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नारी विमर्श >> क्या खोया क्या पाया

क्या खोया क्या पाया

गायत्री वर्मा

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 1996
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4054
आईएसबीएन :0000

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नारी जीवन पर आधारित उपन्यास....

Kya Khoya Kya Paya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मृणाल की दुनिया केवल प्यार की दुनिया थी। तीन बहनों और एक भाई में वह सबसे छोटी-थी, सबकी दुलारी और सबकी लाडली। माँ की उसे याद नहीं पर माँ का अभाव उसे कभी नहीं खटका। भाभी उसे हाथोंहाथ लिए रहती थी। मजाल है उसे भैया कुछ कह तो दे, भाभी पीछे पड़ जाती थी। रही-सही कसर बाप ने पूरी कर दी।

मृणाल नाम असल में रखा गया था पर वह स्कूल के रजिस्टर में ही सीमित हो गया। मीनल नाम सबकी जबान पर ऐसा चढ़ा कि यही नाम प्रचलित हुआ। सब भूल गए कि उसका नाम वस्तुतः मृणाल है। खाना, खेलना, सोना और हठ करना यही उसके काम थे इनमें ही वह व्यस्त रहती थी। सुन्दर, नाजुक, चहकती मैना-सी मीनल जब घर के बाहर निकली तो सखियों और पड़ौसियों की भी प्यारी हो गई। पति भुवन के घर में कदम रखा तो उसके संसार को फूल-सा खिला दिया और सौरभ-सी उसमें बस गई।

जीवन की विभीषिकाओं से नितान्त अपरिचित मीनल को आज पहली बार झटका लगा वह भी ऐसा जिसने उसको जड़ से हिला दिया। कल तक का चहकता-महकता संसार आज उजड़ा पड़ा था। क्या हो गया, कैसे हो गया, कुछ सोचने की शक्ति उसमें बाकी नहीं थी। विश्वास कोसों दूर था, पर सच सामने खड़ा था। उसने अपनी सूनी कलाइयाँ देखीं, सूने पैर देखे। दर्पण में अपनी छाया देखी, रूखे खुले केश, सूना माथा, सूजी हुई लाल आँखें। सब साक्षी थीं आज वह मीनल नहीं है जो कल थी।

पति की अन्त्येष्टि की विभिन्न औपचारिकताओं की समाप्ति के पश्चात् थकी- निढाल मीनल पलंग पर पड़ गई। आँखें अभी भी डबडबा आती थीं। शून्य दृष्टि छत की ओर गड़ी थी।

राहुल भैया और भाभी साल-भर से उसे बुला रहे थे। पायल दी, सोनल दी और कुन्तल दी भी बार-बार लिख रही थीं, बहुत दिन हो गए मिले, भैया के घर, चण्डीगढ़ आने का प्रोग्राम बनाओ। शिमले चलेंगे। थोड़ा मौज-मज़ा रहेगा। एक वह थी भुवन को एक दिन के लिए भी छोड़ने को न तैयार। एक-दो दिन को भी भुवन बिजनेस के काम के लिए बाहर न जाते हों, ऐसी बात नहीं। पर घर फिर भी वह न छोड़ती। वापस आएँगे तो उसे न देखकर उदास होंगे। अब के ट्रिप लम्बा था। बहुत-से काम इकट्ठे हो गए थे। आठ-दस दिन लगने की सम्भावना थी। उसने भी सोचा भैया के यहाँ हो आऊँ। पति की सहमति ही न मिली उन्होंने टिकट भी खरीद के दे दिया। बहनों को और भैया को उसने पहुँचने की सूचना दे दी।

टैक्सी दरवाजे पर तैयार खड़ी थी। उसने ताला बन्द कर टैक्सी में पैर रखने को कदम उठाया कि टेलीफोन की घण्टी बजी। वह वापस ताला खोलकर कमरे में आई। टेलीफोन हाथ में ही रह गया, वह चीख मारकर गिर पड़ी। चीख की आवाज़ से पड़ौसी दौड़ पड़े। उसकी अभिन्न सखी मैथिली दौड़ी-दौड़ी आई। नौकर-चाकर भी घिर आए। मीनल ने रोते-रोते बताया, भुवन की कार का एक्सीडेन्ट हो गया। मैथिली ने परिस्थिति को सँभाला। जहाँ-जहाँ सम्बन्धी थे फोन से सबको सूचित किया। शाम तक घर भर गया। भाई बहन सभी आ गए। जेठ-जेठानी भी दौड़े आए। मीनल सुबक-सुबक कर रोती रही। पति की देह जब घर लाए तो उसके धैर्य का बाँध टूट गया। वह बुक्का फाड़कर पति की देह पर लोट गई।

