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एक सिरे से दूसरे सिरे तक

कृष्ण बिहारी

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4042
आईएसबीएन :81-8346-009-7

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श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह

Ek sire se doosre sire tak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण बिहारी का हिन्दी कथा साहित्य में प्रवेश धमाके के साथ हुआ। पिछले 10 वर्षों में शायद ही कोई ऐसी पत्रिका हो जिसमें कृष्ण बिहारी की कहानियाँ न छपी हों। आबूधाबी से लेकर उत्तर प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में फैला उनका कथा-जगत् चित्र-विचित्र चरित्रों से भरा पड़ा है। उनके पास चीज़ों और भीतर तक देखने वाली गहरी दृष्टि भी है और कागज़ पर उतारने की कलम भी।

लम्बे आबूधाबी प्रवास में रहते हुए कृष्ण बिहारी ने एक ओर स्मृतियों के माध्यम से अपने आप को अपनी जमीन से जोड़ रक्खा है तो दूसरी ओर मध्य-पूर्व की घुटी और जकड़ी हुई जिंदगी के बीच उन्होंने अपनी कहानियाँ कह और सुनाकर अपने को मुक्त करने की प्रक्रिया भी तलाशी है। शायद इसी लिए अक्सर उनकी कहानियाँ वे हैं जिन्हें हमारे यहाँ बोल्ड कहा जाता है। स्त्री-पुरुष संबंधों के खुले रूप में साहस के साथ बयान करने वाले कृष्ण बिहारी अपनी कुछ कहानियों के लिए खासे बदनाम और विवादास्पद रहे हैं। विशेष रूप से उनकी हंस में प्रकाशित दो औरतें कहानी तो चर्चा का एक स्थायी विषय है। मानवीय संबंधों को आधार बनाकर लिखी नातूर कहानी आज भी पाठक याद करते हैं। विवरण को नाटकीय मोड़ या किसी अनदेखे पक्ष का उद्घाटन कृष्ण बिहारी की कहानियों को एक विलक्षण कला-अनुभव देता है।

कृष्ण बिहारी के पास सुनने के लिए अनंत अनुभव और लिखने की अजस्त्र ऊर्जा है। इस समय भी वे कुछ कहानियों, आत्मकथा और उपन्यास पर काम कर रहे हैं। उनका यह संग्रह एक सिरे से दूसरे सिरे तक उनकी अदम्य लेखन ऊर्जा की एक नई उपलब्धि है। निश्चय ही उन्होंने हिन्दी कहानी के भूगोल को विस्तार दिया है और कहानी के इतिहास में एक नया नाम जोड़ा है।

राजेन्द्र यादव

.....नो....बॉस....नो.....


‘‘नो....बॉस...नो....आप सुनना चाहें, न चाहें यह आपकी मर्जी....लेकिन एक बात सच है कि आप किसी की बात नहीं सुनते....’’
‘‘नहीं.....ऐसा नहीं है....आप सुनें तो.....’’ बॉस ने अपनी फँसी जान छुड़ाने की कोशिश की।
‘‘नो....बॉस....नो..... जो मैं सुन रहा हूँ वह यह कि आप अपने ऑफिस में बहुत रूडली विहैव करते हैं। यह मैं नहीं, पूरा ऑफिस कहता है...यह अलग बात है कि कोई आपके सामने नहीं कहता मगर बोलने लगे हैं...और लोग जान-बूझकर मेरे सामने जब आपको बुरा भला कहते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता, आप जानते हैं कि लोग आपके बारे में मेरे सामने ही क्यों कहते हैं....?’’

