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सनातन बाबू का दाम्पत्य

कुणाल सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4533
आईएसबीएन :81-263-1297-1

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सात कहानियों का संग्रह....

Sanatan Babu Ka Dampatya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नयी सदी में उभरे चन्द महत्त्वपूर्ण कथाकारों में से एक कुणाल सिंह की यह पहली किताब है। जिसका अमूमन ‘पहली’ किताबों के साथ होता आया है, ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’ को कुणाल सिंह के लेखकीय विकास के दस्तावेजी रूप में न देखकर नब्बे के बाद पल-छिन बदलते आये यथार्थ के पुनरीक्षण के रूप में देखना चाहिए। वैसे यह भी एक सचाई है कि अपनी पहली कहानी ‘आदिग्राम उपाख्यान’ से ही कुणालसिंह आगामी किसी विकास के लिए मुहलत नहीं माँगते। इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी कहानियाँ विकास की सम्भावनाओं से खाली अथवा सम्पूर्ण हैं। आशय सिर्फ इतना कि यहाँ किसी तरह की शुरुआती अनगढ़ता नहीं दिखती।

फकत सात कहानियों के इस संग्रह से गुजरते हुए सबसे पहले इस बात पर ध्यान जाता है कि लेखक ने बिना किसी आन्दोलनात्मक तेवर को अख्तियार किये कहन की सर्वथा एक नयी भंगिमा अर्जित की है। इन कहानियों की भाषा और शैली दूर से ही चमकती है। कुणालसिंह ने बहुत कम समय में अपनी निजी भाषा, मुहावरा और कथन का एक खास लहजा प्राप्त कर लिया है। बगैर आंचलिक हुए इन कहानियों में बंगाल और असम का तिलिस्मी भूगोल उजागर हुआ है।

संक्षेप में, ‘सनातन बाबू का दाम्पत्य’ एक नये रचनाकर की एक सर्वथा नयी कृति है, जिसका हिन्दी कथा साहित्य में स्वागत होना चाहिए।
 

शोकगीत


दृश्य के पच्छिमी सीमाने एक साथ ढेर सारी साँझ जमा हो गयी थी। लम्बी चौड़ी सड़कें, बुसी हुईं मूर्तियाँ, स्ट्रीट पोस्ट और ऊँची मेहराबों वाली प्राचीनता का कुहरीला स्वाद लिए उलंग इमारतें जैसे पीले फ्राक और बाबासूट पहिनकर सँझिया के सैर-सपाटे की निकली हों। टुकड़ा आसमान में सूरज कहीं नहीं था लेकिन हवा में सूरज के बुझे हुए ठण्डे चूरे तिर रहे थे। पेड़ो के धुऐंले हरे पर पीले का रोंगन चढ़ा था जैसे देखने वाले ने अपनी आँखों पर नीले काँच के चश्मे मढ़ा रखे हों। पता नहीं क्यों इन कुछ क्षणों चारों तरफ पीले भूरे व धूसर की विस्तीर्ण और हताश दूरियों के बीच स्वयं को पाकर मन किन्हीं अपरिचित उदासियों में डूबने लगता है। न जाने कैसी एक कुदरती चीज की कमी गले में फाँस की तरह बार-बार हूक उठाती सालने लगती है। मुँह अधूरेपन के फेनिल स्वाद से भर-भर जाता है।
 
‘‘क्या तुमने जैक लण्डन को पढ़ा है ?’’-यह मेंहदीरत्ता था। धूपछाँही चश्मे के उस पार उसकी मिचमिचाती आँखें थीं, बियर की बोतलें थी, विक्टोरिया मेमेरियल के सामने खुला मैदान था जहाँ हम बैठे थे, हवा थी, हवा में शाम के झुटपुटे गर्द थे जिनकी आड़ में हम बियर पी रहे थे और यह मैं था। बियर के ताम्बई नशे में हम यों थे कि एक झटके में यह साफ-साफ पकड़ पाना मुश्किल था कि हम किस तरफ थे। कि हम आसानी से मुस्करा सकते थे और उतनी ही आसानी से रो सकते थे। हँसने और रोने के बीच के बीहड़ कँटीले रास्ते गायब हो गये थे और दुनिया में जो भी था बहुत सहज था। हवा में अब भी मेंहदीरत्ता का सवाल खड़खड़ा रहा था जिसका मुझे जवाब देना था और मैं चुपचाप सिगरेट फूँक रहा था।  मेंहदीरत्ता अब तक मुझे घूरे जा रहा था एक पल के लिए लगा कि यदि मैं इसी तरह बिना हरकत बैठा रहूँ तो वह सदियों तक घूरता चला जाएगा। एक जरा सी हरकत उसके लिए काफी होगी सोचकर मैंने सिगरेट के दो छल्ले बनाये और मुस्कुराता हुआ चश्मे के पार उसकी आँखों को देखने लगा। पता नहीं उसने क्या समझा लेकिन इतने भर से वह आश्वस्त हो गया। मुझे लगा अबकी वह पूछेगा क्या मैंने निर्मल वर्मा या मिलान कुन्देरा को पढ़ा है !

