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चन्द्रमुखी

विश्वास पाटील

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :476
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 439
आईएसबीएन :8126313943

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आधुनिक मराठी साहित्य के यशस्वी उपन्यासकार और नाटककार श्री विश्वास पाटील जी का एक बहुचर्चित सामाजिक उपन्यास

Chandramukhi - A Hindi translation of Marathi Book by Vishwas Patil - चंद्रमुखी - विश्वास पाटिल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्वास पाटील आधुनिक मराठी के अग्रणी लेखकों में से एक हैं। अपने सामाजिक तथा ऐतिहासिक उपन्यासों के कारण न सिर्फ मराठी साहित्य जगत् में विख्यात हैं बल्कि हिन्दी, गुजराती और कन्नड़ के साहित्य प्रेमियों के बीच भी लोकप्रिय हैं।
विश्लेषणपरक इतिहासबोध और संवेदनात्मक सामाजिक सरोकारों के कारण उनकी कृतियाँ एक विशेष कालखण्ड के आरोह-अवरोहों से गुजरती हुई समय और समाज की वस्तु और जीवन-सत्य से हमें रूबरू कराती हैं ।

प्रस्तुत उपन्यास 'चन्द्रमुखी' में लोकमंच की एक नृत्यांगना चन्द्रमुखी की जीवन-यात्रा के संघर्षों और द्वन्द्वों का चित्रण है। कथाकार ने इसके माध्यम से लोकमंच से जुड़े कलाकारों के जीवन और जगत् को इस तरह प्रस्तुत किया है कि सहृदय पाठक उनके सुख-दुःख से अपने को तटस्थ नहीं रख पाता। आचरण से भ्रष्ट एवं पाखण्डी लोगों से कदम-कदम पर उलझते हुए भी चन्द्रमुखी अपने चरित्र पर आँच नहीं आने देती और अपने 'स्त्रीत्व' की गरिमा बनाये रखती है। विश्वास पाटील की औपन्यासिक कला की परख भी यहीं हुई है ।

विश्वास पाटील के दो बहुचर्चित उपन्यास 'महानायक' और 'पानीपत' के बाद 'चन्द्रमुखी' को प्रकाशित करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ प्रसन्नता का अनुभव करता है। आशा है, हिन्दी के सहृदय पाठकों द्वारा यह कृति भी भरपूर सराही जायेगी।

चन्द्रमुखी


दिल्ली की एक धुन्धमय, किंचित् ठण्डी परन्तु आनन्दमय सुबह। वातावरण वाहनों के कोलाहल से सर्वथा मुक्त था। हवा के हलके झोंकों से वृक्षों की शाखाएँ मन्द-मन्द झूम रही थीं। पक्षी अविराम कलरव कर रहे थे।
बैरिस्टर दौलतराव देशमाने एक ओजस्वी सांसद, कद्दावर नेता व प्रभावशाली राजनीतिज्ञ के रूप में देश भर के विख्यात थे। आज वे अपने राजनीतिक जीवन के एक अत्यन्त नाजुक व महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़े थे।

सुबह के घने कोहरे में उनकी कार जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, उनकी पानीदार नीली आँखों की निद्रा भाव जनित लालिमा गहरी होती जा रही थी। उनकी महत्त्वाकाँक्षी प्रवृत्ति व जैसे पंख लगाकर उड़ती उद्दाम लालसा ने पिछली रात एक पल के लिए भी उनकी आँखों को मूँदने नहीं दिया था। वैसे तो अस्सी की दहलीज पर पहुँच चुके उनके श्वसुर दादासाहब स्वयं भी राजनीतिक क्षेत्र की एक जानी-मानी हस्ती थे और कम महत्वाकांक्षी नहीं थे परन्तु दौलतराव इस मामले में उनसे कई कदम आगे थे। उनका एकमेव लक्ष्य था देश के उच्चतम पद पर आसीम होना, देश का प्रधानमन्त्री बनना। उसके सीने में धधकती इस महत्वकांक्षा ने उनके दिलोदिमाग को आविष्ट कर रखा था। निकट भविष्य में ही उन्हें केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में उद्योगमन्त्री का पद प्राप्त होने की प्रबल सम्भावना नजर आ रही थी और यह मन्त्रिपद उनके राजनीतिक उत्कर्ष का एक महत्त्वपूर्ण सोपान होने वाला था।

