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निर्गुण संतों के स्वप्न

डेविड एन. लॉरेंजन

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4221
आईएसबीएन :9788126719112

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अग्रणी इतिहासकार डेविड लॉरेंजन के ‘भक्ति मीमांसा’ करते निबंधों का संकलन

Nirgun Santon Ke Swapana by David N Lorenzen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्यिक बिरादरी से बाहर निकलकर व्यापक भारतीय समाज को देखें को कबीर, तुकाराम, तुलसी, मीरा, अखा, नरसी मेहता आज भी समकालीन हैं। भक्त कवि हिन्दी समाज के रोजमर्रा के जीवन में किसी भी अन्य कवि से अधिक उपस्थित हैं। ‘निरक्षर’ हिन्दीभाषी भी कबीर के चार-छह दोहों और तुलसी की दो-चार चौपाइयों से तो वाकिफ हैं है। हिन्दी समाज नियतिबद्ध है भक्त कवियों से सतत संवाद करने के लिए। सवाल यह है कि क्या हिन्दी की समकालीन साहित्यिक चिंताओं में यह नियति प्रतिबिंबित होती है?

भारत और अन्य समाजों की देशज आधुनिकता और उसमें औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा उत्पन्न किए गए व्यवधान को समझना अतीत, वर्तमान और भविष्य का सच्चा बोध प्राप्त करने के लिए जरूरी है। साहित्य को इतिहास-लेखन का स्रोत मात्र (वो भी दूसरे दर्जे का!) और किसी विचारधारात्मक प्रस्ताव का भोंपू मानकर नहीं, बल्कि उसकी स्वायत्तता का सम्मान करते हुए पढ़ने की पद्धति पर चलते हुए भक्ति-काव्य को पढ़े तो कैसे नतीजे हासिल होते हैं?

भक्ति साहित्य के विख्यात अध्येता पुरुषोत्तम अग्रवाल के संपादन में नियोजित ‘भक्ति मीमांसा’ पुस्तक-श्रृंखला ऐसी ही पढ़त की दिशा में एक कोशिश है। विभिन्न भक्त कवियों, रचनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन इसमें प्रकाशित किए जाएँगे।

इस श्रृंखला की यह पहली पुस्तक अग्रणी इतिहासकार डेविड लॉरेंजन के निबंधों का संकलन है। पिछले दो दशकों में प्रकाशित इन शोध-निबंधों में ‘निर्गुण संतों के स्वप्नों’ और उनकी परिणतियों के अनेक पहलू अत्यंत विचारोत्तेजक और प्रमाणपुष्ट ढंग से पाठक के सामने आते हैं। ‘गोरखनाथ और कबीर का धार्मिक अस्मिता’ निबंध अंग्रेजी में प्रकाशित होने के पहले ही इस संकलन के जरिये हिन्दी पाठकों के सामने आ रहा है। डेविड लॉरेंजन द्वारा प्रस्तावित जाति-निरपेक्ष या ‘अवर्णाश्रमधर्मी’ हिन्दी परंपरा की अवधारणा से गुजरते हुए, पाठक को आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. रामविलास शर्मा और डॉ. नामवर सिंह का ‘लोकधर्म’ विषयक विचार-विमर्श स्वाभाविक रूप से याद आएगा।

कबीरपंथ के सांस्कृतिक इतिहास और स्वरूप में निहित सामाजिक प्रतिरोध का विवेचन करते हुए डेविड कबीरपंथ के सामाजिक आधार की व्यापकता रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि कबीरपंथी ‘भगत’ कबीरपंथी को आदिवासी समुदायों तक भी ले गए; और इस तरह उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व से स्वायत्त समुदाय की रचना में योगदान किया।

इन निबंधों में निहित अंतर्दृष्टियों से निर्गुणपंथी परंपरा के बारे में ही नहीं, भारतीय इतिहास मात्र के बारे में भी आगे शोध के लिए प्रस्थानबिंदु प्राप्त होते हैं।


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