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हाईटेक

जनार्दन मिश्र

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :108
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4031
आईएसबीएन :81-89355-09-0

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आर्थिक और सामाजिक मकड़जाल को तोड़ती कहानियाँ....

Haitek

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


चर्चित कवि जनार्दन मिश्र जिनका समकालीन काव्य-संसार काफी व्यापक एवं समृद्ध है, उन्होंने कहानी की दुनिया में एक नई दुनिया तलाशने का कीर्तिमान प्रयास किया है। इनकी लगभग सभी कहानियाँ विशिष्ट पत्र-पत्रिकाओं में आ चुकी हैं एवं चर्चा के प्रमुख केन्द्र में रही हैं। जातीय चेतना से ओत-प्रोत इनकी भाषा पाठकों को कहीं से भी बोझिल नहीं बनाती बल्कि स्वर्स्फूर्त एवं गतिशील है। मानवीय संवेदना, जटिल यथार्थ एवं जीवन के प्रति स्पष्ट नई दृष्टि हर कहानी की भावभूमि है। आयातित विचार, छद्म दैहिक, दैविक, मानसिक, आर्थिक, एवं सामाजिक मकड़जाल से ऊपर उठकर लिखी हुई कहानियाँ अपनी कई क्षुद्र सीमाओं, वर्जनाओं एवं अतिक्रमणों को तोड़ने का साहसिक प्रयास करती है। सम्भवतः यह भी हो सकता है कि इन्हें तथाकथित आलोचकों एवं फार्मूलेबद्ध कहानीकारों के बीच लड़ते हुए घायल होना पड़े, फिर भी ये सुख-दुःख की अपनी जीवन-यात्रा अविराम गति से पूरी मजबूती के साथ जारी रखेंगी।

समर्पण


जो बर्बर आतंकवादी हरकतों व सांप्रदायिकता के शिकार हुए, भयंकर नरसंहार में मारी गयी औरतें, बच्चे एवं निरीह लोगों के प्रति...साथ ही साथ अपनी दिवंगता पत्नी जिसे प्यार से ‘मृजुले’ कहा करता था जो असामयिक हमें और अपने बाल बच्चों को अनाथ छोड़ गयीं...इन्हीं सभी की स्मृति में सादर नमन।
जनार्दन मिश्र

शीला


माघ की ठण्डक। शीला पटना जंक्शन पर गाड़ी से उतरी। रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे। टैम्पूवाले की आवाज देती हुई वह उसने बैग स्टेशन के बाहर एक बड़े चबूतरे पर रख दिया। एक टैम्पू उसके सामने आ रुका।
‘‘कहाँ चलना है मेम साब ?’’
‘‘बेली रोड जाऊँगी।’’
‘‘मैं बेली रोड ही जा रहा हूँ मेम साब !’’ टैम्पू ड्राइवर ने कहा।
शीला टैम्पू में बैठ गई। रास्ता उसका कुछ जाना-पहचाना था। साँय-साँय कर रही हवा उसके कलेजे को छलनी करना चाह रही थी। उसने अपने शरीर में स्वेटर और ऊपर से शाल डाल रखी थी। रेलवे क्रॉसिंग से आगे बढ़ते ही वह टैम्पू ड्राइवर को टैम्पू रोकने के लिए बोली। किराया चुकाई और बेलीरोड को बाएँ से दाहिने पार करती हुई ऑफिसर्स फ्लैट की ओर मुड़ गई।

सारा फ्लैट एक जैसा था। कोई बाहर नहीं दिख रहा था। कोई दिखाई पड़े तब तो वह क्वाटर नं. एक्स चार हजार पाँच पूछें ? काफी थकी लग रही थी। ऐसे वह सागर के पास एक बार आई थी जब उसने नई नौकरी ज्वायन की थी। उस समय वह किराए के मकान में रहता था।
एक क्वार्टर से सटे सर्वेण्ट-क्वार्टर में दो चार व्यक्ति आपस में बातचीत कर रहे थे। वे सब पुआल जलाकर आग ताप रहे थे। वह उन लोगों की ओर मुड़ गई। ‘‘क्या भाई। आप लोग मि. सागर शर्मा का क्वार्टर जानते हैं ?
‘‘हाँ ! हाँ !!’’ एक व्यक्ति ने कहा।
‘‘मगर मेम साब ! इतनी रात को आप उन्हें खोजने का कष्ट क्यों उठा रही हैं ?’’ दूसरे व्यक्ति ने सहानुभूति जताते हुए व्यंग्य के लहजे में पूछा।

