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संस्कृत साहित्य का समालोचनात्मक इतिहास

रामविलास चौधरी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :269
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4524
आईएसबीएन :81-208-2878-x

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संस्कृत साहित्य का इतिहास...

Sanskrit Sahitya Ka Samalochnatmak Itihas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशीर्वचन

जब मैं कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय का कुलपति था तभी से मैं डॉ. रामविलास चौधरी की प्रभविष्णुतापूर्ण विद्वत्ता एवं प्रतिभा से उत्तरोत्तर अधिकाधिक प्रभावित होता रहा हूँ।
ये अपने सहज विद्या व्यवसाय, अध्यापन कौशल, वाग्मिता तथा आत्मगुणों से संस्कृत परम्परा की श्रीवृद्धि करते रहे हैं। इनके वैदुष्यपूर्ण प्रकाशन भी इनकी मौलिक उद्भावनाओं एवं शास्त्रीय ज्ञान-विज्ञान की नवनवोन्मेषशालिनी स्थापनाओं से संस्कृत परम्परा के चतुर्दिक् प्रचार-प्रसार में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।
उसी श्रृंखला में प्रस्तुत ‘संस्कृत साहित्य का समालोचनात्मक इतिहास’ भी आता है। इसके प्रत्येक पृष्ठ में लेखक का सर्वांग्रीण वैदुष्य मूर्त्त रूप में परिलक्षित होता है।
इस ग्रन्थरत्न के प्रकाशन के लिए लेखक और प्रकाशक दोनों को शत-शत हार्दिक बधाई।

रामकरण शर्मा
पूर्व कुलपति कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा
एवं
 सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी

प्ररोचना


महादेवो देव्या विकचनयनं स्मेरवदनं
समालोक्यापृच्छत् किमिति घटितं चित्रजनितम्।
प्रगे दृष्टं स्वप्ने श्रयति वृष्भो हर्म्ययुगलं
तदालापप्रीतों हरतु हर नोऽज्ञानतिमिरम्।।


संस्कृत साहित्य की महनीयता और विशालता विश्व-विश्रुत है। इसे दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। वैदिक साहित्य का प्रथम ग्रन्थ ऋग्वेद न केवल भारतीय वाङ्मय में, अपितु संसार के प्राचीन साहित्य में भी अधिमानित है। वैदिक साहित्य का विस्तृत विवेचन गत वर्ष प्रकाशित ‘वैदिक साहित्य का समालोचनात्मक इतिहास’ नामक पुस्तक में किया जा चुका है।

अत: प्रकृत में लौकिक संस्कृत साहित्य के विवेचन का सत्प्रयास है। वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य का सेतु पुराणसाहित्य है। उस पर भी इसी भाग में प्रकाश डाला गया है।
संस्कृत साहित्य के इतिहास लेखन के बारे में पाश्चात्य चिन्तकों का मत है कि प्राचीन संस्कृत मनीषियों की रुचि ही इस विषय में नहीं थी। इस मत के पूर्व पक्ष पर चतुर्थ प्रलम्ब में बहुत विस्तार से किया गया है। यहाँ केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इतिहास की चर्चा ऋग्वेद में भी हुई है।1 उपनिषद् में इतिहास और पुराण को पञ्चम वेद कहा गया है।2 निरुक्ताकार यास्क ने अपने निरुक्त में ब्राह्मण ग्रन्थ तथा प्राचीन आचार्यों की कथाओं को ‘इतिहास मातक्षते’ ऐसा कहकर उद्धृत किया है। वेद में व्याख्याकारों के विभिन्न सम्प्रदायों में ऐतिहासिकों का एक अलग ही सम्प्रदाय था। निरुक्त में स्थान स्थान पर पठित है- ‘इति ऐतिहासिका:।’ इतिहास का शब्दार्थ इस रूप में किया गया है-इति ह आस-इस तरह से निश्चय ही था।

प्राचीन भारतीय सभ्यता, संस्कृति, समाज, सज्य, आदर्श, व्यवहार, अध्यात्म, धर्म नीति, आदि के समुज्जवल प्रकाशस्तम्भ होने के कारण ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ को इतिहास माना जाता है। परम्परानुसार ‘रामायण’ को आदिकाव्य माना जाता है, किन्तु वैदिक धर्म का व्यवहारिक स्वरूप इसमें दृष्टिगत होने से, इसे भी इतिहास मानना संगत है राजशेखर का मत है कि इतिहास दो प्रकार का होता है-परिक्रिया और पुराकल्प। परिक्रिया का नायक एक ही व्यक्ति होता है, जैसे-
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1.    तत्र ब्रह्मे तिहासमिश्रमृङमिश्रं गाथामिश्रं भवति-निरुक्त 4/6
2.    ऋग्वेद भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमथ इतिहासपुराणं वेदानां वेदम्-छान्दोग्य 7/1