‘‘नहीं....’’
‘‘वो इसलिए कि लोग मुझे आपका करीबी समझते हैं। शायद चमचा भी। लोगों को लगता है कि मैं आप तक उनकी भावनाएँ पहुँचा सकता हूँ, जब किसी को आप ऑफिस में खरी-खोटी सुनाते हैं तो उसे भी वहम होता है कि शायद मैंने ही उसकी कोई शिकायत की होगी...’’
बॉस का चेहरा उतर गया। उसकी बीवी का और ज़्यादा। और, मैं उस पुराने रिकॉर्ड की तरह बज रहा था जिसकी घिसी सुई बस एक ही जगह अटक गई थी, ‘‘नो.....बॉस....नो आप एक काकस....एक रैकेट....एक चौकड़ी से घिरे हुए हैं....आपको चमचागिरी रास आ रही है....अब आप लोगों का नुकसान करने लगे हैं।...पेट पर लात मारने लगे हैं.....नो बॉस....’’

बॉस के घर पर डिनर था। अपने घर से चलते समय मैंने व्हिस्की के दो पैग लिए थे। बास के घर में मिलने की गुंजाइश नहीं थी। मगर सात साल में पहली बार वहाँ भी मिली। व्हिस्की के शायद तीन पैग वहाँ हो गए और शराब ज्यादा हो गई। या कि सच मुँह से निकलने लगा इस बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कह सकता। मैं बार-बार एक ही बात दुहरा रहा था कि बास की लोकप्रियता का ग्राफ पिछले पाँच वर्षों में बुरी तरह नीचे आया है। जब मैं लगातार एक ही बात को दुहराए जा रहा थो तो मिसेज मधुर कौर, जिनसे वैसे भी चुप नहीं रहा जाता, बोल पड़ी ‘‘लेकिन मिस्टर जनार्दन.....यह तो जगह ऑफिस की बातचीत के लिए नहीं है.....आप गलत जगह पर गलत कर रहे हैं....’’
‘‘हाँ,... लेकिन बोल कौन रहा है....मैं या आप....? और जब बोल मैं रहा हूँ तो आप केवल सुनें....’’
मेरा स्वर और रूखा हो गया। मैंने एक घूँट और लिया। बॉस ने भी समझ लिया कि मामला बिगड़ गया। उन्होंने मिसेज मधुर कौर की बात का समर्थन किया या शायद विषयान्तर करना चाहा तो मुझे और बुरा लगा, ‘‘आपने यहाँ मुझे इनवाइट किया है या.....मैंने आपको.....?’’
‘‘मैंने बुलाया है आपको ?....’’

‘‘तो फिर सुनिए मुझको.....आपका व्यवहार स्टाफ के लागों के साथ अच्छा नहीं है....’’ मैं घूम-फिरकर फिर उसी वाक्य पर आ गया। ‘‘नो....बॉस....नो....योर टेम्प्रामेण्ट ऐण्ड योर विहैवियर इज नॉट सैटिसफैक्टरी.....नो.....बॉस.....नो...।’’
वातावरण लगभग बोझिल हो गया था। बीवी को भी ग्लानि हो रही थी कि कहाँ से प्रसंग और क्यों शुरू हो गया था। साढे ग्यारह बजे के करीब हम बॉस के घर से निकले। रास्ते-भर बीवी ने कहा मैंने बॉस के साथ अभद्रता के साथ बातचीत की है जबकि मेरा कहना था कि मैंने जो कुछ भी किया बॉस के बारे में कहा वह बॉस के मुँह पर कहा है। पीठ पीछे बात करने वालों में मैं नहीं हूँ। यही मिसेज कौर वही मिसेज कौर हैं जिन्होंने बॉस के नए-नए आने पर महीनों तक दुनिया भर की बातें फैलाई थीं। मुँह पर कुछ और पीछे कुछ और इसी को बॉस आजकल गले का हार बनाए हुए हैं।....
‘‘आपको तो कुछ होश ही नहीं....पता है....कल पूरे ऑफिस में यही बात होगी कि मिस्टर जनार्दन ने शराब पीकर बॉस के घर में यह कहा.....वह कहा....ये किया.....वो किया......।’’
‘‘ मुझे पता है मैं भी वहीं काम करता हूँ,...और कहेगा कौन....?’’
‘‘जैसे जानते ही नहीं....कौन कहेगा....वही कहेगी सबसे....वही आपकी....मिसेज जहरीली कौर...और यहाँ दूसरा था कौन कि कहेगा....।’’