भारतीय राजनीति के तथाकथित युवा तुर्कों में दौलतराव ‘की गणना एक अत्यन्त सशक्त सक्षम व उत्साही नेता के रुप में की जाती थी। वे महाराष्ट्र की राजनीति में वर्चस्व स्थापित कर चुके सत्ताधारी मराठा के एक सशक्त स्तम्भ थे। राष्ट्र की आर्थिक राजधानी मानी जानेवाली मुम्बई महानगरी में वे पहले ही अपना दबदबा कायम कर चुके थे।
दौलतराव का व्यक्तित्व अत्यन्त चिन्ताकर्षक था। छः फुट ऊँचा कद, सुगठित देहयष्टि, बारीक कटी हुई झब्बेदार मूँछें, चौड़ा भव्य कपाल। वैसे तो उनकी आयु पैंतालिस के आसपास थी परन्तु अपने आकर्षक व्यक्तित्व जिन्दादिली व सुदृढ़ गठन के कारण वे पैंतीस के आसपास ही प्रतीत होते थे। मुखमण्डल पर छलकते उत्साह, मोहक मुस्कान व नीली आँखों की चमक के कारण सौ-पचास के जनसमूह में भी वे सहज ही सबकी दृष्टि आकृष्ट कर लेते थे।

दौलतराव एक प्रथम श्रेणी के युवा नेता व मँजे हुए सांसद के रूप में जाने जाते थे। उनके भोलेभाले, निष्ठावान अनुयायी तो उन्हें अपना भगवान ही मानते थे। मराठी समाचारों के कई सम्पादक सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत प्रत्येक संस्था तथा व्यक्ति के छिद्रान्वेषण में कोई कोर-कसर न छोड़ने के लिए प्रसिद्ध थे। जिन्हें किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था में एक भी सद्गुण नजर नहीं आता था, वे ही परम छिद्रान्वेषी महानुभाव दौलतराव पर निरन्तर स्तुतिसुमनों की वर्षा करते रहते थे। उनके मतानुसार महाराष्ट्र की काली मिट्टी ने लोकमान्य तिलक के उपरान्त दौलत-जैसा धुरन्धर व प्रतापी नेता उत्पन्न ही नहीं किया था।

कुछ राजनीति-विशारदों की दृष्टि में दौलतराव भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती सुचेता पण्डित की नाक के बाल थे। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि श्रीमती पण्डित के पश्चात् यह युवा नेता ही उनका उत्तराधिकारी होगा। पिछले कुछ वर्षों की अवधि में सागरीय ज्वार की लहरों की भाँति उफनते हुए अनेक स्वर्णिम अवसर उनकी ओर आये और उन्होंने उनमें से एक को भी अपने सक्षम हाथों से फिसलने नहीं दिया। संक्षिप्त-सी ही अवधि में देखते-देखते सत्ता के अनेक महत्त्वपूर्ण सोपानों को लाँघते हुए वे राष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर एक कुशाग्र व अनुभवी नेता के रूप में किसी जाज्वल्यमान नक्षत्र की भाँति जगमगाने लगे थे।

इस समय तक दौलतराव वस्तुतः शक्ति, युक्ति व बुद्धिकौशल का प्रतीक बन चुके थे। अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद भी उनका विद्यार्जन का क्रम रुका नहीं, उन्होंने कैम्ब्रिज जाकर बैरिस्टर की उपाधि भी प्राप्त की। मराठों के इतिहास का उन्होंने अत्यन्त सूक्ष्म अध्ययन किया था। मराठी साहित्य व संस्कृति में तो उनकी गहरी पैठ थी ही, मराठी लोगों के मनोविज्ञान व उनके स्वाभाविक गुण-दोषों की उनकी समझ भी अद्भुत थी।

