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कहानी संग्रह >> सूखे कुएँ

सूखे कुएँ

आशा साकी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4076
आईएसबीएन :81-89355-07-4

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प्रस्तुत है रोचक कहानी-संग्रह....

Sookhe Kuen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरी पत्नी एक लेखिका

‘‘पंजाबी के विख्यात कहानीकार एस. साकी की श्रेष्ठ कहानियों का यह संग्रह जो हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित हुआ है, उसका तो रंग ही अनोखा है। ऐसा लगता ही नहीं है कि ये अनुवाद की हुई कहानियाँ हैं।
इस महत्त्वपूर्ण संग्रह में साकी जी की पत्नी श्रीमती आशा साकी का विशेष योगदान है। यह आशा साकी की कलम का ही जादू है कि यह संग्रह हिंदी का अपना संग्रह बन पाया है। इस तरह यह संग्रह हिन्दी–संसार में विशेष आदर पाएगा।’’

जब मेरे छः कहानी-संग्रह प्रकाशित हो गए तो एक दिन पत्नी ने यूँ ही कहा कि वह मेरी कहानियों का हिन्दी में अनुवाद करेगी।
यद्यपि वह दिल्ली की होने के कारण इंग्लिश मीडियम में पढ़ी है, परन्तु हिन्दी में कहानियाँ अनुवाद करना सुनकर मुझे अजीब-सा लगा।
फिर कहानियाँ अनुवाद हुईं और साकी की ‘श्रेष्ठ इक्यावन कहानियाँ’ के नाम से प्रकाशित भी हो गईं।
बात बीत गई और मैंने भी सोच लिया कि चलो हो गई होंगी।
लेकिन फिर जब एक दिन ब्लिट्ज में हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक ‘डॉ. शिवानन्द नौटियाल जी’ का इन कहानियों के बारे में रिव्यू पढ़ने को मिला जिसकी कुछ पंक्तियाँ मैंने प्रारंभ में लिखीं हैं, तो मैं हैरान ही रह गया।

इसके बाद तो पत्नी ने एक सौ पचास पृष्ठों के दो उपन्यास, छः सौ पचास पृष्ठों के दो वृहद नॉवल, बीस-बीस कहानियों के दो संग्रह हिन्दी में अनुवाद किए और आजकल वह मेरा लिखा पाँच सौ तिरासी पृष्ठों का उपन्यास भी अनुवाद करने में लगी हुई हैं।
फिर एक दिन पत्नी ने कहा कि उसने एक कहानी लिखी है।

यह सुनकर मैं आश्चर्यचकित उसके मुँह की तरफ देखने लगा। यूँ मैं जानता था कि कुछ भी सुचारु ढंग से लिखने की प्रतिभा उसमें अवश्य है, परन्तु उसके द्वारा सुनाए जाने पर हैरानी हुई कि पहली लिखी कहानी भी इतनी खूबसूरत हो सकती है।

फिर तो जैसे न जाने कब का झील में इकट्ठा हुआ पानी अपने सारे किनारे और बाँध तोड़कर बाहर निकल आया। और फिर कहानियाँ लिखी जाने लगीं, सुनाई जाने लगीं एक के बाद एक नई कहानियाँ।
और फिर पहला कहानी-संग्रह ‘सूखे कुएँ’ प्रेस में जाने के लिए तैयार हो गया और दूसरा भी प्रकाशन की तैयारी में है। पाठक को कहानियाँ पढ़ते हुए यह महसूस हो ही नहीं सकता कि ये किसी नई लेखिका द्वारा लिखी कहानियाँ हैं।

आशा साकी की कलम से ‘मुक्ति एक बन्धन से’, ‘संस्कार’, ‘सूखे कुएँ’, ‘इन्साफ एक जज का’ जैसी खूबसूरत कहानियों ने जन्म लिया। और भी बहुत-सी कहानियाँ।

ऐसी कहानियों की रचना कोई सुहृदय लेखक ही कर सकता है, जिनको पढ़ते हुए पाठक कहानी के साथ-साथ ही चलता रहता है जैसे यह तो उसकी अपनी गाथा हो, उसी की आप बीती हो। जो कुछ भी कहानी में घट रहा है पाठक मानो अपनी आँखों से देख रहा हो।
ऐसी लेखिका द्वारा भविष्य में बहुत बढ़िया साहित्य की रचना करने की उम्मीद है।


 
एस. साकी

मुक्ति एक बन्धन से



‘‘वह घर नहीं आएगा...! तुम चाहे कितनी भी शोर मचाओ....! मैं देखती हूँ कि कैसे आता है वह.....! मैं ऐसे रिश्तों को नहीं मानती ! कहीं इस तरह बनाए रिश्ते भी निभते हैं....? तुम्हें कितनी दफा समझा चुकी हूँ कि पढ़ाई करनी है तो सीधे घर आओ ! बेकार की बातों में पड़ने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुम हो कि समझती नहीं हो...!’’