बियर की अन्तिम बूँदे हलक से उतारने के बाद हमें लग रहा था कि एक दूसरे से पूछने और बताने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है। हम किसी भी सवाल का कोई भी जवाब दे सकते थे। कुछ भी मायने नहीं रखता। हम एक बहाव में थे और शब्द अपनी न्यूनतम उत्तेजना के ताप में बिहस रहे थे। कुछ इस हद तक कि शब्दों पर से स्वाद की परतें उखड़ गयी थीं। बोलने के नैरंतर्य में भी शब्दों के टुकड़े एक दूसरे से जुदा और सम्पूर्ण थे। यद्यपि पीने के बाद मैं अपने आपको थोड़ा संयत रखने की कोशिश करता था। कुछ भी कहते हुए जैसे किसी ऊँची तार पर चल रहा होता हूँ। मेंहदीरत्ता अक्सर बहक जाता है। एक उतावली बड़बड़ उसे घेर लेती है।
 
आज यह ग्यारहवाँ दिन है। बिना कोई ठोस वजह बताए एक साथ तीन महीनों का वेतन देकर नैकरी से हमारी छुट्टी कर दी गयी थी। तब से हम खाली हैं। हमारे साथ बीस और लोग थे। बाकी लोग फिलहाल कहाँ क्या कर रहे हैं हमें पता नहीं। मैं मेंहदीरत्ता पहले की तरह ही घर से ऐन साढ़े नौ बजे निकलकर किसी तयशुदा जगह पर मिलते हैं और तब शुरू होती है हमारी अन्तहीन भटकन। एक जगह से दूसरी जगह, दूरी से फिर तीसरी। दोपहर में कहीं बैठकर अपना-अपना लंच बाक्स निकालकर खा लेते हैं और शाम को घर लौटते हुए हम कुछ इस तरह दिखने का प्रयास करते हैं मानो दिन भर के काम ने हमें बुरी तरह थका दिया है। मेरे परिवार के लोग बिहार में रहते हैं। बेहाला के फ्लैट में मैं अकेले ही रहता आया हूँ सो मेरी कोई खास दिक्कत नहीं है। लेकिन मेंहदीरत्ता ने अभी तक अपने घर कुछ भी नहीं बताया। उसे पूरा उम्मीद है कि जब जेब पूरी तरह खाली नहीं हो जाती, कोई नौकरी वह तलाश ही लेगा। अपने जाने वह भरपूर प्रयास भी कर रहा है लेकिन एक नौकरी के रहते ही कोई दूसरी नौकरी खोज लेना जितना आसान है उतना नौकरी के छूट जाने के बाद नहीं रह जाता। मुश्किल यह है कि किसी जान पहिचान वाले से इस बाबत वह कुछ कह भी नहीं सकता। भेद खुल जाने का डर है।

‘अब हम बेकार हैं।’ –उदासियों में लिपटा हुआ यह एक ऐसा सच था जिसे हम इतनी जल्दी, स्वीकार नहीं करना चाहते। एक अच्छे भले नौकरीपेशा होने की जो गर्मी होती है, वह हममें अभी चुकी नहीं थी। यद्यपि उस नौकरी को वापस पाने का कोई सवाल नहीं था लेकिन हमें किसी दूसरी नौकरी की उम्मीद थी। बीच के इन कुछ दिनों के लिए यह नया-नया आवारापन था, कुछ पैसे थे, घरों में झूठ बोलने और निभाने का खट्टा-मीठा स्वाद था, भरपूर जवानी थी और शहर में भरी पड़ी लड़कियाँ थी। कितनी एक मजेदार बात है कि इन लड़कियों को पता नहीं था कि हमारी नौकरियाँ छीन ली गयी हैं। हम बेखटके उन्हें देखकर मुस्करा सकते हैं, उनके लिए सीटियाँ बजा सकते हैं, फिकरे कस सकते हैं और एकाध से नजरें मिल जाने पर आँखें भी मार सकते हैं मेहदीरत्ता की आवाज अच्छी है। वह गाता है। ‘पतली कमर चिकना बदन तिरछी नजर है, मस्ती भरी तेरी बाली उमर है ! मैं चिल्लाता हूँ ‘जुम्मा चुम्मा दे दे ....!’

