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नारी विमर्श >> कैंजा

कैंजा

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4007
आईएसबीएन :81-216-0937-2

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एक ऐसी युवती की व्यथा-कथा जो कुआंरी होकर माँ का पराया बोझ ढोती रही...

kainja

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘‘पूछता है, मां, यह कौन है ! अरे; यह क्या तेरी मां है ? यह तो मेरी कैंजा है, कैंजा – तेरी सौतेली मां। मां तो तेरी मर गई...।’’ विमाता के लिए पहाड़ के उस डंक देने वाले संबोधन की सम्पूर्ण व्याख्या ही तो बुढ़िया उसके निर्दोष पुत्र को समझा गई थी।
‘‘कौन कहना है, मैं तेरी कैंजा हूँ, पगले ! कौन...!’’ पर हँसकर उसे बहलाने की लाख चेष्टा करने पर भी रोहित की कैंजा फिर हंस नहीं पाई।
एक ऐसी युवती की व्यथा-कथा, जो कुँआरी होकर माँ का पराया बोझ ढोती रही और फिर उसे लगा कि वह तो उसका ‘अपना’ ही है।
हिन्दी कथा-साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय लेखिका शिवानी की लेखनी से एक मर्मस्पर्शी उपन्यास तथा कुछ सशक्त कहानियां।

किस्मत क्या उसकी रूप-छटा
दिखाने सुरेश को भट्ट का वहां खींच लाई थी ? कत्थई रंग की साड़ी में निखर आया
उसका कुमाऊनी रंग, कान के
ऊपर ढल गए दो बुरुंश-पुष्प और चिकने कपोलों
पर झलक रहे अश्रुबिंदु।....‘नाश हो
स्वर्ग की मेनका का !’ हँसकर उस विचित्र
प्रणयी ने उसे घेर लिया था...शिकारी
के जाल में फंसी हिरनी-सी वह छटपटा
रही थी...शिवानी आज की श्रेष्ट कथाकार हैं।
नारी-मन की रहस्यमय गुत्थियों का
जैसा चित्रण उन्हों किया है
वह दुर्लभ है। ‘कैजा’ उनका एक लघु उपन्यास है,
जो उनके कथा- साहित्य की एक
सशक्त कड़ी है,.....साथ ही पढ़िए लेखिका की
कुछ चुनी हुई कहानियां।

कैंजा


स्टेशन के कोलाहाल और भीड़ के बीच भी लोग उसे मुड़-मुड़कर देख रहे थे। दराबी-से लम्बे कद की उस तेजस्वी महिला का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि आंखें अनायास ही उसके चेहरे पर गड़ जाती थीं। आकाशी नीलवर्णी साड़ी में उसका गौर वर्ण और भी निखर आया था। उसी रंग के स्लीवलेस ब्लाउज से निकली बांहों की हस्तदंती शुभ्रता, पुष्ट कलाई पर बंधी चौड़े पट्टे में जड़ी घड़ी अंगुली पर चमक रही गोमेद जड़ी बहुत बड़ी अंगूठी और कांख में दबा ब्रीफकेस सा चौड़ा बटुआ, सब कुछ उस विराट व्यक्तित्व के अनुकूल था।

गाड़ी छूटने ही को थी, पर नंदी तर्वे, पुत्र का हाथ पकड़े, बड़े धैर्य की डगें भरती, अपनी रिज़र्वेशन स्लिप ढूंढ़कर चढ़ गई। हड़बड़ी में किया गया कोई भी काम उसे पसंद नहीं था। घुंघराले सुनहरे बालों और नीली आंखों वाला वह ब्लांड बालक, चेहरे-मोहरे से एकदम ही विदेशी लग रहा था। उम्र कठिनता से नौ-दस की होगी, किन्तु चेहरे पर किसी अनुभवी प्रौढ़ पुरुष की सी दृढ़ता थी। न उसकी चाल में बालसुलभ चापल्य था न व्यवहार में। मां की अंगुली पकड़े, वह ऐसे ठसके से कबूतर-सा अपना नन्हा सीना ताने चल रहा था जैसे भीड़ की रेलपेल से बचती मां उसे नहीं, वह ही मां को लिए जा रहा हो। नीले कॉर्डरॉय की हाफ पैंट से निकली उसकी गोरी पुष्ट टांगें दर्पण-सी चमक रही थीं।