‘रामायण’। पुराकल्प में अनेक नायक होते हैं; जैसे ‘महाभारत’। इस प्रकार राजेश्वर के अनुसार ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दोनों ही इतिहास ग्रन्थ हैं। उनका कथन है-

‘‘परिक्रिया पुराकल्प: इतिहास-गतिर्द्विधा
स्यादेकनायका पूर्वा द्वितीया बहुनायका।’’


यह भी यथार्थ है कि आधुनिक परिवेश में इतिहास के लिए जो मापदण्ड हैं, उन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ खरे नहीं उतरते हैं। वास्तव में, संस्कृति साहित्य के इतिहास का लेखन पाश्चात्य चिन्तकों ने आरम्भ किया, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उसी दिशा में आगे चलकर भारतीय मनीषियों ने भी संस्कृति साहित्य के इतिहास की रचना विस्तार से की। इस संबंध में आचार्य बलदेव उपाध्याय का अवदान सर्वाधिक स्तुत्य है। इस प्रसंग में हिन्दी में रचित एवं उपलब्ध अन्य उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं-

स्व. पं. चन्द्रशेखर पाण्डेय द्वारा रचित-साहित्य की रूप रेखा, डॉ. सूर्यकान्त की पुस्तक है- ‘संस्कृत वाङ्मय का विवेचनात्मक इतिहास’, डॉ. वचनदेव कुमार प्रणीत है-‘संस्कृत साहित्येतिहास:’ तथा आचार्य रामचन्द्र मिश्र निमित्त ‘संस्कृतसाहित्येतिहास:’। डॉ. भोलाशंकर व्यास रचित ‘संस्कृत कवि-दर्शन’ भी इस दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
इन सभी ग्रन्थ का अवलोकन कर उनसे यथोचित साहय्य लेते हुए प्रकृत ग्रन्थ का निर्माण किया गया है। इनमें से अनेक विशेषताओं के स्वयं आधान का भरपूर प्रयास किया गया है, जिनका निर्णय सुधी पाठ स्वयं करें, तो बेहतर होगा। पूर्वरचित ग्रन्थ से प्राप्त सहायता का उल्लेख आवश्यकतानुसार इस पुस्तक में जहाँ-तहाँ किया गया है। उनके सारस्वत अवदान का अधमर्ण मैं निश्रित रूप से हूँ।

प्रस्तुत पुस्तक एकादश प्रलम्बों में रचित है। उनमें पुराण, उपजीव्यकाव्य (रामायण एवं महाभारत), महाकाव्य, ऐतिहासिक काव्य, नाट्य साहित्य, गद्य साहित्य, गीतिकाव्य, स्त्रोतसाहित्य, कथा साहित्य, चम्पूकाव्य तथा अलंकारशास्त्र का विस्तृत विवेचन है। संक्षिप्त परिचय के जिज्ञासुओं के लिए प्रत्येक प्रलम्ब के अन्त में उसका सार थोड़े में दे दिया गया है। आशा है, यह पुस्तक प्रज्ञों, जिज्ञासुओं तथा विद्याधन छात्रों के लिए अधिक उपयोगी होगी।

विजयादशमी 2054 वि.

विदुषां वशंवद: रामविलास शर्मा

प्रथम प्रलम्ब
पुराण


इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्।
विभेत्यल्पश्रुतोद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति।।

संस्कृत वाङ्मय को दो भागों में विभक्त किया जाता है-वैदिक साहित्य और लौकिक साहित्य। इन दोनों को जोड़ने की कड़ी है-पुराण साहित्य। जब वेदों के अर्थ सामान्य जन के लिए दुर्बोध होने लगे, तब वेदों के सुलभ अर्थ-ज्ञान के लिए वेदांगों एवं पुराणों की रचना की जाने लगी।

भारतीय साहित्य में वेदों के समान ही पुराणों को भी प्राचीन बताया गया है। अथर्वसंहिता के अनुसार ऋक्, साम, छन्द, पुराण, और यजु: सब एक साथ आविर्भूत हुए।1 ‘शतपथ’ ब्राह्मण और ‘बृहदारण्यक’ उपनिषद में कहा गया है कि जैसे गीली लकड़ी का आग से धुआँ निकलता है, इसी प्रकार इस महाभूत से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वांगरस, इतिहास, पुराण, विद्या, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, अनुव्याख्यान और व्याख्यान नि:श्वास रूप में उद्धत हुए।2
ब्रह्माण्डपुराण में यहाँ तक कहा गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा ने पुराणों का स्मरण किया। इसकी घोषणा है कि सांगोपांग वेद का अध्ययन करने पर भी पुराणों के ज्ञान से रहित है, वह तत्त्वज्ञ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वेद का वास्तविक स्वरूप पुराणों में ही वर्णित है।3