एक दिन हम बाल बाल बचे। एल्गिन रोड की घटना है। फ्लाई-ओवर बन रहा था। सड़क के किनारे डामर के टिन, बड़े-बड़े रोलर, लोहे के गार्डर, बीम, रॉड, बालू की बोरियाँ आदि जमाकर रखी गयी थीं। वहीं कहीं काली बजरी की एक ढेर पर हम बैठे थे। चारों तरफ धूल और शोर। कुछ देर पहले हमारे बीच पेरिजाद जोराबियन और राहुल बोस के बारे में बाते हुई थीं और फिलहाल हम चुप थे। इतने में ऐन हमारे सामने से एक लड़की गुजरी। बजरी की जिस ढेर पर हम बैठे थे। उसके आगे कीचड़ था। वह लड़की एक हाथ में नाक पर रूमाल रखे और दूसरे से अपनी साड़ी को हल्के सँभाले कीचड़ से बचाती हुई निकल रही थी। उसकी पिण्डिलियाँ गोरी और खूबसूरत थीं। पहिचान की एक लहर–सी दिमाग में झनझनाई। उसे  ठीक से चीन्हने के लिए मैंने निगाहें उठायीं मगर आँखें उसकी देह पर किसी एक जगह स्थिर नहीं रह पायीं। एकदम आखिरी पल जब वह लगभग नाक की सीध में थी, मेरी स्मृति ने गफलत के उथले गड्ढे से छलाँग लगाई। यह तो लिपी है। हाँ वही वही। मैंने नजरें घुमा लेनी चाहीं मगर उन पर मेरा वश न था। उसने मुझे नहीं देखा। वह चली जा रही थी। ‘‘यदि उसने हमें यहाँ इस तरह बेमतलब बैठे देख लिया होता तो ?’’

मैंने मेंहदीरत्ता से पूछा। उसने हँसकर कहा-‘‘कह देते कि हम फ्लाई-ओवर बनाना सीख रहे हैं और यह आटा गूँथने की तरह एक आसान काम है।’’
‘‘सुनो, मजाक की बात नहीं हैं यह।’’ मैंने उसे झिड़का। ‘‘आखिर हमें इस तरह भी तो एक बार सोचकर देख लेना होगा कि यदि उसने हमें देख लिया होता तो ?’’ लिपि मेरी-प्रेमिका थी, जिसके साथ आगामी मार्च की किसी तारीख को मेरी शादी होने वाली थी। बड़ी मुश्किल से घर वालों ने शादी मंजूर की थी। ऐसे में यदि उन्हें किसी तरह पता चल जाए कि मेरी नौकरी नहीं रही तो तय है कि वे उसकी शादी कहीं और कर देंगे। दुनिया में न जाने कितने लड़के बेरोजगार हैं। यह दूसरी बात है। नौकरी नहीं मिलने और नौकरी छिन जाने में वही अन्तर है जो एक कुँआरी लड़की और विधवा औरत में होता है चाहे जो भी वजह रही हो, लोग तो यही सोचेंगे कि लड़का नाकाबिल था तभी उसकी नौकरी छीन ली गयी। लोग कहें न कहें लिपि के घरवाले ऐसा ही कुछ सोचेंगे। उन्हें मुझ पर पहले से ही कम भरोसा है। असलियत तो यह थी कि यही सब सोचकर मैं डर गया था।

मैंने मेंहदीरत्ता के कंधे पर अपना हाथ रख दिया। ठण्डे स्वर में पूछा, ‘‘आखिर कब तक ? आज यह ग्यारहवाँ दिन है—तुम्हें पता है ? मैं पूछता हूँ आखिर कब तक हम यों ही भटकते और अपनों से छुपते फिरेंगे ?’’
इस सवाल का जवाब मेंहदीरत्ता क्या देता ! वह चुप ही रहा। एक फीकी उदासी उसके चेहरे पर तारी हो गयी। इसके बाद हम काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे। शाम होने से पहले घर जाने के लिए उठा तो मेंहदीरत्ता ने मेरी कलाई पकड़ ली, मानो मेरे जाने के बाद वह अकेला पड़ जाएगा। मैंने उससे कहा कि अब घर लौटने का वक्त हो चला है। चलो, आज का दिन बीत गया। लेकिन वह बैठा रहा—निश्चल। उसका मन रखने के लिए मैं फिर बैठ गया। कुछ देर बाद हम उठे और थोड़ी देर इधर-उधर घूमने के बाद चार बोतल बीयर खरीद कर विक्टोरिया के सामने वाले मैदान में आ बैठे। मेंहदीरत्ता ने हँसते हुए कहा, आज वह घर पर कह देगा कि ओवर टाइम करके आया है।
 
सर्दियों में कभी-कभी सुबह सुबह ही आसमान का ढक्कन खुल जाता है और चारों तरफ धूप फैल जाती है। जैसे जाड़े में ठिठुरते कलकत्ते की सुबह-सुबहिया सिरहनों को किन्हीं अदृश्य हाथों ने सूरज के पानी से धो-चमकाकर सूखने के लिए टांग दिया हो। इस धूप को देखकर मुझे लगता है कि दुनिया के दिन अब फिरने वाले हैं। कुछ अच्छा-सा होनेवाला है—जरूर जरूर !


