लोगों की राय

विविध >> जीवन रश्मियाँ

जीवन रश्मियाँ

व्यथित हृदय

प्रकाशक : चेतना प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4066
आईएसबीएन :81-89364-05-7

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

29 पाठक हैं

महान पुरुषों की जीवनियाँ....

Jivan Rasmiyan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश


अतीत के वन्दनीय भारतीयों के चरित्रों का मनन, चिन्तन-उसकी जीवन-कथाओं का अनुशीलन। विद्यार्थियों के लिए तो यह सर्वाधिक आवश्यक है, क्योंकि वही हमारे कल के समाज और राष्ट्र के कर्ण धार होंगे।
इस पुस्तक का प्रकाशन इसी उद्देश्य को सामने रखकर किया गया है। भारतीय आकाश के परमोज्ज्वल नक्षत्रों के चरित्रों का इसमें अंकन किया गया है, जो चरित्र को ‘चरित्र’ और धर्म को ‘धर्म’ का रूप देकर धरती पर अमर हो गए हैं। अंकन में चरित्रों को प्रकाश में लाने के लिए घटनाओं का आश्रय लिया गया है।

आत्म-निवेदन


नए भारत में सब कुछ है, है केवल चरित्र का अभाव। यदि नए भारत के स्वरों में-जिनमें पौरुष है, विज्ञान है, कामना है, और है जीवन के पथ पर आगे बढ़ने की प्रतिद्वन्द्विता-चरित्र और मानवीय धर्म की ध्वनि भी समाविष्ट हो जाए, तो कौन स्वीकार नहीं करेगा, कि स्वर्ण में सौरभ का समावेश हो गया।
एतदर्थ एक ही उपाय है-अतीत के वन्दनीय भारतीयों के चरित्रों का मनन, चिन्तन-उनकी जीवन-कथाओं का अनुशीलन। विद्यार्थियों के लिए तो यह सर्वाधिक आवश्यक है, क्योंकि वही हमारे कल के समाज और राष्ट्र के कर्णधार होंगे।
इस पुस्तक की रचना इसी उद्देश्य को सामने रखकर की गई है। भारतीय आकाश के उन परमोज्जवल नक्षत्रों के चरित्रों का इसमें अंकन किया गया है, जो चरित्र को ‘चरित्र’ और धर्म को ‘धर्म’ का रूप देकर धरती पर अमर हो गए हैं। अंकन में चरित्रों को प्रकाश में लाने के लिए घटनाओं का आश्रय लिया गया है।
-श्री व्यथित हृदय


हंस और सिद्धार्थ


सन्ध्या का समय था। सूर्य की किरणें धीरे-धीरे पश्चिम की ओर में छिपती जा रही थीं। सम्पूर्ण गगन-मण्डल पर स्वर्णिम अरुणिमा से आरक्त। पक्षी अरुणिमा को देखकर चहचहाते, मधुर गीत गाते और कुछ निःशब्द भी दल-के-दल आकाश मार्ग से अपने घोंसलों की ओर भागे जा रहे थे। मानो सन्ध्याकालीन इस अरुणिमा से इन मूक पक्षियों ने आने वाली किसी विशेष घटना का अनुभव किया हो।
सन्ध्याकाल की यह अरुणिमा प्रकृति के ऊपर पड़कर एक अनुपम छवि काढ़ रही थी। सारा विश्व आनन्द में विभोर होकर उस छवि को देख रहा था। उसी विश्व में तो वे दोनों राजकुमार, देवदत्त और सिद्धार्थ, कपिलवस्तु के राज्य-कानन में घूम-घूमकर अस्त होते हुए सूर्य की किरणों के साथ खेलती हुई प्रकृति की शोभा को देख और सुन रहे थे-आकाश मार्ग से अपने घोंसलों की ओर जाते  हुए पक्षियों का चहचहाना।

आकाश मार्ग से उड़कर जाते हुए राजहंसों के एक दल को देखकर सहसा देवदत्त बोल उठा, ‘‘सिद्धार्थ ! वह देखो मनोरम राजहंसों का एक दल।’’
सिद्धार्थ ने भी राजहंसों के उस मनोरम दल को देखा। वे अपनी स्वतन्त्रता के अनुपम सुख में मग्न होकर, बड़ी शान्ति से, बड़ी सौम्य गति से अपने पथ पर चले जा रहे थे। सिद्धार्थ कुछ क्षण के लिए उन्हीं के सुख में डूब गए। मानो वह भी उस दल के एक राजहंस हों और उन्हीं के साथ-साथ उनके पथ पर उड़े जा रहे हों।
अपने को भूलकर सिद्धार्थ अभी आकाश में उड़ते हुए राजहंसों को ध्यान से देख ही रहे थे कि कुछ ही दूरी पर एक हंस चीत्कार के साथ तड़पता हुआ, भूमि पर आ गिरा। सिद्धार्थ ने एक बार उस राजहंस की ओर देखा और फिर देवदत्त की ओर। राजहंस की पीठ में शर प्रविष्ट था और देवदत्त के हाथ में था, सन्धानित धनुष। सिद्धार्थ पीड़ा के स्वर में बोले उठे-‘‘देवदत्त !’’