उसके पति भुवन चार भाई थे। बहिन कोई नहीं थी। जब वह इस घर में भुवन की दुलहिन बनकर आई तो सास-ससुर की मृत्यु हो चुकी थी। वस्तुतः सास बहुत छोटा भुवन को छोड़कर मृत्युगत हो गई थी। तब से दाई माँ ने भुवन को पाला, बड़ा किया। उस परिवार के उतार-चढ़ाव को वह देखती आई। आज भी वह उसी तरह घर की देखभाल कर रही थी। बँगले के पीछे उसका कमरा, बाथरूम और किचन था। उसका एक दरवाजा अन्दर घूमकर जाता था, जिससे वह अन्दर किचन और कमरों में प्रवेश कर सकती थी। एक द्वार बाहर की ओर था, जिससे वह बाहर अपना हिस्सा बन्द कर जा सकती थी।

पैसा और शान-शौक़त, विकासपुरी दिल्ली में स्थित, विशाल बँगले आशियाना की विशेषता थी। इसी ग्लैमर ने इसे इस विवाह के लिए राजी किया था। अन्यथा यह भुवन का तीसरा विवाह था। प्रथम विवाह से दो पुत्र थे तरुण और वरुण। उस पत्नी की जल्दी मृत्यु हो गई। तरुण दो वर्ष का भी नहीं था, वरुण कुछ दिनों का। साल-भर बाद दूसरी पत्नी आई। उसके कोई सन्तान नहीं हुई। तरुण वरुण दून स्कूल देहरादून चले गए। जब मीनल आई। तो घर में वह और भुवन दो ही थे। स्कूल की छुट्टी होने पर तरुण, वरुण आते थे और वे चारों यूरोप आदि की सैर को निकल जाते थे। माँ-बेटों में चाहे औपचारिक सम्बन्ध हों पर गिला-शिकवा कहीं नहीं था।

मीनल भुवन से 15 वर्ष से अधिक छोटी थी। दुबली-पतली, नाजुक-सी मीनल 25 की होने पर भी 17-18 साल से अधिक की नहीं लगती थी। अतः बच्चों की माँ से अधिक बड़ी बहन-सी लगती थी। भुवन चालीस वर्ष का था, पर जिन्दादिली उसमें बहुत थी। उनके Sense of humour से सारा घर गुलजार रहता था। शिशु भी इतने स्मार्ट कि मीनल को चाहना होती थी मेरी भी एक ऐसा ही शिशु हो लड़का हो या लड़की। सब प्रकार से सुखी मीनल के जीवन का यह अभाव कभी भरा नहीं। वह दो बार गर्भवती हुई। पर सातवाँ महीना आते-आते क्या हो जाता था पता नहीं। बच्चा अन्दर ही मर जाता था। उसे भ्रम होने लगा कि उसके ऊपर कोई जादू-टोना कर देता है। इस बार उसने सपने में अपनी सौत को देखा जो उससे कह रही थी-तेरे पास मेरे दो हैं देख मेरे पास भी तेरे दो हैं। इस स्वप्न ने उसे ऐसा बेचैन कर दिया कि बहुत दिनों तक वह चारपाई पर पड़ी रही। तब से वह फिर गर्भवती नहीं हुई।

भुवन उस पर जान देते थे। उसकी देख-रेख में उन्होंने कोई कसर नहीं छो़डी। ऐशोआराम के जितने साधन जुटा सकते थे, उसे प्रसन्न रखने के लिए सब उन्होंने प्रस्तुत कर दिए। उसकी अपनी गाड़ी थी, उसका अपना शोफ़र था।
पूरी स्वतंत्रता थी, जहाँ चाहे जब चाहे आए-जाए बस अपने भाइयों से वह उसे दूर रखते थे। भाइयों का स्वतंत्र अपना-अपना काम था अपना-अपना घर था। पर सबसे अधिक उन्नति-प्रतिष्ठा भुवन के पास ही थी। भुवन का विश्वास था, दूर रहो तो प्यार पनपता है, साथ रहने से प्यार समाप्त हो जाता है। दिल्ली में रहते सभी भाई थे, आना-जाना था, पर कार्यवश। मूर्खता, अज्ञान, भोलापन कोई भी नाम दो मीनल मस्त रहती थी। घर के कामों से उसका कोई सरोकार नहीं था। वह घूमती-फिरती, किटी-पार्टी करती, पर शाम केवल भुवन की थी। पाँच बजे से तैयार होकर वह भुवन की प्रतीक्षा में बैठ जाती। फिर दोनों ढेर-सी बातें, करते, घूमते सैर को निकल जाते। बड़ी खुशनुमा ज़िन्दगी थी।