माता-पुत्र के चेहरे में कोई साम्य नहीं था, फिर भी दृढ़ता से भींचे गए उन्हें होंठों में, भीड़ भड़क्के के प्रति उदासीन तटस्थता में वयस का व्यवधान दोनों को स्पर्श भी नहीं कर पाया था। लगता था, प्रौढ़ा मां के अस्वाभाविक गांभीर्य ने उस बालक की स्वाभाविक चंचलता को असमय ही ग्रस लिया है। गाड़ी चली और चश्मा लगाकर नंदी तर्वे ने अखबार फैला लिया, तो पुत्र ने भी बैग खोलकर अपनी कॉमिक बुक निकाल ली। गाड़ी के झकोलों के बीच उसका गंभीर चेहरा कॉमिक के प्रसंगों से बचकानी खुशी में रंग जाता और कभी-कभी वह अपने-आप खिलखिला उठता। मां चश्मे को अपनी तीखी नाक पर तनिक खिसकाकर पुत्र के खिले चेहरे को स्नेह-विगलित दृष्टि से देख, फिर अखबार में डूब जाती। दूसरी सीट पर बैठी एक ऐंग्लो-इंडियन महिला माता-पुत्र की उस अनूठी जोड़ी को बड़ी देर से देख रही थी सौ फीसदी भारतीय लग रही मां और एकदम खांटी अंग्रेज लग रहे उस बालक को देख वह अंत तक अपना कौतूहल नहीं रोक पाई।

‘‘आप भी क्या नैनीताल जा रही है ?’’ उसने पूछा।
नंदी चौंकी। अब तक डिब्बे में कोई और भी है, यह शायद उसने देखा भी नहीं था।
‘‘जी नहीं।’’ दो टूक उत्तर देकर उस वाचाल अपरिचिता के मुखर प्रश्न को बड़ी रुखाई से झाड़- झूड़कर बाहर फेंक दिया और फिर उसी तटस्थता से अखबार पढ़ने लगी।
पर वह भी क्या हार मानने वाली थी। ‘‘आपके पास तो दो ही कम्बल हैं, रजाई नहीं लाईं क्या ? आजकल तो पहाड़ में बहुत ठंड है। कहीं बाहर से आई हैं लगता है ?’’

‘‘जी हां।’’ नंदी के उत्तर में अब झुंझलाहट की स्पष्ट छाप उभर आई थी। उस रुखाई से दिए उत्तर के पश्चात् फिर मार्ग भर उस महिला के कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ और वह अपने ऊपर की बर्थ पर चुपचाप सो गई। साथ लाई अंडे की सैंडविच खाकर, मां बेटे भी अगल बगल की बर्थ पर लेट गए थे। पुत्र तो तकिया पर सिर रखते ही सो गया, किन्तु मां की क्लांत आंखों में नींद नहीं थीं। यात्रा से एक-एक अंग पके फोड़े-सा ही दुख रहा था, फिर भी चेष्टा करने पर भी वह सो नहीं पा रही थी। जिस जन्मभूमि की धरा पर मृत्युपर्यत कभी पैर न धरने का निश्चय कर इस दुधमुंहे को लेकर निकल गई थी, आज विषम परिस्थितियां उसे फिर वहीं खींच लाई थीं, किन्तु घर से पांव बाहर निकालते ही अब उसे अपने अविवेकी अभियान की मूर्खतापूर्ण योजना पग- पग पर और भी दुर्बल बना रही थी। बिना सोचे-समझे वह कैसी मूर्खता कर बैठी ? जिद तो रोहित ने ही की थी, किन्तु क्या एक बालक का कौतूहल ही उसे इतने वर्षों पश्चात् बिछुड़ी जन्मभूमि की ओर खींच रहा था ? क्या इन दस वर्षों में वह स्वयं उस निर्दय की तृषार्त-करुण आंखों की स्मृति में बैचैन करवटें नहीं बदलती रही है ? ‘मूर्ख मूर्ख नंदी तिवारी’ हिचकोले खाती रेलगाड़ी जैसे उसे झकझोरकर कहती जा रही थी। ‘समय रहते ही क्या तुम अपनी भीरुता से छुटकारा नहीं पा सकती थीं ?’