देवदत्त मौन ही रहा; किन्तु सिद्घार्थ उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही शीघ्र आहत राजहंस के पास पहुँचे। वह रक्त से लथपथ, पीड़ा से कराह रहा था। सिद्धार्थ ने उसे अपने करतल पर लिया और हंस ने सिद्धार्थ की ओर याचना की दृष्टि से देखा। राजहंस की वह दृष्टि ! न जाने क्यों सिद्धार्थ के नेत्रों में जल छलक आया। उन्होंने उस पर करुणा से अमृतोपम दो बिन्दु गिराकर धीरे से बाँण खींचा और उसे अपने रेशमी वस्त्र में छिपा लिया। आश्चर्य क्या, यदि सिद्धार्थ के उस रेशमी वस्त्र में आहत राजहंस ने पीड़ा के स्थान पर शान्ति और सुख का अनुभव किया हो।
 देवदत्त बिलकुल निश्चिन्त ! न जाने कितने पक्षी नित्य ही मृत्यु की गोद में जाते हैं। फिर उसने एक राजहंस को अपने शर से वेध दिया तो क्या; पर सिद्धार्थ ! ऐसा लगा मानो देवदत्त का शर उन्हीं के शरीर में घुसकर उनके प्राणों के तन्तु तोड़े दे रहा हो। सिद्धार्थ राजहंस की पीड़ा से अधिक आकुल हो उठे और उसे लेकर पहुँचे राजवैद्य के पास।
‘‘राजवैद्य ! यह राजहंस देवदत्त के शर से आहत हो गया है, इसे बचा लीजिए। देखिए, इसकी मूक दृष्टि !’’ –सिद्धार्थ ने वाणी में वेदना घोलकर राजवैद्य से कहा।

राजवैद्य ने राजहंस की ओर देखकर सिद्धार्थ की ओर देखा। सिद्धार्थ के अंग से करुणा बरस रही थी। राजवैद्य को ऐसा लगा मानो सिद्धार्थ कोई देवदूत हों और प्रेम के रथ पर सवार होकर आहत राजहंस पर करुणा की वर्षा कर रहे हों। राजवैद्य उस करुणा से सन्तप्त होकर राजहंस की चिकित्सा करने लगे। राजवैद्य की चिकित्सा और सिद्धार्थ की सेवा ! राजहंस पुनः गगन की गोद में विहार करने लगा।
पर अब गगन की गोद से अधिक सुखदायी उसे सिद्धार्थ का करतल ही लगा करता था। पक्षी था तो क्या, प्रेम और करुणा को मनुष्यों से अधिक पहचानता था। सिद्धार्थ भी उसके साथ खूब खेलते, ऐसा लगता मानो वह उनका कोई अनन्य सहचर हो।
एक दिन देवदत्त की दृष्टि राजहंस और सिद्धार्थ के पारस्परिक मित्र-विनोद पर जा पड़ी; साथ ही उत्पन्न हो गई उसके हृदय में ईर्ष्या की अग्नि। वह सिद्धार्थ के पास जाकर बोला-‘‘सिद्धार्थ ! यह राजहंस मेरे वाण से आहत हुआ था, अतः इस पर मेरा अधिकार है।’’

राजहंस देवदत्त को देखते ही सिद्धार्थ के अंक में दुबककर बैठा गया। सिद्धार्थ ने प्रेम से राजहंस की पीठ सहलाते हुए उत्तर दिया, ‘‘नहीं देवदत्त, इस पर मेरा अधिकार है, क्योंकि मैंने इसके प्राणों की रक्षा की है।’’
किन्तु देवदत्त सिद्धार्थ के इस उत्तर से रंचमात्र भी न झुका। इसके विपरीत वह अधिक आवेश में आ गया और भ्रू-बंक करके बोला-‘‘नहीं सिद्धार्थ, राजहंस मेरा है। मैं महाराज शुद्धोदन से इसका निर्णय कराऊँगा।’’
सिद्धार्थ ने शान्ति और गम्भीरता से देवदत्त की बात स्वीकार कर ली।
दोनों ही राजकुमार महाराज शुद्धोदन की राज्य-सभा में जाकर उपस्थिति हुए। राजहंस अब भी सिद्धार्थ के अंक में था। देवदत्त सभा में पहुँचकर बोल उठा-‘‘महाराज, न्याय कीजिए, मेरा राजहंस सिद्धार्थ से दिला दीजिए।’’
महाराज ने सिद्धार्थ की ओर दृष्टिपात किया। सिद्धार्थ बोल-उठे, ‘‘देवदत्त ने तो इसे शर से आहत किया था महाराज, किन्तु मैंने इसके प्राण बचाए हैं। अतः यह मेरा है।’’

