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दर्द आया था दबे पाँव

जे. एन. कौशल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :263
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 408
आईएसबीएन :81-263-1107-x

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रंगमंच से जुड़े रोचक प्रसंग...

Dard Aaya Tha Dabe Paon - A Hindi Book by - J. N. Kaushal दर्द आया था दबे पाँव - जे. एन. कौशल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जे. एन. कौशल (जितेन्द्र नाथ कौशल) रंगमंच के एक प्रतिभाशाली शिक्षक, निर्माता और लेखक थे। ‘दर्द आया था दबे पाँव’ में उनके 28 लेखों, रंग-प्रसंगों के संस्मरणों का संचयन है। उनके माध्यम से भारतीय विशेषकर हिन्दी रंगमंच का चालीस वर्ष का इतिहास एक भिन्न रूप में  हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है।

प्रस्तुत सभी संस्मरण प्रायः चर्चित रंगकर्मियों से सम्बद्ध है या फिर कुछ अवसरों को रेखांकित करते हैं। बेहद रोचक और आकर्षक शैली में लिखे गये इन संस्मरणों को पढ़ते हुए लगता है जैसे घटनाएं दृश्य चित्रों के रूप में बड़ी नाटकीयता से हमारी आँखों के सामने आकार ग्रहण कर रही हों।

‘दर्द आया था दबे पाँव’ में एक और ब.व. कारन्त, विजय तेंदुलकर, बी.एम. शाह जैसे बारह महान् रंगकर्मियों का अन्तरंग चित्रण है तो अन्य लेखों में घटनापरक कुछ भाव-भीनी स्मृतियाँ और कथ्यपरक आलेख हैं।
आज़ादी के बाद उभरे जिन व्यक्तित्वों ने भारतीय रंगमंच को नई दिशा दी है, उन्हें जानने-समझने में कौशल जी की यह महत्त्वपूर्ण कृति पाठकों के लिए निःसन्देह सहायक सिद्ध होगी।

कहते हैं अलविदा अब इस जहान को,
जाकर खुदा के घर से, फिर आया न जाएगा।
यह सच है मौत हम को मिटा देगी देहर से,
लेकिन हमारा नाम मिटाया न जाएगा।

(नाटक : बेगम और बागी, रूपान्तर जे.एन. कौशल, मूल नाटक : द क्वीन ऐण्ड द रेबेल्ज़, लेखक: ऊगो बेत्ती)

प्रवेशक

सन् 1964 की बात है जब मैं शायद 12-13 वर्ष की बच्ची रही होऊँगी कौशल जी के निर्देशन में हमारे घर पर रिहर्सल हुआ करते थे। तब से उनका नाम रंगमंच के साथ मेरे मानस-पटल पर अंकित हो गया था। 1968 में जब मैं कलाकार के साक्षात्कार के लिए गीत एवं नाटक प्रभाग पहुंची तो उन्हें प्रभाग में मैनेजर के पद पर आसीन पाया, वह सलेक्शन कमेटी के सदस्य भी थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘‘थियेटर करना है तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला लो।’’ यह मेरी उनसे दूसरी मुलाकात थी। मैंने उनके निर्देशानुसार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद 1991 में उनसे फिर मुलाकात हुई जब मुझे उनके साथ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में ही काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह इन दिनों विद्यालय में सहायक प्राध्यापक थे और साथ ही रंगप्रदर्शनी के को-ऑर्डिनेटर भी। उनसे मेरी आखिरी मुलाकात 12 अप्रैल, 2004 को हुई। इस बीच 12 वर्ष कैसे बीत गये, पता ही नहीं चला परन्तु इन वर्षों में उनसे कितना सीखा, कितना पाया, आँकना मुश्किल है। वो तो पूर्ण कलश की तरह हर समय बहते ही चले जाते थे, कभी न खत्म होनेवाला ज्ञान-भण्डार। जाने-अनजाने में कितने ही किस्से, घटनाएँ, नाटक नाटककार, अभिनेता, अन्य रंगकर्मी इत्यादि के सुनाते रहे। आज अफसोस होता है मैंने कभी उनकी सुनायी बातों को रिकॉर्ड क्यों नहीं किया। किस्से-कहानियों की तरह सुनती रही। शायद उनके सामने मैं हमेशा 1964 वाली बच्ची ही बनी रही।

