लोगों की राय

पुराण एवं उपनिषद् >> प्रज्ञा पुराण भाग 4

प्रज्ञा पुराण भाग 4

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :312
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4309
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

119 पाठक हैं

देवसंस्कृति खंड.....

Pragya Puran (4)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

भारतीय इतिहास-पुराणों मे ऐसे अगणित उपख्यान हैं, जिनमें मनुष्य के सम्मुख आने वाली अगणित समस्याओं के समाधान विद्यमान है। उन्हीं में से सामयिक परिस्थित एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ का ऐसा चयन किया गया गया है, जो युद्ध समस्याओं के समाधान में आज की स्थिति के अनुरूप योगदान दे सकें।
सर्वविदित है कि दार्शनिक और विवेचनात्मक प्रवचन-प्रतिपादित उन्हीं के गले उतरने हैं, जिसकी मनोभूमि सुवकसित है, परन्तु कथानकों की यह विशेषता है कि बाल, वृद्ध नर-नारी, शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में आते हैं और उनके आधार पर ही किसी निष्कर्ष तक पहुँच सकना सम्भव होता है। लोकरंजन के साथ लोकमंगल का यह सर्वसुलभ लाभ है।
कथा-सहित्य की लोकप्रियता के संबंध में कुछ कहना व्यर्थ होगा। प्राचीन काल में 18 पुराण लिखे गए। उनसे भी काम न चला तो 18 उपपुराणों की रचना हुई। इन सब में कुल मिलाकर 10,000,000 श्लोक हैं, जबकि चारों वेदों में मात्र 20 हजार मंत्र हैं। इसके अतिरिक्त भी संसार भर में इतना कथा साहित्य सृजा गया है कि उन सबको तराजू के पलड़े पर रखा जाए और अन्य साहित्य को दूसरे पर कथाऐं भी भारी पड़ेंगी।

समय परिवर्तनशील है। उसकी परिस्थितियाँ, मान्यताएं, प्रथाऐं, समस्याऐं एवं आवश्यकताऐं भी बदलती रहती हैं। तदनुरुप ही उनके समाधान खोजने पड़ते हैं। इस आश्वत सृष्टिक्रम को ध्यान में रखते हुए ऐसे युग साहित्य की आवश्यकता पड़ती रही है, जिसमें प्रस्तुत प्रसंगो प्रकाश मार्गदर्शन उपलब्ध हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनेकानेक मनःस्थिति वालों के लिए उनकी परिस्थिति के अनुरूप समाधान ढूँढ़ निकालने में सुविधा दे सकने की दृष्टि से इस प्रज्ञा पुराण की रचना की गई, इसे चार खण्डों में प्रकाशित किया गया है।

प्रथम किस्त में प्रज्ञा पुराण के पाँच खण्ड प्रकाशित किए जा रहे हैं। प्रथम खण्ड का प्रथम संस्करण तो आज से चार वर्ष पूर्व प्रस्तुत किया गया था। तदुपरान्त उसकी अनेकों आवृत्तियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। अब चार खण्ड एक साथ प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतने सुविस्तृत सृजन के लिए इन दिनों की एकान्त साधना में अवकाश भी मिल गया था। भविष्य का हमारा कार्यक्रम एवं जीवन काल अनिश्चित है। लेखनी तो सतत क्रियाशील रहेगी, चिन्तन हमारा ही सक्रिय रहेगा, हाथ भले ही किन्हीं के भी हों, यदि अवसर मिल सका, तो और भी अनेकों खण्ड प्रकाशित होते चले जायेंगे।


इन पाँच खण्डों में समग्र मानव धर्म के अन्तर्गत मान्यता प्राप्त इतिहास-पुराणों की कथाएं है। इनमें अन्य धर्मालम्बियों के क्षेत्र में प्रचलित कथाओं का भी समावेश है, पर वह नगण्य सा ही है। बन पड़ा तो अगले दिनों अन्य धर्मों में प्रचलित कथानकों के भी संकलन इसी दृष्टि से चयन किए जाएँगे जैसे कि इस पहली पाँच खण्डों की प्रथम किस्त में किया गया है। कामना तो यह है कि युग पुराण के प्रज्ञा-पुराणों के भी पुरातन 18 खण्डों का सृजन बन पड़े।