महाराज चिन्ता में पड़ गए। वह क्या निर्णय करें और क्या न करें ? वह कुछ देर विचारों की तरंगों के साथ मन-ही-मन क्रीड़ा करते रहे, फिर सहसा उनका ध्यान सिद्धार्थ के अंग में दुबके हुए राजहंस की ओर आकृष्ट हुआ और वे मन-ही-मन सोचकर बोल उठे-‘‘अच्छा सिद्धार्थ, तुम राजहंस को भूमि पर रख दो। तुम दोनों बारी-बारी से इसे अपने पास बुलाओ। जिसका यह होगा, उसके पास अपने आप चला जाएगा।’’
सिद्धार्थ ने महाराज के सम्मुख राजहंस को पृथ्वी पर रख दिया। राजहंस रह-रहकर सिद्धार्थ की ओर इस प्रकार देखने लगा, मानो सिद्धार्थ के अंक का यह क्षणिक वियोग भी उसके लिए अधिक असह्य हो रहा हो।

महाराज ने देवदत्त को आदेश दिया। देवदत्त से पुचकार-पुचकार कर राजहंस को अपने समीप बुलाने का प्रयत्न करने लगा, किन्तु उसके समीप जाने की कौन कहे, राजहंस ने उसकी ओर से दृष्टि फेर ली। फिर महाराज ने सिद्धार्थ को आदेश दिया। सिद्धार्थ का प्रेम से पुचकारना था नहीं, कि राजहंस उड़कर उनकी हथेली पर जा बैठा।
महाराज शुद्धोदन बोल उठे-‘‘देवदत्त, तुमने शासन और कठोरता से इस राजहंस के हृदय को जीतने की चेष्टा की थी, किन्तु सिद्धार्थ की दया और उसके प्रेम के समक्ष तुम हार गए। मनुष्यों में ही नहीं देवदत्त, पक्षियों में भी शासन और कठोरता से प्रेम और करुणा का अधिक मूल्य होता है।’’
देवदत्त का मस्तक लज्जा से नत हो गया।
महात्मा बुद्ध के दयापूर्ण जीवन की यद्यपि वह प्रारम्भिक ज्योति थी; किन्तु तो भी उसने शुद्धोदन और उनकी राज-सभा के सदस्यों के जीवन ही नहीं, उनके हृदय को अपने प्रकाश से चमत्कृत कर दिया था और सबके कण्ठ से निकल पड़ा था-‘‘धन्य है सिद्धार्थ का दयालु हृदय।

डाकू से भिक्षु


प्रसेनजित के राज्य में चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। नगर-के-नगर विध्वंस हो गए थे, गाँव लुट गए थे। न किसी के मन में शान्ति और न किसी के हृदय में सन्तोष। जिसे देखिए, वही भय से समाकुल। बालक, तरुण, वृद्ध-सभी का हृदय अंगुलिमाल डाकू के नाम को ही सुनकर पत्ते की भाँति विकम्पित हो उठता था।
उन दिनों गौतम श्रावस्ती के जैतवन में निवास कर रहे थे, गौतम के श्रवण में भी अंगुलिमाल के अत्याचारों की कहानी पड़ी। बस, फिर क्या था ! भयानक सिंह को भी दैवत्व का मन्त्र सिखा देने वाले योगी गौतम पात्र और चीवर लेकर आश्रम से निकल पड़े।
पथ में चरवागों, कृषकों और पथिकों ने देखा-गौतम उस ओर एकाकी बढ़े चले जा रहे हैं, जहाँ दुर्दान्त अंगुलिमाल निवास करता है।

सबों का कलेजा जैसे अधर पर आ गया। सूखी हुई हड्डियों का एक मनुष्य एकाकी अंगुलिमाल के निवास के पथ पर ! उधर से तो सैकड़ों मनुष्यों का सम्मिलित दल भी जाने का साहस नहीं करता। कदाचित गौतम अंगुलिमाल के निवास से अनिभिज्ञ हों। सबने बारी-बारी से गौतम को टोककर कहा-‘‘न जाइए महाराज, इस पथ से, आगे अंगुलिमाल का आवास स्थान है। वह बड़े-बड़े शस्त्रधारियों को भी क्षण मात्र में अपने अधिकार में कर लेता है, उसके समक्ष जाते हुए बड़े-बड़े वीर तक काँपा करते हैं।’’
किन्तु गौतम कब मानने लगे ? वे बराबर उसी ओर बढ़ते ही गए।