इतिहास-चक्र निरन्तर गतिमान रहता है। कितने ही राजे-महाराजे आये और चले गये परन्तु उनके आने-जाने की जनसामान्य के जीवन में कदाचित् ही कभी कोई अन्तर पड़ा। इस वैभवसम्पन्न देश ने राम और कृष्ण, अशोक और अकबर का युग भी देखा। वे आये और चले गये। किसी के भी चले जाने से यह जग सूना नहीं होता। जीवन चक्र अबाध गति से चलता रहता है। अभी तीन ही दिन पूर्व उत्तरप्रदेश में स्थिति प्रतापगढ़ जिले के राजकीय विश्रामगृह में एक दुखद घटना घटी। केन्द्रीय उद्योगमन्त्री सुखराम पंजाबी को अचानक जबर्दस्त दिल का दौरा पड़ा और विश्रामगृह में उनका निधन हो गया। उनका शव लेकर विमान अभी दिल्ली पहुँचा भी नहीं था कि सत्ता के गलियारों में ‘अगला उद्योगमन्त्री कौन ?’ को लेकर अफवाहों व अनुमानों का बाजार गरम हो गया। देश के प्रधानमन्त्री के पद पर विराजमान लौहमहिला श्रीमती सुचेता पण्डित देश के उद्योगों व विदेशी व्यापार में तीव्र वृद्धि विकास के लिए संकल्पबद्ध थीं। सुखराम पंजाबी उद्योग व वाणिज्य विभाग को बड़ी दक्षता से सभाँले हुए थे। यही कारण था कि उनके आकस्मिक निधन से उत्पन्न रिक्तता ने सभी को भौचक्का कर दिया था। ‘कौन इतना दक्ष व समर्थ है जो इन अति महत्त्वपूर्ण विभागों को उतनी ही कुशलता से सँभाल सकता है’ यह प्रश्न सभी को सम्भ्रमित किये हुए था।

दौलतराव ने दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले एक सायं-दैनिक का ताजा अंक उठाया और उनकी दृष्टि मुखपृष्ठ के प्रमुख समाचार पर अटक गयी। ‘बै. दौलतराव देशमाने, भारत के नये उद्योग व वाणिज्य मंत्री।’ समाचार के साथ ही छपी अपनी प्रसन्नचित्त, किंचित् संकोचशील, उत्साह से छलकती छवि उनके अन्तर्मन को गुदगुदा गयी। उस समाचार व चित्र को उन्होंने एक बार पुनः आँखें भरकर देखा।
कार में देशभक्त दादासाहब सासवडकर दौलतराव की बगल में ही बैठे हुए थे। किंचित् पसोपेश में पड़े दौलतराव उनकी ओर मुड़कर मन्द स्वर में बोले,  ‘‘पापा, यह सब कुछ कितना असम्भव व अनिश्चित-सा प्रतीत होता है ?’’
‘‘दौलत बेटे, जब साक्षात् भगवान और मैडम सुचेता  पण्डित तुम्हारी पीठ पर हैं तो तुम्हें भौंकनेवाले सामान्य कुत्तों की परवाह करने की क्या जरूरत है ?’’

