता है लेकिन आत्मा थोड़े ही धोखा खाती है ! वह कैसे-कैसे विचित्र सवाल उठाकर मनुष्य को कटघरे में खड़ा कर सकती है, कैसी कठोर प्रतिपृच्छा (cross-examination) कर उसे अपनी दुर्बलताओं से प्रत्यक्ष कराती है- इसकी कलात्मक अभिव्यक्ति है यह उपन्यास। कथानायक आशुतोष ऐसे ही अकाल का शिकार बनकर तड़प-तड़पकर मरणोन्मुख हो रही गगू (प्रमुख नारी-पात्र) को अपनी प्रेमसंजीवनी द्वारा उभार सकता था, पर इतना साहस नहीं जुटा पाया। अन्त में राजनीति का शिकार बनकर आधे-अधूरे कार्यकाल में तरक्की के साथ स्थानान्तरण का आदेश पाकर स्वयं से न्याय नहीं कर सका।
‘हरा भरा अकाल’ ऐसे ही अधिकतर विश्वसनीय सत्य की कथा है-जितनी अद्भुत उतनी ही रोचक।

भूमिका
स्वगत


भारतीय ज्ञानपीठ मेरी दूसरी रचना प्रकाशित कर रही है। मेरे गुजराती उपन्यास ‘ऊधई’ का स्वयं मेरे द्वारा सम्पन्न अनुवाद ‘दीमक’ दिसम्बर 1993 में प्रकाशित हुआ था। उसके लोकार्पण समारोह में जाने माने कथाकार श्री कमलेश्वर सहित अनेक साहित्यकार उपस्थित थे। भारतीय ज्ञानपीठ के तत्कालीन निदेशक डॉ. आई. पाण्डुरंग राव ने जो शब्द कहे थे, आज भी मेरे कर्णपटल पर अंकित हैं। उन्होंने ‘दीमक’ को केवल उपन्यास न कहते हुए उपनिषद कहना उचित समझा था। ‘दीमक’ ने मुझे राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलायी थी। उसका तमिल में भी अनुवाद हुआ है। मराठी पंजाबी उड़िया एवं अँग्रेजी में उसके अनुवाद मुद्रणाधीन हैं।

‘हरा भरा अकाल’ (गुजराती में ‘लीलो दुकाळ’) मेरी परिपक्व सम्प्रज्ञता एवं लोकनिष्ठा की फलश्रुति है। ‘दीमक’ साम्प्रदायिक सौहार्द का सन्देश लेकर आयी थी, तो ‘हरा भरा अकाल’ मानवीय पीड़ा का सम्पुट है। किसी भी पीड़ा के लिए प्रेम से बढ़कर इलाज नहीं हो सकता। यहाँ एक विशेष समस्या की चर्चा है। उपन्यास एक एस.पी. की डायरी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यहाँ मनुष्य के अन्तर्मन की स्वयं उसकी आत्मा तलाशी ले रही है। नायक अपने आप से बतिया रहा है। आखिर परिस्थिति के सामने वह घुटने टेक ही देता है। पर उसकी अन्तर्यात्रा- भीतरी खोज जारी रहती है। यह उस एस.पी. आशुतोष यादव की डायरी न रहकर मेरी और आपकी डायरी बन जाती है। गगू जैसी दुखियारी नायिका का चित्रण करते हुए मैं स्वयं गदगद हुआ हूँ। न जाने स्त्री की कोख से पैदा होनेवाला पुरुष आखिर कब उसकी अन्तरात्मा की लिपि पढ़ने योग्य साक्षर बन पाएगा !