बगल की बर्थ में रोहित अभी भी बेखबर सो रहा था। सारी रात करवटों में ही कट गई थी, इसी से नन्दी का सिर लोहे-सा भारी हो गया था। ऐंग्लो-इंडियन सहयात्रिणी किछा में ही उतर गई थी और अब वह पुत्र के साथ अपने डिब्बे में अकेली थी। लालकुआं आया तो वह बड़े उत्साह से उठकर खिड़की के पास बैठ गई। सामने फैली धूमिल पर्वत-श्रेणियों को वह एकटक बड़ी देर तक देखती रही। खिड़की से आती सूर्य की नवश्मियां रोहित के गोरे-गोल चेहरे पर सुनहला जाल सा बिखेर रही थीं। लच्छेदार सुनहले केश, नन्हें-नन्हें कुण्डल बन, पूरे ललाट पर बिखर गए थे। दोनों हाथ छाती पर धरे वह शायद नींद में भी अपने आदर्शी पिता को ही देख रहा था। नन्हें खुले अधरपुट से स्मित छिटककर, गोल चिबुक पर छलक गया था। नंदी का कलेजा ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। दो ही रातों में जैसे यह अबोध बालक उसकी आंखों के सामने देखते-देखते ही बदल गया था। ओफ ! प्रकृति ने क्या जानबूझकर ही उसका एक-एक नक्शा, इस यात्रा से पूर्व उसकी मां के सांचे में ढालकर बदल दिया था जिससे वह बिना किसी परिचय के भी अपने जनक के सामने खड़ा हो तो उसका कलेजा भी नंदी के कलेजे-सा धड़क उठे। निश्चय ही, यह अनुपम चेहरा, बिना किसी प्रयास के ही स्मृतियों की अर्गला खिसका पिता के वर्षों से भिड़े अतीत के द्वार खोल सकता था। वैसे गंभीर सौम्य मूर्ति, स्नेहशीला नंदी ने कभी उसे पिता का अभाव नहीं खटकने दिया था। कौन से ऐसे खिलौने हो सकते थे जो उसके पास नहीं थे ? एक से एक दामी कपड़े, मनपसंद कहानी की पुस्तकें, तरह-तरह के जूते और मुंहमांगी मिठाइयां। क्या नहीं था उसके पास ! फिर भी सब कुछ देकर भी नंदी को यही लगता कि उसे कुछ देना रह गया है। एक दिन स्वयं उसी बालक के भोले प्रश्न ने फिर उसे कुछ देना रह गया है। एक दिन स्वयं उसी बालक के भोले प्रश्न ने फिर उस कमी को स्पष्ट कर उसे विचलित कर दिया था। जीवन के बत्तीस वर्षो में कभी मन से भी मिथ्या संभाषण न करने वाली नंदी तिवारी क्या उसे अपने झूठे उत्तर की भूलभुलैया में भटकाने का दुस्साहस कर सकती थी ? रोहित स्कूल से लौटकर आया तो उसके सुकुमार चेहरे पर उस दिन नंदी को न जाने कैसी उदासी तिरती दिखी।

‘‘क्यों बेटा, आज उदास क्यों हो, कुछ बैंडर्स तो नहीं पड़े ?’’ नंदी ने हँसकर पुत्र को पास खींच लिया। वैसे उस शांत बालक को आज तक कभी स्कूल में अध्यापकों ने फूल की छड़ी से भी नहीं छुआ था। रोहित निरुत्तर सिर झुकाकर खड़ा हो गया था। यही उस बालक के विचित्र स्वभाव की विशेषता थी। कभी बालक के विचित्र स्वभाव की विशेषता थी। कभी-कभी पलक झपकाते ही तितलियों के पीछे भागने वाला, मित्रों की टोली के साथ छत पर धमाचौकड़ी मचा कटी पतंग की डोर लूटने वाला वह चंचल शोख नन्हा दस्यु, न जाने किस सोच-विचार में उलझ, एक अजीब दार्शनिकता के गांभीर्य से अपना बचकाना चेहरा प्रौढ़ बना लेता।