पिछली रात सचमुच झंझावाती और अत्यन्त घटनापूर्ण रही थी। दौलतराव के परिवार के किसी भी सदस्य की आँखें झँपी तक नहीं थीं। उनका ड्राइवर भी पलक नहीं झपका पाया था। सबको केवल इतनी जानकारी थी कि प्रधानमन्त्री श्रीमती पण्डित ने दादा साहब को सुबह मुलाकात के लिए बुलाया है। अब यदि भाग्य ने साथ दे दिया तो चाँदी-ही-चाँदी कटेगी। एक बार एक महत्त्वपूर्ण मन्त्रालय हाथ में आ गया तो वे सम्पदा व वैभव के शिखर पर होंगे। इससे दौलत का ही कल्याण नहीं होगा, अपितु आगे की सात पीढ़ियों तक उनका परिवार यश व ऐश्वर्य के आभामण्डल में जगमग करता रहेगा।
कुछ ही पलों में दौलतराव की कार प्रधानमन्त्री निवास के निकट आ पहुँची। दौलतराव ने अपने ड्राइवर को कार फाटक से थोड़ा पहले रोकने का निर्देश पहले ही दे रखा था। दौलतराव ने एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए जल्दी से अपनी कलाई पर बँधी घड़ी की ओर देखा और किंचित् बेचैन-स्वर में बोले, ‘‘पापा मुझे थोड़ी घबराहट सी हो रही है। पिछले वर्ष केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में फेरबदल करते समय मैडम ने मुझे राज्यमन्त्री का पद देने की पेशकश की थी परन्तु मैंने उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था। सम्भव है, मेरे इनकार से उन्हें ठेस पहुँची हो। कहीं ऐसा न हो कि वे मुझे धृष्ट व घमण्डी समझने लगी हों।’’

‘‘दौलत बेटे, भूल जा उन सारी बातों को। निरर्थक कल्पनाओं में मत उलझ, ’’ दादासाहब ने समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम अकारण अपने सद्गुणों की अनदेखी मत करो। संसद में जिस व्यग्रता से मैडम तुम्हारे भाषण की प्रतीक्षा करती है, क्या तुमने उनमें वैसी व्यग्रता किसी अन्य के लिए देखी है ? अब तुम इतने तुच्छ या महत्त्वहीन तो हो नहीं कि किसी मामूली-से पद का प्रस्ताव पाकर गदगद हो उठते हो।’’
‘‘पापा, मैडम को तो मैं माँ-सदृश मानकर पूजता रहा हूँ।’’
‘‘फिर चिन्ता करने की क्या जरूरत है। माँ अपने बेटे के साथ कभी विश्वास घात नहीं करती,’’ दादासाहब उल्लसित स्वर में बोले।

उन दोनों को ही सफलता का पूर्ण विश्वास था, फिर भी मन के किसी कोने में भय व शंका ने आशन जमा रखा था। वे अपने विरोधियों तथा राजनैतिक शत्रुओं की पैंतरेबाजी से भलीभाँति परिचित थे। दौलतराव का मार्ग अवरुद्ध करने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते थे। देश भर में अपने कुशल नेतृत्व की प्रभआवशाली छवि उन्होंने घोर परिश्रम व अपने व्यक्तिगत गुणों के बल पर स्थापित की थी, परन्तु विडम्बना ही थी कि अपने गृहराज्य महाराष्ट्र में ही अनेक लोग उनके शत्रु बन गये थे, और महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री प्रताप सावन्त तो उनके जानी  दुश्मन ही बने हुए थे। कारण स्पष्ट था। दौलतराव के उत्कर्ष का सीधा अर्थ था प्रतापराव का अधोगमन। दूसरी ओर चेन्नई के मैक फ़र्नैण्डिज़ भी केन्द्रीय उद्योगमन्त्री के पद पर अपना दावा जता रहे थे और इस पद को हथियाने की मोर्चेबन्दी में जोरशोर से जुटे थे। फ़र्नैण्डिज़ की गुप्त व तेज गतिविधि पर दौलतराव बारीक नजर रखे हुए थे, और कल रात यह जानकारी पाकर तो उनके होश ही उड़ गये थे कि महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री प्रतापराव सावन्त फ़र्नैण्डिज़ को विजय दिलाने के लिए मुम्बई से मोटी-मोटी थैलियाँ दिल्ली भिजवा रहे हैं सत्ताचक्र पल-प्रतिपल द्रुतगति से घूमता जा रहा था।