कौशल जी ने सबसे ज्यादा संस्करण लेख स्मृतियाँ इन 12 वर्षों में लिखीं। अक्सर जब वो मुझे ये किस्से की तरह सुनाते तो मैं कहती आप लिखिए वरना...इत्तफाक से इन्हीं वर्षों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने प्रकाशन शुरू किया। कौशल जी को लिखने का एक और कारण मिला, वो रंग प्रसंग के लिए नियमित रूप से लिखने लगे। वो लिखते और पहला ड्राफ्ट मुझे सुनाते या पहला प्रिण्ट लिफाफे में बन्द करके दे देते, जब तक मैं सुन या पढ़ नहीं लेती, फाइनल प्रिण्ट नहीं जाता। उनका सबसे आखिरी लेख ‘पच्चीस साल बाद’ कुरियर से शान्ति निकेतन पहुँचा। मैं वहाँ कार्यशाला के लिए गयी हुई थी जो रंग प्रसंग अंक-14, अप्रैल-जून 2004 में छपा।
उनके लेखों के आरम्भ और अन्त अति रोचक होते थे। बिल्कुल रंगमंच की तरह। जैसे हबीब जी से सुना है एण्ट्री स्ट्राँग होनी चाहिए। कौशल जी का आरम्भ बड़ा ड्रेमेटिक होता था। वो हमेशा पहले ओपनिंग और क्लोज़िंग पैरा लिखते थे।

मैं शान्ति निकेतन की कार्यशाला से लौटी थी। मुझे मेरे ऑफिस की टेबल पर एक लिफाफा मिला, जिस पर मेरा नाम लिखा था और भेजने वाले के हस्ताक्षर थे-कौशल। अपने रुटीन में सामान के साथ लिफाफा मेरे घर पहुँच गया। 10 दिन ऑफिस व घर से अनुपस्थिति रहने के कारण हुई अति व्यस्तता से मैं देख नहीं पायी कि उसमें क्या है। कुछ समय बाद ही मुझे दुबारा कार्यशाला के समापन समारोह के लिए जाना था। मैं खुद भी अस्वस्थ थी। लिफाफा यूँ ही रखा रहा। दिल्ली वापस 11 अप्रैल को आयी, 12 अप्रैल को कौशल जी से मिलना तय हुआ। तबीयत ठीक न होने के कारण एक महीने से वे ऑफिस नहीं आ रहे थे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय कैम्पस में दाखिल होते ही निगाह कौशल जी की कार पर ठहर गयी, वे आ चुके थे। उनके कमरे में गयी तो वह किसी से बात कर रहे थे। मैं खड़ी रही। आने-जाने वालों का ताँता-सा लगा रहा, मुझे उनसे बात करने का समय नहीं मिला। समय की पाबन्दी देखते हुए वो कमरे से बाहर आये, मैं उनके साथ थी। उन्हें पता था, मैं ज्यादा समय नहीं रुक पाऊँगी, मुझे जल्दी लौटना था। कमरे से बाहर आने तक भी कोई-न-कोई मिलता रहा। वो बात करते, मेरी कार तक आये, मैं लौट आयी। बस ये ही मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी जिसमें कोई बात नहीं हुई थी।

14 अप्रैल को कौशल जी अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में एडमिट हो गये। जब उन्हें समय मिलता, वो फोन करते। ऑपरेशन 19 अप्रैल को होना तय हुआ। इन्हीं 15 दिनों में मैंने लिफाफा खोला, देखा उसमें कौशल जी के लेख व संस्मरण की फोटोकॉपी थी। ये तो सब छप चुके थे। इसी दौरान मैंने उनसे फोन पर पूछ ही लिया, मुझे समझ में नहीं आया आपके लेखों के फोटोकॉपी आपने क्यूँ भिजवाये हैं। ये तो सब छप चुके हैं। कौशल जी ने कहा, मैं चाहता हूँ मेरी किताब भारतीय ज्ञानपीठ से छपे, ये उसी के लिए हैं।
कौशल जी की यही हार्दिक व अन्तिम इच्छा थी।

