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युग पुरुष राम

अक्षय कुमार जैन

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4040
आईएसबीएन :81-7043-631-1

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प्रस्तुत है राम के जीवन पर आधारित पुस्तक..

Yug purush ram

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राम अमुक देश और युग से जड़ित नहीं रह गये हैं; वह घट-घट में रमे हुए मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रतीक हो गये हैं। हर युग को अवकाश है कि वह अपनी आकांक्षा-अभिलाषाओं को उनमें सम्पूर्ण बना देखे। वह राम इस तरह जातीय आदर्श हो गये हैं, जिनमें हर पीढ़ी अपनी ओर से कुछ-न-कुछ जोड़ती चली गयी है।
हमारा यह भारत देश इसी मानवोत्तर और लोकोत्तर रूप में राम को देखता और भजता आया है। यह रूप विविध है और उसमें नये-नये आविष्कारों के लिए अनन्त अवकाश हैं।

लेखक ने युगपुरुष राम को परम्परागत रूप में तो लिया ही है, साथ ही अपनी व्यक्तिगत कल्पना और स्पृहा से भी उसे मंडित किया है। यह अनुकूल ही है और अध्यारोप का कोई दोष इसमें नहीं देखा जा सकता। कारण, लेखक और पाठक की आस्था अभंग रहती है। विशेषकर दो स्थलों पर अक्षयकुमारजी ने नई उद्भावनाओं से काम लिया है। कैकेयी के राम-वनवास का वर माँगने में भरत-प्रेम से अधिक राम-प्रेम ही कारण दिखाया गया है। इसी भाँति रावण में राक्षस की जगह मनीषी मर्यादाशील विद्वान को देखा गया है। कैकेयी और रावण इन दोनों भूमिकाओं में समीचीन निर्वाह हुआ है और लेखक के लिए यह बधाई की बात है।
रामचरित्र के प्रेमियों के लिए यह पुस्तक मूल्यवान है।

भूमिका

राम भारतीय परम्परा के मूर्धन्य पुरुष हैं। जिन दो ध्रुवों  के बीच भारतीय संस्कृति इतिहास को चुनौती देती हुई आज तक अविच्छिन्न और अक्षुण्ण बनी रही है—वे हैं राम और कृष्ण। भारत ने उन्हें ऐतिहासिक से शाश्वतिक और नर से नारायण बना देखा है। उसके राम अमुक देश और युग से जड़ित नहीं रह गए हैं; वह घट-घट में रमे हुए मर्यादा पुरुषोत्तम के प्रतीक हो गए हैं। हर युग को अवकाश है कि वह अपनी आकांक्षा-अभिलाषाओं के उनके सम्पूर्ण बना देखे। इस तरह युग-युग में भक्तों और कवियों ने राम-चरित्र को नव-नवीन संस्करण दिए हैं। वह राम इस तरह जातीय आदर्श हो गए हैं, जिनमें हर पीढ़ी अपनी ओर से कुछ-न कुछ जोड़ती चली गई है। भूगोल और इतिहास से वह अतीत हैं और मानो मानवसन्दर्भ तक से उत्तीर्ण हैं।

हमारा यह भारत देश मानवोत्तर और लोकोत्तर रूप में राम को देखता और भजता आया है। यह रूप विविध है और उसमें नए-नए आविष्कारों के लिए अनन्त अवकाश है।
लेखक ने युग पुरुष को—परम्परागत रूप में तो लिया ही है, साथ ही अपनी व्यक्तिगत कल्पना और स्पृहा से भी उसे मण्डित किया है। यह अनुकूल ही है और अध्यारोप का कोई दोष इसमें नहीं देखा जा सकता। कारण, लेखक और पाठक की आस्था अभंग रहती है। विशेष कर दो स्थलों पर अक्षयकुमारजी ने नई उद्भावना से काम लिया है। कैकेयी ने राम-वनवास का वर माँगने में भरत-प्रेम से अधिक राम-प्रेम ही कारण दिखाया गया है। सूझ यह नई है और मार्मिक है। इसी भाँति रावण में राक्षस की जगह मनीषी मर्यादाशील विद्वान को देखा गया है। कैकेयी और रावण का इन दोनों भूमिकाओं में समीचीन निर्वाह हुआ है और लेखक के लिए यह बधाई की बात है।

