लोगों की राय

कविता संग्रह >> खाली कोना

खाली कोना

हरिओम राजोरिया

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4536
आईएसबीएन :81-263-1296-3

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

105 पाठक हैं

कविता-संग्रह...

Khali Kona

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

समकालीन कविता बहुतेरी रूढ़ियों को तोड़ते हुए आगे बढ़ती रही है। कविता के विकास की इस यात्रा में हरिओम राजोरिया एक महत्वपूर्ण नाम है। समय सापेक्ष होना यदि अच्छी कविताई के लिए बुनियादी शर्त है तो यह कहना उचित ही होगा कि राजोरिया अपने समय के अनिवार्य कवि हैं। ये कविताएँ जिस उत्सवधर्मिता के साथ जीवन को गाती हैं उसमें मनुष्यता के विभिन्न रागों को बेहतर लय में सुना जा सकता है। दैनिक जीवन के सामान्य दृश्यों और स्थितियों के सहज बिम्बों से राजोरिया असामान्य और विलक्षण अभिव्यक्तियाँ प्रस्तुत करने में सफल होते हैं तो इसीलिए कि कवि खुली आँखों से खुले आकाश में विचरण करता है। चूँकि यह विचरण सिर्फ यायावरी नहीं इसके काव्योद्देश्य भी हैं, इसलिए विचार औऱ संवेदना के अलावा भाषिक निकष पर भी कवि खरा दिखायी पड़ता है।
इन कविताओं में जो ‘कोना’ रेखांकित हुआ है वह खाली नहीं अपितु सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता व सरोकार से भरा कोना है। इसलिए राजोरिया सिर्फ सुख-सौन्दर्य के कवि नहीं, एक जरूरी अक्खड़ता से लैस राजनीतिक कवि भी हैं। निस्सन्देह उनकी कविता के सरोकार मनुष्य को थोड़ा और मनुष्य बनाने के हैं।

आम

असमय हवा के थपेड़ों से
झड़ गये आम
अपने बोझ से नहीं
झड़े समय की मार से

बेमौसम अप्रैल की हवाओं ने
एक घर भर दिया कच्चे आमों से
आम न हों जैसे
भगदड़ में मारे गये
शव हों मासूम बच्चों के

जो आँखों ने सँजोये थे
झड़ गये वे स्वप्न
गयी कई दोपहरों की रखवाली
गयी चमक बूढ़ी आँखों की
इन्तजार गया कई महीनों का
पहले झड़े आम
फिर झर-झर झरी
आँखों से पानी की धार

पहली गिरी अमिया के साथ
चीखी एक औरत
फिर ताबड़तोड़
सब दिशाओं को लपके
ऐसे झड़े आम
कि झड़ते ही गये
झड़ते ही गये।

ऐनक



घर में रहता तो आता किस काम
इसलिए चला आया यह भी
बुढ़िया की अन्तिम यात्रा में

सिर के पास आँटी से अटका
चल रहा है अरथी में साथ-साथ
याद दिलाता हुआ उस स्त्री की
जो कुछ घण्टे पहले
निखन्नी खाट पर बैठी
कुतर रही थी सुपारी
और एक झटके में ही चल बसी

बुढ़िया के होठों पर अब भी
पड़ी है जर्दे की पपड़ी
जो धुल नहीं सकी अन्तिम स्नान में
नसेनी में बँधी है उसकी देह
जो धारण करती थी इसे
जरा से खटके पर
टटोलने लगती थी सिरहाने
और झट चढ़ा लेती थी आँखों पर

निर्जीव चीजें भी हो जाती हैं बेसहारा
जैसे बूढ़ी आँखों से
बिलग होकर यह ऐनक।

गानेवाली औरतें



वे रोते-रोते गाने लगीं
या गाते-गाते रो पड़ीं
ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है

घर से निकलीं तो गाते हुए
हाट-बाजार में गयीं तो गाते-गाते
चक्की पीसी तब भी गाया
आँगन बुहारते वक्त भी
हिलते रहे उनके होठ

अकेले में आयी किसी की याद
तो गाते-गाते भर आया कण्ठ
गाते-गाते रोटियाँ बनायीं उन्होंने
पापड़ बेले, सेवइयाँ और बड़ी बनायीं गाते-गाते
गाते-गाते क्या नहीं किया उन्होंने
वे उस लोक से
गाते-गाते उतरीं थीं इस धरा पर

जन्मीं तब गाया किसी ने गीत
गीत सुनते-सुनते हुआ उनका जन्म
दुलहन बनीं तो बजे खुशियों के गीत
गाते-गाते विदा हो गयीं गाँव से
पराये घर की देहली पर पड़े जब उनके पाँव
गीत सुनकर आँखों में तैरने लगे स्वप्न
वे अगर कभी डगमगायीं तो
किसी गीत की पंक्तियों को गाते-गाते सम्हल गयीं