‘‘भाई ! हमें उनसे आवश्यक सरकारी कार्यों से मिलना है,’’ शीला बोली।
‘‘तो मेम साब ! इस क्वार्टर के पीछे जो क्वार्टर है, वही सागर साहब का क्वार्टर है, एक व्यक्ति ने अपने हाथ से इशारा करते हुए कहा।
सागर के क्वार्टर का पता चल जाने पर शीला मन ही मन बहुत खुश हुई।
‘‘पता नहीं सागर होगा या सरकारी दौरे पर कहीं होगा। वह हमें सहसा देखकर जरूर चौंक उठेगा, कि तुमने अपने आने की सूचना पहले क्यों नहीं दी ? मैं तुम्हें रिसीव करने स्टेशन पर आ जाता’’, शीला के पैर और तेज बढ़ने लग गए थे।
क्वार्टर के सामने बिजली की चकौचौंध रोशनी थी। मुख्य गेट के दोनों किनारे अशोक के पेड़ और सामने शर्मा का बड़ा नेम प्लेट-सागर शर्मा उप-समाहर्त्ता लटका हुआ था। गेट पर शीला को देखकर बरामदे में बैठा विदेशी नश्ल का कुत्ता जोर-जोर से भौंकने लगा।

‘‘कौन ?’’ चौकीदार ने पूछा।
‘‘मैं हूँ’’, कुत्ते की कर्कश आवाज से डरती शीला ने कहा।
चौकीदार गेट के समीप आया। बरामदे में खड़ा कुत्ता धीरे-धीरे चुप होने लगा।
‘‘क्या काम है आपको मेम साब ?’’ चौकीदार ने चेहरे पर संशय लाते हुए कहा।
‘‘साहब से भेंट करनी है’’, शीला बोली।
‘‘साहब से तो अभी मुलाकात नहीं होगी, वे सो रहे हैं’’, चौकीदार ने कहा।
‘‘क्या उन्हें जगा नहीं सकते ?’’ शीला ने पूछा।
‘‘नहीं मेम साब ! इतनी हिम्मत हममें कहाँ’’, चौकीदार बोला।
‘‘साहब तो अकेले ही हैं ?’’ शीला ने पूछा।

शीला के इस तरह का प्रश्न देखकर चौकीदार पहले पेशोपेश में पड़ गया कि क्यों ये ऐसा प्रश्न पूछ रही हैं। फिर वह अपने को काफी बाँधते हुए बोला, ‘‘हाँ, साहब तो अकेले ही रहते हैं, कभी-कभार कोई मेम साब चली आती हैं। आज कोई नई मेम साब आई हैं। क्या आप भी वही हैं ?’’
‘‘तुम जो समझ रहे हो वह मैं नहीं हूँ, सरकारी पदाधिकारी हूँ। सरकारी कार्यों से आई हूँ, समझे ?’’ शीला ने कड़कते हुए कहा।
श्यामू को उस महिला के मुँह से सरकारी पदाधिकारी का नाम सुनते ही माथे से पसीना चलने लगा। वह भीतर से घबरा गया कि कहाँ उन्हें उठाऊँ और कहाँ बिठाऊँ। उसने अपने कन्धे पर रखा अँगौछा दोनों हाथों में झट से लिया और दोनों हाथ जोड़कर सिर झुकाया-
‘‘प्रमाण मैडम।’’
मेम साब का नाम सुनते ही शीला सन्न रह गई। उसका पूरा शरीर क्रोध से जलने लगा। अपने ऊपर काफी गम्भीरता रखती हुई वह चौकीदार से बोली-

‘‘क्या भाई ! मेम साब साथ क्यों नहीं रहतीं ?’’
‘‘पता नहीं।’’ चौकीदार ने कहा।
‘‘तुमने जानकारी नहीं की ?’’
‘‘यह साहब से हमें पूछने की औकात कहाँ ? एक दिन मैंने मेम साहब और बच्चों के बारे में पूछा था तो साहब क्रोध में आ गए थे, कहा थे कि तुम छोटा मुँह बड़ी बात करता है। फिर साहब से इस सम्बन्ध में कभी पूछताछ नहीं किया’’, चौकीदार ने धीरे से कहा।
‘‘यह मेम साब कहाँ से आई हैं ?’’
‘‘इन्हें तो मैं नहीं जानता। एक मेम साब यहाँ दस पन्द्रह दिन पहले आई थीं तो उन्होंने स्वयं कहा था कि श्यामू ! मैं मुजफ्फरपुर में नौकरी करती हूँ। तुम भी कभी साहब के साथ आ जाना। मगर देखिए न मेम साब ! हमें चौकीदारी से फुरसत मिले तब तो घूमूँ फिरूँ ? कहाँ टाइम है हमें ? रविवार और सारी छुट्टियाँ यहीं तरफदारी में गुजर जाती हैं’’, चौकीदार ने कहा।