पुस्तक में रामचरित के स्फुट प्रसंग है। वे समय का अन्तराल देखकर लिख गए और उनमें निश्चित अनुक्रम नहीं है। किन्तु कुल मिलाकर चरित्रों का अच्छा परिपाक हुआ है। यद्यपि जगह-जगह पर इच्छा होती है कि यहाँ दृश्य को विवशता मिली होती और तूलिका कुछ रुककर विरामता के साथ तो छटा और भर आती।
रामचरित के प्रेमियों के लिए पुस्तक विशेषतः उपादेय हो, हिन्दी-साहित्य के लिए भी मूल्यवान् अनुदान समझी जाएगी।

जैनेन्द्र कुमार

प्रस्तावना


भगवान् राम पर कुछ लिखना हर भारतीय के लिए गौरव की बात है। और जैसा कि आदरणीय श्री मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साकेत के प्रारम्भ में लिखा है—
‘‘राम तुम्हारा चरित्र स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य है।’’

राम की कथा लिखकर तो कोई भी लेखक बन सकता है। इसलिए अपनी लघुता का भान होते हुए भी मुझे इन पंक्तियों से सम्बल मिला।

इस ‘युग पुरुष राम’ को उपन्यास भी कहा जा सकता है क्योंकि इसमें रामजन्म से पूर्व से लगाकर उनके परमधाम को जाने तक की कथा वर्णित है। वैसे हर परच्छेद अपने में एक पूर्ण कहानी है, और पाठकों को यह कहानी—संग्रह भी लग सकता है।
इस कथा में एक लेखक के नाते मैंने थोड़ी स्वतन्त्रता बरती है, यद्यपि मूल कथा में कोई विशेष अन्तर नहीं है। ऋषि वाल्मीकि की रामायण, तुलसी का रामचरित मानस, कम्ब रामायण और श्री मैथिलीशरण का साकेत मुझे प्राप्त हैं और मैं उनका अध्ययन कर सका इस पुस्तक की कथा में इन सबका समावेश हो सकता है। वैसे कथा के जो उपेक्षित स्थल मुझे अच्छे लगे, कल्पना के आधार पर उन्हें मैंने लिख डालने का यत्न किया है। इसलिए मेरा यह निवेदन है कि पाठकों को जो कुछ इसमें से अच्छा लगे उसका श्रेय उपरोक्त ऋषि, सन्त और कवियों को है और जो अरुचिकर है वह मेरी लघुता की निशानी है।

जैसा कि मैंने स्वीकार किया कुछ स्वतन्त्रता मैंने बरती है, इसी कारण कथा के प्रवाह के लिए कुछ चरित्रों का निर्माण भी मैंने किया। भुवनेश्वर, चन्द्र, अनन्त, बच्छराज, अपाप, जयदेव, माधवी, प्रधान, भास्कर और दिनकर इसी प्रकार के काल्पनिक व्यक्ति भी मेरी कल्पना की उपज हैं। यह मैं इसलिए बता देना चाहता हूँ कि इन चरित्रों को किसी ग्रन्थ में खोजने का कष्ट पाठक न करें। हाँ, इस पुस्तक में रावण महापण्डित है और महारानी कैकेयी छोटी माता। उनमें निर्बलताएँ हैं पर महत्ता भी कम नहीं।

इस पुस्तक की कहानियाँ दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘नवभारत टाइम्स’ दैनिक पत्र में धारावाहिक के रूप में हर सोमवार को प्रकाशित हुई थी। उस समय पाठकों की ओर से जो पत्र मुझे प्राप्त हुए उनसे मुझे ऐसा लगा कि यदि इन सबको पुस्तकाकर कर दिया जाए तो अच्छा होगा। उन्हीं दिनों आत्माराम एंड सन्स के संचालक श्री रामलाल पुरी ने मुझसे इन्हें प्रकाशित करने के लिए माँगा तो मुझे प्रसन्नता हुई कि जो मेरी इच्छा ती वह पूर्ण हो जाएगी। आदरणीय श्री जैनेन्द्र कुमार ने पुस्तक की भूमिका लिखने की कृपा की है। उनके अति आभार प्रदर्शित करने की हिम्मत मैं न कर सकूँगा।

पुस्तक जैसी बन पड़ी आपके सामने है, इससे अधिक मुझे कुछ नही कहना।

अक्षय कुमार जैन


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