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प्रतीक्षा

केशवदत्त चिन्तामणि

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4082
आईएसबीएन :81-7043-529-3

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मॉरिशस देश के बहुजातीय,बहुभाषीय,बहुसांस्कृतिक आयामों की कहानी....

Pratiksha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


श्री केशवदत्त चिन्तामणि द्वारा लिखित कहानी संग्रह ‘प्रतीक्षा’ में मॉरिशस देश के बहुजातीय, बहुभाषीय, बहुसांस्कृतिक आयामों को कहानी के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। इन कहानियों में मॉरिशस के तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ, समाज में व्याप्त समस्याओं की ओर संकेत एवं समाधान ढूँढ़ने की कोशिश की गयी है। इस संग्रह में लेखक के आधी शती तक की प्रकाशित कहानियाँ संग्रहित हैं और इनमें कहानीकार के समृद्ध अनुभव परिलक्षित होते हैं।

भूमिका


इस संग्रह में मेरी कुछ चुनी हुई प्रकाशित तथा अप्रकाशित कहानियाँ हैं। ये भिन्न-भिन्न समय में लिखी गयी हैं। ‘प्रतीक्षा’ 50 के दशक की कहानी है तो ‘अपने हुए पराये’ 90 के दशक की है। अतः इस संग्रह की कहानियों में भिन्न-भिन्न समय की झलक दृष्टिगोचर होगी।
मॉरीशस में 50 के दशक तक गाँवों में बिजली नहीं मिली थी। गरमी के समय लोग पेड़ों की छाया में खुली हवा में बैठते थे। उत्तर प्रांत में कभी-कभी भारी सूखा पड़ जाता है। इन दिनों घर-घर में नल हैं और सरकार की ओर से खेतों की सिंचाई का प्रबंध है, परन्तु पहले ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी। परिणाम-स्वरूप घास, पेड़ और पौधे सूखने लग जाते।
उस समय का जीवन पुराने ढर्रे पर चल रहा था। अधिकतर लोगों के पास रेडियो नहीं होता था। बहुत-से लोग अख़बार नहीं खरीद पाते थे। रेडियो पर हिन्दी का कार्यक्रम शाम को 5 बजे से साढ़े़ छः बजे तक प्रसारित होता था। अनेक दूकानदार बैटरी द्वारा चलित रेडियो अपने पास रखते थे जिसे गाँव के पुरुष वर्ग जाकर सुनते थे और वहीं पर साक्षर लोग दुकानदार से ही अखबार लेकर पढ़ते थे। इन्हीं ऊपर कथित बातों का संकेत ‘प्रतीक्षा’ कहानी में मिलता है।

1961 के अंतिम चरण में हिन्दी लेखक संघ की स्थापना हिन्दी साहित्य के सृजन के उद्देश्य से हुई। इससे पहले सन् 50 में प्रांतीय पर त्रिओले प्रभात संघ द्वारा और राष्ट्रीय पर मॉरीशस साहित्य संघ द्वारा प्रयास हुआ था। सन 1963 से हिन्दी प्रचारिणी सभा ने प्रति वर्ष हिन्दी सप्ताह मनाने का प्रचलन आरंभ किया। फिर साहित्यिक कृतियों की प्रतियोगिता को उसमें चालू किया। 1963 में हिन्दी सप्ताह के अन्तर्गत ‘पश्चाताप और शिक्षा’ कहानी पढ़ी़ गयी थी और फिर उसका प्रकाशन तत्कालीन स्थानीय समाचार पत्र पर हुआ था। ‘एक साहित्यकार का वसीयतनामा’ में हिन्दी भाषा और साहित्य की दयनीय दशा का चित्रण है।