गाना कला नहीं था उनके लिए
वे कुछ कमाने के लिए नहीं गाती थीं
गीत उनकी जरूरत थे
और गीतों को उनकी जरूरत थी।

संस्कार



खाना खाते वक्त
गिर पड़ता है मुँह का कौर
पता नहीं कौन भूखा है ?
अपनी संस्कारजन्य पीड़ा
परेशान करती है

अभावों को रौंदता हुआ
घाटी तो चढ़ आया
पर बार-बार देखता हूँ पीछे
बार-बार होता हूँ उदास।

अभिनेता



मैं एक ऐसे अभिनेता को जानता हूँ
जो स्टेशन पर उतरते ही
चलने लगता है मेरे साथ-साथ
बार-बार लपकता सामान की ओर
पूछता हुआ, ‘‘कहाँ जाना है भाई साहब ?
चलो, रिक्शे में छोड़ देता हूँ,’’
उम्मीद की डोर से बँधा
अपनी घृणा को छुपाता हुआ
वह काफी दूर चलता है मेरे पीछे-पीछे

भर दुपहरी में
जब सब दुबके रहते हैं अपने-अपने घरों में
उस बूढ़े अभिनेता का क्या कहना
बहुत दूर सड़क से
सुनाई पड़ती है उसकी डूबी हुई आवाज
जो बच्चों के लिए कुल्फी का गीत गाता है

एक लड़का मिलता है टॉकीज के पास
रास्ता चलते पकड़ लेता है हाथ
मैं भयभीत होता हूँ इस अभिनेता से
मैं डरता हूँ उसकी जलेबियों से
वह जिद के साथ कुछ खिलाना चाहता है मुझे
मेरे इनकार करने पर कहता है,
‘‘समोसे गरम हैं
कहो तो बच्चों के लिए बाँध दूँ ?’’

एक अभिनेता ऐसा है शहर में
जो कपड़ा दुकान के अहाते में
बैठा रहता है कुर्सी लगाए
हर आते-जाते को नमस्कार करता
दिनभर मुस्कुराता ही रहता है
और महीना-भर में
सात सौ रुपया पगार पाता है

गली, मोहल्लों, हाट, बाजार और सड़कों पर
हर कहीं टकरा ही जाते हैं ऐसे अभिनेता
पेट छुपाते हुए अपनी-अपनी भूमिकाओं में संलग्न
जीवन से ही सीखा है उन्होंने अभिनय
जरूरतों ने ही बनाया है उन्हें अभिनेता
ऐसा भी हो सकता है अपने पिता की उँगली पकड़
वे चले आयें हो अभिनय की उस दुनिया में
पर उनका कहीं नाम नहीं
रोटी के सिवाय कोई सपना नहीं उनके पास

ऐसे कुछ लोग भी हैं इस समाज में
जो इन अभिनेताओं की करते हैं नकल
और बन जाते हैं सचमुच के अभिनेता।

विरासत



मेरे पूर्वजों ने बाँधा नहीं नदियों को
जंगल साफ करके बनाये नहीं खेत
यों करने को बहुत कुछ किया
झूठ के बड़े-बड़े पुल खड़े किये
सात कमरों के भीतर कैद किया सत्य को
उनके इशारे पर रेते गये कलाकारों के गले
बिछाये गये कामकरों के रास्तों में काँटे
आततायियों के राजतिलक हुए
मक्कारों के वजीफे मुकर्रर किये गये

ऐसी ऊँची जात में पैदा होकर
कैसे छुपाऊँ अपनी शर्म को
ऐसे शब्द-शिल्पियों और शिक्षाविदों का क्या करूँ
जो अत्याचार को न्यायसंगत ठहराते रहे
कलंक-गाथाओं को करते रहे महिमा-मण्डित
जिनके रहते अपने ही घरों में
बिलखते-बिलखते गूँगी हो गयीं स्त्रियाँ

कूप-मण्डूकता का पाखाना है मेरे घर में
पोथियों के ढेर में कहाँ जाकर छुपाऊँ चेहरा
अपने मन को कब तलक बरगलाऊँ
पीढ़ियों का सिंचित पाखण्ड
आया है मेरे हिस्से में
किस जल से धोऊँ अतीत की कालिख
इस पवित्रता से कैसे पीछा छुड़ाऊँ !