संस्कृत श्लोंकों तथा उसके अर्थों के उपनिषद् पक्ष के साथ उसकी व्याख्या एवं कथानकों के प्रयोजनों का स्पष्टीकरण करने का प्रयास इनमें किया गया है। वस्तुतः इसमें युग दर्शन का नर्म निहित है। सिद्धांन्तों एवं तथ्यों को महत्व देने वालों के लिए यह अंग भी समाधानकारक होगा। जो संस्कृति नहीं जानते, उनके लिए अर्थ व उसकी पढ़ लेने से  भी काम चल सकता है। इन श्लोकों की रचना नवीन है, पर जिस तत्यों का समावेश किया गया है, वे शाश्वत हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ का पठन निजी स्वास्थ्य के रूप में भी किया जा सकता है और सामूहिक सत्संग के रूप में भी। रात्रि के समय पारिवारिक लोक शिक्षण की दृष्टि से भी इसका उपयोग हो सकता है। बच्चे कथाऐं सुनने को उत्सुक रहते हैं। बड़ो को धर्म परम्पराऐं समझने की इच्छा रहती है। इनकी पूर्ति भी घर में इस आधार पर कथा क्रम और समय निर्धारित करके की जा सकती है।
कथा आयोजनों की समूहिक धर्मानुष्ठान के रूप में भी सम्पन्न किए जाने की परम्परा है। उस आधार पर भी इस कथावाचन का प्रयोग हो सकता है। आरम्भ का एक दिन वेद पूजन, व्रत धारण, महात्म्य आदि के मंगलाचरण में लगाया जा सकता है। चार दिन में चार खण्डों का सार संक्षेप, प्रातः और सायंकाल की दो बैठकों में सुनाया जा सकता है। अन्तिम दिन पूर्णाहुति का सामूहिक समारोह हो। बन पड़े तो अमृतशन (उबले धान्य, खीर, खिचड़ी आदि) कि व्यवस्था कि जा सकती है और विसर्जन शोभा यात्रा मिशन के बैनरो सहित निकाली जा सकती है। प्रज्ञा मिशन के प्रतिभोजों में अमृताशन कि परम्परा इसलिए रखी गयी है कि वह मात्र उबलने के कारण बनाने में सुगण, लागत में करते हुए मनुष्य मात्र को एक बिरादरी बनाने के लक्ष्य की ओर क्रमशः कदम बढ़ सकने का पथ-प्रशस्त करता है।

लोक शिक्षण के लिए गोष्ठियों-समारोहों में प्रवचनों-वक्तृताओं का आवश्यकता पड़ती है। उन्हें ही चुना जाने का वक्ता को पलायन करना पड़ता है। जिसकी कठिनाई का समाधान इस ग्रन्थ से ही हो सकता है। विवेचनों, प्रसंगों के साथ कथानकों का समन्वय करते-चलने पर वक्त के पास इतनी बड़ी निधि हो जाती है कि उसे महीनों कहता रहे। न कहने वाला पर भार पड़े, न सुनने वाले पर भार पड़े, न सुनने वाले ऊबें। इस दृष्टि के युग सृजेताओं के लिए लोक शिक्षण का एक उपयुक्त आधार उपलब्ध होता है। प्रज्ञा-पीठों और प्रज्ञा संस्थानों में तो ऐसे कथा प्रसंग नियमित रूप से चलने ही चाहिए ऐसे आयोजन एक स्थान या मुहल्ले में अदल-बदल के भी किए जा सकते हैं ताकि युग सन्देश को अधिकाधिक लोग निरटवर्ती स्थान में जाकर सरलतापूर्वक सुन सकें। ऐसे ही विचार इस सृजन के साथ-साथ मन में उठते रहे हैं, जिन्हें पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया गया है।


प्रस्तुत चौथा खंड जिस विष्य वस्तु को लेकर लिखा गया है, उसके संबंध में बहुसंख्यक व्यक्ति अनभिज्ञ हैं अथवा उसकी गरिमा को भुला देने के कारण यह प्रकरण विस्मृति के गर्त में चला गया है। देव संस्कृति के विभिन्न पक्षों यज्ञा-वर्णाश्रम धर्म, पर्व-संस्कार, तीर्थटन-परिव्रज्या एवं मरणोत्तर जीवन आदि के संबंधि में जनमानस में कई प्रकार की भ्रान्तियाँ हैं। उनको प्रस्तुत ग्रंथ में यथा संभव स्पष्ट करते हुए, उन्हें कथा प्रसंगों एवं शास्त्र महात्म्य के साथ जोड़ा गया है। इन सभी विषयों की वैज्ञानिकता का प्रतिपादन भी इस खंड की विशेषता है। आस्था संकट की इस वेला में सांस्कृतिक पुनर्जागरण हेतु क्या व कैसे किया जाना चाहिए, ग्रंथ के अंतिम दो अध्याय इसी से संबंधित हैं।