मॉरिशस बहुजातीय देश है। संस्कृति सभी को जोड़ने का कार्य करती है तो राजनीति निरंतर तोड़ने में लगी रहती है। हिन्दू और मुसलमान हमेशा साथ रहते आये हैं, परंतु राजनीति उनमें विघटन डालने की कोशिश करती रहती है। इसी प्रकार तमिल समुदाय के लोग जो पहले-पहल मॉरिशस आये थे उनको ईसाई बना लिया गया। परन्तु बाद में जो हिन्दीभाषियों के साथ यहाँ आये वे इन लोगों के साथ मिलकर अपने को सुरक्षित अनुभव कर रहे थे। उन पर भी राजनीतिक दाँव का नशा चढ़ा था कि तमिल हिन्दू नहीं हैं। विघटन का यह चक्र तमिल, तेलगू और मराठी वर्गों पर भी चलाया जाता है ताकि बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग खंडित हो जाय। ऐसे ही चित्रण की झाकियाँ ‘मूर्ति के आँसू’ और ‘अपने हुए पराये’ में मिलेंगी।
एक बार एक मित्र ने मुझे सुनाया कि वे फ्रांस गये थे तो एक मॉरिशस मित्र के पास परिवार के साथ महीने भर ठहरे थे। वापस आते समय फ्रांस के उस मित्र ने सुनाया कि वह और उसकी पत्नी तलाक लेकर बहुत दिनों से अलग-अलग जी रहे थे। परन्तु इन लोगों की खातिरदारी के लिये वे दोनों कुछ समय के लिये मिल गये थे। इन लोगों के लौट आने पर वे फिर से अलग-अलग हो गये। इस घटना को मैंने ‘दिल पर दस्तक’ कहानी में नाटकीय ढंग से सुखांत रूप दे दिया है।

आत्महत्या का एक दारुण अभिशाप है। इसका विशद वर्णन ‘पाप की छाया’ और ‘असफल प्रयास’ कहानियों में मिलता है।
मॉरिशस की स्थिति तूफानी इलाके में है। कभी-कभी यहाँ जानलेना तूफान आ जाता है। इसलिए मैंने एक तूफान को साहित्यिक बाना दिया है। दिसम्बर 1993 में जब यहाँ चतुर्थ विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ तो उत्तर प्रांत के ‘सोचिज़’ गाँव का पुनः नामकरण किया गया और उसका नाम रखा गया ‘श्रीनगर’। दूसरी ओर राजधानी पोर्ट लुई के दक्षिण-पश्चिम इलाके का नाम ‘काशी’ है। इन दोनों जगहों का फासला कोई 15 मील का होगा। इन्हीं दोनों के बीच की पृष्ठभूमि पर ‘प्रकृति का तांडव’ कहानी का सृजन मैंने किया। चीनी वसन्तोत्सव की पूर्व संध्या में ‘होलांडा’ तूफान 1994 में आया था। उन दिनों बैंक टावर का निर्माण हो रहा था। उसके पास के समुद्र तट को ‘विष्णुदयाल विचरण स्थल’ नाम दिया गया था। परन्तु अब वह नाम बदल कर ‘कोदाँ वाटर फ्रंट’ हो गया है। इन सारी बातों की चर्चा इस कहानी में है।

आजकल लोग अंधाधुंध नकल करके अपनी परंपरा को दूषित करते जा रहे हैं। इसका अवलोकन ‘अपनी गरिमा अक्षु्ण्ण रहे’ कहानी में किया जा सकता है। प्रत्येक के जीवन 4 पुरुषार्थ करने होते हैं। वे हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। सबका आधार है धर्म। परन्तु आजकल उसकी अवहेलना की जा रही है। ‘निराले प्रेमी’ में इसी बात का चित्रण है। इसमें धर्म बाबा स्वयं धर्म है, मेदिनी पृथिवी है। याने पृथिवी के सभी लोग और विज्ञान कुमार खुद हैं खुद विज्ञान शास्त्र है। विज्ञान और लोक अंधे होते हैं। धर्म नेत्र है जो सबका मार्ग दर्शन कराता है। यदि सुख से रहना है तो आँख वाले धर्म का साथ देना, अन्यथा पतन की खाई में जाना पड़ेगा।
लोगों में मान्यता है कि स्वर्ग और नरक में कोई विशेष स्थान हैं जहाँ पर मरने के बाद जाकर कर्म फल भोगना पड़ता है। हम तो पुनर्जन्म मानते हैं। जीवन में विशेष सुख की स्थिति स्वर्ग और विशेष दुःख की स्थिति नरक है। जन्म के बंधन से छूटना मोक्ष है। इसी तथ्य पर प्रकाश डाला गया है ‘स्वर्ग और नरक’ कहानी में।