कौशल जी ने अपने एक संस्मरण में कारन्त जी की चर्चा करते हुए लिखा है ‘‘दर्द दबे पाँव ही आया होगा’’ क्योंकि इतना सब-कुछ होने पर भी कारन्त जी ने कभी नहीं कहा था, ‘‘विधाता मत खेलो ये खेल’’। लेकिन उदयपुर में पथरायी आँखों से शून्य में देखते हुए पता नहीं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में शम्भू मित्र चेयर का क्या हुआ ? जैसे वाक्य उनके बार-बार दोहराने से लग रहा था कि मन में कहीं कोई चुभन अटकी हुई है, जिससे दर्द की टीस आह या हाय में नहीं शब्दों में निकल रही है। शेक्सपियर के प्रसिद्ध पात्र जूलियस सीजर की तरह कारन्त जी के जीवन में भी एक ब्रूट्स, उनका अन्तरंग विश्वासपात्र, कोई अपना सा, आया था जिसकी हर बात, हर इशारा वह मानते रहे और वह उनको उनके माध्यम से दूसरों को दर्द देता रहा। अगर उन्हें दर्द के आने का पता भी चल जाता तो भी वह जूलियस सीजर की तरह उसे अपने से कभी नहीं कहते-‘ये टियू ब्रेटे (ब्रूट्स तुम भी)।’

पर जो दर्द दबे पाँव कौशल जी तक आया था और जिसकी टीस उनके दिल में आखिर तक बनी रही, क्या वो कह पाये...। ऑपरेशन थियेटर में जाने से पहले कौशल जी ने कहा, ‘‘दिल्ली मैंने तुझे माफ किया।’’ जैसे दिल्ली शहर न होकर एक शख्सियत हो गयी हो।
शायद उन्हें पूर्वाभास हो गया था...अगर वो वापस न लौटे तो ?
दिल खोलने के बाद राज़ आम हो जाएँगे और वह यह सह न पाएँगे। (उनकी ओपन हार्ड सर्जरी थी, जिसके बाद वह हमेशा के लिए छोड़कर चले गये)

जनवरी, 2005

-किरण भटनागर


साबरमती के बहाने


(ब.व. कारन्त)


‘‘कैसी बनी यह धुन ?’’
‘‘धुन तो अच्छी है, लेकिन सिच्युएशन के साथ कुछ जमती नहीं।’’
स्वर बदले, वाद्यों में परिवर्तन हुआ। गायक-वृन्द ने पूर्वाभास किया और फिर एक धुन रिकॉर्ड की गयी।
‘‘यह कैसी है ?’’ अपेक्षा का स्वर।
‘‘उससे अच्छी है। स्थिति के अनुकूल भी है। फिर भी कुछ कम ही पड़ रही है। काम चल जाएगा।’’

नयी स्वर-लिपि, नया वाद्यवृन्द आयोजन, पूर्वाभ्यास, रिकॉडिंग और फिर वही प्रश्न।
‘‘अब कैसी बनी ?’’
‘‘बनी क्या, आपने तो गंगा किनारे का माँझी गीत उठाकर लगा दिया। स्थिति मछुआरे की नहीं है। न ही गंगा पार यात्रियों को ले जाने की। यह एक नदी की है जो धीमी गति से शान्तवातावरण वाले आश्रम के चरणों में बह रही है। और वह उस आश्रम और उसके निवासियों की कथा सुनाने वाली है। संगीत की धुन ऐसी हो जो उसकी गति, उसके वातावरण और उसकी भूमिका की परिचायक बन सके। कार्यक्रम में जब भी यह धुन बजे, दर्शकों को पता चल जाए कि नदी कुछ कहने वाली है। इस धुन में तो कुछ भी ऐसा आभास नहीं मिलता।’’