मुझे लगा कि बात दूसरी ओर मुड़ रही है और अगर दूसरी ओर मुड़ गई तो शायद कई दिनों तक मूड ऑफ रहेगा। बात को बिग़ड़ने से बचाने के लिए मैंने कहा, ‘‘अब मिसेज कौर अगर गंगा में गले तक डूबी हुई भी कुछ कहती हैं तो भी कोई यकीन नहीं करता....अपनी सारी क्रेडिबिलिटी वह खो चुकी हैं....।’’
‘‘मगर अपनी आदत नहीं....।’’
‘‘आदत...वह तो कभी नहीं जाती...।’’
बोझिल बातों के बीच हम अपने घर तक आए। रात बीती बात की तरह गुज़र रही थी...
कई घटनाएँ हैं....

बॉस जब कम्पनी के नए जी.एम. होकर आए और लगभग दो महीने तक अपने चेंबर तक ही सीमित रहे तो उनके बारे में अंहकारी होने, बददिमाग और खब्ती होने की बहुत-सी बातें फैलनी शुरू हुईं। ये बातें फैलकर चाहे जहाँ तक पहुँचतीं मगर शुरू होतीं मिसेज मधुर कौर की जुबान से...स्नाब...बायस्ड....कान का कच्चा...गुड्ड फॉर नतथिंग.....दिनभर अखबार पढ़ने और छह घण्टे में आठ कप्प चाय-शाय पीने के अलावा और क्या काम है इस आदमी के पास..सारा काम तो हम लोग करते हैं....ये तो केवल हुकम चलाता है....आदि विशेषण बॉस के लिए उनकी जुबान से झड़ते रहते थे। वो तो पता नहीं क्या हुआ कि बॉस उनके लिए दुनिया के सबसे बड़े हितैषी, हैण्डसम और क्यूट हो गए। कहने वाले इसे अंदर की कोई बात बताते हैं। बहरहाल, अचानक एक शाम जब ऑफिस बंद होने को था तो मैं दनदनाते हुए बॉस के चेम्बर में घुसा। बॉस भी हक्का-बक्का हुए मेरी ओर देखने लगे। दो-चार पलों की खामोशी के बाद मैंने कहा, ‘‘न तो आप अपनी माँद के बाहर निकले रहे हैं और न किसी को इसमें घुसने दे रहे हैं। इस तरह न तो रिश्ते बना करते हैं न निभा करते हैं और न कोई काम ठीक से होता है....उठिए सीट से....और, चलिए मेरे साथ...।’’

‘‘कहाँ....?’’ उन्होंने पूछा।
‘‘यह तो बाहर सड़क पर पहुँचकर सोचेंगे कि कहाँ चला जाए....’’
पता नहीं मेरे शब्दों का असर हुआ या बॉस का मन ही बाहर चलने को आया। वह अपनी सीट से उठ पड़े। अब हम सड़क पर थे। सड़क के दूसरी ओर बहुत करीब ही कंपनी ने बॉस को फ्लैट दिया था। बॉस ने जानबूझकर ऑफिस के पास फ्लैट पसंद किया था। जबकि मैं ऑफिस से लगभग आठ किलोमीटर दूर बीच शहर में रहता था। कंपनी की ओर से ट्रांसपोर्ट मिली हुई थी इसलिए आने-जाने की समस्या नहीं थी। बॉस ने चाहा था कि फ्लैट ऑफिस के करीब हो ताकि पैदल भी आसानी से पहुँचा जा सके। हालाँकि, कंपनी की ओर से बॉस को कार और ड्राइवर मिले हुए थे।
बाहर मौसम खुशगवार था। दिसम्बर की उस शाम साढ़े छह बज रहे थे। अंधेरा हो चला था। एक हाफ स्वेटर की ठंड थी मगर लोग-बाग इसे टाले हुए बिना स्वेटर के ही सड़क पर टहलते दिख रहे थे....
सड़क पर आकर बॉस ने पूछा ‘‘कहाँ चलना है....?’’