वन के सघन भाग में अंगुलिमाल का निवास-स्थान। कोई उस ओर से निकलने का नाम भी नहीं लेता। एक क्षीणकाय संन्यासी को अपने स्थान के सामने से जाता हुआ देखकर अंगुलिमाल के विस्मय की सीमा न रही। साथ ही उसके कोप की अग्नि भी भड़क उठी। एक अस्थिचर्मावशिष्ट संन्यासी में इतना साहस ! वह अकेला दर्प से गम्भीर गति से चलता हुआ उसके निवास-स्थान से आगे निकल जाय। नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। अंगुलिमाल एक क्षण में ही उसे मारकर भूमि पर गिरा देगा।
अंगुलिमाल धनुष पर बाण चढ़ाकर गौतम के पीछे चल पड़ा। उसे क्या पता था, कि उसके बाण से गौतम के योग-अस्त्र कहीं अधिक पैने हैं। गौतम ने अंगुलिमाल को धनुष पर बाण चढ़ाए हुए अपने पीछे आते देखा। बस, योग का एक अस्त्र फेंका अंगुलिमाल की गति अवरुद्ध हो गई।

अंगुलिमाल आकुल हुआ, विस्मित ! ओह, यह क्या ? इतनी तीव्रता के साथ दौड़ने पर भी वह संन्सायी के पास क्यों नहीं पहुँच रहा है ? आज क्या हो गया है, दूसरे दिन तो वह शीघ्र ही अपने शिकार को अपने अधिकार में कर लेता था।
अंगुलिमाल अपनी शक्ति का प्रत्येक प्रकार से प्रयोग कर विवश हो उठा। जब उससे न रहा गया, तब वह गौतम को पुकार कर बोल उठा-‘‘संन्यासी, खड़ा रह !’’
‘‘मैं तो खड़ा हूँ, अंगुलिमाल !’’ गौतम ने उत्तर दिया, ‘‘और तू चल रहा है फिर तू मुझ तक क्यों नहीं पहुँच रहा है ? आश्चर्य है !’’
अंगुलिमाल चौंका, विस्मित हुआ। संन्यासी तो असत्य भाषण नहीं करते किन्तु यह तो असत्य बोल रहा है। आगे द्रुतगति से दौड़ा जा रहा है और कहता है मैं तो खड़ा हूँ। अंगुलिमाल विस्मय के स्वर में बोल उठा-‘‘संन्यासी, तू असत्य बोल रहा है, तू तीव्रगति से भागा जा रहा है और कहता है मैं खड़ा हूँ।’’
‘‘हाँ, मैं खड़ा हूँ, अंगुलिमाल !’’ गौतम ने उत्तर दिया-‘‘तुम्हारी दृष्टि हिंसा, लोभ, क्रूरता और असत्य से परिपूर्ण है। अतः तुम्हें सत्य भी असत्य के ही रूप में ज्ञात हो रहा है।’’

गौतम की इस बात का अंगुलिमाल के हृदय पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। वह धनुष-बाण फेंककर उनके चरणों की अभिवन्दना करके कहने लगा, ‘‘भगवन् ! मैं आपकी शरण में हूँ, मेरा उद्धार कीजिए।’’
गौतम ने उसके सिर पर अपनी कृपा का हाथ रखकर उसे भिक्षु बना लिया। इधर गौतम अंगुलिमाल को भिक्षु रूप में लेकर श्रावस्ती लौटे और उधर प्रसेनजित की प्रजा ने राजधानी में एकत्र होकर महाराज को अंगुलिमाल के भयानक अत्याचारों की कहानी सुनाई और सहायता के लिए पुकार मचाई। महाराज प्रसेनजित अधिक कुपित हो उठे, और पाँच सौ घुड़सवारों के साथ अंगुलिमाल के सर्वनाश के लिए निकल पड़े।
उन दिनों अंगुलिमाल भिक्षुरूप में गौतम के साथ श्रावस्ती के जैतवन में रह रहा था। प्रसेनजित ने भी जैतवन में पहुँचकर वहीं पर अपना डेरा डाल दिया।
गौतम को भी प्रसेनजित के आगमन की सूचना मिली। प्रसेनजित स्वयं गौतम के समीप गए। गौतम आदर से उचित स्थान देकर बोल उठे, ‘‘राजन् ! आप इतने सैनिकों के साथ कहाँ जा रहे हैं ? क्या राज्य सीमा पर किसी प्रचण्ड शत्रु ने आक्रमण किया है ?’’