इस समग्र प्रतिपादन में जहां कहीं अनुपयुक्तता, लेखन या मुद्रण की भूल दृष्टिगोचर हो, उन्हें विज्ञजन सूचित करने का अनुग्रह करें ताकि अगले संस्करणों में संशोदन किया जा सके।


श्रीराम शर्मा  आचार्य


प्रज्ञा पुराण

अथ प्रथमोऽअध्यायः


देवसंस्कृति-जिज्ञासा प्रकरणम्


गुरुकुलेषु तदाऽन्येषु छात्रा आसँस्तु ये समे।
गुरुजनैः सह ते सर्वेऽप्यायाता द्रष्टुमुत्सुकाः।।1।।
ऋषे कात्यायनस्येमां व्यवस्थामुत्तमामपि।
तस्याऽध्यापनशैलीं तां चर्या च ब्रह्मचारिणाम्।।2।।
तैः श्रुतं यन्महर्षेर्यद् विद्यते गुरुकुलं शुभम्।
छात्रनिर्माणशालेव यत्नत्याः स्नातकास्तु ते।।3।।
समुन्नता भवन्त्येवं मन्यन्ते संस्कृता अपि।
सफला लौकिके सन्ति समर्था अपि जीवने।।4।।
सम्पन्ना अपि चारित्र्यसंयुक्ता व्यक्तिरूपतः।
उदात्तास्ते तथैवोच्चस्तरा गण्यन्त उत्तमैः।।5।।


भावार्थ—


एक बार अन्यान्य गुरुकुलों के छात्र अपने-अपने गुरुजनों समेत महर्षि कात्यायन के आश्रम की व्यवस्था और अध्ययन शैली व दिनचर्या का पर्यवेक्षण करने आए। उनने सुना था कि कात्यायन का गुरुकुल टकसाल है, जिसमें पढ़कर निकलने वाले स्नातक न केवल समुन्नत होते हैं, वरन् सुसंस्कृत भी माने जाते हैं। वे लौकिक जीवन में समर्थ, सफल और संपन्न रहते हैं तथा व्यक्तिगत जीवन में चरित्रवान्, उदात्त एवं मूर्धन्य स्तर के गिने जाते हैं।।1-5।।


वैशिष्ट्यं चेद्शं छात्राः केनाधारेण यान्ति ते।
इदं द्रष्टुं च विज्ञातुं छात्रास्ते गुरुभिः सह।।6।।
विभिन्नेभ्यः समायाताः क्षेत्रेभ्य उत्सुका भृशम्।
तदागमनवृत्तं च सदस्यैर्ज्ञातमेवतत्।।7।।


भावार्थ—


ऐसी विशेषताएँ किस आधार पर छात्रगण प्राप्त करते हैं ? यह जानने-देखने की अभिलाषा लेकर वे छात्र-मंडल अध्यापकों समेत विभिन्न क्षेत्रों, देशों से आए थे। उनके आगमन और उद्देश्य की पूर्व सूचना कात्यायन गुरुकुल के सभी छोटे-बड़े सदस्यों को विदित हो गई थी।।6-7।।


ध्यानेनागन्तुपकाः सर्वे दिनचर्यां व्यवस्थितिम्।
कात्यायनाश्रमस्याऽस्य स्वच्छतां व्यस्ततामपि।।8।।
अनुशासनसम्मानं तत्रत्ये पाठ्यसंविधौ।
सुसंस्कारित्वभावं तं व्यवहारेऽवतारितुम्।।9।।
पालितुं च सदाचारमध्यापनमिवानिशम्।
कर्तव्यं निजदायित्वं पालितुं चानुशासनम्।।10।।
ध्यानं तत्र विशेषं हि दिनचर्यागतं ह्यभूत्।
वैशिष्ट्यं मौलिकं चाभूदेतदेवास्य सुदृढ़म्।।11।।


भावार्थ—


आगंतुकों ने कात्यायन आश्रम की दिनचर्या, व्यवस्था, स्वच्छता, व्यस्तता और अनुशासनप्रियता को ध्यानपूर्वक देखा। पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन-अध्यापन की भाँति ही सुसंस्कारिता को व्यवहार में उतारने तथा शिष्टाचार पालने, कर्तव्य-उत्तरदायित्व समझने और उन्हें पालने के लिए अनुशासन बरतने पर समुचित ध्यान दिया जाता था—यही इस आश्रम की सुदृढ़ मौलिकता थी।।8-11।।


नैवाध्ययनमेवात्र पर्याप्तं भवति त्वयि।
नेतुं तान् प्रगतिं छात्रान् महामानवतामपि।।12।।
व्यवहारे समावेशोऽभ्यासश्चाऽपि विशेषतः।
सदाशयमुद्भूतो मतस्त्वावश्यकः सदा।।13।।