‘‘लंच ब्रेक।’’ ब. व. कारन्त जोर से बोले, ‘‘अब ढाई बजे मिलेंगे।’’
चेन्नई के किसी फिल्म रिकॉर्डिंग स्टूडियो में मैं दूसरी बार आया था। पहली बार 1976 में ‘गीत और नाटक प्रभाग’ की ओर से सुब्रह्मण्यम भारती पर ‘ध्वनि और प्रकाश’ कार्यक्रम प्रस्तुत करने आए थे। जिसमें अलग-अलग बहुमंच बनाकर कलाकारों के साथ कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाता है। उसमें भी पूरा नाटक टेप पर रिकॉर्ड किया गया होता है और दृश्य-परिवर्तन पलक झपकते ही हो जाता है। उसमें तीन कलाकार एक ही पात्र की वेश-भूषा पहने, एक ही समय में, तीन स्थानों पर खड़े होते हैं और लाइट आने पर लगता है कि एक ही अभिनेता झटसे उतनी दूर पहुँच गया।
प्रदर्शन रात को होते थे और दिन खाली। तीन-चार मित्र मिलकर सुबह या दोपहर किसी दक्षिण भाषा की फिल्म देखने चले जाते। एक दिन ग्रामोफोन रिकॉर्ड की दुकान पर एक लौंग-प्ले रिकॉर्ड देखा जिस पर कारन्तजी का चित्र बना था। पूछने पर पता चला कि मध्यकालीन कवि पुरन्दर दास की रचनाओं पर आधारित नाटक सत्तवर नेरालू के नाट्य-गीतों का एल.पी. है और कन्नड़ मंच पर नाटक तो सफल है ही, एल. पी. भी खूब बिक रहा है।

यह हमारे लिए एक सुखद समाचार था कि दक्षिण भारत में नाट्य-गीतों के एल. पी. बिकते हैं। हम तो मराठी नाट्य-संगीत के रिकॉर्डों से ही परिचित थे। बाजार में थोड़ा आगे जाकर एक सिनेमाघर में कारन्तजी की फिल्म चोमुन डुडी का पोस्टर दिखाई पड़ा, जिसे उस वर्ष की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और उसके मुख्य पात्र चोम्मा का अभिनय करने वाले ‘वासुदेव राव’ अभिनय का पुरस्कार प्राप्त कर चुके थे। वह फिल्म कई सप्ताह से सुबह नौ बजे के शो में चल रही थी। किसी ने यह भी बताया कि कारन्तजी पास के किसी स्टूडियो में किसी दूसरी फिल्म की रिकॉर्डिंग कर रहे हैं। फिल्म तो अब अगले दिन ही देख पाते। सोचा, कारन्तजी से मिलते चलें। क्या पता वह आज-भर के लिए ही यहाँ काम पर रुके हों ? और हुआ भी वही। वह उसी शाम बंगलौर जानेवाले थे। दिल्लीवाले मित्रों से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। और हमने फिल्म का संगीत, संवाद आदि रिकॉर्ड करने का स्टूडियो पहली बार देखा था जो पर्दा और प्रोजेक्टर समेत एक सिनेमा हाल ही था; परन्तु दर्शकों की कुर्सियों के स्थान पर माइक्रोफोन की तारें, तरह-तरह के वाद्य बिखरे पड़े थे और रिकॉर्डिंग टेप भी आम रिकॉर्डर जैसा न होकर 35 किलोमीटर फिल्म जैसा ही था।