जानकार



उनकी आँखों में जादू-सा सम्मोहन था
ज्ञान के दम्भ से दमकता था उनका चेहरा
एक रूढ़ हो चुकी
भाषा के तीरकमान थे उनके पास
उन्हें सुने बगैर गुजर पाना मुश्किल था
हर नये आदमी से वे कहते,
‘लेना हो तो झुककर लो’
इस तरह ज्ञान देने से पहले
वे झुकना सिखाते हर एक को

मुस्काते-मुस्काते थकते न उनके होंठ
कोई बोलता तो रोक देते इशारे से
कहते प्रश्नाकुलता अच्छा गुण है
पर बोलने से पहले आज्ञा तो ले लो

हम जो कहते हैं उसी में छुपे हैं समाधान
मनन करो ! गूढ़ बातों की तह तक जाओ
गहरे उतरोगे तो
छँट जाएगा आत्मा का अन्धकार
भीतर पैठकर ही मिलेंगे ज्ञान के मोती

खोलकर देखो अपने ज्ञान-चक्षुओं को
वे मुक्त होने का मन्त्र देते
इस भव की यन्त्रणाओं का करते बकान
तरह-तरह से डरना सिखाते
तरह-तरह से करते भय की निष्पत्ति।

चिन्तामणि-1



होनी को कौन टाल पाया है
काल भी कैसा निष्ठुर है
काल के गाल में समा गये चिन्तामणि
मौत के आगे बौने हुए चिन्तामणि
इतना ही लिखा था
जितना जिये चिन्तामणि

क्या करते थे चिन्तामणि ?
चिन्तामणि चिन्ता करते थे
बहुत अच्छा बोलते थे चिन्तामणि
हरदम बात करते जनहित की
कहते, ‘‘विकास की गंगा बहा देंगे,
सड़क देंगे, पुल देंगे, बड़े-बड़े भवन देंगे,’’
उद्घाटनप्रिय थे चिन्तामणि
जन-जन के प्रिय थे चिन्तामणि

चिन्तामणि चले गये
अगर जीते तो पता नहीं क्या होते
मौत भी तमाशा हुई
आयी जब स्क्रीन पर

कितने ब्रेक लगे
कैसा रुक-रुककर मरे
कितना पीटा गया मृत्यु का समाचार
ईश्वर, सबको ऐसी मौत दे
ईश्वर, चिन्तामणि की आत्मा को शान्ति मिले।

चिन्तामणि-2



न राम रहे, न रावण
न राजा रहे, न बादशाह
मिट गये नवाबों के भी नवाब
बड़े भइया, छोटे बना, हुकुम, लम्बरदार
सब मिल गये घूरे की धूल में

पर चिन्तामणि तो चिन्तामणि हैं
अजर, अमर, अमिट हैं चिन्तामणि
इतिहास के प्रेत हैं चिन्तामणि

जैसे भूख शाश्वत है
वैसे ही शाश्वत हैं चिन्तामणि
चिन्तामणि का बेटा भी है चिन्तामणि
न हवा सुखा पाएगी उन्हें
न जल भिगो पाएगा
न कभी विभाजित होंगे
न घुल पाएँगे किसी द्रव में

कहाँ मरे हैं चिन्तामणि ?
कपड़े बदल रहे हैं चिन्तामणि।

चिन्तामणि-3



चिन्तामणि की मृत्यु से
खाली हो गया खाली स्थान
चिन्तामणि भ्रम थे
उनकी मृत्यु भी भ्रम है
व्यसन थे चिन्तामणि
चिन्तामणि बन गये थे हमारी आदत

हमें अब विकल्प चाहिए
विकल्प नहीं, हमें तो चिन्तामणि ही चाहिए।

हमला



आतंक का ऐसा घेरा
और यह घना अन्धकार
इससे पहले तो कभी नहीं था
ऐसा विकट सन्नाटा

एकता भी कहाँ बचा पायी उन्हें
एका करके चिल्लाए
तो आ गये धमाके की चपेट में
विरोध करने से हुआ कहाँ विरोध

जिन्होंने बचाव में उठाये हथियार
वे हर हाल में मारे गये
जिन्होंने नहीं उठाये हथियार
वे आ गये निर्दोष मृतकों की सूची में
जो हथियार भर बोले
धर लिये गये हथियार कहने के जुर्म में

जो डरते थे हिंसक आँखों से
बाँधे हुए थे मुँह पर मुसीका
पर भाँप न सके हवा का रुख
और अपने ही कपड़ों की सरसराहट से
आ गये उनके अचूक निशाने पर
कराहें, चीखें और किलकारियाँ
दब गयीं भारी बूटों तले
वे कदमताल करते हुए आये
और मारते हुए गुजर गये।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book