‘‘क्या बात है रोहित ?’’ नंदी का स्वर एकदम फुसफुसाहट में उतर आया।
उस प्रश्न के उत्तर में रोहित के प्रश्न के जवाबी हमले के लिए नंदी प्रस्तुत नहीं थी। ‘‘मेरे डैडी कहां हैं मां ?’’
एक पल को नंदी का चेहरा सफेद पड़ गया, किन्तु फिर अपने अपूर्व साहस से हँसकर तने रोहित को गोदी में खींचने की व्यर्थ चेष्टा की।
‘‘क्यों रे, आज तुझे अचानक अपने डैडी की याद कैसे आ गई, आज तक तो तूने कभी नहीं पूछा ?’’
‘‘आज तक तो मुझसे भी किसी ने नहीं पूछा।’’ उसने अपने झुके चेहरे को उठा, जिस दृष्टि से नंदी को देखा वह तीखे भाले के फाल-सी उसके कलेजे में भीतर तक धंस गई।
‘‘आज किसने पूछा ?’’ नंदी का स्वर अचानक कठोर हो उठा। आज ही वह उन दुष्ट छोकरों की शिकायत स्कूल के प्रिंसिपल से करेगी। पर दूसरे ही क्षण उसका कलेजा डूब गया। किस-किसका मुंह रोक सकती थी वह ! ‘‘कितने तुझसे पूछा रोहित ?’’
मां के आहत कंठस्वर ने एक क्षण को उसे चौंकाया, फिर उसने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘सब कहते थे, तुम्हारे डैडी कहां हैं, और...’’ वह फिर रुक गया।
‘‘और क्या कहते थे ?’’ नंदी कुर्सी का हत्था पकड़ अकारण ही ऐसे हांफने लगी जैसे मीलों चलकर आई हो।
‘‘और कुछ नहीं कहते थे, बस बार-बार यही पूछते जाते थे और हँसते थे। कह रहे थे, कल अपनी मां से पूछकर आना तुम्हारे कोई डैडी हैं भी या नहीं।’’

रोहित ने कमीज की बांहों से अपनी आंखें पोंच लीं। पिता के संदेहास्पद अस्तित्व ने उसके नन्हें कलेजे को बुरी तरह आतंकित कर दिया है, यह नंदी समझ गई। दस वर्षों में वह क्या इस विचित्र बालक की विलक्षण प्रतिभा का यथेष्ट परिचय प्राप्त नहीं कर चुकी थी ? गंधर्व-किन्नर-सा वह देवदत्त बालक क्या साधारण मानवशिशु-सा भोला अनजान था ? न जाने क्यों, कभी-कभी उसकी मायावी आंखों की चमक नंदी को बुरी तरह सहमा देती थी। मन की भाषा पढ़ लेने वाले इस अलौकिक पुत्र की उपस्थिति में मिथ्या भाषण उसके लिए सर्वथा असंभव हो उठता। किसी अनुभवी घाघ थानेदार की सी उसकी सर्वव्यापी दृष्टि वर्षों के फरार खूनी को भी देखते ही पहचान लेती थी। कभी-कभी तो नंदी को लगता, उसके कुछ न बताने पर भी वह स्वयं सब कुछ जान गया है। ‘‘अपने साथियों से कहना’’, नन्दी का हाथ पुत्र के सिर पर था और खोई सी दृष्टि खुली खिड़की के बाहर। वहां होकर भी वह जैसे कहीं दूर चली गई थी-‘‘तुम्हारे डेडी पहाड़ में हैं और हम चार-पांच दिनों में ही उन्हें लेने पहाड़ जा रहे हैं।’’
‘‘सच मां !’’ रोहित की आंखें, कांच के रंगीन लट्टुओं-सी ही चमकने लगीं।’’ कब जाएंगे मां ?’’
उस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला, तो रोहित ने अधैर्य से अपना दूसरा प्रश्न पूछ लिया, ‘‘मैं अब अपने नाम के साथ डैडी का नाम भी लिख सकता हूं न मां, सब लड़के लिखते हैं ?’’
ठीक ही कह रहा था। वह सौराष्ट्र की जिस सरल बिरादरी में वह इस अबोध शिशु को लेकर घुलमिल गई थी, उसके सामाजिक आईन-कानूनों को भी तो उसे ग्रहण करना पड़ेगा।
मां के सहसा उस प्रश्न के साथ गुमसुम बन गई देख, रोहित सकपका गया था। रुआंसे स्वर में उसने फिर अपनी दलील को स्पष्ट किया था, ‘‘मेरी क्लास के सब लड़के अपने नाम के साथ अपने पिता का नाम लिखते हैं, मैं कल तुम्हें हरित रमण, सबकी कापियां लाकर दिखा दूंगा। हरितलाल जयंतीलाल पटेल, रमणकांत जयकांत देसाई। और भी सब लड़कों के नाम खूब बड़े-बड़े हैं। मुझसे सब कहते हैं, तू तो खाली रोहित चंद्रा लिखता है, यह भी भला कोई नाम है ?’ मेरे डैडी अपने नाम के आगे क्या लिखते हैं मां ?’’