‘‘नहीं, भगवन् !’’ प्रसेनजित ने उत्तर दिया, ‘‘किसी शत्रु ने आक्रमण नहीं किया है। अंगुलिमाल नामक एक डाकू है, जिसके अत्याचारों के कारण इस समय राज्य में चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है। मैं उसी को बन्दी बनाने के लिए जा रहा हूँ।’’
गौतम मुस्कराए। कुछ देर तक शान्त रहे। फिर बोल उठे, ‘‘राजन् ! यदि अंगुलिमाल आपके समक्ष भिक्षु रूप में उपस्थित हो, तो आप उसके साथ कैसा व्यवहार करेंगे ?’’
‘‘मैं उसकी पूजा करूँगा, भगवन !’’ प्रसेनजित ने उत्तर दिया-‘‘मैं उसे अपने घर पर सप्रेम निमन्त्रित करके भोजन कराऊँगा। किन्तु यह विश्वास नहीं होता भगवन् कि अंगुलिमाल जैसा हिंसक मनुष्य भी कभी बौद्ध भिक्षु हो सकता है।’’
‘‘संसार में असम्भव कुछ भी नहीं है, राजन् !’’ गौतम ने कहा, ‘‘देखिए, वह सामने भिक्षु-वेश में बैठा हुआ नया श्रवण अंगुलिमाल ही है।’’
राजा के विस्मय की सीमा न रही। वह उस भिक्षु के समीप गए और उससे बोले-‘‘महायोग ! क्या आप ही अंगुलिमाल हैं ?’’
‘‘हाँ राजन् !’’-भिक्षु ने उत्तर दिया-‘‘मैं ही डाकू अंगुलिमाल हूँ।’’

राजा प्रसेनजित श्रद्धापूर्वक अंगुलिमाल की परिक्रमा करके राजधानी में लौट गए।
कुछ दिन व्यतीत हो गए थे। एक दिन अंगुलिमाल पात्र और चीवर लेकर भिक्षा-वृत्ति के लिए श्रावस्ती में गया। वह भिक्षा के लिए नगर की परिक्रमा कर रहा था कि एक कंकड़ आकर उसके सिर में लगा। सिर फूट गया और रक्त की धारा-सी बह चली। अभी उस आघात से अंगुलिमाल सम्भल भी न पाया था कि एक दूसरी ओर से पत्थर का सनसनाता हुआ टुकड़ा आया और उसके सिर को फोड़कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। अंगुलिमाल रक्त से  भीग उठा, उसके सारे वस्त्र रक्त में सन गए। जिसने उसे इस वेश में देखा, उसी ने कहा-‘‘आह, बड़ी चोट लगी !’’ पर अंगुलिमाल के मुख से आह और कराह का एक शब्द भी न निकला।
रक्त से लथपथ, अंगुलिमाल हाथ में टूटा हुआ पात्र लेकर गौतम के समीप पहुँचा। गौतम उसे देखते ही बोल उठे-‘‘अंगुलिमाल, आज तुम्हारा प्रयाश्चित पूरा हुआ।’’
गौतम के मुख से ये शब्द सुनकर अंगुलिमाल ऐसा प्रफुल्लित हुआ, मानो उसे निर्वाण प्राप्त हो गया हो।

3
देवदत्त की ईर्ष्या


गौतम का प्रधान शत्रु था देवदत्त और देवदत्त के साथ, गौतम की आत्यमीयता भी अधिक थी।
गौतम कपिलवस्तु के महाराज शुद्धोदन के पुत्र थे, वह जब युवराज सिद्धार्थ के रूप में प्रसिद्ध थे, उनका उनके मामा की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ था। उन दिनों उस देश में मामा की कन्या के साथ विवाह करने की आज्ञा थी। यशोधरा थी, कोलिराज सुप्रबुद्ध की एकमात्र कन्या। अत्यन्त सुन्दरी गुणवती। देवदत्त उसी यशोधरा का ज्येष्ठ बन्धु था, और गौतम का था ममेरा भाई।
सिद्धार्थ जब बुद्ध का पद प्राप्त करके गौतम बुद्ध के रूप में देश में पर्यटन करने लगे, तब आनन्द, अनिरुद्ध इत्यादि राजकुमारों के साथ-ही-साथ देवदत्त ने भी उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली। देवदत्त दिन-रात साधना, योग में निरत रहने लगा। कुछ ही दिनों में उसने असाधरण क्षमता प्राप्त कर ली। वह इच्छा करने पर ही आकाश में उड़ने लगा, अनोखे-अनोखे कार्य करने लगा। किन्तु वह स्वभाव का क्रूर था। अपनी उस असाधारण शक्ति का परिचय वह कभी-कभी क्रूरता के रूप में दिया करता था। वह बुद्ध से बड़ा होना चाहता था, बहुत बड़ा। अन्त में वह बुद्ध से अलग होकर एक दूसरे दल की स्थापना के लिए प्रयत्न करने लगा था।