‘‘वैसे तो आज मेरी शादी की शालगिरा है.....इसलिए बेहतर तो यही होगा कि सीधे घर ही ले चलूँ...आज रात का खाना आप हमारे साथ ही खाएँ.....।’’ उन दिनों बॉस अकेले थे। उनकी बीवी उनके साथ आई तो थीं मगर उनका दिल न जाने शुरू में शायद लगा नहीं। बच्चों से पहली बार अलग हुई थी और यह अलगाव उन्हें बेहद तकलीफ दे रहा था। वह वापस दिल्ली चली गईं। मुझे याद आया कि उनके जाते ही मिसेज मधुर कौर ने कंपनी में फैला दिया था कि बॉस के उखड़े मूड का कारण उनकी बीवी है। जिसकी बीवी मेण्टल होगी वह खुद भी पागल होगा....
‘‘मुबारक हो पहले बताया होता तो कुछ लिया होता...गिफ्ट शिफ्ट...और लोग भी आएँगे क्या ?’’ बॉस ने जानना चाहा।
‘‘नहीं, और कोई भी नहीं हैं....बीवी को भी नहीं मालूम है कि मैं किसी को अपने साथ ला रहा हूँ...वह भी मेरे साथ यहीं काम करती है। शायद आप नाम से जानते हों....आज वह छुट्टी पर थी...।’’
‘‘अवंतिका जनार्दन.....।’’

‘‘जी हाँ......।’’
सड़क पर टैक्सी लेकर मैंने ड्राइवर से नाजदा स्ट्रीट चलने को कहा। रास्ते में बॉस ने कहा कि पहले किसी ऐसी दूकान पर चलें जहाँ फूलों का गुलदस्ता लिया जा सके।
फूलों की दूकान से उन्होंने ताजे फूलों का बुके बनवाया। मैंने मिठाइयों की दुकान से बर्फी और रसगुल्ले लिये। वहाँ से फ्लैट की दूरी तीन चार मिनट की थी। बॉस ने कहा फोन करके घर में बता दूँ कि साथ में कौन है। मैंने कहा इसे सरप्राइज ही रहने दिया जाए।

यकीनन पत्नी के लिए यह सरप्राइज ही था कि बगैर किसी पूर्व योजना के बॉस को मैं अपने फ्लैट पर ले आया। हमारे पारिवारिक रिश्तों की बुनियाद इसी मुलाकात के बाद प्रगाड़ होती गई थी। रात डिनर के बाद उनकी वापसी के लिए मैंने सड़क पर टैक्सी तय करते हुए ड्राइवर को सही ढंग से पता समझा दिया जहाँ उतरकर बॉस अपने फ्लैट तक आसानी से पहुँच सकते थे। मुलाकात में जो बातें पता चलीं उनके हिसाब से बॉस और मैं आदतों में दो विपरीत ध्रुव नज़र आए....
बॉस ने कभी शराब नहीं पी। मैं पीता हूँ। बॉस कभी एक दिन में एक पैकेट सिगरेट पीते थे। वन फाइन मॉर्निग उन्होंने छोड़ दी और फिर उसे हाथ नहीं लगाया। जबकि मेरे लिए वह फाइन मॉर्निग अब तक नहीं आई। मैं आज भी एक पैकेट ए डे पीता हूँ। बॉस पान मसाला कभी खाते थे। नोयडा में रहते थे और दिल्ली की एक फर्म में काम पर जाते थे। सुबह से शाम तक पान पराग का एक डिब्बा खा डालते थे। लेकिन एक दिन उन्होंने उसे भी हमेशा के लिए छोड़ दिया। छोड़ तो मैंने भी दिया। मैं बीस से चौबीस पाउच रोज खाता था। जर्दे वाला।