भावार्थ—


व्यक्तियों को उभारने और सामान्य मनुष्यों को महामानव बनाने में मात्र अध्ययन ही पर्याप्त नहीं होता, व्यवहार में सदाशयता का समावेश-अभ्यास इसके लिए नितांत आवश्यक है। इस सिद्धांत को उस आश्रम में भली प्रकार से चरितार्थ होते हुए भी आगंतुकों ने पाया।।12-13।।


व्याख्या—


गुरुकुलों की महामानवों को ढालने वाली टकसाल के रूप में मान्यता देवसंस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं का एक अंग रही है। ऐसे शिक्षालयों से तप कर निकलने वाले विद्यार्थी एकांगी प्रवीणता मात्र नहीं प्राप्त करते थे, अपितु अपने आपको संस्कारों की निधि से संपन्न बनाकर व्यावहारिक दृष्टि से बहिरंग जीवन में भी कुशल एवं सूझबूझ के धनी बनकर निकलते थे। ऐसे आरण्यकों के प्रति ऋषि समुदाय एवं अन्यान्य छात्रों की जिज्ञासा होना स्वाभाविक है।

विद्यालय का परिकर अपने एक-एक अंग से अपना परिचय देता है। बाह्य सुसज्जा, विद्यार्थियों का ठाट-बाट से रहना, बैठने-पढ़ने की सुव्यवस्था होना भर पर्याप्त नहीं। यह बाह्यडंबर तो आज हर कहीं रास्ता चलते देखा जा सकता है। अध्ययन-अध्यापन की श्रेष्ठ सुव्यवस्था होना ही समुचित नहीं। संस्कारों के अभिवर्धन के लिए व्यक्ति को महामानव रूप में ढालने के लिए, आत्मानुशासन को जीवन का अंग बनाने के लिए, उदारता-परमार्थ-परायणता को व्यवहार में समावेश करने हेतु क्या प्रयास-पुरुषार्थ अध्ययन-अध्यापन के साथ किया गया है। वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उसी में ‘विद्यालय’ के ‘विद्या का घर’ कहे जाने की सार्थकता है।


शिष्य की परीक्षा भी, शिक्षण भी


गुरुकुल व्यवस्था में यह अनिवार्य नहीं कि कमरों में, कपाट-कोष्ठों में बंद होकर शिक्षा प्राप्त की जाय। गुरुकुल के अधिष्ठाता छात्रों की मनःस्थिति के अनुरूप उन्हें प्रकृति की पाठशाला में व्यवहारिक शिक्षण देने की व्यवस्था बनाते हैं कि व्यक्तित्व में प्रखरता का समावेश संवर्धन होकर रहता है।

महर्षि जरत्कारू के गुरुकुल में छात्र विद्रुध ने प्रवेश पाया। ऋषि को विद्यार्थी प्रतिभावान् लगा, अस्तु उसे समझाया, पौरुष की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही कोई वसिष्ठ बन सकता है। तुम पराक्रम के साथ-साथ पुस्तकें पढ़ते रहो। विद्रुध महर्षि के परामर्श से सहमत हो गया। उसे सौ गौएँ सौंपी गईं और प्रभुदारण्य में उन्हें चराते हुए हजार हो जाने पर वापस लौटने को कहा। पाठ्य पुस्तकें भी उसकी पीठ में बाँध दी। विद्रुध को बारह वर्ष लगे और गौए हजार हो गईं। दूध पी कर उनके सभी बच्चे हष्ट-पुष्ट थे।

इस बीच उन्हें अनेक के साथ संपर्क साधने और परामर्श करने का अवसर मिला। मार्ग की कठिनाइयों और समस्याओं से मिपटते रहे। उनकी प्रतिभा निखर पड़ी। वापस लौटे तो उनके चेहरे पर ब्रह्मतेज टपक रहा था। अपनी बुद्धि का प्रयोग करके जो उसने पढ़ा और समझा, उससे कहीं अधिक था, जो आश्रम में रहकर पढ़ने वाले छात्रों ने सीखा था।


जीनों की पाठशाला


जरत्कारू अपने इस शिष्य के साहस को देखकर अतीव प्रसन्न हुए। अपने आश्रम का कार्य सौंप कर स्वयं कहीं अन्यत्र बड़े काम के लिए चले गए। उत्तराधिकारी की उन्हें तलाश थी, सो इस परीक्षा के द्वारा पूरी हुई।
सुयोग्य विद्यार्थी न मिले तो भी मनीषी निराश नहीं होते। वे अनगढ़ को सुगढ़ व श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करते हैं।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book