कहाँ गई वह जिन्दगी ? अभी अमृत का प्याला होंठों से लगा था, दो-चार घूँट ही पी पाई थी, प्याला हाथ से छूटकर झनझना कर टूट गया। एक क्षण में ही सब कुछ बदल गया। एकदम निराश्रित, निराधार मीनल सबको आँखें फाड़कर देखती रह गई। इतनी बड़ी दुनिया में अब उसका कौन है ? हर छोटी-सी बात के लिए अब उसे दूसरों का मुँह जोहना पड़ेगा। तरुण-वरुण भी आए। वह टुकुर-टुकुर उनकी ओर देखती रही। वे चुपचाप उसके पास बैठे रहे। उसका हाथ अपने हाथों में लेकर गले से लिपट गए। हम दोनों हैं न आपके साथ मम्मी। इतनी बात से वह कितना आश्वस्त हुई, हुई भी कि नहीं, कहा नहीं जा सकता।

शान्तिपाठ हुआ हवन हुआ। सब रिश्तेदार अपने-अपने घर चले गए। केवल भुवन के सबसे बड़े भाई और उसके अपने भाई रह गए। तरुण-वरुण मीनल को एक मिनट के लिए भी अकेला नहीं छोड़ते। 16 वर्ष का तरुण एकदम परिपक्क, समझदार, प्रौढ़ हो गया।
इतने दिन तक बिजनेस कैसा चल रहा है, मीनल ने कभी जानने का प्रयास नहीं किया। वस्तुतः भुवन ने उसे उत्साहित किया भी नहीं। कुछ पूछती भी तो वे हँसकर टाल देते-‘‘क्यों दिमाग़ खराब करती हो ? मैं ही काफी हूँ सर मारने को। तुम मौज उड़ाओ। जब तक यह सरदर्द न हो अच्छा है।’’ कभी भुवन किसी बात से चिन्तित कुछ कहते भी तो आधा कहकर विषय स्वयं ही बदल देते और वह कुछ जान न पाती। वैसे भी भुवन आफिस की सभी चिन्ताओं को वहीं आफिस में छोड़ आते थे। फोन भी बहुत कम घर में आते थे, जब तक कोई बात बहुत आवश्यक न हो। उनका यही स्वभाव था यही उनका सबको आदेश था। घर केवल घर, आफिस केवल आफिस।

आज पहली बार पति के पर्सनल सेक्रेटी ने उसे विश्वास में लेकर बात करने की कोशिश की। ‘मैं मैडम से अकेले में बात करना चाहता हूँ’ कहते हुए बड़ी कुशलता से उन्होंने सबको हटा दिया।
गोल कमरे में मीनल और सेक्रेट्री जदुनाथ मुकर्जी आमने-सामने बैठे थे। मुकर्जी बुजुर्ग 58 वर्ष के थे। भुवन के बाप के जमाने से इस बिजनेस का काम सँभालते आ रहे थे। वे बहुत विश्वासपात्र भी थे। और परिवार के व्यक्ति के समान व्यवहृत भी। वस्तुतः इस व्यापार में एक आना हिस्सा भी था। उनके कोई सन्तान नहीं हुई इसलिए जो मिलता था उससे वह सन्तुष्ट थे। अधिक कि चाहना उन्हें कभी नहीं हुई।

मुकर्जी ने सद्यःस्नाता मीनल की ओर देखा। जिसे सजे-धजे देखा आज वह उजड़ी बैठी थी। उन्हें लगा उनकी बेटी सामने बैठी है। आँखें भर आईं। मीनल की आँख भी डबडबा आईं। विश्वास अभी भी कोसो दूर था। लगता था अभी भुवन कहीं से दरवाजा खोलकर हँसते हुए आ जाएँगे और उसे अपनी बाहुओं में भर लेंगे।
एक क्षण चुप रहकर अपने को सँभालकर मुकर्जी ने कहा-‘‘जो होना था मैडम वह हो चुका। अब सच्चाई का सामना कीजिए। आपको ही सब सँभालना होगा अब। वैसे मैं सदा आपकी सहायता को प्रस्तुत हूँ, रहूँगा भी। जैसे अब तक काम  देखता आया आगे भी देखता रहूँगा। पर जानकारी अवश्य रखिए। रिश्तेदारों के कहे में न आएँ। ये सब हड़पने की कोशिश में रहेंगे। बच्चे अभी पढ़ रहे हैं। उनकी पढ़ाई में कोई व्यवधान न आने पाए।