आज चार वर्ष बाद चेन्नई के दूसरे बड़े स्टूडियो में हम संगीत रिकॉर्डिंग के लिए दिल्ली से आए थे। परन्तु रिकॉर्डिंग फिल्म की नहीं थी। ‘सों-एट-लुमियेर’ शो की थी जिसकी क्वालिटी फिल्म जैसी ही दरकार थी।
यूँ तो कारन्त जी क्वालिटी की सुविधाएँ कभी भी उपलब्ध नहीं थीं। जिन दिनों वह ऋष्य श्रृंग का संगीत तैयार कर रहे थे तो बंगलौर से 50 किलोमीटर दूर गाँव में गिरीश कर्नाड के साथ दिन-भर गोधूलि की शूंटिग करते। रात बंगलौर आकर अपने ग्रुप ‘बेनका’ के शौकिया संगीतकारों के साथ संगीत-रचना करते क्योंकि निर्माता के पास पैसा नहीं था और चेन्नई से एक बाँसुरीवादक आया भी तो वह अगले ही दिन भाग गया। रिकॉर्डिंग की सुविधाएँ बस काम-चलाऊ थीं फिर भी, उन्हें फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म-संगीत का राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त हुआ। स्थितियाँ बेहतर न होते हुए भी घटश्राद्ध, काडु, खारिज और हँसे गीते को भी राष्ट्रीय सम्मान मिले। मृणाल सेन की फिल्मों में संगीतकार तो सुलझे हुए मिले परन्तु रिकॉर्डिंग वहाँ भी साउण्ड-प्रूफ स्टू़डियो में नहीं हो पाती थी। सुविधावंचित कारन्त का मानना था कि साउण्ड ट्रैक का पूरी फिल्म की तरह एक सिनेरियो होना चाहिए, जिसमें संवाद, खामोशी इधर-उधर की आवाजें, वातावरण की झाएँ-झाएँ और गीत-संगीत सभी योजनाबद्ध हों। उन्हें सत्यजित रे की फिल्म नायक में चलती रेलगाड़ी की भिन्न-भिन्न ध्वनियों में एक लयकारी का अहसास हुआ था। वह मानते थे कि रात के सन्नाटे में दूर गाँव में मोटर का जाना, या किसी रेल इंजन का छुक-छुक करना-सभी साउण्ड ट्रैक का हिस्सा है। और यह तय करना है कि इस क्रम में कहाँ और कब तक वाद्य अथवा अन्य संगीत रहेगा। और देखा जाए तो सचमुच यह 15-20 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।

असुविधाओं में काम करने वाले कारन्त को बड़ा आर्केस्ट्रा मिल भी जाए तो वह कम-से-कम साजों से काम चला लेते हैं। अपनी फिल्म चोमुन डुडी में मुख्य साज डुडी ही है जो पात्र की खुशी, गम, तृष्णा, वितृष्णा जुनून-सभी कुछ दर्शाता है। उसमें झींगुरों की अलग-अलग आवाजें, समय और अन्तराल दिखाती है। मृणाल सेन की फिल्म परुषराम में मकान बनाने के औजारों की ध्वनियाँ प्रयोग में लायी गयी है। मृणाल सेन की ही फिल्म एक दिन प्रतिदिन में एक खस्ता हाल बहुमंजिली इमारत में रहनेवालों की मनोदशा दिखाने के लिए एक पुराने बिगड़े हुए चर्च के आर्गन के सेगीत का प्रयोग किया गया था। हँसे गीत के मुख्य पात्र के गायन के साथ मानव-वृन्द का प्रयोग किया गया था। कारन्तजी को लगा था कि वह पात्र जब गाता है तो अकेला गाता है और जब वह चुप हो जाता है तो पूरे ब्रह्माण्ड में संगीत फूट पड़ता है।

पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्राप्त करनेवाले कारन्त अपनी संगीत-रचना प्रक्रिया में शास्त्रीयता से ही जुड़े नहीं रहना चाहते। वह हवा की साँय-साँय मेढ़कों की टर्र-टर्र, झींगुरों की झाँय-झाँय, साइकिलों के साथ-साथ हिन्दुस्तानी तथा कर्नाटक शैली का संगीत, आनुष्ठानिक, आदिवासी और धार्मिक संगीत के साथ-साथ कव्वाली, भजन, नात, ग़ज़ल, टप्पा दादरा, नाट्य-संगीत लोक-नाट्य संगीत के अतिरिक्त अब तक बने सारे फिल्मी संगीत को भी अपनी धरोहर मानते हैं। कारन्तजी की संगीत-रचना में बँधी-बँधायी रचना कम, प्रयोगधर्मिता अधिक रहती है।
कारन्तजी द्वारा निर्देशित बहुप्रशंसित नाटक गोकुल निर्गमन में कृष्ण जब सबसे विदा लेकर गोकुल छोड़कर जाते हुए अपनी बाँसुरी एक वृक्ष के तने पर छोड़ जाते हैं तब बाँस की वह पोरी बाँसुरी बनकर गोकुल निवासियों के मन में उठनेवाली हूक की तरह गूंज उठती थी। ऐसी व्याख्या कारन्त ही कर सकते हैं। नहीं तो कृष्ण के हाथ में बाँसुरी हो और पूरे नाट्य-प्रदर्शन में उसकी धुन सुनाई न पड़े। ऐसा कभी हो सकता है ?