‘‘अरे...तुम खुद समझ जाओ न...! वह तो बच्ची है....! समझ जाएगी सब अपने आप...! और फिर तुम किस जमाने की बात कर रही हो भाई....! अब जब बच्चे को एजूकेशन में पढ़ेंगे तो दोस्ती होगी ही न आपस में ? न कि लड़कों के लिए मुँह सिलकर बैठ जाएँ लड़कियाँ...। हद हो गई मीता तुम्हारी भी...।’’ पति थोड़ा खीझकर बोले।
‘‘यही तो मैं भी कह रही हूँ पापा, लेकिन ममा हैं कि कुछ समझती ही नहीं हैं.....।
‘‘इट्स ए जैनरेशन गैप ममा....
‘जैनरेशन गैप ओनली !’’
दो दिन से मुँह फुलाए बैठी बेटी फौरन कमरे से बाहर निकलकर पापा की शह पर बोलने लगी थी।

‘‘हाँ...आँ...दोस्ती ...? दोस्ती ही तो होती है यह... ! यह तो मैं भी कहती हूँ ...! और क्या कह रही हूँ मैं...! आपको कुछ मालूम भी है....! यूँ ही बस कुछ भी जाने-बूझे बिना चले हैं बेटी की तरफदारी करने।
‘‘और मैं क्या समझती नहीं ? सब जानती हूँ मैं...। कैसे होते हैं इस तरह के रिश्ते ...!’’ पति की बात पर बेहद गुस्सा आ जाता है मुझे।

‘‘ऐसे रिश्तों में या तो पहले से ही लगाव होता है और उन्हें छुपाने के लिए ही बनाए जाते हैं या फिर बाद में लगाव पनपने लगता है। खालिस दोस्ती ही लड़के-लड़की को हो—ऐसा कम ही होता है। क्या कम...होता ही नहीं है, मेरा तो यही मानना है।
‘‘और बाकी रही इसकी बात....तो यह ही कहाँ की बच्ची रह गई अब...! बच्ची है यह...? बी.ए. फाइनल के पेपर देने जा रही है...अभी बच्ची ही रहेगी यह ? बाकी सब बातों की तो अक्ल है इसे, बस इसी बात की समझ नहीं है। और फिर कितने दिन से समझा रही हूँ, लेकिन यह समझने को तैयार ही नहीं...। ऊपर से मुझे ही कहती है...जैनरेशन गैप है...।

‘‘अरे...जैनरेशन गैप को हम भी समझते हैं...पढ़े-लिखे हैं...इतने बेवकूफ तो नहीं हैं हम भी...यदि यह गैप होता न...तो तुम्हें को–ऐड में पढ़ने न भेजते....। इतनी आजादी, इतनी छूट न देते...। इस गैप को तो तुम लोग ही समझ नहीं पाते हो.....! यही बात तुम्हारे भेजे में नहीं बैठती है...! और जब बात दिमाग में आती नहीं है न, और बड़ों की बातें समझने की बजाय शूल की तरह चुभती हैं न..., तब तुम्हीं इसे जैनरेशन गैप का नाम देते हो....।

‘‘देखो लड़की...तुम्हें समझना हो तो समझो वरना दस दिन...बीस दिन, जितने दिन चाहे मुँह फुलाए बैठी रहो...! लेकिन मैं उसे घर नहीं आने दूँगी और न ही इस तरह के रिश्ते बनाने दूँगी।
‘‘अरे मूर्ख, तुम क्या जानो कि राखी के जरिए ही इनका घर में आने का बेधड़क रास्ता हो जाता है...! और फिर...!’’
‘‘अच्छा भई...तुम जानो और तुम्हारी बेटी...मैं तो बस इतना कहना चाह रहा था कि बहुत लम्बी-चौड़ी बात है नहीं....जो भी समझाना है इसे प्यार से समझाओ....। लाओ मेरा बैग दो और गाड़ी की चाबी दो...मुझे क्यों देर करा रही हो ऑफिस के लिए।’’ कहकर मेरे पति तो सामान उठाकर बाहर चले गए, और सोनू मेरी बेटी एक एक टक मेरे मुँह की तरफ देखती हुई सुनती रही। फिर बिना कुछ बोले वह भी चुपचाप अपने कमरे में चली गई।