सभी कौमों में धर्म के अधिकारी गहरा अध्ययन करके जाति के रक्षक बनते हैं, किन्तु हमारी जाति में ऐसा नहीं होता। गहरा अध्ययन करने पर ही धर्म के तत्त्व में आयेंगे। यही प्रेरणा ‘सनातम चक्षु’ कहानी में दी गयी है। हम पुस्तकें तो पढ़ते हैं, परन्तु उनके विषयों में गहराई में नहीं जाते हैं। कच्ची पढ़ा़ई के कारण ही धर्म-संस्कृति के अनेक भ्रम फैले हुए हैं। यहाँ एक उदाहरण देता हूँ। श्रीराम वनवास से अयोध्या कब लौटे थे, इस बात पर चारों ओर भ्रम है। सन् 50 के दशक में मुझे संकेत मिला था कि श्रीराम भिन्न तिथि को लौटे थे। 1990 में यहाँ पर अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन हुआ तो मैंने वाल्मीकि रामायण का गहरा अध्ययन किया और उनके वापस आने की तिथि निकाल पायी। उस समय के एक पत्र में एक लेख भी लिखा। फिर 1992 में पुनः रामायण सम्मेलन हुआ तो मैंने इस तथ्य को एक कहानी के रूप में ढाल कर साहित्यिक रूप दिया। ‘एक अनोखा प्रश्न’ में दर्शाया गया है।

अपने-अपने समय में कबीर, तुलसी और सूर ने साहित्य द्वारा भक्ति तत्त्वों का प्रचार किया। इसी उद्देश्य से मैंने इन कहानियों में धर्म के तत्त्वों को उभारा है—‘आत्मा के श्रृंगार’, ‘सनातन चक्षु’, ‘एक अनोखा प्रेम’ तथा ‘स्वर्ग और नरक।’ धर्म ही तो हमारे जीवन का आधार है, इसलिए हर एक को ये सब बातें जाननी चाहिए, नहीं तो पतन के गर्त में जाति को जाना पड़ेगा।
मैं मानता हूँ कि साहित्य समाज का दर्पण है, परन्तु मार्गदर्शन करना भी उसका काम है। भक्ति काल में साहित्यकारों में निराश जनता का मार्गदर्शन करके दिशा का निर्देशन किया था। सम्प्रति अपनी भाषा और संस्कृति से दूर हटते जाने के कारण लोग दिशाहीन हो रहे हैं। इसलिए अपनी कई कृतियों द्वारा लोगों को सही दिशा का निर्देश किया है। इस संग्रह में ‘प्रतीक्षा’ से लेकर ‘अपने हुए पराए’ तक 50 वर्ष के फासले का दौरा है, आधी शती की गल्प यात्रा है।
सन् 50 वर्षों में यहाँ अनेक लोग नदी में कपड़े धोने और नहाने जाते थे। उस समय की कुछ गुजरी घटनाओं को इकट्ठा करके ‘दीपक’ नामक कहानी की कथावस्तु बनायी है।