आज जिस कार्यक्रम की रिकॉर्डिंग आरम्भ हो रही थी, वैसा कार्यक्रम कारन्तजी ने पहले कभी नहीं किया था। उन्होंने तो क्या, सिर्फ एक व्यक्ति को छोड़कर किसी भी भारतवासी ने नहीं किया था। कार्यक्रम था ‘सो-एट-लुमियेर’ (ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम) जो श्रीनगर में डल झील के किनारे एक बाग में, दिल्ली के लाल किले में और अहमदाबाद में गाँधीजी के साबरमती आश्रम में ही चलता था और इन तीनों कार्यक्रमों के निर्देशक थे सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक चेतन आनन्द।
साबरमती का कार्यक्रम गाँधीवादियों को पसन्द नहीं आया था और बन्द कर दिया गया था। मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के काल में इसे दोबारा नये सिरे से बनाने की योजना बनी और रा. ना. वि के तत्कालीन निदेशक ब. व. कारन्त को इसका भार सौंपा गया।

कारन्तजी ने आज तक जो काम किया था, यह कार्यक्रम उससे बहुत अलग था। अब तक जो मंच पर कलाकार और दूसरे ताम-झाम रहते थे या उनका अभाव रहता था। या फिर टी.वी और सिनेमा में बिम्ब (विजुअल) के रूप में मौजूद रहता था। यहाँ तो वह सब कुछ नहीं था। न ही गीत तथा नाटक प्रभाग के प्रकाश कार्यक्रमों की तरह मनवांछित मंच और कलाकार थे। यहाँ तो बस साबरमती आश्रम की कोठरियाँ और बरामदे, या आस-पास के पेड़-पौधे और वह भी उतना ही जितना दर्शक दीर्घा से दिखाई पड़े।
यहाँ कारन्तजी को केवल संगीत ही नहीं देना था, निर्माण और निर्देशन भी कराना था। ध्वनि-मुद्रण में रेडियो-नाटकों जैसी कुछ रिकॉर्डिंग तो तैयार करनी ही थी, उसके लिए एक नयी ग्रामर भी तैयार करनी थी। प्रकाश परिकल्पना और संयोजन तापस सेन करने वाले थे। उनकी कल्पना की उड़ान का दारोमदार भी मुद्रित-ध्वनि पर ही टिका हुआ था। वह भी आलेख पढ़ने से लेकर रिकॉर्डिंग एडिटिंग आदि में मौजूद रहते थे। उन्हें ही सीमित पटल पर प्रकाश द्वारा कार्यक्रम को सजीव बनाना था।
मूल आलेख गुजराती के वयोवृद्ध नाटककार प्रो. सी. सी. मेहता का था। अँग्रेजी अनुवाद गिरीश कर्नाड का तथा हिन्दी अनुवाद कवि भवानी प्रसाद मिश्र का था। इस विधा में एक नया अंश जोड़ा गया जिसे ‘साउण्ड सिनेरियो’ का नाम दिया गया। वह काम मुझे सौंपा गया था।

