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कविता संग्रह >> नीरज दोहावली

नीरज दोहावली

गोपालदास नीरज

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4023
आईएसबीएन :9788170435013

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प्रस्तुत हैं नीरज के दोहे...

Neerj Dohavali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


गीत-सम्राट नीरज जी उन कुछ व्यक्तियों में हैं जो अपने जीवन काल में ही किंवदन्ती बन जाया करते हैं। गत शताब्दी के वे ही एक ऐसे गीत-पुरुष हैं जो निरन्तर साठ वर्षों तक काव्य सृजन में संलग्न रहकर आज तक हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि बने हुए हैं। सिर्फ देश में ही नहीं, अमरीका, कनाडा, लन्दन, आस्ट्रेलिया आदि सुदूर विदेशों में भी उनके पाठकों और श्रोताओं की संख्या लाखों में है। उनकी रचनायें बहुआयामी और भाषा-भेद से ऊपर हैं, इसीलिए उर्दू भाषा-भाषियों के बीच भी वो उतने ही प्यार से सुने और सराहे जाते हैं जितने कि हिन्दी पाठकों के बीच। पद्मश्री, यश भारती, रजतश्री, साहित्य वाचस्पति, टैगोर वाचस्पति, डी.लिट्. (मानद) आदि अनेक अलंकरण और उपाधियाँ जो उन्हें प्राप्त हुई हैं, वे सब उनकी लोकप्रियता के समक्ष फीकी पड़ जाती हैं।

 हम सन् 1955 से निरन्तर उनकी कृतियों का प्रकाशन करते रहे हैं और अब तक उनके कितने ही संस्करण हम छाप चुके हैं। आज हमें उनकी नवीनतम ‘नीरज दोहावली’ प्रकाशित करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है। जीवन और जगत के भिन्न-भिन्न पक्षों पर उनके ये दोहे निश्चित ही जन-जन का कंठहार बनेंगे और तुलसी, रहीम, कबीर, बिहारी, आदि की परम्परा को एक नया रूप प्रदान करेंगे। उनका ये कथन बिलकुल ही उपयुक्त हैं-


‘‘दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी जन्में अर्थ नवीन।’’

इस संग्रह के सम्बन्ध में


दोहा हिन्दी काव्य की सर्वाधिक लोकप्रिय एवम् प्राचीनतम विधा है। अपभ्रंश, प्राकृत पाली भाषाओं से लेकर खड़ी बोली तक इसकी धारा अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होती रही है। कबीर, नानक, दादू, मलूक आदि अनेक सन्तों ने अपनी अनुभूतियों को दोहे के माध्यम से ही व्यक्त किया है।

तुलसी, जायसी, रहीम और बिहारी की लेखनी का स्पर्श पाकर अनुभूति की गहराई के साथ-साथ उसने अपार लोकप्रियता भी प्राप्त की है। आज भी भारत के नगर-नगर गाँव-गाँव में इन कवियों के दोहे सामान्य जन के होंठों पर रचे-बसे हैं। पिछले दशक में जिस प्रकार हिन्दी में ग़ज़ल लेखन की बाढ़-सी आई थी-अब कुछ वैसी ही लोकप्रियता दोहे को भी प्राप्त हो रही है। दोहे की लोकप्रियता का यह एक अकाट्य प्रमाण है।

प्रस्तुत दोहावली में वर्तमान परिवेश-जन्य राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि अनेक विकृतियों को उजागर करने के साथ-साथ मैंने श्रृंगारपरक और नीतिपरक दोहों की भी रचना की है। इसके अतिरिक्त कुछ दोहों में मैंने महापुरुषों और सन्तों की सूक्तियों का अनुवाद भी किया है। यह सूक्तियाँ इतनी मार्मिक, इतनी अर्थवान और इतनी प्रेरणा दायिनी हैं कि इन्होंने मेरे कठिन क्षणों में मुझे बड़ी शान्ति प्रदान की है। उन सूक्तियों में दिया हुआ सन्देश यदि किसी एक भी हारे-थके पाठक में नयी उमंग और नयी स्फूर्ति भरने में सहायक सिद्ध हुआ तो मैं इसे अपने प्रयास की अन्यतम सफलता मानूँगा।

इस संग्रह की प्रेस कॉपी तैयार करवाने में श्री आरिफ फैज़वी ने मेरी बड़ी सहायता की है और श्री सुशील पुरी (व्यवस्थापक आत्माराम एण्ड सन्स) ने इसे लायब्रेरी तथा पाकेट बुक्स संस्करणों दोनों ही रूपों में प्रकाशित किया है, इसलिए दोनों ही महानुभावों के प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।
जनकपुर, अलीगढ़