‘गंगा के तट पर’ कहानी में मैंने अपनी भारत-यात्राओं के कुछ अनुभवों को चित्रित करने का प्रयत्न किया है।
‘मंगल कामनाएँ—परलोक से’ कहानी मॉरिशस की हिन्दी प्रचारिणी सभा की हीरक जयन्ती के उपलक्ष्य में लिखी गयी थी। उसमें मॉरिशस में हिन्दी भाषा के इतिहास की एक झलक है।
‘पोस्ट ऑफिस’ कहानी में इस नाम से विश्वविख्यात मॉ़रिशस डाक टिकट की गौरव गाथा है।
‘मैं शून्य हूँ’ कहानी में भारत के गौरव तिलक ‘शून्य’ की यशोगाथा है।
ये तीनों कहानियाँ इतिहास की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी हैं। इनमें मैंने इतिहास की उर्वरा भूमि पर कल्पना के पौधे लगा कर साहित्य के फूल खिलाये हैं।

-केशवदत्त चिंतामणि


प्रतीक्षा


‘‘दिन-रात में लोग न जाने कितने झूठ बोल देते होंगे। यदि दुनिया भर के लोगों की सूची बनाई जाय तो उनमें मिथ्यावादियों की संख्या सत्यवादियों से 95 गुना अधिक होगी।’’—यह कहते हुए ‘केवल’ दीर्घ निश्वास भर कर आराम कुर्सी पर बैठ गया।
दिसम्बर का मास था। ग्रीष्म ऋतु अपने शिखर पर पहुँची हुई थी। पवन देवता की गति रुकी हुई थी। सूर्य देव मानों क्रुद्ध होकर अंगार उगल रहे थे। सब घरों के दरवाजे और खिड़कियाँ खुली हुई थीं। फिर भी हवा के झोंके घर में नहीं प्रवेश कर रहे थे। कई लोग अपने आँगन के घने वृक्षों तले बैठे हुए थे, पर वहाँ भी गर्मी के मारे न रहा जाता था। वृक्षों का एक सूखा पत्ता भी नहीं डोलता था। इसी तप्त समय में केवल ने अपने कमरे में एक आराम कुर्सी पर बैठ कर सड़क पर अपनी दृष्टि बिछा रखी थी। वह किसी की प्रतीक्षा में था, इसलिए वह बहुत परेशान जान पड़ता था।
लगभग आध घण्टे बाद एक घण्टी की आवाज सुनाई दी। केवल का मुख-मण्डल खिल उठा पर एक ही पल के लिये। उसका चेहरा पुनः मलिन हो गया।

‘मैंने सोचा था कि यह मोहन है, पर मेरा ख्याल गलत निकला। यह तो अमरलाल है।’ यह बात अपने मन में कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ। इतने ही में अमरलाल भी आ पहुँचा। अपनी उदासी को छिपाते हुए केवल ने आगंतुक का स्वागत किया। फिर दोनों में बातचीत होने लगी। अमरलाल ने कहा—‘‘यह गर्मी बहुत तेज है।’’
केवल—‘‘हाँ, इस टापू में इस समय का मौसम ही ऐसा है।’’
अमरलाल—‘‘मुझसे तो घर में नहीं रहा जा सकता। न जाने तुम कैसे सहन कर रहे हो। चलो, हम समुद्र की ओर हवा खाने चलें।’’

केवल—‘‘नहीं भाई। आज मैं नहीं जाऊँगा। मुझे अवकाश नहीं है।’’
अमर—‘‘अवकाश क्यों नहीं है ? बैठे हो और कहते हो अवकाश नहीं है।’’
केवल—‘‘लालाजी ने आमन्त्रण पत्र भेजा है। उनकी बेटी का ब्याह है। दो बजे बरात आयेगी। इसलिए मैं न जाऊँगा।’’
‘‘यदि तुम नहीं जाओगे तो मुझे जाने दो,’’ यह कहकर अमरलाल चला गया।
दो बजे केवल लाला जी के यहाँ विवाह में गया। परन्तु वहाँ पर देर तक न ठहरा। ‘दोमेला’ होते ही उसने घर की राह ली। लौटने पर वह फिर उसी आराम कुर्सी पर बैठ गया और घण्टों बैठा रहा। प्रतिदिन पाँच बजे वह महेश की दुकान पर रेडियो सुनने और अखबार पढ़ने जाया करता है, किन्तु आज वह नहीं गया। इसके बदले में वह एक उपन्यास पढ़ने लगा। वह उपन्यास में बड़ी दिलचस्पी लेता है, पर आज उसे सब फीका लगता था। आज उपन्यास की दुनिया उसे नीरस दीख पड़ती थी। कुछ पृष्ठ बेमन से पढ़कर उसने पुस्तक को उसकी जगह पर रख दिया।