‘साउण्ड सिनेरियो’ दृश्य-परिचय मात्र नहीं था। उसका गीत, संगीत, वातावरण, यहाँ तक कि दृश्य के मुताबिक मौसम का अहसास तक कैसे उत्पन्न किया जाए ? और यह ध्वनि दृश्य एकतरफा नहीं थे। स्टीरियो साउण्ड की मदद से दो-तीन दृश्य एक ही समय में देखे-सुने जा सकते थे।
मूल आलेख साबरमती के इस आश्रम की स्थापना, गाँधीजी के वहाँ आगमन तथा आश्रम की दिनचर्या पर आधारित है। उसमें गाँधीजी के जीवन की विगत घटनाओं की चर्चा भी है। घटनाओं की भूमिका, परिचय, विश्लेषण तथा मंचन सभी है। गाँधीजी को दक्षिण अफ्रीका में गाड़ी से निकाल फेंकना, पठान से साक्षात्कार, आश्रम में भजनावली कार्यक्रम जिसमें सर्वधर्म प्रार्थना होती है और विचार-गोष्ठी आदि भी।

कार्यक्रम में जो सूत्रधार रखे गये। साबरमती नदी-जो वहाँ के व्यापक परिदृश्य से परिचित हैं और आश्रम का बूढ़ा नीम का पेड़-जो वहाँ की हर घटना का साक्षी है।
आलेख में तो संवाद मात्र थे। ‘साउण्ड सिनेरियो’ के लिए सामग्री जुटानी पड़ी। कौन सी स्थिति के लिए कौन सा गीत उचित रहेगा। डाँडी मार्च के लिए टैगोर का ‘एकता चलो रे’ चुना गया। एक और दृश्य के लिए टैगोर का ही ‘भुवन मोहिनी’ चुना। मिस स्लेद/मीरा बेन के लिए मीरा का उपयुक्त भजन और फिर देश-भर के बहुभाषी आजादी के तराने तथा उनकी मूल और प्रामाणिक धुनें।

इतना ही नहीं, देश-भर के मूर्धन्य गायक-गायिकाओं से वह गीत गवाये गये। समूह गीतों के लिए प्रदेश विशेष की जानी-मानी वृन्दगान मण्डलियों को बुलवाया गया ! गीत, संगीत की रिकॉर्डिंग चेन्नई, दिल्ली, मुम्बई में हुई जबकि नाट्यांश प्राय: मुम्बई में ही रिकॉर्ड किये गये। टैगोर के दोनों गीत गाने के लिए रवीन्द्र-संगीत के प्रवीण गायक उग्रसेन को कोलकाता से चेन्नई बुलवाया गया। मीरा का भजन शोभा गुर्टू से गवाया गया जबकि आजादी के तराने, रामायण की चौपाइयाँ तथा तलावत-ए-कुरान बशीर अहमद की आवाज में थीं।
संगीत की भाषा में हर मुख्य पात्र अथवा घटना के लिए एक सांकेतिक वाद्य या कोई धुन चुनी गयी जैसे  गाँधीजी के लिए ‘एक तारा’ अहिंसा, सत्याग्रह, आश्रम कुटीर, नीम का पेड़ आदि से भी एक संगीतात्मक परिचय तय किया गया। वातावरण, दृश्य, स्थान आदि की कितनी भी छवियाँ क्यों न हों, पात्र-विचार अथवा घटना-विशेष अपनी स्वरलहरी से पहचान बना लेती थी।

आज की रिकॉर्डिंग साबरमती का सांकेतिक अथवा ‘थीम’ संगीत तैयार करने की प्रक्रिया थी जिसमें पहली तीन धुनें ‘साउण्ड सिनेरियो’ के मुताबिक ठीक नहीं जँच रही थीं और लंच ब्रेक हो गया था। लंच ब्रेक में बहुत चर्चा, परिचर्चा हुई और इस बार जो धुन बनी, वह सुनकर लगा कि हम साबरमती आश्रम के किनारे खड़े धीमी गति से बहती नदी को एकटक देख रहे हों, जो किसी भी पल बोल पड़ेगी, ‘मैं साबरमती हूँ।’