गुजरात के शिरोमणि कर्मठ, चिन्तक लोकप्रिय वक्ता एवं शीर्षस्थ लेखक डॉ. गुणवन्त शाह ने मूल रचना का प्राक्कथन लिखा था। ऐसी रचना राष्ट्रभाषा हिन्दी में जानी चाहिए यह सिर्फ उनकी ही नहीं, मेरे अनेक शुभचिन्तक साहित्यकारों एवं पाठकों की राय भी थी। आज काफी मशक्कत और कड़े परिश्रम के पश्चात् यह संकल्प साकार हो रहा है। मुझे इस अनुवाद कार्य में सुश्री डॉ. प्रणव भारती एवं उत्तर गुजरात यूनिवर्सिटी के पूर्व उपकुलपति डॉ. महावीर सिंह चौहान का सहयोग मिला है। मैं उनका आभारी हूँ।

भारतीय ज्ञानपीठ से किसी अहिन्दी भाषी लेखक की रचना प्रकाशित होना ही अपने आप में प्रतिष्ठा का द्योतक है। डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने जिस सहृयता का परिचय दिया है, मेरे पास उसका प्रतिसाद व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं है। ‘धन्यवाद’ शब्द उनके लिए प्रयोग करके तो मैं उनके उदारचेता व्यक्तित्व को हानि ही पहुँचा सकता हूँ। ज्ञानपीठ के प्रकाशन अधिकारी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन के सौहार्दपूर्ण व्यवहार को मैं कैसे भूल सकता हूँ भला ! ठीक उसी तरह मैं जब अनुवाद का एक-एक शब्द टटोलता था तब बड़े सवेरे मीठी नींद में से जाग कर मेरी छोटी-छोटी आवश्यकता की पूर्ति करने वाली जीवनसंगिनी श्रीमती शान्ताबहन देसाई एवं लाड़ली अयना (बिट्टूडू) को भी याद करना उचित समझता हूँ।
गुजराती में मूल उपन्यास मैंने मनुभाई पंचोली ‘दर्शक’ को अर्पण किया था। यह अनुवाद मैं अपने वरिष्ठ प्रवासी भारतीय मित्र श्री भगुभाई पटेल को समर्पित कर रहा हूँ।
भारतीय ज्ञानपीठ के साथ मेरा यह अक्षर ऋणानुबन्ध मेरे लिए इसलिए विशेष महत्त्व रखता है कि मैं उसके माध्यम से अपने पूरे देश में पहुँच रहा हूँ।
अस्तु।


प्रेमचन्द्र जयन्ती,
जुलाई 31, 2006


केशुभाई देसाई

हरा-भरा अकाल
पहला दिन



अर्दली ने भीतर आकर सलाम ठोका-
‘‘सर ! आपसे कोई महिला मिलना चाहती हैं...’’
अभी उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि तुमने स्थितप्रज्ञ भाव से बीच में ही उसे टोक दिया : ‘‘उनसे कहो, दो दिन बाद आएँ। अभी आज ही तो ऑफिस में पैर रखा है। अभी तो बदली हुई है, जरा ठीक से यहाँ का काम-काज भी समझना होगा न ! यहाँ की पूरी कार्यशैली से वाकिफ होना होगा। यहाँ के सिस्मटम से तालमेल बिठाना होगा। अब अगर आते ही मुलाकातियों से मिलना शुरू कर दूँगा तो कुछ बात ही नहीं बनेगी। मिलूँगा...सबसे मिलूँगा...छोटे से छोटे आदमी की बात सुनूँगा...सबकी शिकायत को सही न्याय देने की कोशिश करूंगा...पर अभी नहीं; सब कुछ होगा-पर दो दिन के बाद अभी तो....’’

कहते-कहते अचानक तुम अटक गये थे। बदली होने के बाद पिछले चार दिनों से नींद में तुम्हें लगातार एक ही चेहरा दिखाई देता रहा है। बहुत ही खूबसूरत था वह चेहरा। ऐसा कि देखते ही उस पर ममता उमड़ आए...बल्कि उससे प्रेम हो जाए। उसे देखकर मन-ही-मन तुम्हें लगा था-कहीं वही स्वप्न वाला चेहरा तो तुम्हें मिलने नहीं आ गया। तुम्हारा खूँखार ‘ईगो’ भी घड़ी भर के लिए हिल गया था। इसीलिए तो तुमने तुरन्त ही अपने मन को घोड़े पर लगाम कसकर, उसे काबू में लेकर, बड़ी ही खामोशी से आगन्तुका को भगा दिया था। अलबत्ता, अधूरे छोड़े हुए विधान में तुम्हारी दुविधा का प्रतिबिम्ब ही झलक रहा था। इतने ‘बोल्ड’ होने पर भी आखिर तुम उसे बुलाने की हिम्मत क्यों नहीं कर सके ? इसका अर्थ है कि आज भी तुम्हारे तने हुए शरीर के भीतर अवश्य कोई कवि उफन रहा है..।