दीन करुण, सकुचाए स्वर में पूछे गए उस प्रश्न का उत्तर फिर बड़ी स्वाभाविकता से स्वयं ही नंदी के ओठों पर फिसल गया था। ‘‘तेरे डेडी का नाम सुरेशकुमार भट्ट है रोहित।’’
‘‘ओह, जानती हो अब मेरे नाम के आगे क्या लिखा जाएगा ?’’ उसका उत्तेजित स्वर एकदम तीखा हो गया था-‘‘रोहितकुमार सुरेशकुमार भट्ट।’’ और फिर वह दूसरे ही दिन, अपने सहपाठियों से सीना तानकर कह आया था कि वह अपनी मां के साथ अपने पिता को लाने पहाड़ जा रहा है।
पुत्र की इस घोषणा के पश्चात् नंदी के लिए वह पहाड़ यात्रा अनिवार्य हो उठी थी। भावुकता के क्षणिक आवेश में आकर वह आंखें बंद कर जिस अंधे कुएं में कूद गई थी, वहां से अब लौटने का कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता था। हो सकता था, शरीर पर निरन्तर अत्याचार करने वाला वह दुराचारी प्रकृति से मृत्युदण्ड पा चुका हो। और यह भी संभव था कि फिर से विवाह कर, वह अब तक ऐसे बीसियों रोहितों का पिता बन चुका हो। ग्राम की उस कुख्यात पार्वती को ब्याहने, जब वह बिना किसी बारात के अकेले ही जा रहा था, तो नंदी के सामने ही उसे मुंहफट ताई ने टोक दिया था-अरे सुरिया, और कोई नहीं जुटी तुझे ? कोट कचहरी तक हो आई है अभागी, सुना मिशन में एक बेटा भी पल रहा है-छि-छि, थू-थू ! शादी से पहले जिसका एक हो गया...’’

‘‘अरे बुबू,’’ बेशरम ने हँसकर जोर से शायद इसीलिए कहा था कि पास खड़ी नंदी भी सुन ले ‘‘क्यों परेशान होती हो। उसके तो शादी से पहले एक ही है, मेरे तो शादी से पहले ऐसे ही न जाने कितने हैं।’’ और सचमुच ही वह दुस्साहसी वेश्या, दुराचारिणी पार्वती को ब्याह लाया था। एक-दो महीने के असीम लाड़-दुलार के पश्चात् फिर उसने अपनी उसी नवेली को पहाड़ी दमामे-सा ही पीटना आरम्भ कर दिया और साल बीतते न बीतते पीटपाट उसकी धज्जियां उड़ीं दी। पार्वती की मृत्यु के पश्चात् वह फिर किसी नागा साधुओं की टोली के साथ, दिगंबर बना बद्रीनाथ की ओर निकल गया तो ग्रामवासियों ने सुख की साँस  ली थी-चलो पाप कटा, कुकर्मी को सुमति तो आई। गांव की बहू-बेटियां अब निश्चित होकर घास काटने जा सकती थीं, नहीं तो सुरेश भट्ट का आतंक कुमाऊं के उस क्रूर नरभक्षी से क्या कुछ कम था, जिसके पेट से मारने पर, कार्बेट ने कितनी ही रूपसी षोडशियों के कंकण और मूंग की मालाएं बरामद की थीं ? जिसे अंग्रेजी में लेडी किलर कहते हैं वही था सुरेश भट्ट।