फिलहाल बिजनेस में कोई संकट नहीं है। कोई चिन्ताजनक परिस्थिति नहीं है। प्लास्टिक फैक्ट्री में लेबर प्रोब्लम हो गई थी, अब ठीक है। पार्क होटल अच्छा चल रहा है। टूरिस्ट बड़ी संख्या में वहाँ आ रहे हैं। मसूरी में टिवन कॉटेज खरीद रहे थे। पेशगी काफ़ी दे चुके थे। डील पूरा हो गया। कुछ काम बाकी था वही करवा रहे थे। वह सब खत्म हो गया। वहाँ दो दिन ठहरकर लौट रहे थे जब यह हादसा हुआ। पेपर्स सब उन्होंने मसूरी में मुझे दे दिए थे। सच पूछिए तो मैं उनके साथ ही आने वाला था। पर ऐन वक्त पर वे बोले-इन कॉटेजों की पेन्टिंग करवाकर आओ। फिर मीनल के साथ इसमें पूजा करेंगे। बस मैं रुक गया। दो दिन उन्हें देहरादून में काम था। मैं मसूरी में रह गया। साहब देहरादून से कार में रवाना हुए। शोफर और उसका लड़का दोनों आगे थे। साहब पीछे। एक शायद कोई देहरादून का लेबर था, जिसका लड़का प्लास्टिक फैक्ट्री में काम करता है।
चारों खत्म हो गए जीवन-मरण में किसी का वश नहीं चलता। आप कोई चिन्ता मत करिए मैं आपके साथ हूँ। साहब की विल आपके पास होगी वह दे दीजिए, मैं वकील से बात करूँगा।’’
मीनल ने हल्की-बक्की होकर उसकी ओर देखा-‘‘विल, विल के बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं। मेरे पास नहीं है। आफिस में ही कहीं होगी। यहाँ तो वह कोई पेपर रखते नहीं थे।’’
‘‘आफिस के सभी केबिनेट में मैं चेक कर चुका हूँ। मुझे कहीं नहीं मिली। आप शान्ति से उनका सामान देखिए। कहीं न कहीं जरूर होगी। उनका ब्रीफकेस, देखें पुलिस वाले आपके भाई को देकर गए हैं। शायद उसमें हो।’’

विल का नाम आते ही उसका दिल धक-धक करने करने लगा। उसका भविष्य क्या है ? शेष उसके दिन कैसे गुजरेंगे ? अभी तो बच्चे नासमझ छोटे हैं, पर एक दिन तो बड़े होंगे। उसके नाम पर पति क्या कर गए हैं ? ये बँगला और गाड़ी तो उसकी है ये निश्चय है पर मेन्टनेन्स भी तो चाहिए। बाकी खर्चे ?
‘‘कुरुक्षेत्र में एक कॉटेज था उसमें तो किसी केबिनेट में उन्होंने सील कर विल न रख दी हो ?’’
मुकर्जी ने सिर हिलाया-‘‘ये कॉटेज उनकी पर्सनल थी। उनके बिजनेस से इसका कोई सम्बन्ध नहीं था।’’

‘‘क्यों ? यहाँ वे अक्सर जाते तो थे ?’’
‘‘केवल रिलक्सेशन के लिए।’’ बहुत संकोच के साथ वे फिर बोले-‘‘शायद आपको मालूम होगा, यहाँ उनकी प्रिया रहती थी।’’
मीनल सकते में आ गई। उसे विश्वास नहीं हुआ। इतना खुला व्यवहार कि सन्देह की कभी गुंजाइश ही नहीं थी। वे यदि कभी घर न भी आते थे तो जहाँ भी रहते थे वहाँ से फोन कर उसकी खोज-खबर लिया करते थे। उसने कभी नहीं सोचा कि बिजनेस से अलग उनका कोई ‘लवनेस्ट’ भी है।
‘‘प्रिया ? कौन थी उनकी प्रिया ?’’