राजनगर में तुम्हारी पोस्टिंग का आज पहला दिन है। अब नौकरी तो नौकरी ही होती है। वह ‘क्लास फोर’ वाले चपरासी की हो, या सफाई कर्मचारी की, या फिर तुम्हारे जैसी अथवा तुम्हारे भी बॉस की ‘सुपर क्लास -वन’ सर्विस हो। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं। फिर भी तुम्हारी नौकरी तो बढ़िया ही है, जितनी  जोखिमवाली है उतनी ही रोमांचक भी तो है। चुनौतीपूर्ण जिन्दगी का तो आनन्द ही कुछ और होता है। श्रीमान यादव जी, जब से आपने आई.पी.एस. का बिल्ला लगाया था, तब से ही आपको पता था कि इस नौकरी में आपको हर रास्ते और हर कदम पर एक नयी मुठभेड़ के लिए तैयार रहना है; हर क्षण एक नई आफत का सामना करना है। इस देश का हर आदमी सिर्फ खाकी वर्दी से ही तो घबराता है, चाहे वह देश के सर्वोच्च स्थान पर ही क्यों न बैठा हुआ हो।

उसे शैतान के साथ समाधान करता तो आता है पर पुलिस के नाम से उसके छक्के ही छूट जाते हैं। अच्छा है कि कम से कम इस पेशे की अभी इतनी धाक तो है। आधा काम तो धाक से ही हो जाता है। नहीं तो सब जानते ही हैं कि ‘मॉरेल’ के नाम पर तो यहाँ अब कुछ नहीं बचा है। फिर भी यह तो नहीं कहा जा सकता कि ‘मॉरेल’ के नाम पर पूरी धरती ही खाली हो गई है। कम तो कम ही सही, लेकिन ढूँढ़ने से कोई तो माई का लाल मिल ही जाएगा। यह तो संयोग की बात है कि कभी अचानक ही किसी किरण बेदी का नाम चमक उठता है और कोई आशुतोष यादव नेपथ्य में रह जाता है। हाँ...संयोग ही सविशेष कारण भूत होते हैं। तुम आशुतोष यादव चाहे उतने नामांकित नहीं हो, पर तुम्हारे महकमे ने तो तुम्हें सदा ही महत्त्व दिया है। अरे भई। इतने छोटे से कार्यकाल में इतना मान सम्मान आखिर किसे मिल पाता है ? ज़रा सोचो तो सही !

जब से तुमने गुजरात में आकर पुलिस अधिकारी के रूप में ‘प्रोबेशन’ पर अपना काम करना प्रारम्भ किया था, तभी से तुम्हारे सभी सीनियर तुम्हारी सराहना करते रहे हैं। तुमने सरहदी विस्तार में जो जौहर दिखाया था वह तुम्हारी ऊँची इमेज के लिए सुनहरी सीढ़ी बन गया है। जब तुमने जुम्मावली को धर दबोचा था तब डी.जी. ने जो शब्द तुम्हारी पीठ थपथपाते हुए कहे थे, क्या उन्हें कभी भूला जा सकता है ? ‘‘माय ब्वाय आय एम प्राउड ऑफ यू ! बेटा कुम एक दिन बहुत नाम करोगे। मुझे पूरा विश्वास है कि इस वर्दी की खोती हुई चमक को तुम्हारे जैसे होशियार चुस्त जवान ही बचा सकते हैं।’’ उनकी आँखों में आँसू झिलमिला उठे थे और उनमें नौजवान आशुतोष यादव का प्रतिबिम्ब झलक उठा था। एक लम्बी निःश्वास खींचकर उन्होंने फिर कहा था-‘‘यह तो एक ऐसी फिसलन है जहाँ आकर अच्छे-से-अच्छे खानदान के लोग फिसल जाते हैं अच्छी तनख्वाह और पदवी से कहीं अधिक चमक सोने में होती है, दोस्त। उस चमक से बिना चौंधियाए हमें और तुम्हें अपनी कसौटी पर खरा उतरना होता है। इस चमक में तो कितने ही बड़ी-बड़ी ऐंठनदार मूँछोंवाले खो गए हैं। खो क्या गए हैं उनके पैरों के निशान तक ढूँढ़ने से नहीं मिलते।