उस कद्दावर पहाड़ी जवान का रंग, कुमाऊं के शाहों और ऊंचा कद वहां के क्षत्रियों का था। कभी-कभी सनक सवार होने पर वह कोसी नदी की धोखेबाज तीखी धार में ताल की पुष्ट मछली-सा ही उछलता और किसी पेशेवर गोताखोर की भांति डुबकी लगा घंटों तक डुबकियां लगाता बड़ी दूर तक निकल जाता। फिर धोती की लांग लगा, किनारे बैठ नाक के नथुने मूंद, बकोध्यान लगा, घड़ी के कांटे के साथ स्कूल जा रही नंदी तिवारी की प्रतीक्षा में बैठ जाता। वह जैसे ही आती, मुंदी पलकों की चिलमन उठा वह ज़ोर से हांक लगाता, ‘नाश हो इस स्वर्ग की मेनका का, जिसने मुझ जैसे विश्वामित्र की तपस्या भंग की।’

साथ ही स्कूल जा रही ग्राम कन्याओं की पूरी टोली खिलखिलाकर पूरी घाटी गुंजा देती। अकेली नंदी ही नहीं।हँसती, उसका चेहरा लाल पड़ जाता और वह तेजी से भागकर अपनी टोली से आगे निकल जाती। वह प्रायः नित्य की घटना थी। स्कूल जाने के लिए और कोई पगडंडी भी उपलब्ध भी नहीं थी, इसी से उसी मार्ग से जाना उसके स्कूली जीवन की विवशता बन गई थी। मेनका वही है, यह सब लड़कियां जान गई थीं, क्योंकि कभी वह किसी कारणवश स्कूल नहीं जाती, तो वह निर्लज्ज हँसकर हांक लगाता, अरी छोरियो मेरी मेनका को कहां छोड आईं ? बीमार है क्या ?’

लड़कियां खिलखिलाकर भाग जातीं और स्कूल से लौट, नंदी को छेड़ने पहुंच जातीं। कभी-कभी तो नंदी की आंखें छलछला उठतीं। न चाहने पर भी, उसकी दृष्टि क्यों उस नासपीटे की ओर उठ जाती थी ? गोरी-चिट्टी सिल-सी छाती पर पड़ी यज्ञोपवीत की उज्ज्वल डोरी, बिना पुंछी शुभ्रवर्णी रजत देह पर मोती-सी चमकती पानी की बूंदें और स्वयं ही सीधी मांग में विभक्त हो गए चिकने भीगे केश ! सकपकाकर वह ऐसे भागने लगती जैसे वह बकोध्यान छोड़, उसे पकड़ने उसके पीछे-पीछे भाग रहा हो। वह फिर बिना पीछे मुड़े स्कूल की ओर चल देती, किन्तु नारी स्वभाव की एक-एक जटिल पगडंडी से परिचित, वह कुटिल यायावर जान जाता कि उसका बकोध्यान व्यर्थ नहीं गया। एक न एक दिन वह इस दुर्गम बीहड़ पगडंडी को भी जीत ही लेगा। पर एक दिन गांव के स्कूल की सब परीक्षाएं पास कर, वह पढ़ने बाहर चली गई तो सुरेश भट्ट का दिल डूबने लगा। इतने वर्षो की उसकी साधना क्या व्यर्थ जा रही थी ? दिन प्रतिदिन वह बित्तेभर की छोकरी अपनी उसी उदासीन तटस्थता से दूर छिटकती जा रही थी और सुरेश भट्ट की वही कुंठा, नैराश्य, विवशता उसे और दुस्साहसी बना रही थी, और भी क्रूर !