लेकिन अचानक एक दिन ऐसी हृदयविघात घटना घटी कि पान मसाला मेरी ज़िन्दगी से हमेशा के लिए ऐसा गायब हुआ कि मैंने कभी उसका नाम भी न सुना हो। हुआ यह कि जब पान मसाला खाते हुए मेरे दाँत मसूड़ों का साथ छोड़ने को आमादा हो गए तो मैं एक डैंटिस्ट के पास गया। उन्होंने मेरे दाँतों को देखने के बाद कहा, ‘‘पाँच दाँत निकालने होंगे...और...पान मसाला...और सिगरेट छोड़नी होगी...।’’ दाँतों में इतना दर्द था कि मुझे उस वक्त उनका हर सुझाव स्वीकार था। उन्होंने मेरे पाँच दाँत धीरे-धीरे हफ्ते-भर में निकाल दिए तीन नीचे के जो चौभर से मिले थे और दो ऊपर के जो उन्हीं दाँतों के ऊपर थे। उन्होंने दाँतों की कई बार सफाई भी की। हर बार उन्होंने कहा कि पान मसाला सिगरेट छो़ड़ दूँ तभी वे मेरे दांत देखेंगे। मैं उनसे वायदा करके उनके क्लीनिक से बाहर आता और पहला काम उनसे किया हुआ वायदा सिगरेट सुलगाकर तोड़ता। और उसके बाद पान मसाला जो कि बड़ी चोरी से मिलता उसे खरीदता और पूरा पाउच एक बार में ही मुंह के अंदर डाल लेता। डॉ. सॉब मेरी कमजोरी जान गये थे। वे समय के साथ मेरे मित्र बन गए थे। वे न तो सिगरेट पीते थे न ही शराब। एक किस्म के पक्के सूफी थे। कम से कम मैं तो इतना ही जानता था। जैसे-जैसे उनसे मित्रता गहराती गई। संबंध पारिवारिक होते गए और हाल यह होता गया कि डॉ. सॉब देर गई रात को फोन करते ‘‘चलो लंबी ड्राइव पर चलें।’’ और मेरी बीवी खीझते हुए कहती कि यह भी कोई टाइम हुआ लंबी ड्राइव पर जाने का। मैं जान छुड़ाने की गरज से कहता, ‘‘मैंने तीन पैग ले रखे हैं....।’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है कार मुझे चलानी है....तुम्हें नहीं...पाँच मिनट बाद बिल्डिंग के नीचे मेन रोड पर मिलो....।’’
हम लंबी ड्राइव पर जाते। दुनिया जहान की बातें होतीं। राजनीति, साहित्य, सिनेमा आदि विषय होते। डॉ. सॉब की मातृभाषा मलयालम थी। हिन्दी बहुत अच्छी नहीं थी। मगर समझ और बोल जरूर लेते थे। बरसों से खलीज में रहने के कारण उन्हें अरबी भी आती थी।
उनका पेशा ही ऐसा था कि अरबी जानना उनकी मजबूरी थी। उनके पास आनेवाले मरीजों में अरबी भी होते थे। कई एक वतनियों से संबंध भी थे। जब कभी मैं उनसे कहता कि शराब पीकर मैं कभी बाहर नहीं निकलता तो बोलते ‘‘मेरे साथ हो....चिन्ता की बात नहीं....कोई चेकिंग हुई तो किसी अरबी को फोन कर दूँगा....कोई-न-कोई आ जाएगा पुलिस से निपटने के लिए....।’’