बुद्ध की अवस्था उस समय बहत्तर वर्ष की थी। उन दिनों भारत के सबसे अधिक शक्तिशाली नृपति थे, मगध के बिम्बिसार, और कौशल के प्रसेनजित। किन्तु वे भी गौतम के शिष्य थे, वे भी उनके चरणों की आराधना करते थे। देवदत्त भीतर-ही-भीतर जला करता था, ईर्ष्या की आग में, डाह की ज्वाला में। गौतम को इन नृपत्तियों की ओर से सब कुछ मिलता था, किन्तु देवदत्त को कुछ नहीं। वह भीतर-ही-भीतर प्रयत्न करता, किन्तु सफल न होता औऱ निराशा के कठिन आघात ही सहता।
बिम्बिसार के पुत्र थे, अजातशत्रु। वही मगध के युवराज थे, वही उस बड़े साम्राज्य के एकमात्र अधिकारी थे। देवदत्त ने छल-बल से अजातशत्रु को अपने वश में कर लिया, अपना उपासक बना लिया। उसने एक ‘विहार’ बनवा दिया। अजातशत्रु की कृपा से उस विहार में थे, पाँच सौ संन्यासी, और उन्हें प्रतिदिन नियम से भोजन मिला करता था। देवदत्त गर्व का अनुभव करता, हृदय में अभिमान की भावना जगाता। उसकी इच्छापूर्ण हुई थी न।
देवदत्त के हृदय में था अभिमान, ईर्ष्या की भावना। योग की शक्तियाँ कब तक स्थिर रहतीं ? योग की शक्तियों के लिए तो चाहिए हृदय में सात्विकता। देवदत्त की आलौकिक शक्तियाँ नष्ट हो गईं, वह पुनः गौतम की शरण में गया। गौतम ने उसे प्राचीन पद देना अस्वीकार कर दिया। देवदत्त का हृदय, आघात से तिलमिला उठा और जल उठी उसके अन्तर के कोने-कोने में प्रबल प्रतिद्वन्द्विता की आग।

देवदत्त मन-ही-मन सोचने लगा, गौतम के सर्वनाश के उपाय। एक दिन उसने अजातशत्रु से कहा, ‘‘अजातशत्रु तुम्हारे पिता गौतम की बातों को मानकर पथ-भ्रष्ट हो रहे हैं, उन्हीं के साथ-साथ तुम्हारा वह साम्राज्य भी, जिसके तुम उत्तराधिकारी हो, पथ-भ्रष्ट होता जा रहा है। तुम उन्हें अपने मार्ग से हटा दो, सदा के लिए संसार से मिटा दो।’’
अजातशत्रु देवदत्त के चक्कर में फँस गया। वह अस्त्र लेकर स्वयं अपने पिता को मारने के लिए गया, किन्तु लाख प्रयत्न करने पर भी उसके अस्त्र बिम्बिसार पर न चल सके। वह विवश हो उठा और पराजित-सा होकर पुनः अपने भवन में लौट गया। अन्त में उसने देवदत्त की ही सम्मति से बिम्बिसार को बन्दी बनाकर उसे भूखों मार डालने की व्यवस्था कर दी।
बिम्बिसार मर गया, साम्राज्य का स्वामी हुआ अजातशत्रु। अब तो देवदत्त की पाँचों उँगलियाँ घी में थीं। अब यह अजातशत्रु की सहायता से गौतम के सर्वनाश की चेष्टा करने लगा।
एक दिन देवदत्त ने अपने साथ राज्य के पाँच तीरन्दाज लिए। उसका अभिप्राय था इन तीरन्दाजों की सहायता से गौतम का वध करना और फिर उन्हें विष देकर स्वयं ही मार डालना। गौतम की मृत्यु का रहस्य भी किसी को ज्ञात न होगा और देवदत्त बन जाएगा भारत का सर्वश्रेष्ठ धार्मिक नेता।