आज से बीस वर्ष पूर्व, विवाह सम्बन्धी कुमाऊंनी आईन कानून बेहद कठोर थे। एक विशिष्ट संकुचित वैवाहिक दायरे में विवशता से घूमते माता-पिता कभी-कभी अपने से नीचे वर्जित कुल में उसके लाख समृद्ध होने पर भी पुत्री को ब्याहने की धृष्टता नहीं कर सकते थे। चाहे वह चिर दरिद्र ही क्यों न हो चाहे पुत्री जन्म-भर के दाने को ही क्यों न तरसती रहे, जा माता यदि अपने उच्च कुलगोत्र सौ फीसदी विशुद्ध था। मजाल थी कि कोई विशाण के भट्टों की ओर अंगुली तो उठा दे। एम.ए. पास कर उसने सम्मान-सहित वकातल भी पास कर ली थी। कभी जमीन जायदाद घर बगीचा सब कुछ था, किंतु द्यूतक्रीड़ा का दानव सिंदबाद के बूढ़े की भांति उसके कंधे पर, जहां एक बार चढ़ा तो फिर कभी नहीं उतरा। पिता की मत्यु के पश्चात् उसकी पूरी जायदाद बैंक में गिरवी पड़ी थी और अब उसे छुड़ाना उसके लिए एक प्रकार से असंभव था। फिर विधुर होने पर, जोगियों की जमात उसे गांजे चरस, की दम दीक्षा भी दे गई थी। पहले संतानहीन चाचा गदाधर भट्ट उसके साथ रहते थे, फिर भतीजे की गुहामानव की सी गतिविधि देख, वे एक दिन चुपचाप खिसक गए।

चाचा के जाने के बाद उसने चूल्हा जलाना भी छोड दिया। आंगन में खड़े मौसली फलों के वृक्ष उसके लिए कल्पतरु से साल भर भलते रहते। कभी अनार से मीठे दाड़िम, कभी सेव और कभी नाशपाती खुबानी। कभी-कभी तो वह महीनों अपने बगीचे के उन पुष्ट कदली गुच्छों को खाकर गुजार देता, जिसका तीन-तीन पाव का एक केला खाकर ही पेट भरा जा सकता था। शायद उसी नियमित फलाहार के कारण उसका अनियमित जीवन भी कभी उसके स्वास्थ्य का कोई स्थायी अनिष्ट नहीं कर पा रहा था। एक अंधेरे कमरे में उसका एक छोटा-मोटा सेलर भी था। धारचूला जाकर वह प्रायः ही गर्ब्यांग के अनूठे आसव की बोतलें खरीद लाता और अपने सेलर को संवारकर जाड़े भर का समुचित प्रबन्ध क लेता। उसी विशुद्ध आसवप्रदत्त लालिमा से रंगी उसकी लाल डोरीदार आंखें कभी-कभी कपाल पर चढ़ जातीं। दोनों गालों पर बिखरी सुखी और मस्तानी निगरगंड देह का तारुण्य देख, नंदी को अपनी अलंकार दीपिका में पढ़ी पंक्तियां याद हो आतीं-


रंग लाल रूप लाल
अधर अधिक लाल,
दृगन बीच कोरे लाल
डोरे लाल झलकें।


नौकरी ने करने पर भी वह कहां से ऐसे बढ़िया-बढ़िया शाल-दुशाले ले आता है और कहां से इतनी पुस्तकें बटोर लाता है, यह ग्रामवासियों के लिए एक ऐसा रहस्य था, जिसकी गुत्थियां वे अनुमान के ढेले मार-मारकर सुलझाते रहते। कोई फुसफुसाकर कहता, ‘कल अस्कोट गया था हरामी जुआ खेलने। वहीं के रजवाड़े के रईसों को मूंड लाया होगा।’
   

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