‘‘तो तेरा नाम श्यामू है ?’’
‘‘जी !’’
‘‘अच्छा श्यामू ! अब साहब से कल सुबह ही भेंट होगी। क्या मेरे ठहरने का इन्तजाम कर सकते हो ?’’
‘‘जी मेम साब ! ठहरने की व्यवस्था अभी कर देता हूँ। ड्राईंग रूम में बाहर से ताला लगा है, चाभी मेरे पास है, आप वहाँ आराम करें। क्या आप खाना खा चुकी हैं ?’’ श्यामू शीला की ओर देखते हुए बोला। ‘‘मैं खाना खा चुकी हूँ श्यामू ! इतना ही सहारा काफी है’’, शीला बोली।
शीला ड्राईंग रूम के अन्दर चली गई। रूम का दरवाजा उसने भीतर से बन्द कर लिया। ड्राईंग रूम में हल्की दूधिया रोशनी पसरी थी। गद्देदार सोफे और फर्श खूबसूरत कालीनों से भरे-पड़े। टेबुल पर रखे गुलदस्तों में ताजे फूलों के गुच्छे अपनी खुशबू बिखेर रहे थे। दीवार पर टँगे प्राकृतिक दृश्यों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें मनमोहक लग रही थीं। कोने में रखा छोटा टेबुल और उस पर चोंगा उतारकर रखा हुआ टेलीफोन सेट।

शीला ने अपना बैग टेबुल पर रख दिया और धीरे से सोफे पर बैठ गई। उसने ड्राईंग रूम में करीने से रखे हर वस्तु पर बारी-बारी से नजरें टिकाना आरम्भ कर दिया।
वह पटना में सागर के पास दूसरी बार आई थी। पहली बार वह आई थी जब सागर ने राजपत्रित पदाधिकारी की ट्रेनिंग पूरी कर पटना कलक्टेरियट में ज्वायन किया था। करीब दस पन्द्रह दिन साथ रहकर राँची वापस लौट गई थी।
शीला अपने माँ बाप की अकेली सन्तान है। उसके पिताजी उसकी शादी होने तक उसे दर्शनशास्त्र में बी.ए. आनर्स की पढ़ाई पूरी करवा चुके थे। शादी होने के बाद उसने एम.ए. किया। पटना विश्वविद्यालय में दर्शन में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। सागर की इच्छा से ही उसने राँची कॉलेज राँची में पढ़ाने का कार्य आरम्भ किया था। वह नौकरी में आना नहीं चाहती थी, पर सागर के कहने पर ही कॉलेज ज्वायन किया था।

कॉलेज की नौकरी में योगदान देते समय की बातचीत जो सागर से उसकी हुई थी वह एक-एक कर आने लग गई, उसके स्मृति पटल पर ठीक किसी सिनेमा के रील की तरह। वह सोचते-सोचते काँप गई थी।
‘‘क्या मैं नौकरी ज्वायन कर लूँ ?’’
‘‘कर लो।’’
‘‘कैसी रहेगी मेरी नौकरी ?’’
‘‘ठीक ! बहुत ठीक !!  तुम कुलपति तक पहुँच सकती हो। मान प्रतिष्ठा मिलेगी तुम्हें। मेरा नाम रौशन करोगी’’, सागर हँसते हुए बोला था।
‘‘लेकिन सागर ! यदि तुम्हारी नौकरी कहीं दूर लग गई तो क्या होगा ? कैसे कटेगा हम दोनों का जीवन ?’’
‘‘कहना क्या चाहती हो शीला !’’ सागर शीला की पीठ थपथपाते हुए बोला।
‘‘हमें कहते हुए बहुत डर लगता है सागर ! शीला धीरे से बोली।
‘‘पर क्यों ?’’
‘‘हम दोनों का जीवन नीरस और दूभर हो जाएगा न ?’’
‘‘कैसे ?’’ सागर से पूछा।