फिर वह अपनी नजर रास्ते की तरफ दौड़ाने लगा। पर शोक ! जिसकी राह वह देख रहा था वह अभी तक नहीं दिखाई देता था। अब उसके मन में बहुत-से विचार उठने लगे—‘उसे क्या हुआ ? वह क्यों नहीं आया ? उसने कहा था कि मैं अवश्य आऊँगा। मगर शाम हो गयी और अभी तक वह दिखाई नहीं देता। क्या यही उसका वचन है ? आजकल वचन का कोई मोल नहीं। लोग उसे तृणवत तोड़ डालते हैं। वाह रे संसार ! यह है तुम्हारा आधुनिक फैशन।’ ऐसे-ऐसे विचार उसके मन में कितने उत्पन्न हुए।
उसके आँगन में एक छोटी-सी फुलवारी है। उसमें एक गुलाब का पौधा है। बहुत कड़ी धूप पड़ने से और पानी न मिलने से वह सूखने लगा था। वह रोज पानी की प्रतीक्षा करता, कब वर्षा होगी ताकि उसकी जान में जान आये। जब कुछ बादल दीख पड़ते तो वह बहुत खुश हो जाता। वह सोचता कि अब वर्षा होगी। पर जब वायु इन घटाओं को दूर घसीट ले जाती तो उसका आशा-भवन ढह जाता है।

यही दशा केवल की भी थी, जब वह किसी की आहट सुनता तो उसे आशा हो जाती कि मोहन आ रहा है। किन्तु उसके कान धोखा खा जाते। जब कोई पैर गाड़ी पर आता और घण्टी सुनाई देती तो वह सोचता कि मोहन ही आ रहा है। उसकी आँखों ने भी कई बार ऐसे धोखे खाये। यदि वह किसी को सड़क पर गुजरते देखता तो उसे ऐसा प्रतीत होता कि मोहन आ रहा है। बिलकुल वही है। उसी की चाल, उसी का रंग-ढंग। उसे आने दो। आज मैं उसे आड़े हाथों लूँगा। इतनी देर। मगर जब वह व्यक्ति समीप आ जाता तो वह मोहन नहीं होता था। उसकी आशा का तार टूट जाता।
वह इसी परेशानी में था कि इतने में सूर्य देव सागर की गोद में विश्राम करने चले गये। दिन भर के उसके प्यासे नैन बुझ न सके। उसके दिल का गुलाब मुरझा गया। वह आह भरकर रह गया।


पाप की छाया


एक दिन अनिता अपने पति से झगड़ बैठी। उसे बहुत क्रोध आया। इसी क्रोध के आवेश में आकर उसने विष ले लिया। मरने पर उसे यम ने बहुत फटकारा-‘‘अनिता, यह तुमने क्या कर लिया ? तुम्हारी आयु तो लम्बी थी। तुमने आत्महत्या करके बहुत बड़ा पाप किया है। जाओ, अपने जीवन-काल की अवधि तक संसार में निरुद्देश्य भटको, इसके पश्चात् तुम्हारे कर्मों का फल मिलेगा।’’

तब से अनिता की आत्मा सर्वत्र भटका करती थी। वह सब कुछ देख और सुन सकती थी, पर कोई उसे न देख सकता था, न सुन सकता था। वह प्राय: अपने घर के आस-पास ही मँडराया करती थी। अपने दो वर्षीय बालक की दशा देखकर उसे बहुत दु:ख होता था। उसका पति सबेरे काम पर चला जाता था और शाम को देर से घर लौटता था। इस बीच में बच्चे पर जो गुजरता था वही देख सकती थी। समय पर भोजन देने वाला या सुलाने वाला कोई नहीं था। बच्चा पानी से भीग कर ठिठुर जाता था, पर कपड़ा बदलने वाला कोई नहीं था। यह सब देखकर अनीता को बहुत दु:ख होता था।