किन्तु क्या देवदत्त की इच्छा पूर्ण हो सकती थी ? नहीं, कदापि नहीं। सत्य के समक्ष असत्य कैसे टिक सकता था ? देवदत्त के तीरन्दाज गौतम के पास जाकर उनके वक्ष को लक्ष्य करके बाण चलाने लगे, किन्तु सब निष्फल, सब व्यर्थ। बाण कुछ दूर जाकर बाण चलाने वाले ही के पास लौट आते थे। देवदत्त की अभिलाषा विफल हुई। किन्तु तीरन्दाज तो आश्चर्यचकित हो उठे। सब-के-सब धनुष-बाण फेंककर गौतम के पास गए और उनके चरणों पर गिरकर अपने अपराध की क्षमा माँगने लगे। गौतम ने उन्हें क्षमा कर दिया। अपना शिष्य बना लिया।
किन्तु क्या, देवदत्त अपने षड्यन्त्रों का परित्याग कर सकता था ? नहीं, वह बराबर गौतम के सर्वनाश के लिए षड्यन्त्रों की सृष्टि करता रहा। एक दिन देवदत्त को ज्ञात हुआ कि गौतम एक पर्वत के किनारे-किनारे कहीं जा रहे हैं। उसने सोचा, इस बार गौतम के सर्वनाश का अच्छा सुयोग उपस्थित हुआ। पर्वत के ऊपर से बड़े-बड़े पाषाण-खण्डों को गौतम के ऊपर गिरा दूँगा और बस। सदा के लिए गौतम का अस्तित्व मिट जाएगा। देवदत्त ठीक समय पर पर्वत के ऊपर पहुँच गया और जब गौतम नीचे दृष्टिगोचर हुए, तब वह लगा उनके ऊपर बड़े-बड़े पाषाण-खण्ड ढकेलने। किन्तु आश्चर्य ! गौतम के शरीर में कहीं  छिलन भी न आई। वे बड़े-बड़े पाषाण-खण्ड गौतम के शरीर में जैसे पुष्प की भाँति लग रहे थे।

देवदत्त का यह प्रयत्न भी विफल हुआ, किन्तु वह निराश न हुआ। वह गौतम के सर्वनाश के पथ पर आगे बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया।
गौतम प्रतिदिन प्रातःकाल राज-पथ से होकर भिक्षा के लिए नगर में जाते थे। देवदत्त ने सोचा, अजातशत्रु के पास नालगिरि नामक जो प्रमत्त हाथी है, उसे सुरा पिलाकर क्यों न राज-पथ पर छोड़ दूँ। हाथी सूँड़ में गौतम को लपेटकर पैरों से कुचल देगा।
देवदत्त की यह कुटिल चाल गौतम को ज्ञात हो गई। जिस दिन देवदत्त राज-पथ पर हाथी छोड़ने वाला था, गौतम ने अपने सभी शिष्यों को भिक्षा के लिए बाहर जाने से रोक दिया और वे स्वयं चल पड़े एकाकी राज-पथ की ओर। गौतम को अकेले जाता हुआ देखकर गौतम के लाख-लाख शिष्य भी उसी ओर चल पड़े। उधर ‘नालगिरि’ हस्तिशाला से निकलकर घरों और वृक्षों को तोड़ता-फोड़ता राज-पथ की ओर अग्रसर होता जा रहा था। मार्ग में जा रही थी एक असहाय स्त्री। उसकी गोद में एक शिशु था। सहसा उन्मत ‘नालगिरि’ सामने आ गया। उसने सूँड़ बढ़ाकर स्त्री को पकड़ लिया। स्त्री का चीत्कार चारों ओर गूँज उठा, किन्तु किसमें साहस था जो ‘नालगिरी’ के समक्ष जाकर मृत्यु का सामना करता।

दैव की इच्छा ! उसी समय अपने भिक्षुओं के साथ आ गए गौतम। गौतम आगे बढ़कर  ‘नालगिरि’ के सम्मुख जा पहुँचे। ‘नालगिरि’ शिशु सहित स्त्री को सूँड़ में लपेटे हुए आँखों में अग्नि उगल रहा था। गौतम उसे सम्बोधित करके बोल उठे-‘‘नालगिरि, तू यह क्या कर रहा है ? देवदत्त ने तुझे छोड़ा है मेरा सर्वनाश करने के लिए । मैं आ गया तेरे सामने। तू उस असहाय स्त्री को छोड़ दे और मुझे पकड़कर अपने पैरों से कुचल।’’
गौतम की वाणी में था जादू, देवत्व की शक्ति। ‘नालगिरि’ की सारी उद्दण्डता धूल में मिल गई। वह स्त्री को छोड़कर भूमि पर लोटने लगा और करने लगा, सूँड़ से गौतम के चरणों की अभ्यर्चना। चारों ओर गूँज उठी गौतम की जय-जयकार। सहस्र-सहस्र की संख्या में लोग दौड़कर आने लगे, और देने लगे ‘नालगिरि’ को तरह-तरह का उपहार। जिसके शरीर पर जो होता, वह वही नालगिरि को उतारकर पहना देता। थोड़ी ही देर में ‘नालगिरि’ आभूषणों और वस्त्रों से लद गया। इसीलिए तो गौतम ने उसका नाम बदलकर दूसरा रख दिया, ‘धनपालक’।