रिकॉर्डिंग का सिलसिला महीनों चलता रहा। प्रामाणिकता की तलाश, सही आवाजें और इस बीच टेक्नीकल टीम के साथ कारन्तजी, तापस दा और मेरा आश्रम जाकर वहाँ के वातावरण को आत्मसात् करना। वह जगह लालकिले जैसी भव्यता का नमूना नहीं है। इसलिए गम्भीरता से सोचने और तय करने की बात यह थी कि कम जगह में, कौन सा दृश्य कहाँ उभरेगा ? प्रकाश-योजना के लिए कितनी सम्भावनाएँ हैं ? कहीं तो पूरा दृश्य एक ही लाइट में होगा। कहीं रंग बदलकर उसी पटल पर दृश्य परिवर्तन होगा। कारन्तजी नयी-नयी ध्वनियों की खोज में लगे थे कि कैसे कक्ष के अन्दर चलनेवाली गोष्ठी की आवाज ठीक से सुनाई भी दे और अन्दर की आवाज भी लगे। मैं उसी समय वातावरण की ध्वनियों के बारे में सोचता था। फिर सब ध्वनियों की सूची बनती। तूफानी रात, घोड़ागाड़ी, रेलगाड़ी प्लेटफार्म पर। तेज हवा तो कितनी तेज ? बारिश मूसलाधार, बादल की गरज, बिजली की चमक। फिर पूर्ण शान्ति। आश्रम की प्रार्थना सभा आदि का माहौल। और भी जाने क्या-क्या ? गीत, संगीत नाट्यांश तथा हर प्रकार के साउण्ड इफैक्ट्स आदि की आठ-दस घण्टे की रिकॉर्डिंग तैयार थी। अब अगला कदम साउण्ड ट्रैक सम्पादन का था, जिसमें सारे कार्यक्रम को पचास मिनट में समेटना था, क्योंकि तकनीकी तथा अन्य कारणों से समय सीमा पचास मिनट ही होती है। मुंबई में केवल एक ही स्टूडियो था ‘वेस्टन आउटडोर’ जहाँ यह सुविधा उपलब्ध थी। पचास मिनट का कार्यक्रम तैयार करने के लिए कम-से-कम चालीस घण्टे स्टूडियो का समय दरकार था। जिससे मल्टी ट्रैक मिक्सिंग तथा सम्पादन हो सके। हर गीत-संगीत को सुनना, चयन करना और सही इफैक्ट डालने का विचार आ जाता जिससे कार्यक्रम का प्रभाव बढ़ सके। फाइनल टेप टुकड़ों में तैयार नहीं होता। कार्यक्रम गाँधीजी के आश्रम में एक तूफानी रात, घोड़ागाड़ी में सवार आधी रात को पहुँचने तक रिकॉर्ड हो चुका था और कोई पाँच मिनट आगे बढ़ गया था। कारन्तजी ने कहा कि गाँधीजी के आने का दृश्य फिर से रिकॉर्ड किया जाए। तकनीशियनों ने कहा कि इसमें तो आठ-दस घण्टे का काम बढ़ जाएगा, जबकि एक घण्टे का किराया पाँच हजार रुपये है। कारन्तजी ने कहा, ‘‘कोई बात नहीं।’

दृश्य था, तूफानी रात, बारिश, जोर की हवा, दूर से एक घोड़ागाड़ी आकर रुकती है। उद्घोषक कहता है, ‘‘उस तूफानी रात, घोड़ागाड़ी में एक व्यक्ति उतरा जो देश की राजनीति में एक तूफान ले आया। उसका नाम था, ‘मोहनदास करमचन्द गाँधी’।’’ और तूफान की आवाज तेज हो जाती है।

कारन्तजी ने सारा दृश्य वैसा ही रखा परन्तु, उद्घोषक के संवाद, ‘‘उसका नाम था...’ के बाद बाँसुरी की एक छोटी-सी मधुर धुन बढ़ा दी। लगा जैसे जादू हो गया हो। उस धुन ने आगे बोले जानेवाले नाम ‘मोहनदास करमचन्द गाँधी’ को जैसे दैवी रूप प्रदान कर दिया हो। यह बात कारन्तजी जैसे व्यक्ति को ही सूझ सकती थी और उसे हर मूल्य पर पूरा भी वही कर सकते थे।





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