एक दिन वह अपने-आप कहने लगी-‘मैंने बहुत बुरा किया। विष लेते समय मैंने बच्चे को नहीं सोचा था। आत्महत्या करके मैंने कितना अनर्थ किया ! इसका असर अब मेरे बच्चे पर पड़ रहा है। हाय मेरे लाल ! तुझे कितना दु:ख हो रहा हैं। चलूं, यम से प्रार्थना करूँ कि वह तेरे भी प्राण हर ले।’ कुछ दूर जाकर वह रुक गयी और सोच में पड़ गयी-‘यम उसके प्राण हर लेंगे तो वह भी मुझ ही जैसे भटकेगा। यह दु:ख कैसे दूर होगा ? उसके लिए तो एक मां ही चाहिए। इसके लिए चलूं ईश्वर ही से याचना करूं।’

फिर वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगी-‘‘हे परमेश्वर ! मेरी सहायता कीजिए, मेरे बच्चे का दु:ख दूर कीजिये।’’
इस पर ईश्वर बोले-‘‘अभी सहायता के लिये दौड़ती हो ! मरते समय बच्चे की चिन्ता नहीं थी ?’’
‘‘जो हुआ उसका फल मैं भोग ही रही हूँ। पर हे नाथ ! मेरे बच्चे की रक्षा कीजिये।’’

‘‘तो तुम चाहती क्या हो ?’’
‘‘माँ के बिना बच्चे को बहुत दु:ख हो रहा है।’’
‘‘इसका अभिप्राय ?’’
‘‘बस उसे एक माँ मिल जाये, और कुछ नहीं।’’
‘‘पर तुम तो नहीं जा सकती।’’
‘‘मैं नहीं तो कोई और ही सही।’’
‘‘क्या कहती हो अनिता, सौतेली माँ ?’’
‘‘हाँ ! नहीं के बदले तो यही सही।’’

‘‘पर जानती हो सौतेली माँ के आने पर बच्चे की क्या दशा होगी ?’’
‘‘वह भी तो एक नारी ही होगी। नारी का हृदय स्वभाव से कोमल होता है। कितनी भी कठोर होगी, पर उसके हृदय के एक कोने में दया-ममता तो अवश्य होगी।’’
‘‘तुम इतनी लम्बी-चौड़ी बातें कर रही हो, पर निर्मल पुनर्विवाह करने के लिये तैयार होगा ?’’ ईश्वर ने उसे स्मरण दिलाया।
‘‘अब,’’ लम्बी साँस खींचकर अनिता बोली, ‘‘यह भी एक समस्या है। उन्हें समझावेगा कौन ? आप ही उनमें यह विचार उत्पन्न करें।’’

‘‘ना, ना, मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा,’’ ईश्वर दृढ़ता से बोले।
‘‘तो एक उपाय है,’’ अनिता विनीत भाव से बोली, ‘‘आप मुझे सहायता करें कि मैं स्वप्न में जाकर उन्हें समझा पाऊँ।’’
‘‘अच्छा जाओ, प्रयत्न करो,’’ ईश्वर ने आज्ञा के तौर पर कहा।

निर्मल ‘‘अनिता आ गयी ? आओ, आओ। विजय सो रहा है। तुम्हारे चले जाने से उसे कितना दु:ख हो रहा है। अब तो नहीं जाओगी ?’’
तब अनिता ने उसे समझाया-‘‘मुझे क्षमा कर देना, मैंने बहुत भारी पाप कर दिया है। मैं भी तो सुख से नहीं हूँ। मैं भी दिन-रात दु:ख से तड़प रही हूं। पर अब क्या करूँ ? अब तो लौट कर आ नहीं सकती। तुम एक उपाय करो। पुनर्विवाह कर लो। अपने बच्चे के भले के लिए।’’
‘‘यह क्या कह रही हो अनिता ?’’ आश्चर्य में पड़कर निर्मल ने कहा-‘‘तुम ऐसी बात कर रही हो ?’
‘‘हां निर्मल, पुनर्विवाह कर लो,’’ दृढतापूर्वक अनिता बोली।
‘‘अनिता ! तुम अनिता ही हो या कोई और ?’’