वक़्त गुज़रता रहा...।
अचानक एक दिन उनकी मिसेज का फोन आया, ‘‘डॉक्टर इज नॉट वेल...।’’
मेरे लिए यह चौंकने वाली बात थी क्योंकि मैंने उन्हें बीमार पड़ते कभी देखा भी नहीं था। असल में मेरे मन में कहीं यह भी था कि डॉक्टर बीमार पड़ते ही नहीं। अगर डॉक्टर ही ठीक नहीं होगा तो दूसरे लोगों की देखभाल कौन करेगा। यह गलत धारणा मेरे मन में भी चाहे जैसी भी हो। मगर यह थी ज़रूर....
‘‘क्या हुआ है डॉक्टर को....?’’
‘‘कुछ पता नहीं....मफरक में एडमिट हैं....दो दिन हो गए चेक-अप चल रहा है.....।’’
‘‘लेकिन अचानक....।’’
‘‘हाँ...।’’
‘‘ठीक है....मैं कल शाम को विजिटिंग आवर्स में जाऊँगा...कोई घबराने की बात तो नहीं...?’’ मैंने उनसे पूछा तब तक उन्होंने फोन काट दिया। सूचना मिलनी थी। मिल गई। मफरक राजधानी का सबसे बड़ा अस्पताल है। शहर से काफी बाहर करीब 40 किलोमीटर दूर पर वाहन न हो तो आने-जाने में लगभग डेढ़ घंटे का समय लग जाता है। हर अस्पताल की तरह मफरक अस्पताल में भी मरीजों से मिलने का समय निर्धारित है। इतनी कडा़ई है कि स्टाफ से मिल-मिलाकर मरीज से मिल पाने की कोशिश बेमानी है....।

अगले दिन मैं उन्हें देखने गया। एक डॉक्टर को अस्पताल में मरीज के रूप में देखने का मेरा पहला मौका था। साथ ही यह बात भी पहली बार ही जानी कि डॉक्टर विग लगाते थे। बिना बालों का उनका पूरा गंजा सिर देखकर एक बार तो मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया। संयत होने पर मैंने अनुमान लगाया कि डॉक्टर की अवस्था 55-60 वर्ष के आसपास होगी। डॉक्टर की दो संतानें थीं। पहली बेटी जो स्वयं डॉक्टर हो गई थी। डॉक्टर सॉब ने दो वर्ष पहले उसकी शादी कर दी थी। वह अपने पति के साथ इंग्लैण्ड में थी। बेटा भी भारत में डाक्टरी पढ़ रहा था। वह सेकेण्ड ईयर में पढ़ता था। इन बातों को जानने के बाद भी मैंने कभी उनकी अवस्था के बारे में नहीं सोचा था। घने काले बालों का विग उन्हें जवान दिखने की कोशिश में हमेशा कामयाब रहा था। खासकर डॉक्टर की जिन्दादिली कमाल की थीं। उनकी मैडम भी हमेशा खुश दिखती थीं और अपनी उम्र से दस वर्ष कम की दिखती थीं। एक किस्म से परिवार खुशहाल था तो बुढांपे को उससे दूर ही रहना था। यह तो अचानक आया दुःख था कि मुझे उनकी अवस्था को लेकर सोचना पड़ा....

‘‘क्या हुआ डॉक्टर आप भी बिस्तर को बुला बैठे ?’’
‘‘कुछ नहीं जरा सी तकलीफ क्या हुई और मैं यहाँ पड़ा हूँ.....।’’ डॉक्टर को खाँसी का एक हल्का दौरा पड़ा। आँखें लाल हो गईं।
‘‘आप बोलें मत....।’’
‘‘नहीं, रोको मत....सुनो...अब ये लोग मुझे यहाँ से तावाम भेज रहे हैं....दे डाउट दैट आई एम सफरिंग विथ लंग्स कैंसर....मैं तुम्हें बता रहा हूँ...अब तक वाइफ को भी नहीं बताया है....।’’ जब डॉक्टर ने मुझे यह बताया तो उनकी मिसेज वहाँ नहीं थीं।
यह सुनकर और डॉक्टर के चेहरे को देखकर मैं एक पल के लिए सचमुच सन्नाटे की परिधि में आ गया। किसी तरह स्वयं को सामान्य दिखने की कोशिश करते हुए मैंने कहा, ‘‘डॉक्टर...यह बेकार बात है...यू....ऐण्ड....लंग्स कैंसर...नॉट मेडफॉर ईच अदर...।’’ मैंने डॉक्टर को हमेशा की तरह प्रफुल्लित देखना चाहा। मगर डॉक्टर....थे.....।



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