‘‘क्योंकि अलग-अलग रहना ठीक नहीं होता’’, शीला बोली।
‘‘क्या तेरा विश्वास मुझ पर से उठ गया है ?’’ कैसी अनर्गल बातें करती हो...? हम पर पूरा विश्वास करो शीला। सागर बोल रहा है, तुझसे, समझी ?
‘‘नदी देखी है न !’’
‘‘हाँ ! देखी है।’’
‘‘नदी के दोनों किनारे न चाहते हुए भी एक दूसरे से अलग रहते हैं।’’
‘‘अरी पगली ! नदी के दोनों किनारों के बीच से ही धारा बहा करती हैं। हमारे बीच भी धारा ठीक इसी तरह बहा करेगी’’, सागर अपनी आँखें शीला की आँखों में डालकर बोला था।

गरीब घर का लड़का सागर ने अपनी पढ़ाई काफी मेहनत से पूरी की थी। पढ़ाई में उसके पिता पर काफी कर्ज आ गए थे। सागर की इच्छा कभी लेक्चचर बनने की होती तो कभी प्रशासन में जाने की। अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के बाद उसे कई कॉलेजों से ऑफर मिले थे। सरकारी नौकरी में अच्छा बँगला, गाड़ी एवं चपरासियों की सुविधा। सरकार की कृपा हुई तो टेलीफोन के साथ-साथ एयर-फ्लाइट भी नसीब हो सकता है। कॉलेजों में सुविधा के नाम पर क्या है, शून्य। प्रिंसिपल रहता तो थोड़ी बात बनती। अब तक पढ़ाई से जूझते रहने के बाद फिर किताब और विद्यार्थियों से माथापच्ची करना अच्छी बात नहीं। दो पैसे के लिए ट्यूशन करो, फिर कॉपियों में नम्बर बढ़वाने के लिए दौड़- धूप और लोगों की खुशामद यह काम मुझसे नहीं होगा, भले कोई और करे ?

पहली तैयारी में ही सागर बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया था। उसे उप समाहर्त्ता का कैडर प्राप्त हुआ। प्रशिक्षण उसने राँची के ए.टी.एस. में प्राप्त किया।
शीला के पिता कमल नारायण राँची के वरिष्ठ पदाधिकारियों में से एक थे। प्रशिक्षण संस्थान की ओर से वे दो-तीन माह पर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों को सिखाने पढ़ाने के लिए सादर आमन्त्रित किए जाते। सागर अपने बैच में सबसे तेज तर्रार था। अकसर क्लास में वह कोई न कोई प्रश्न प्राध्यापकों से पूछ बैठता। कमल नारायणजी से उसका परिचय प्रशिक्षण के दौरान ही हुआ था।

ऐसे कमलनारायणजी के कद्र प्रायः सभी लोग करते। सरल था उनका व्यक्तित्व। वे बुजुर्ग थे ही साथ में अनुभवों के काफी धनी माने जाते। काफी चुस्त-दुरुस्त समय पर कार्यालय जाना, फाइलों को ठीक से रखना, विभागीय टिप्पणी की ठीक से पढ़ना और अपनी सही टिप्पणी लगाना। फाइलों का शीघ्र निष्पादन करना वे अच्छी तरह जानते थे। ईमानदारी में तो उनका कोई शान नहीं थी, राजनेताओं की पैरवी भी उन तक नहीं पहुँच पाती थी, किसी का नहीं सुनते, सुनते तो बस अपनी आत्मा की आवाज। उनकी ईमानदारी के कई किस्से राँची के लोगों में रच-बस गए थे। यही कारण है कि वे आज तक सरकार के लिए सरदर्द थे।

सागर एक दिन शाम में कमलनारायणजी से मिलने उनके निवास पर गया। कमलनारायणजी घर पर थे। सागर को आया देखकर वे काफी खुश हुए। उन्होंने अपने लम्बे प्रशासकीय कटु अनुभवों को सागर को एक-एक कर सुनाया। उस दिन सागर को उनसे काफी सीखने- समझने का मौका मिला। उनकी बेटी शीला नाश्ता -चाय रख आई थी। सागर को वहाँ काफी देर हो जाने पर उन्होंने उससे भोजन कर लेने को कहा। उनकी बेटी शीला ने अपने हाथों खाना परोसा। खाना बहुत स्वादिष्ट और विविध व्यंजनों से भरा। सागर ने बहुत पसन्द से भोजन किया। कमलनारायण जी से विदा लेते समय शीला ने भी उसे नमस्ते कह विदा दी थी।


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