‘‘हाँ, मैं अनिता ही हूं, तुम्हारी ही अनिता,’’ ‘फिर वह आग्रह भाव से बोली, ‘‘मैं तुमसे बार-बार यही प्रार्थना करती हूँ कि पुनर्विवाह कर लो। ऐसा करने से विजय को एक माँ मिल जायेगी और तुम दोनों का दुःख कम हो जायेगा।’’
‘’यह कदापि नहीं हो सकता,’’ निर्मल ने सिर हिलाया, ‘‘मुझे समझ में नहीं आता कि तुम यह कैसे कह सकती हो।’’
‘‘मैं तुमसे बार-बार यह आग्रह करती हूँ कि विजय के लिये एक माँ ला दो।’’
‘‘यह मुझसे नहीं होगा,’’ निर्मल क्रोध में भर कर बोला।
‘‘मैं तुम्हें हाथ जोड़ती हूँ विजय, केवल विजय के लिए एक माँ ला दो। अवश्य ला दो।’’
‘‘अनिता !’’ उसने थप्पड़ मारने के लिए ज्यों ही हाथ उठाया कि उसकी नींद टूट गयी। उसने बार-बार सोचा, पर इस बात के लिए उसका मन तैयार न हुआ।

सायं में जब वह काम से घर लौटा तो विजय को ज्वर चढ़ आया था। उसे अब अनुभव हुआ कि माँ के बिना विजय को कितना दुःख होता है। कल का सपना उसे याद आ गया। इस पर उसने गौर किया। कुछ समय बाद उसने दूसरा विवाह कर लिया। यह देख अनिता को बहुत शांति मिली। उसने देखा कि निर्मल ने अपनी नववधु के सामने मातृत्व की महिमा का कितना लम्बा व्याख्यान दे दिया। अब दिन अच्छी तरह से गुजरने लगे। दिन से सप्ताह हो गया, फिर सप्ताह से पक्ष, पक्ष से मास। पर मास से साल ही न हो पाया था कि विजय पर संकट की आँधी आ पड़ी। विमाता ने अब अपना असली रूप धारण कर लिया था। उस नन्हे-से बच्चे पर वह इस तरह टूट पड़ती जैसे कि कोमल फूल पर गरम पानी।

अपने कोमल फूल को मुरझाते देख कर अनिता को बहुत दुःख हुआ। अपने किये पर वह पछताने लगी। एक भूल उसने की, विजय को अपनी माता से वंचित करके और दूसरी, उसको विमाता दिलाकर।
बहुत सोचने के बाद वह यम के पास दौड़ी और उनसे विनय करने लगी—‘‘हे यमराज ! मेरे बच्चे को बहुत दुःख हो रहा है। उसकी रक्षा कीजिये।’’
तब यमराज ने पूछा—‘‘मुझ यम से तुम कैसी रक्षा की आशा करती हो ?’’
‘‘दुःख से छुटकारा पाने के लिए उसके प्राण हर लीजिये।’’
‘‘हम सब कुछ नियम के अनुसार करते हैं। चित्रगुप्त आता है, वह देखेगा कि तुम्हारे बच्चे की आयु क्या है।’’
चित्रगुप्त के आने पर यमराज फिर बोले—‘चित्रगुप्त, ढूँढ़ो तो इसके बेटे का नाम। देखें कि उसकी आयु कितनी है।’’
फिर चित्र गुप्त ने अनिता से पूछा—‘‘पूरा नाम क्या है ?’’
अनिता आशा से गद्गद होकर बोली—‘विजय हरदात।’’



 
 

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