नींद के चुकने के बाद भी मैं देर तक बिस्तरे में पड़ा रहा। फिर उठकर बैठ गया। जंगले से होकर धूप का धारीदार चकत्ता रजाई पर पड़ रहा था। धूप में कई नन्हें-नन्हें गुलाबी रेशे नाच रहे थे। मैंने घड़ी देखी। साढ़े सात बज चुके थे और अब बिस्तर से निकलना होगा। उठकर जंगले के पास आया। नीचे की सड़क के किनारे चाय-नाश्ते की एक टिपरिया होटल थी। ऊपर से ही आवाज लगा दी। चायवाली औरत जब तक अपने लड़के को ऊपर भेजती, मैं जंगले से हटा नहीं। यह लगभग रोज का नियम था।
इतने में फोन घनघनाया। फोन पुराने मॉडल का था। जिसमें उँगली घुमाकर नम्बर डायल किया जाता था। साइकिल की घण्टी से मिलता-जुलता इसका रिंगटोन था। लिपि कई बार टोक चुकी थी कि इसे बदलवाकर कोई नया मॉडल ले आऊँ।
‘‘हलो ?’’

‘‘गुडमार्निंग सर ! उठ गये आप ?’’—दूसरी तरफ लिपि थी।
‘‘क्यों मेरी सुबह खराब कर दी तुमने ?’’
‘‘अब तो तुम्हारी हर सुबह खराब होगी मिस्टर। शादी जो...’’
‘‘चलो कम से कम रातें तो गुलजार होंगी !’’
‘‘खैर सुनो, आज का क्या प्रोग्राम है तुम्हारा ? घर आ जाओ, इलिश माछ बनाने की सोच रही हूँ।’’
‘‘हाँ-हाँ, और कोई काम-धाम नहीं है जैसे ! इलिश खाऊँगा तो दफ्तर का क्या होगा ?’’—मैंने बात बनायी। खुशी हुई कि मैं आसानी से झूठ बोल गया।

‘‘वाह रे, आज भी तुम्हारा दफ्तर खुला है ! आज सण्डे है जो ?’’ -लगा उसने मुझे कसकर तमाचा मार दिया हो। जब से नौकरी छूटी है क्या सण्डे और क्या मण्डे—सब दिन होत एक समाना ! इस बाबत तो कभी ध्यान ही नहीं दिया।
क्या मैं पिछले सण्डे को भी दफ्तर गया था ?
‘‘क्या हुआ ? यही तुममें खराबी है। बोलते-बोलते क्या सोचने लगे ?’’
‘‘आ जाओ तुम्हीं यहाँ। यहीं जो बनाना है बनाओ।’’
‘‘मैं ही आऊँ ? ठीक है, सी यू देन।’’
‘‘ऐट ?’’
‘‘अं...अप्रॉक्स नाइन थर्टी ?’’
‘‘ओके। बाई !’’

आज से तीन साल पहले मैं एक कूरियर कम्पनी में था, एक दुबली पतली लड़की नारू दा के साथ अक्सर देखी जाती। दूर के रिश्ते में वह उनकी बहन लगती थी, हालाँकि शुरु शुरू में मैंने उसे नारु दा की प्रेमिका समझा था। नारू दा ने बताया कि लड़की के घरवाले सिलीगुड़ी में रहते हैं। उसकी यहाँ नयी-नयी नौकरी लगी है टेलीफोन विभाग में। लड़की का स्वास्थ्य हरदम खराब रहता था। कभी कुछ तो कभी कुछ। सर्दियों में वह ठिठुरती और कभी नाक सिनकती रहती थी। और तो विशेष कुछ याद नहीं, लेकिन यह कि वह हमेशा सस्ती कलमों का इस्तेमाल करती जिसकी वजह से उसके दाएँ हाथ की तर्जनी और ऊँगूठे में नीली स्याही पुती होती।

 सड़कों पर चलते हुए वह कोई न कोई किताब अपने हाथों में दबाए रखती और जब जरा सी फुर्सत मिलती दो चार पन्ने पढ़ लेती। इस तरह मैं कभी नहीं पढ़ सकता। पढ़ने के लिए मुझे घर का सुरक्षित कोना और इफरात में समय चाहिए होता है। मुझे वह लड़की कुछ उन आदमियों की तरह लगती जो जरा सी मुहलत पाते ही झपकी ले लेते हैं फिर फौरन नींद से पल्ला झाड़कर चमककर खड़े हो जाते हैं। मैं हमेशा आश्चर्य करता कि फुटकरों में भी नींद बटोरी जा सकती है भला !
‘‘हलो...हलो मेंहदीरत्ता ?’’




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