 जब आए थे तो मानो जाँबाज घोड़े पर सवार होकर और जब यहाँ से लौटे तो नीचा मुँह लटकाकर...सियार की तरह दुम दबाकर भाग गए। किसी को कुछ खबर नहीं हुई कि वे लोग किस अँधेरे कोने में जाकर छिप गए। भई ! चोरी करते हुए जो पकड़ा जाय वही तो चोर कहलाता है। किसी-किसी को काफी कड़ी सजा भी मिली और कुछ लोग माफी माँगकर बिना किसी कार्यवाही के छूट भी गए होंगे। एक बात है-इस प्रकार के किसी भी आदी के मुँह पर मनुष्यता की गरिमा नहीं बचती। उनके मुँह पर गुनहगार होने का छोटापन होता है, न कि अधिकारी का-सा तेज। उनकी चाल युद्ध में हारकर भागे हुए सिपाही जैसी हो जाती है। अब यह बात और है कि किसी न किसी कारण से महकमा ऐसे लोगों को निभाता रहता है। कुछ लोग अपनी पहुंच से निभ जाते हैं, यह सच है परन्तु अधिकतर लोग मानवीय अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। गलती किससे नहीं होती ? अब आदमी तो आदमी ही है और आदमी ही रहेगा। जाने अनजाने उससे भूल भी होती ही रहेगी। कहते हैं कि एकाध भूल तो भगवान भी माफ कर देता है।

 यह तो नौकरी भी लालच से भरपूर ठहरी। इसमें कोई विरला ही अपने आपको सँभालकर रख सकता है। मानव स्वभाव से ही लालची होता है परन्तु, गलती करने वाले को उसे सुधारने का मौका जरूर मिलना चाहिए। कभी-कभी मनुष्य की कोई गलती ही उसकी प्रगति का ‘राजद्वार’ बन जाती है। खाकी वर्दीधारी सीनियर अफसरों में किसी छोटी-मोटी भूल को ‘लेट गो’ करने की उदारता तो सहज ही आ जाती है। इस महकमे में एक ऐसा वर्ग भी है जो बात-बात में खाकी की जगह खादी की शरणागित का आदी हो गया है। आज तो ऐसे लोगों का ही बोलबाला है, पर कभी न कभी तो सभी को अपने सारे कर्मो का भोग भोगना ही पड़ेगा। बच-बचकर भी कहाँ तक बचते फिरोगे? आज नहीं तो कल, पर कभी-न-कभी तो पाप का घड़ा फूटेगा ही।’’

तुम्हें जरा अलग ही मिट्टी का माना जाता है। खूँखार जुम्मा की ही बात लो, उसको हाथ लगाने की आखिर किसकी हिम्मत थी ? जिन्दा बम जैसे जुम्मा का नाम सुनकर बड़ी-बड़ी मूँछों वाले मर्द पेशाब कर देते थे। जहरीला नाग। फुँकार मारे तो निरी आग ही उगले। अखबारों में और बाहर उसे कत्ल करने या मार डालने की डींगे हाँकने वाले लोग अन्दर से तो उसके चापरासी बनकर कुत्ते की तरह उसके सामने दुम हिलाते थे।

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