इस घटना के पश्चात् ही चारों ओर यह रव गूँज उठा, ‘देवदत्त क्रूर है, दुष्ट है।’ जिसे देखिए, वही उसे दुत्कार रहा है, जिसे देखिए, वही उसके प्रति घृणा प्रदर्शित कर रहा है। उसके शिष्यों ने भी उसे छोड़ दिया, उससे सब अलग हो गए। अजातशत्रु के मन में भी विरक्ति की भावना हो उठी। उन्होंने भी उसे अपने मन से निकाल दिया, अपनी सारी सहायता बन्द कर दी। वह आपदा में पड़ गया, अत्यन्त आपदा में। अब न तो उससे कोई बात करता, न उसे भिक्षा देता। भिक्षा के लिए निकलता, तो लोग ‘दूर रह, दूर रह’ का रव निकालते और उसका भिक्षापात्र तोड़कर टुकड़े कर देते।
देवदत्त विवश होकर पुनः गौतम के पास गया। उसने कहा, ‘‘महाराज, मैं पुनः आपकी शरण में आना चाहता हूँ। किन्तु भविष्य के भिक्षुओं के लिए आपको एक नियम प्रचारित करना होगा।’’
‘‘कौन-सा नियम, देवदत्त ?’’-गौतम ने पूछा।

देवदत्त ने कहा-‘‘यही कि भिक्षु श्मशान में परित्याग किए हुए वस्त्र के अतिरिक्त और कोई वस्त्र धारण न करेंगे और मांस कभी न खाएँगे।’’
गौतम ने हँसकर उत्तर दिया, ‘‘मेरे लिए ऐसा करना असम्भव है, देवदत्त ! मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकता। मेरे शिष्यों में अधिकांश सम्भ्रान्त और भद्र मनुष्य हैं। उनमें से कोई श्मशान में परित्याग किया हुआ वस्त्र न धारण कर सकेगा। यदि किसी ने धारण भी किया तो वह गृहस्थों के सन्निकट घृणा का पात्र होगा। अब रही मांस की बात। जो लोग भिक्षा के द्वारा जीवन-निर्वाह करते हैं, उनके भोजन के सम्बन्ध में कौन कुछ निर्णय कर सकता है। भक्तों की श्रद्धा। उन्हें वे जो कुछ भिक्षा रूप में प्रदान करेंगे, उसे वह प्रसन्नचित्त से ग्रहण करेंगे। यदि कोई उन्हें खाने के लिए मांस देगा, तो जीव-हत्या का अभिशाप देने वाले को लगेगा, खाने वाले को नहीं।’’

देवदत्त पुनः क्रोधित हो उठा और पुनः गौतम को हानि पहुँचाने के लिए प्रयत्न करने लगा। वह प्राणपण से गौतम के शिष्यों में प्रचार करने लगा, गौतम पथभ्रष्ट है, अधार्मिक है। देवदत्त का प्रयत्न कुछ सफल हुआ, गौतम के बहुत से शिष्यों ने उनका साथ छोड़ दिया। किन्तु असत्य का प्रभाव कब तक स्थिर रहता ? कुछ ही दिनों के पश्चात् वह उड़ गया और देवदत्त पुनः विपत्तियों के काँटों में उलझकर चीत्कार करने लगा।
उन दिनों गौतम जैतवन में ठहरे हुए थे। देवदत्त विवश होकर पुनः चला गौतम के पास। उसके मन में पीड़ा थी, अनुताप था। किसी भिक्षु ने गौतम के समीप जाकर कहा, ‘‘महाराज, देवदत्त आपकी शरण में आ रहा है।’’
‘‘किन्तु उसकी आशा पूर्ण न होगी।’’ गौतम ने उत्तर दिया-‘‘वह इस जीवन में अब मेरा दर्शन न कर सकेगा।’’ हुआ भी यही। देवदत्त अभी जैतवन से कुछ दूर ही था कि पृथ्वी फट गई और निकलने लगी उससे अग्नि की धारा। उसने देवदत्त को जला दिया, उसे सदा के लिए संसार से मिटा दिया। देवदत्त चिल्ला रहा था, ‘‘बचाओ, बचाओ, रक्षा करो,’’ किन्तु नरक की वह अग्निशिखा जब प्रज्जवलित हुई, तब फिर बन्द न हुई, बन्द न हुई।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book