जब भी मुझे इतने गुस्से में देखती है तो वह कुछ नहीं बोलती। आगे से समझ जाती है कि ममा जो कह रही है वह सही ही होगा...। क्योंकि उसे भी पता है मुझे इतना गुस्सा कभी नहीं आता है। मैं हमेशा कोई भी बात बच्चों को बहुत प्यार से और धीरज से ही समझाती हूँ। और जब मैं इतने क्रोध में होती हूँ तो इसका मतलब होता है कि बच्चे ही मेरी बात को समझ नहीं पा रहे हैं। मैं तो सही ही होती हूँ। और जब मैं ठीक होती हूँ, सही होती हूँ, तो अड़ जाती हूँ अपनी बात पर।
सोनू भी इस बात को जानती है, लेकिन यह उम्र ही ऐसी होती है कि बच्चों को माँ-बाप की बात सही नहीं लगती है।

छोटे बेटे से बड़ी सोनू—मेरी बेटी जो इस वर्ष अठारह की हो जाएगी और बीए. ए. फाइनल के पेपर देकर अगले साल लॉ की कक्षाओं में दाखिला लेगी...! शुरू से ही बहुत अच्छे को-एजूकेशन स्कूल में पढ़ने के बाद...लड़के-लड़कियों के एक साथ पढ़नेवाले कॉलिज में ही दाखिला लेकर बी.ए की पढ़ाई की है उसने। कॉलिज में ही पढ़ रहे पुनीत नाम के लड़के से अच्छी दोस्ती है उसकी। कितनी बातें उसकी वह अक्सर घर आकर बताया करती है—मामा, पुनीत ऐसा तो पुनीत वैसा। नीली शर्ट कितनी जँचती है उसे। पढ़ाई में ऐसा है वैसा है।

सोनू की खूबी है कि वह कोई भी बात मुझसे छिपाती नहीं है और जब तक बाहर की सारी बातें कर मुझे नहीं बता देती चैन नहीं मिलता उसे....। शायद इसकी ही वजह है कि मैंने भी कभी उसके साथ केवल माँ का-सा रिश्ता न रखकर उससे बढ़िया दोस्ती का, मित्रता का रिश्ता ज्यादा रखा है। हम दोनों माँ-बेटी—माँ बेटी कम बल्कि सहेलियाँ ज्यादा हैं...। न उसे कोई बात मुझसे किए बिना चैन आता है, न मैं ही इधर-उधर की, पड़ोसियों की रिशेतदारों की कोई बात उससे किए बना रह सकती हूँ...।
कहते हैं न कि माँ-बेटी का पेट तो एक ही होता है, इसलिए इस रिश्ते को सबसे गहरा और प्यारा रिश्ता माना जाता है।
लेकिन अब..? फिर भी मुझे समझ नहीं आ रहा कि सोनू मेरी बात को समझ नहीं पा रही है या कि समझना नहीं चाहती है।

पिछले छः दिनों से बेहद प्यार से एक ही बात समझा रही हूँ उसे कि ठीक है बेटा...अब जब लड़के लड़कियों का इकट्ठा कॉलिज है तो सबसे बोलना करना पड़ता है। अब ऐसा तो नहीं हो सकता कि लड़कियों से ही बोला करो लड़कों से नहीं ! इतने दकियानूसी होना तो अच्छा नहीं है...सबसे बोलो...दोस्ती करो, मित्रता करो, विचारों का अदान-प्रदान करो, लेकिन साथ ही बुद्धि और अक्ल को भी खुला रखो...अब ये कहाँ की तुक हुई कि एक साथ पढ़ते-लिखते हुए उसने कह दिया की राखी बाँध दो तो तुमने कह दिया कि बाँध दूँगी, घर आ जाना...!

 

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