दादासाहब सही अर्थों में दौलतराव के गुरु, परामर्शदाता व मार्गदर्शक थे। दादासाहब अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि, महत्त्वाकाँक्षी व व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। एक जाने-माने स्वतंत्रता-सेनानी व साखर-क्षत्रप होने के साथ ही वे राज्य की राजनीति में भी अपना दबदबा जमाये हुए थे। उनके बड़े दामाद नानासाहब भी राज्य के मन्त्रिमण्डल में राज्यमन्त्री के पद पर आसीन थे। दादासाहब ने अनेक वर्षों से अपने अन्तर में अपने दो में से एक दामाद को भारत के प्रधानमन्त्री के पद पर विराजमान होते देखने का महत्त्वाकांक्षी स्वप्न सँजो रखा था। परन्तु नियति का विधान मनुष्य की इच्छा के अनुरूप थोड़े ही चलता है ! पचहत्तर वर्ष की आयु पूरी कर चुके थे, वे, पर लक्ष्य अभी भी उनकी पहुँच से दूर था। अपने गिरते स्वास्थ्य व वार्धक्य को देखते हुए उन्होंने मन में एक संकल्प कर रखा था कि अब हाथ आये किसी अवसर को किसी भी परिस्थिति में गँवाना नहीं है। परिस्थितियों को देखते हुए क्लात-श्रान्त दादासाहब प्रधानमन्त्री-पद की आस छोड़कर महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री-पद पर ही समझौता करने के लिए स्वयं को तैयार कर चुके थे।

दोनों ने अपनी-अपनी घड़ी देखी, कहीं शुभ घड़ी हाथ से निकल न जाए। विगत कई दिनों से दौलतराव के हृदय में गहरे तक धँसा हुआ एक काँटा लगातार टीसता रहता था। कैसा दुर्भाग्य था यह मराठी जनों का ? अपने सारे श्रेष्ठ गुणों व श्लाघनीय कर्तृत्व के बावजूद दिल्ली का सिंहासन शूरवीर मराठों की पहुँच से परे ही बना रहा । उनकी सफलता का मार्ग अभी भी पहले जितना ही संकटपूर्ण व कण्टकाकीर्ण बना हुआ था।
मराठी कवियों व चारणों ने कितनी ही बार मराठा वीरों को ललकारा थाः ‘‘उठो वीरों ! हाँको अपने घोड़ों को एकत्र करके इस पुण्यभूमि से, करो अभिमान यमुना की ओर, जिसके तट पर बसी है दिल्ली नाम की नगरी। भीमा नदी के तट से कूच करनेवाले क्लान्त अश्वों को प्यास बुझाने दो यमुनाजल से और सार्थक करो गर्जना महाराष्ट्र की।’
भीमथड़ी तट के घोड़े पियें यमुना जल,
यह सपना

जय-जय महाराष्ट्र अपना।
ऐसे गीतों को गाते-गाते कितने ही मराठी कवियों के गले सूख गये परन्तु भीमातट के घोड़े घूम-फिरकर यहीं चक्कर काटते, आपस में ही उलझते रह गये और दिल्ली का सपना सपना ही रह गया।
मराठियों के साथ भाग्य की यह विडम्बना दौलतराव के हृदय की स्थायी टीस बन गयी थी। अतीत के अनुभवों ने दौलतराव को सयाना व समझदार बना दिया था। विजय पथ के एकदम अन्तिम चरण में कोई न कोई काली बिल्ली रास्ता काट जाती थी और दैव मराठों के प्रतिकूल हो जाता था। नियति-नटी के इस खेल के कारण ही दौलतराव के अनुयायी, सार्थक और आत्मीय जन प्रायः चिन्ताग्रस्त रहा करते थे। दौलतराव भी सदैव सतर्क व चौकन्ने रहते थे।
जिस समय सुखराम पंजाबी के आकस्मिक निधन का समाचार प्रसारित हुआ, उस समय सौभाग्यवश दादासाहब मुम्बई में ही थे। उन्होंने तत्काल सायंकाल के विमान से उड़ान भरी। राजनीति-जगत् में एक का अवसान दूसरे के उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। तो एक की मृत्यु दूसरे के लिए संजीवनी सिद्ध होती है। पंजाबी का आकस्मिक परलोकगमन निस्सन्देह वृद्ध दादासाहब व उनके लाड़ले दामाद की खिन्नता पर सुख की एक फुहार छोड़ गया था।