नीरज

1

हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।

2

हे लम्बोदर है तुम्हें, बारंबार प्रणाम
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।

3

मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।


4

गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार।

5

मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।

6

शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।

7

मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।

8

स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।

9

गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।


10

नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।


11

मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म।

12

भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम

13

तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।

14

मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।

15

अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।

16

जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।

17

हमने इक परिवार ही, माना सब संसार
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।

18

आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
किसी व्यक्ति के लिये है, कवि होना सौभाग्य।

19

दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।

20

निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।

21

गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।

22

जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।

23

झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।

24

दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।

25

ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।


26

प्रलय हुई जब-जब हुई, गीतों की लय वक्र
सदा गीत की लय रही, सकल सृष्टि का चक्र।

27

सरि-सागर-अम्बर-अवनि, सब लय से गतिमान
लय टूटे जब प्राण की, हो जीवन अवसान।

28

अपनी भाषा के बिना, राष्ट्र न बनता राष्ट्र
वसे वहाँ महाराष्ट्र या, रहे वहाँ सौराष्ट्र।

29

हिन्दी विन्दी भाल की, उर्दू कुण्डल केश
जब ये दोनों ही सजें, सुन्दर दीखे देश।

30

गीत वही है सुन जिसे, झूमे सब संसार
वर्ना गाना गीत का, बिलकुल है बेकार।

31

बड़े जतन के बाद रे ! मिले मनुज की देह
इसको गन्दा कर नहीं, है ये प्रभु का गेह।

32

अन्तिम घर संसार में, है सबका शमशान
फिर इस माटी महल पर, क्यों इतना अभिमान।

33

जो आए ठहरे यहाँ, थे न यहाँ के लोग
सबका यहाँ प्रवास है, नदी-नाव संयोग।

34

रुके नहीं कोई यहाँ, नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह को, कोई जाये शाम।

35

रोते-रोते जायँ सब, हँसता जाय न कोय
हँसता-हँसता जाय तो, उसका जनम न होय।

36

मिटती नहीं सुगंध रे ! भले झरें सब फूल
यही सार अस्तित्व का, यही ज्ञान का मूल।

37

फल तेरे हाथों नहीं, कर्म है तेरे हाथ
करता चल सत्कर्म तू, सोच न फल की बात।

38

तन तो एक सराय है, आत्मा है मेहमान
तन को अपना मानकर, मोह न कर नादान।

39

है गिरने को ही बना, तन का सुन्दर कोट
देख काल है कर रहा, पल-पल इस पर चोट।

40

श्वेत-श्याम दो रंग के, चूहे हैं दिन-रात
तन की चादर कुतरते, पल-पल रहकर साथ।

41

बिखरी तो रचना बनी, एक नवीना सृष्टि
सिमटी जब इक बिन्दु में, वही बन गई व्यष्टि।

42
प्रेय-श्रेय के मध्य है, बस इक झीना तार
प्रेम-वासना मोक्ष सब, हैं इसके व्यापार।

43

लोभ न जाने दान को, क्रोध न जाने ज्ञान
हो दोनों से मुक्ति जब, हो अपनी पहचान।

44

चलती चाकी काल की, पिसे सकल संसार,
लिपट गए जो मूठ से, पिसे न एकहु बार।*

45

धन तो साधन मात्र है, नहीं मनुज का ध्येय
ध्येय बनेगा धन अगर, जीवन होगा हेय।

46

जिस कारण कंदील ये, धरे अनेकों रूप
स्थिर रहती ज्योति वो, हर दम एक स्वरूप।
 
47

धरती घूमे कील पर, घूमे किन्तु न कील
ब्रह्म ज्योति सम थिर सदा, माया सम कंदील।

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*कबीर पुत्र कमाल का वक्तव्य
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48

हस्ताक्षर तेरे स्वयम्, भाग्य-नियति के लेख
औरों को मत दोष दे, अपने अवगुण देख।

49

मिट्टी का विस्तार है, ये सारा संसार
मिट्टी को मत खूँद रे, कर तू इससे प्यार

50

मिट्टी तो मिटती नहीं, बदले केवल रूप
कभी बने ये कोयला, हीरा कभी अनूप।

51

दृष्टा दृश्य न भेद कुछ, है मन का भ्रम-जाल
मन को कर ले अमन तो, भेद मिटे तत्काल।
 
52

गति-यति का ही नाम है, जनम-मरण का खेल
चलती-रुकती, दौड़ती, जैसे कोई रेल।

53

तन तो ये साकेत है, और हृदय है राम
श्वास-श्वास में गूँजता, पल-पल उसका नाम।






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