ब्रह्माण्डपुराण के उपर्युक्त तथ्य का उल्लेख करते हुए म.प. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी ‘पुराणों की अनादिता’ इस निबन्ध शीर्षक में लिखते हैं कि कलियुग के आरम्भ में मनुष्यों की स्मृति और विचार-बुद्धि की दुर्बलता को देखकर भगवान् वेद व्यास ने जहाँ वेद को चार संहिताओं में विभाजित किया, वहीं पुराणों को भी संक्षिप्त कर अठारह विधाओं में बांट दिया गया।4

इतिहास-पुराण में अन्तर


पुराण ग्रन्थों में इतिवृत्तों की अधिकता के कारण उनको इतिहास ही समझा जाता है, किन्तु ये दोनों स्वतन्त्र विषय के रूप में कहीं-कहीं वर्णित हैं। बृहदाण्यक उपनिषद् के शंकर भाष्य
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1.    ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह। अथर्व. 11/7/24
2.    स यथाऽऽर्द्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्र्वरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेद सामवेदोअथर्वांगिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः...सर्वाणि चभूतानि अस्यैवैतानि  सर्वाणि नि:श्वसितानिष बृहदा 4/5/11
3.    ब्रह्माण्ड पुराण 1/53;1/58
4.    साप्ताहिक हिन्दुस्तान 22 जुलाई 1956 ई.

में लिखा है कि वेदों में वर्णित देवासुरसंग्राम तथा उर्वशी-पुरुरवा का संवाद आदि इतिहास हैं। ‘उर्वशी ह्यप्सरा:’ इत्यादि ब्राह्मण ही इतिहास है। ‘‘आरम्भ में यह असत् ही था-’’ इत्यादि वाक्य पुराण है।1 सायण भी कहते है कि-जगत् की प्रथमावस्था से लेकर सृष्टि प्रक्रिया का विकास उपस्थित करने वाले अंश पुराण हैं।2

पुराणों के लक्षण


भारतीय वाङ्मय में पुराणों का गौरवपूर्ण स्थान है। ‘पुराण’ शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से दी गई है। निरुक्तकार यास्क कहते हैं-

पुराणं कस्मात् ? पुरा नवं भवति।

अर्थात् अतीत काल में यह नया होता है।
वायुपुराण में कहा है-

यस्मात् पुरा हि अनति इदं पुराणम्।

‘पुराण’ शब्द की एक व्युत्पत्ति ‘पुरणात् पुराणम्’ भी है। इसका अभिप्राय है कि वेदार्थ के पूरण करने के कारण ही इन ग्रन्थों को ‘पुराण’ कहा गया। इसी व्युत्पत्ति के आधार पर जीव गोस्वामी पुराण को वेद के समान अपौरुषेय बताते हैं।
पुराणों का लक्षण इस प्रकार किया गया है-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितञ्चैव पुराणं पञ्च लक्षणम्।

अर्थात् पुराणों में पाँच बातों का वर्णन होना चाहिए- सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का संहार, सृष्टि की आदिवंशावली, मन्वतर अर्थात् विविध मनुओं की कालावधि तथा वंशानुचरित (सूर्य तथा चन्द्र वंशों का इतिहास)
इस समय उपलब्ध पुराणों में इन विषयों के अतिरिक्त बहुत से अन्याय विषय-स्तुति, उपवास, उत्सव, पर्व एवं तीर्थ आदि का अत्यन्त विस्तृत वर्णन पाया जाता है। केवल ‘विष्णु पुराण’ में ही यह सभी लक्षण दीख पड़ते है। इससे यह समझा जाता है कि प्राचीन काल के सभी पुराणों में उपर्युक्त दृष्टिगत होते थे, किन्तु कालान्तर में ऐसे विषय भी उनमें जोड़ दिए गए जिनका उनसे कोई संबंध नहीं है।
भारतीय परम्परा में पुराणों की संख्या निर्विवाद रूप से अठारह है।3
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1.    ‘इतिहास इत्युर्वशीपुरुरवसो: संवादादि:-उर्वशी ह्यप्सरा इत्यादि ब्राह्यणमेव। पुराणम्-असद्वा इदमग्र आसीत्।’
2.    ‘‘जगत: प्रागवस्थामनुक्रम्य सर्गप्रतिपादकं वाक्यजातं पुराणम्’’।– ऐतरेय ब्राह्मण की अनुक्रमणिका
3.    मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम्।
अनापल्लिंग-कूस्कानि पुराणानि प्रचक्षते।।

 

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