इधर कुछ समय से सार्वजनिक जीवन के साथ ही पारिवारिक जीवन में आये झंझावातों ने दादासाहब को झिंझोड़ डाला था। सांसारिक संघर्ष व पारिवारिक चिन्ता कभी-कभी किसी को कितना विक्षिप्त कर देती है ! अपनी लाड़ली बेटी डॉली उर्फ़ दमयन्ती के कैंसर से ग्रस्त होने की खबर ने उन्हें अन्दर-बाहर से तोड़कर रख दिया था। इस जानकारी के बाद चलनेवाली उसकी डॉक्टरी जाँच व परीक्षणों का लम्बा सिलसिला कम यातनादायक नहीं था। अपनी प्रिय पत्नी के जीवन की अनिश्चितता से दौलतराव भी अन्दर से टूट-से गये थे। दुःखों- असफलताओं की इस पृष्ठभूमि पर यदि कोई राजकीय वरदान प्राप्त हो  जाता तो निश्चित् ही डॉली का वेदनाग्रस्त अन्धकारमय जीवन एक सुनहरे प्रकाश से आलोकित हो उठता।
 मैडम से मुलाकात के लिए निर्धारित समय में अभी कुछ पल शेष थे। समय काटने के लिए दौलतराव ने ड्राइवर को आसपास ही मन्द गति से कार चलाते रहने को कहा। उनकी कार जब निरुद्देश्य ही राष्ट्रपति भवन इंडिया गेट, इत्यादि का चक्कर लगा रही थी, दौलतराव का मन एक अलग ही दिवास्वप्न का तानाबाना बुनने में मग्न था।

15 अगस्त-स्वतन्त्रता दिवस तथा 26 जनवरी-गणतन्त्र दिवस, इन दोनों राष्ट्रीय पर्वों के समारोहों के दृश्य उलट-पलटकर उनके स्वप्नाविष्ट मानस-चक्षुओं के सामने से गुजरने लगे-सामने दिख रही है एक किलोमीटर लम्बी शोभायात्रा। रंगबिरंगे हौदों से सज्जित झूमते हुए हाथियों  का दल; मस्त चाल से चलते घोडों का दल;  नौसेना, वायुसेना तथा थलसेना की टुकड़ियों की भव्य परेड व शक्ति-प्रदर्शन, दीर्घकाय ट्रकों पर जमाये हुए टैंक, तोपें व विमान; लहराती हुई पताकाएँ और ध्वज। इन सबको समाविष्ट करता गरिमामय जुलूस बड़ी शान से दिल्ली के राजपथ पर अग्रसर हो रहा है। तिरंगे को सलामी देने के लिए हजारों नागरिक जवान तथा उत्साह से छलकते विद्यार्थियों के दल पंक्तिबद्ध खड़े हैं और इस शोभासम्पन्न जुलूस के समक्ष, किंचित दूरी पर शासन सर उठाये खड़ा रहता है इण्डिया गेट का भव्य वास्तु। और तभी वहाँ उभरती है स्वयं दौलतराव की किंचित् सकुचायी-लजायी-सी छवि; शरीर पर बन्द गले का घुटनों तक लम्बा जोधपुरी कोट, हाथ गर्व से राष्ट्रध्वज को सलामी देते हुए। इतने में दूरदर्शन के परदे पर प्रकट होती है एक मोहक युवती जिसकी मधुर  रेशमी-मुलायम आवाज दूरदर्शन के माध्यम से कश्मीर से लेकर कन्या कुमारी तक बँगाल की खाड़ी से लेकर अरब सागर तक गूँजने लगती हैः ‘‘और स्वतन्त्रता दिवस के पावन अवसर पर भारत के प्रधानमन्त्री बै, दौलतराव देशमाने ने गर्वपूर्वक घोषणा की कि....।’’