‘‘आप उसे जानती हैं-शैवालिनी कपूर ?’’
‘‘शीबा ? टाइपिस्ट ?’’ सीधी-सादी गोल-मटोल हँसती हुई बड़ी-बड़ी आँखें उसके सामने घूम गईं। वह उसके बचपन की सखी थी। बी.ए. करने के बाद उसे नौकरी की तलाश थी। उसी ने अपने पति से कहकर उसे आफिस में टाइपिस्ट का जॉब दिलाया था। पिता की मृत्यु के पश्चात्य भाई N.D.A में आ गया वह चला गया। माँ-बेटी रह गईं। खाने की फिर भी समस्या थी। बाकी खर्चे भी थे यद्यपि  N.D.A में सब फ्री था। तो शीबा ने उसकी पीठ में छुरी भौंकी।
‘‘ये कॉटेज साहब ने उसी के नाम कर दी थी।’’

‘‘मुझसे तो कहा था उन्हें पैसों की आवश्यकता थी अतः बेच दी।’’
‘‘बेची नहीं थी। पहले शैवालिनी को एक पोर्शन किराए पर दिया था फिर सारी उसे ही दे दी।’’
‘‘कब की यह घटना है ?’’
‘‘जब शैवालिनी ने आफिस के काम को छोड़ा। तब से वह उसी में रहती थी।’’

सखी की कॉटेज को वह अलग जानती थी पति की कॉटेज को अलग। दोनों एक ही हैं उसने कभी नहीं जाना। पुराना घर छोड़कर वह इस कॉटेज में शिफ्ट हुई थी। उसे पुराना घर मालूम था। इस कॉटेज में भी वह उसके पास गई थी। एक पोर्शन था। उसे कभी नहीं सन्देह हुआ। उसने मान लिया किराए पर लिया होगा। पर पति ने ही उसे किराए पर दिया यह कैसे वह जानती ? उसे अपने पति के कॉटेज का लोकेशन मालूम ही नहीं था। सखी से मिलकर घण्टे दो घण्टे वहाँ रहकर वापस आ जाती थी। एक बार शीबा भी उसके बँगले पर आई थी। चूँकि वह आफिस में भी काम करती थी, पति से परिचय था। दोनों की बातचीत को वह औपचारिक महत्त्व ही देती रही।

उसने लम्बी साँस ली। पाँच साल शीबा ने उसके आफिस में काम किया और वह अनभिज्ञ रही। तीन साल पहले वह शीबा से मिली थी तब बड़ी-सी बिन्दी लगाए गोद में एक शिशु को लिए उसने देखा था।
‘‘तूने शादी कर ली, मुझे बताया भी नहीं ?’’
‘‘मेरा कौन है जो धूमधाम से शादी करता। सबको बुलाता। मम्मी मर गईं, भैया आर्मी में चले गए।’’
‘‘चल, इसे मुझे दे। क्या नाम रखा ?’’ बच्ची उसकी गोद में आकर हँस पड़ी।
‘‘बड़ी प्यारी है। बिल्कुल तेरे जैसी गोल गप्पा। क्या नाम है ?’’

‘‘कुछ नहीं तू ही रख दे। तेरे नाम से ही मैं इसे बुलाऊँगी।’’
‘‘सच ! सोचती हूँ नया-सा नाम। कुछ coin  करूँ ? रक्षान्दा, कैसा लगा ?’’
‘‘मतलब ?’’
‘‘रक्षा को देने वाली व्याकरण से रक्षादा होना चाहिए। बुलाने में रक्षादा जचता नहीं। रक्षान्दा जच रहा है।’’
‘‘पक्का हो गया। रक्षान्दा नाम सुन्दर है। प्रत्येक बार नाम लेते ही तू भी याद आएगी। हम दोनों की बच्ची, हम दोनों को protection देने वाली-रक्षान्दा।’’

‘‘अब अपने उनसे तो मिला ? तेरी चौइस भी देखूँ ?’’
‘‘मिल लेना क्या जल्दी है ? हम दोनों के बीच उनका क्या काम ?’’
‘‘मेरे अँगने में तुम्हारा क्या काम है ?’’ मीनल गाने लगी। ठहाकों में बात दब गई।
तीन वर्ष हो गए इस घटना को। एक-दो-बार वह फिर गई तो ताला बन्द मिला।

पति से पूछा तो उन्होंने बताया उसने आफिस के काम से रिजाइन कर दिया। बात आई गई हो गई। उसने भी खास ध्यान नहीं दिया।
कोहरा टूट गया। आसामान साफ हो गया। जिस पति पर उसे गर्व था वह एकमात्र उसका ही पति न था यह आज उसने जाना।
मुकर्जी साहब उसके गंभीर मुख को देखते रहे। ‘‘आई एम सॉरी मैडम, मैं फिर आऊँगा। आप विल ढूँढ़कर रखें। चलता हूँ।



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