इस मधुर कल्पनामात्र ने दौलतराव के सारे शरीर को गुदगुदाकर एक अजीब-सी सिरहन से प्रकम्पित कर दिया।
और उसके  नेत्रों के समक्ष एक बार पुनः भव्य व रंग-बिरंगी शोभायात्रा साकार हो उठी। विभिन्न प्रान्तों की लोककला व संस्कृति की झाँकी प्रदर्शित करते  सुसज्जित विशालकाय रथ। सबसे आगे है महाराष्ट्र का सुश्रृंगारित विशाल रथ। बदन पर कसी हुई पारम्परिक नौगजी साड़ी धारण किये हुए कनक-छड़ी सी देहयष्टिवाली महाराष्ट्रियन बालाएँ, ढोल-नगाड़ों की थाप पर गोल घेरे में नृत्यरत उन मदमस्त बालाओं का साथ दे रहे हैं शानदार कोल्हापुरी पगड़ियाँ धारण किये हुए बाँके मराठी नौजवान। हवा में लहराती हुई रंगबिरंगी रूमालें, खनकते हुए करताल, मँजीरे, तुनतुने। इन सबके बीच ढोलकी के जोरदार ठेके की ताल पर झूम-झूमकर नृत्य करती सर्वांगसुन्दरी प्रधान नृत्यांगना। राजपथ के एक ओर बने हुए मंच पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति की बगल में विराजमान हैं प्रधानमन्त्री। बै.दौलतराव तथा आपादमस्तक सुसज्जित व अलंकृत उनकी धर्मपत्नी  दमयन्ती। धूप के चश्मे के पीछे से दौलतराव वह अपूर्व शोभायात्रा निरख रहे हैं।

 राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय अतिथि भी समारोह का आनन्द ले रहे हैं। तभी अचानक रथ पर नृत्य कर रही तिलोत्तमा-सी नृत्यांगना गतिमान रथ पर से छलाँग लगाकर नीचे कूद पड़ती है और सामने के अपार जनसमूह में से राह बनाती, वेग से प्रधानमन्त्री के आसन की ओर दौड़ती आ रही है।, निकट पहुँचकर वह अपनी बादामी आँखों से उनकी ओर प्रेमपूर्वक देखते हुए हर्षविभोर होकर बोल उठती है, ‘‘ओ मेरे गबरू, मेरे गुलाब के फूल !’’ और सारी दुनिया को भूलते हुए, हजारों की साक्षी में वह दौलतराव के लजाये हुए चेहरे को अपने प्रेमविह्लल हाथों से सहलाने लगती है। उसकी मखमली चोली पर छिड़के हुए इत्र की सुवास और उसकी कमनीय देह की मादक गन्ध दौलतराव के नासारन्ध्रों में प्रविष्ट होती हुई उन्हें मदहोश करने लगती है....,
कल्पनालोक में खोये दौलतराव का शरीर पसीने-पसीने हो उठा। था तो यह दिवास्वप्न ही, फिर भी उसका चेहरा लज्जा से आरक्त हो उठा।
अन्ततः दादासाहब व दौलतराव प्रधानमंत्री निवास में प्रविष्ट हुए। प्रधानमंत्री निवास का यह भव्य ब्रिटिशकालीन भवन लगभग छः एकड़ में फैला हुआ था।

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